Lata evening - 1 in Hindi Moral Stories by Rama Sharma Manavi books and stories PDF | लता सांध्य-गृह - 1

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लता सांध्य-गृह - 1

प्रथम अध्याय
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आज मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ क्योंकि मैंने अपनी पत्नी लता के एक अहम स्वप्न को साकार रूप दे दिया है।आज हमारे वृद्धराश्रम का आधिकारिक रूप से शुभारंभ हो गया है, जिसमें फिलहाल मुझे लेकर कुल सात सदस्य हैं।दस कमरों में बीस लोगों के निवास की व्यवस्था है।हर कमरे से मिला हुआ लैट-बाथरूम है।यदि पति-पत्नी हैं तो दोनों एक कमरे में रहते हैं, अन्य कमरों में दो-दो महिलाएं या दो पुरुष रहते हैं।एक साथ दो लोगों का रहना इसलिए भी आवश्यक है कि पता नहीं रात-बिरात कब किसी को क्या परेशानी होने लगे तो दूसरा व्यक्ति किसी को सहायता के लिए पुकार सकता है।
मैं स्वयं अपने जीवन के संध्याकाल में प्रवेश कर चुका हूं।मेरी पत्नी दो वर्ष पूर्व मेरा साथ छोड़कर अपनी माँ अम्बे के धाम को प्रस्थान कर गईं।जब भी मैं उनके बुढ़ापे को लेकर चिंतित होता था तो वे हमेशा कहती थीं कि मैं तो 60 तक स्वर्गवासी हो जाऊंगी।एक अजब आत्मविश्वास था उनके मन में अपनी इस धारणा के प्रति, जबकि मुझे पूर्ण विश्वास था कि अपने पिता की भांति मैं 65 की आयु तक विष्णुधाम को प्रस्थान कर जाऊंगा, इसीलिए मैं आज के युग की विसंगतियों को देखते हुए उनके सुरक्षित वृद्धावस्था के लिए धन एवं घर की व्यवस्था कर देना चाहता था।
उन्होंने पूरी जिंदगी मेरी ज्यादातर बातों का कभी भी विरोध नहीं किया था।यदि असहमत होतीं तो एक बार अपना विचार अवश्य व्यक्त कर देतीं।परन्तु यह दूसरी बार था जब उन्होंने अपनी बात को सही सिद्ध कर दिया और मेरी पूरी जिंदगी की जीत हार में बदल गई।।हालांकि जीवन-मृत्यु तो ईश्वर के हाथ में है, किंतु मेरी पत्नी के दृढ़ विश्वास को उनकी आराध्या देवी मां ने पूर्ण कर दिया।
पहली बार वे दृढ़संकल्पित थीं बेटे के स्वप्न को पूर्ण करने के लिए।बेटे ने अपने कैरियर के लिए जिस लक्ष्य को चुना था, पसंद तो हम दोनों को ही नहीं था, परन्तु हम अपनी इच्छा अपनी सन्तान पर थोपने के पक्षधर नहीं थे।इस मामले में हमारे विचार एक थे कि बच्चों को उनका करियर चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए, हम बड़ों को सिर्फ उनका मार्गदर्शन करते रहना चाहिए।
मैंने सिर्फ लता जी का अनुमोदन किया था, किंतु बेटे की लक्ष्य सिद्धि के लिए रास्ते का चुनाव उन्होंने ही किया था।अक्सर बेटे के मासिक ख़र्च के लिए निर्धारित धनराशि को लेकर मैं उनपर नाराज हो जाता था कि तुम दोनों धन का अपव्यय कर रहे हो,जिसपर कभी वे मुझे समझाने का प्रयास करतीं एवं कभी खामोश रहकर बेटे के सफलता की प्रतीक्षा करतीं।तमाम उतार-चढ़ाव के मध्य उन्हें अपने बेटे के निर्णय एवं जुनून पर पूर्ण विश्वास था, जिसे ईश्वर की कृपा तथा अपने परिश्रम से उसने सत्य सिद्ध कर दिया।आज वह अच्छी सफलता प्राप्त कर अपने परिवार के साथ सुव्यवस्थित हो चुका है।वह साथ रहने के लिए बार बार आमंत्रित करता है,किंतु मैं उनके परिवेश में स्वयं को सहज नहीं पाता हूँ।मैं कभी-कभी उसके पास जाता रहता हूँ उससे मिलने,कभी समय निकालकर वह आ जाता है।वैसे भी आजकल ज्यादातर युवा एवं हमारी पीढ़ी के मध्य जो अंतराल है, वह वैचारिक मतभेद दोनों पक्ष दूर नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि वे हमारे हिसाब से चल नहीं सकते एवं हम अब उनके अनुकूल परिवर्तित नहीं हो सकते।
