Mangalkamna in Hindi Moral Stories by Shaily Khadkotkar books and stories PDF | मंगलकामना

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मंगलकामना

मंगलकामना

‘टिन-टिन,टिन-टिन, जय गणेश…. जय गणेश...!’ ऊपर के फ्लैट से हवा में तैरती मद्धम स्वर लहरियाँ श्रद्धा के कानों में पड़ी और उसके हाथों ने काम की रफ्तार बढ़ा दी| अब मातारानी, भोले भण्डारी की आरतियाँ, उसके बाद धूप-कपूर की महक का एक झोंका उसके किचन में चला आएगा, फिर तुलसी जी को जल चढ़ाया जाएगा, जिसके छींटे श्रद्धा की बालकनी तक आएंगे और बस अगले 8-10 मिनिट के अंदर लिफ्ट उसके फ्लोर पर होगी, जिसमें मौजूद होगी, वह| श्रद्धा एक क्षण को ठिठकी, हाथ में पकड़ी थाली पलटकर उसमें अपनी छवि देखने का प्रयास किया, क्या वह मुस्कुरा रही है?

श्रद्धा खुद हैरान है| उसकी निरर्थक सुबहों और बोझिल दोपहरियों का जैसे मकसद मिल गया हो| बंजर भूमि पर जीवन की कोंपले उग आई हैं| और वजह, एक बेहद नामालूम, साधारण-सी गृहणी, जिसका कुछ दिनों पहले तक वह नाम भी नहीं जानती थी, वह जो उसकी स्वाभाविक उपेक्षा का विषय थी और अब जाने क्यों उस पर दुलार उमड़ आता है|

और जो कोई पूछे कि दोनों के बीच रिश्ता क्या है, तो क्या कहे? बस इतना कि वह सोहलवें फ्लोर के, श्रद्धा के ठीक ऊपर वाले, अपने वन बीएचके फ्लैट से साढ़े बारह के आस-पास लिफ्ट में सवार होती है और अमूमन इसी समय श्रद्धा पंद्रहवें फ्लोर पर दफ्तर के लिए लिफ्ट का इंतजार करती मिलती है| दोनों ने पंद्रहवे फ्लोर से ग्राउंड फ्लोर तक का सफर कई बार साथ तय किया है, जिसमें आपसी संवाद के इने गिने अवसर भी श्रद्धा की तल्खी की भेंट चढ़ चुके हैं| सख्त मिज़ाज और बेरूखे व्यवहार के चलते यूँ भी सोसायटी या ऑफिस में उसके परिचय का दायरा बहुत सीमित रहा है, फिर ‘लिफ्ट मेट्स’ से तो कर्ट्सी स्माइल का आदान-प्रदान भी उसके नियमावली में नहीं रहा|

दरअसल श्रद्धा ने महानगर चुना ही इसलिए था कि यह सवाल नहीं पूछता| यहाँ कोई मलहम नहीं लगाता तो जख्म कुरेदने भी नहीं आता| आउटसोर्सिंग कंपनी है, अच्छा पद, भरपूर पैसा और बेतहाशा काम| इतना कि वह खुद को काम में झोंक देती है, बिसूर देती है| शिफ्ट का विकल्प था, पर उसे दोपहर 2 से रात 10 की शिफ्ट बेहतर लगी| रेगिस्तान की रेत जैसी खाली शामें गुजारना उसके लिए कितना मुश्किल होता, वह जानती है| सुबह देर से सोकर उठती है और रात 11.30-12 तक इस कदर बेदम होकर लौटती है कि मन भी सहम कर कोने में दुबक जाता है| न पहले की तरह भविष्य के कैक्टस में उलझाता है, न अतीत के बियाबान में धकेलता है| ऑफिस से पिक एंड ड्रॉप सुविधा मिली हुई है| हालांकि ऑफिस के पास ही कंपनी का फ्लैट भी मिल रहा था पर ऑफिस कलिग्स से दूरी बनाए रखने के लिए उसने यह फ्लैट किराए पर ले लिया|

पहले-पहल छोटे शहर की लड़की को इस तरह देर रात अकेले लौटना अजीब लगता लेकिन अब उसे रात सुहाती है| बल्कि दिन का उजाला उसे छलावा लगता है, जहाँ किसी के अस्तित्व का प्रमाण उसकी परछाई है, ‘यानि भ्रम सत्य को सिद्ध करता है, श्रद्धा सोचती, ‘इससे तो रात भली, जहाँ इंसान खुद परछाई बन जाते हैं और रात उनके चारों ओर गहरी खामोशी की चादर लपेट उन्हें दिलासा देती हैं|

वीकली ऑफ भी बहुत सोच-समझकर बुधवार को लिया है| दिनभर घर–बाहर के काम निपटाना, शाम ढले सो जाना और रात को अपनी पसंद का कुछ बनाकर कोई फिल्म या वेब सीरीज देखना, यही है छुट्टी काटने का उसका तरीका| लेकिन अचानक जैसे नीम बेहोशी टूट गई हो, सुप्त इंद्रियाँ जागृत हो गईं हो, किसी ने बरसों से जमी धूल की परतें झाड़कर साफ कर दी हो|

श्रद्धा ने पहली बार उसे देखा लगभग तीन महीने पहले, दिन तो उसे ठीक-ठीक याद नहीं पर वाकया अब भी ताज़ा है| रोज़ की तरह अपने ज़रूरी कागज़ात, लैपटाप, आदि सामान समेटती, ऑफिस के विचारों मे उलझी, वह बेपरवाही से लिफ्ट में घुसी| शायद 3-4 लोग और होंगे| थोड़ी देर बाद उसे लगा कि कोई कुछ कह रहा है| उसने पलटकर देखा तो 25-26 वय की एक देहाती-सी युवती ज़ोर से आंखे मींचे धीमे-धीमे कुछ बुदबुदा रही है| फूलों के प्रिंट वाली साड़ी, मंगलसूत्र, चूड़ी, बिंदी और हाथ में डलिया| ग्यारहवें फ्लोर पर लिफ्ट रुकी और उसने तड़ाक से आंखे खोली| श्रद्धा को अपनी ओर देखते पाया तो झेंप गई, “हम पहले भी बैठे हैं लिफ्ट में पर इत्ते ऊंचे माले वाली नहीं थी न इस कारन थोड़े हड़बड़ा गए हैं|” उसके माथे पर चमचमाती सिंदूरी पट्टी के आजू-बाजू नज़र आ रहीं पसीने की बूंदों में सिंदूरी आभा उभर आई थी| श्रद्धा ने कोई जवाब नहीं दिया| आठवें फ्लोर पर लिफ्ट रुकी और उसने बेचैनी से पूछा, “आ गया निचला माला?” श्रद्धा ने ना में सिर हिलाया| तीसरे फ्लोर पर फिर वही| श्रद्धा ने खीझकर देखा| उसकी तीखी दृष्टि से वह हिरनी-सी सहम गई| यही था उनका प्रथम परिचय|

अगले दिन वह फिर नज़र आई| शुक्र था, ऊपर से आती कोई हाउस-हेल्प साथ में थी, जो अपने बेलौस अंदाज में उसे दिलासा दे रही थी, “जा में का डरने की बात है, एँ? हम तो खुदई दिन में पचासों बार ऊपर नीचे करत है| जा बिल्डिंग में एक लिप्टई तो है, जो सई से चलत है|” वह दाँत निपोर कर बोली| श्रद्धा ने एक उड़ती-सी नज़र डाली, वह और संकुचित-सी हो आई|

एक दिन छोड़ वह फिर साथ थी| उस दिन कोई अंकल भी थे, जो बड़े मनोयोग से उसे लिफ्ट ऑपरेटिंग समझा रहे थे| नीचे आते ही वॉचमैन दौड़ा आया, “जय राम जी जिज्जी, ऊपर जाना हो तो हमें बुला लेना, इधर कुर्सी पर बैठे हैं| रफीक, लिफ़्टमैन अपना, छुट्टी पर गया है|”