मैं जब लता जी से कहता कि मेरे बाद तो आपको बेटे के साथ रहना होगा तो वे तुनककर कहतीं कि अव्वल तो ऐसा होगा नहीं और यदि दुर्भाग्य से ऐसा हुआ भी तो जबतक मेरे हाथ-पैर चलेंगे, मैं तो स्वतंत्र रहूंगी और अपने घर को वृद्धराश्रम में परिवर्तित कर दूंगी, जिससे सब वृद्ध एक दूसरे के साथ सुख -दुःख बांटते,सहारा बनते समय व्यतीत करेंगे क्योंकि हमउम्र होने के कारण सबकी मनःस्थिति एक सी रहेगी।
उनके जाने के बाद कुछ समय तक तो मैं सदमें में रहा क्योंकि अकेले रहना अत्यंत दुष्कर एवं कष्टकारी था।जब कभी वे 10-15 दिनों के लिए मायके या बेटे के पास जातीं तो भी यह अहसास तो रहता था कि वे जल्दी ही आ जाएंगी, परन्तु अब तो यह स्थाई तन्हाई है।अब एकांतवास में अक्सर विगत जिंदगी की विवेचना करने लग जाता था।
हमारे विचार कभी नहीं मिले।वे थोड़ी आधुनिक विचारधारा की पक्षधर थीं एवं मैं थोड़े पुराने संस्कारों का हिमायती था।हम दोनों अक्सर असहमत रहते।इसके बावजूद आज मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि हमारा प्रेम असीमित था और प्रेम करने के लिए विचारों की साम्यता कतई आवश्यक नहीं है।प्रेम हृदय का ऐसा भाव है जो मन से मन को अटूट बन्धन में बांध देता है,शरीर एक माध्यम मात्र है।
हां, यदि वैचारिक मतभेद न हों तो वैवाहिक जीवन का निर्वहन सुगम हो जाता है।वैसे पूर्ण साम्य असम्भव भी है क्योंकि पति-पत्नी दो अलग परिवेश,परवरिश एवं मस्तिष्क के स्वामी होते हैं, अतः रिश्ते को निभाने के लिए सबसे आवश्यक होता है सामंजस्य,स्नेह एवं सम्मान एक दूसरे के प्रति।
मैं थोड़ा क्रोधी स्वभाव का था, शीघ्र ही आपा खो बैठता था, परन्तु वे अत्यधिक सहनशील थीं।कभी कभी तो उनका मौन मेरे क्रोधाग्नि पर पेट्रोल का भी कार्य कर देता था।मुझे कभी कभी ऐसा प्रतीत होता कि मां-बेटा मिलकर एक हो जाते हैं एवं मैं अकेला पड़ जाता हूँ।
न जाने वह मेरा पुरुषगत अहम था या शायद हम पुरुष महिलाओं की मनःस्थिति समझ ही नहीं पाते।आज विचार करता हूं कि वे सही कहती थीं कि बड़ी बातें तो विरले ही होती थी, हमें जिंदगी में छोटी छोटी ख्वाहिशों को पूरे करते रहना चाहिए।उनकी वे छोटी छोटी मांगें मुझे अनावश्यक प्रतीत होतीं, इसलिए मैं उन्हें नजरअंदाज कर देता था।
शायद मैं भविष्य की सुरक्षा योजनाओं में इतना मशगूल हो गया कि वर्तमान को बिल्कुल ही भुला बैठा।आज मैं निःसंकोच स्वीकार करता हूँ कि मैं वर्तमान एवं भविष्य में संतुलन नहीं बिठा सका,किन्तु अब पछताए होत क्या।बीता समय तो लौटने से रहा।
मेरे एक परिचित थे मास्टर साहब।रिटायरमेंट से कुछ समय पूर्व उनकी पत्नी स्वर्गवासी हो गईं।बेटे के सुव्यवस्थित होते ही वे वर्ष में लगभग 6 माह तीर्थयात्रा पर रहते थे।लता जी अक्सर मजाक करतीं कि मुझे तो कभी घुमाने ले नहीं जाते, मेरे जाने के बाद मास्टर साहब की तरह तीर्थयात्रा करते रहना।उनके जाने के बाद एक -दो जगह मैं गया भी, किंतु मेरा मन लगा नहीं, क्योंकि उनकी हार्दिक इच्छा थी मेरे साथ देशाटन करने की, जो खास पूर्ण न कर सका मैं।
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क्रमशः….
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