‘4-8 दिनों में क्या कॉन्टेक्ट्स बनाए हैं? हद है!’ श्रद्धा ने मुंह बिचकाया| वॉचमैन बिल्डिंग के बाहर मिल जाए तो श्रद्धा उसे पहचान तक न पाए और लिफ्टमैन नाम का जीव इस जगह अस्तित्व में यह ज्ञान भी उसे आज ही प्राप्त हुआ है| लिफ्ट में वह या तो मैसेज चेक करती है या टू डू लिस्ट| लिफ्ट में कौन साथ है, ये कितना गैर ज़रूरी मसला है|

उसी हफ्ते बृहस्पतिवार की बात है| श्रद्धा लिफ्ट में जाने के लिए मुड़ी तो देखा वह सीढ़ियों से चली आ रही है| पीली साड़ी, ढेर सारी चूड़ियाँ, हाथ में कोई प्लेट या कटोरा है, जिस पर क्रोशिए का रुमाल ढका है और डलिया कलाई पर अटका रखी है|

न जाने उसके परिचय के नेटवर्क का प्रभाव था या उसके भोलेपन ने विवश कर दिया, श्रद्धा के मुंह से यकायक निकाल पड़ा, “अरे सुनो, यहाँ आ जाओ लिफ्ट में|”

“दीदी जी आप !” वह चुहंककर बोली, “नहीं, आज तो हम खुद से ही नहीं आए लिफ्ट में| आज व्रत है न हमारा इसलिए| मम्मी जी ने कहा था….”

“ओके, ठीक है” श्रद्धा फुर्ती से लिफ्ट में घुस गई, ‘अजीब घनचक्कर है, 16वें फ्लोर से सीढ़ियों से जाएगी, मुझे भी क्या सूझी|’ उसने सिर झटककर इस विचार को अलग किया और ऑफिस में आज के कामों की लिस्ट देखने में उलझ गई|

अगले दिन वह लिफ्ट में थी, अकेली|

“दीदी जी, थैंक यू! कल आपने हमें लिफ्ट के लिए पूछा न इसलिए| एक बात बताएं, अब हमें पहले जैसी घबराहट नहीं होती| वो चिंटू के पापा ने सिखाया हमें|” वह कुछ लजाकर बोली| “अच्छा, ये लीजिए कल का प्रसाद|” कहते हुए उसने एक केला और एक बेसन का लड्डू डलिया से निकालकर श्रद्धा के हाथ पर धर दिया और शायद चंदन या भभूत की कोई पुड़िया खोलने को हुई कि श्रद्धा लगभग चीख पड़ी, “स्टॉप इट!” पहले ही ईश्वरीय सत्ता को लेकर श्रद्धा के अपने तर्क रहे हैं, उस पर से कर्मकांडों से तो उसे बेहद चिढ़ है ‘और ये…? कल बात क्या कर ली, सिर पर चली आ रही है, बेशऊर!’ उसकी आँखों मे गाय की बछिया सी कातरता झलक आई थी, मानो अपनी गलती बूझने का प्रयास कर रही हो| तभी लिफ्ट रुकी और दो महिलाएं सवार हुईं| श्रद्धा ने खुद को संयत किया| ग्राउंड फ्लोर तक हाथ में बेसन का लड्डू चिपचिपा गया था| बाहर निकलते ही उसने एक कण मुंह मे डालने का अभिनय किया और लड्डू-केला उसे थमाते हुए बोली, “ये लो, अपने चिंटू को ही खिला देना, ओके?” तुरंत बैग से टिशू निकालकर हाथ साफ किया, ‘इसी वजह से वह लोगों से कटती है, ज़रा मौका दो नहीं कि घुसे चले आते हैं, मान न मान, मैं तेरा मेहमान|’ उसने सोचा और तेज कदमों से गेट की ओर लपकी| ऑफिस कैब अभी आई नहीं थी| श्रद्धा ने देखा वह इसी ओर चली आ रही है| उसने कोने में बैठी एक भिखारन के बच्चे को लड्डू और केला थमाया और फिर श्रद्धा के करीब आकर बुझे स्वर में बोली, “दीदी जी, अभी हमारा चिंटू तो है नहीं, इसीलिए व्रत रखा था| सो इस चिंटू को दे दिया|” वह पलटी और दाई तरफ मंदिर की दिशा में मुड़ गई| श्रद्धा सन्न रह गई| न चाहते हुए भी ऑफिस मे कई बार उसकी शक्ल आँखों के सामने घूम गई|

दो-तीन दिन श्रद्धा ने किसी असहज स्थिति से बचने के लिए उपाय किए| कभी थोड़ा जल्दी निकली, तो कभी देर से| लेकिन उस लिफ्ट वाली का शायद भगवान से मुलाक़ात का समय निश्चित था| चौथे दिन वह लिफ्ट में मिल ही गई| श्रद्धा को देखते ही तुरंत मुस्कुरा दी| वही स्वाभाविक स्मित| न शिकायत का कोई भाव, न कटुता का कोई चिन्ह| श्रद्धा को तत्काल कोई प्रतिक्रिया ही नहीं सूझी पर अपने अंदर कुछ पिघलता-सा महसूस हुआ| ‘इस सरलमना लड़की का क्या दोष है?’ अमूमन चुप्पी साधे रहने वाले मन में से आवाज़ आई, ‘यही न कि वह वॉचमैन से लेकर एक आधुनिक कामकाजी युवती तक सबसे एक सा सहज व्यवहार करती है| संभव है, कुछ समय में महानगर की तपन और यहाँ के लोगों कि आंच उसकी यह नमी भी सोख ले|’

उसके बाद वह अक्सर लिफ्ट में मिलती रही| हर बार मुस्कुराकर श्रद्धा को नमस्ते कहती| कभी किसी बुजुर्ग को गठिया का घरेलू नुस्खा सुझाती, कभी किन्हीं भाभी जी को ठेठ ग्रामीण पकवानों की रेसिपी बताती| कभी जब सिर्फ महिलाएं हों तो वह खुलकर हँसती, लगता जैसे लिफ्ट की बेजान दीवारें जीवंत हो उठेंगी| एक दिन वर्मा आंटी के कहने पर उसने अपने अंचल का गीत भी गुनगुनाया था| वह न हो तो साथ वाले पूछते, ‘आज अंजू नहीं आई?’

श्रद्धा को अब उसका नाम पता था और यह भी कि अंजू का लिफ्ट में होना अब उसे भला लगता है| क्यों ऐसा होता है कि कुछ लोगों की उपस्थिति वातावरण की धड़कन बन जाती है, श्रद्धा सोचती, देखा जाए तो क्या आकर्षण है इस लड़की में? साधारण रंग-रूप, समान्य पहनवा| शायद वह अपने ‘साधारण’ होने को बहुत सहजता से स्वीकार करती है| न कोई कमतरता का भाव न दिखावे का अभिजात्य| जैसे पंचतत्व अपनी विशेषताओं और सीमाओं के साथ सहजता से उपस्थित है, वैसे ही| कुछ मिनटों का सफर पूरे दिन की ऊर्जा बन जाता| मन की क्लांति धुलने लगती| लगता किसी ठंडे मीठे झरने के पास बैठे आए हो| तप्त धरती से दूसरों के पैरों पर भले ही छाले पड़ते हो लेकिन उसे तो शीतल फुहारों की अभिलाषा होती है| श्रद्धा ऐसी ही तप्त धरा हो गई थी, जिस पर बरसों बाद ठंडी फुहारें पड़ी रही हो| पर वह आजकल अंजू के साथ समय मैच करने की कोशिश करती है, उसके पीछे एक और वजह है|

श्रद्धा अपने उस दिन के व्यवहार के कारण अंजू का सामने खुद को बहुत छोटा महसूस करती है| वह उसे देखती है, सुनती है, मुस्कराती है पर बात नहीं कर पाती है| वास्तव में वह उससे माफ़ी मांगना चाहती है पर उसकी अभिजात्य छवि आड़े आ जाती है| अपमान करते समय तो उसने नहीं सोचा कि आस-पास कौन है पर माफ़ी के लिए ज़रूर एकांत चाहती है|

नवम्बर की गुलाबी धूप में लिपटी इतवार की गुनगुनी दोपहरी| अंजू शायद इतवार को मंदिर नहीं जाती, इसलिए श्रद्धा ने अपनी ही धुन में लिफ्ट मे प्रवेश किया और लिफ्ट में मिल गई, अकेली|

“दीदी जी, आज चिंटू के पापा हमें शहर दिखाने ले जा रहे हैं| वो नीचे गाड़ी वाले से बात करने गए हैं|” वह उमंग से चहककर बोली| श्रद्धा को इसमें विघ्न डालने का मन नहीं हुआ पर वह यह मौका छोड़ना भी नहीं चाहती, “अंजू, आई एम सॉरी|”

“किस बात के लिए दीदी जी?” उसकी आँखों मे बच्चों सा अचरच भर आया|

“वो उस दिन मैंने तुम्हें प्रसाद वापस कर दिया और फिर चिंटू वाली बात....”

“अरे दीदी जी, हम तो कब का भूल गए और आप नाहक दिल से लगाए बैठी हैं| गलती हमारी भी तो थी न| कोई पढ़ी-लिखी तैयार होकर दफ्तर जा रही हैं और हम हैं कि घी से सना लड्डू थमा दिया| और भगवान जी, वो तो अपनी- अपनी मानने की बात है| हमें सुकून मिलता है, सो करते हैं पर दूसरे माने ये कोई जबरदस्ती थोड़ी न है|”

ग्राउंड फ्लोर आ चुका था|

“हाँ, मैं नहीं मानती, फिर भी चिंटू .... मुझे पता नहीं था|”

“दीदी जी, हमारे बाबा कहते थे, दवा लगे न लगे, दुआ जरूर लगती है, सो दुआ कमाओ| चिंटू के पापा ने यहाँ ट्रान्सफर करा लिया है, दवा के लिए| चार साल पूरे हो गए हमारे ब्याह को पर... और देखिये दवा के साथ दुआ भी मिल गई| आप ने अच्छे मन से ही कहा होगा न, देखना अब हमारा चिंटू सचमुच आ जाएगा, लड्डू खाने|” उसकी हंसी तरल हो आई|

“अच्छा, अब हम चलें, चिंटू के पापा ने गाड़ी पक्की कर ली है, देखिए|”

श्रद्धा ने गेट पर नजर दौड़ाई| टैक्सी के पास खड़े व्यक्ति का डील-डौल कुछ पहचाना सा लगा| “तुम चलो, मैं आती हूँ|” वह पार्किंग में रखी कारों के पीछे हो गई| जरा नजदीक से देखा| जी धक से रह गया| मानो तेज़ धार पर कलेजा चीर दिया हो, ‘माधव......! कभी उसका सबसे प्रिय स्वप्न रहा माधव, आज उसकी सबसे अप्रिय स्मृति बन चुका माधव...!’

टैक्सी जा चुकी थी| श्रद्धा को लगा जैसे अचानक उसकी शक्ति किसी ने सोख ली है और वह लड़खड़ाकर गिर पड़ेगी| उसने एचआर को और अपने बॉस को लीव की सूचना दी, जैसे-तैसे फ्लैट का दरवाजा खोला और बेड पर लुढ़क गई| कितनी देर रोई और कब उसकी आँख लगी उसे होश नहीं| उठी तो देखा अंधेरा घिर आया है, शरीर दर्द से टूट रहा है| एक गोली निगली और कड़क चाय लेकर बालकनी में आकर बैठ गई|

माधव, एमसीए की क्लास में उसका ग्रामीण सहपाठी| प्रखर बुद्धि और सौम्य व्यक्तित्व के माधव ने जल्द ही सबके दिल में जगह बना ली, श्रद्धा के भी| लेकिन माधव उससे निश्चित दूरी बनाए रखने का प्रयास करता| संपन्न परिवार की जिद्दी बेटी ने ना कभी सुनी ही नहीं थी| आखिर पहल श्रद्धा ने ही की| माधव ने परीक्षा के बाद बात करने के लिए कहा लेकिन परीक्षा के तुरंत बाद वह गाँव चला गया| वह फिर नहीं लौटकर नहीं आया, आया तो उसका एक खत-

प्रिय मित्र,

अपने प्रति तुम्हारी भावनाओं के लिए आभारी रहूँगा| पर सच कहूँ, हमारा कोई मेल नहीं| तुम्हारे जैसी सुंदर स्मार्ट लड़की को मुझसे कहीं योग्य वर मिलना चाहिए| आने से पहले तुमसे मिलना चाहता था, पर यहाँ पिताजी के खास दोस्त का अचानक देहांत हो गया, इसलिए आना पड़ा| जाते हुए वे अपनी बेटी पिता जी को सौंप गए है, बहू के रूप में| क्षमा छोटा शब्द है श्रद्धा, लेकिन विश्वास मानो, तुम हमेशा मेरी मंगलकामनाओं में रहोगी|

-शुभेच्छाएं- माधव

श्रद्धा बिफर उठी, ‘मैं तुम्हारी मंगलकामनाओं की मोहताज नहीं, तुम ज़रूर मेरी अमंगलकामनाओं के केंद्र मे रहोगे माधव, जाओ तुम मुझे छोड़कर कभी सुखी नहीं रहोगे|’ श्रद्धा के लिए प्रेमभंग से दारुण था, अस्वीकृति का दुख| जीवन में उसने पहली बार ना सुना था| उसका अहम, उसकी रूपगर्विता छवि सब छिन्न-भिन्न होकर बिखर गए| माता-पिता ने पहले समझने के प्रयास किए, अच्छे रिश्ते भी आए पर श्रद्धा का मन बुरी तरह आहत था| महानगर में नई नौकरी का ऑफर आया तो उसने तुरंत हाँ कर दी| पर यहाँ आकर भी मन की कडुवाहट धुल नहीं पाई, स्वभाव और तिक्त होता गया|

उसके बाद माधव की कोई खबर नहीं मिली| आज चार सालों बाद दिखा, पहले से थोड़ा क्षीण लगा पर वैसा ही धीर-स्थिर| ‘देखा मुझे छोड़ कर गया क्या मिला?’ श्रद्धा के अहम ने अट्टाहस किया, ‘न सुख न चैन, और इसके लिए मुझे छोड़ा, ये देहाती, गंवार? एक पल के लिए अंजू का चेहरा स्मरण हो आया| ‘गंवार.. ? क्या सचमुच’ श्रद्धा ने खुद से पूछा, ‘वह खुद इस सरल-सीधी लड़की के सम्मोहन मे कैद हो गई है, उसी ने बरसों से भूली हंसी उसे लौटाई| आज ही उसने कहा कि आपने दुआ दी होगी और मैंने क्या दिया? इस निष्पाप लड़की की क्या गलती है? और माधव की आखिर क्या गलती थी? इतने समय में पहली बार ठहर कर, शांत होकर सोच पा रही है, क्या ये अंजू की संगत का असर नहीं? वह ढकोसलों में यकीन नहीं करती पर अच्छी-बुरी भावनाओं के असर पर तो भरोसा था, तभी तो माधव के अहित का विचार करती रही, क्या यही वजह है.....? नहीं, उसके पीछे दूसरे मेडिकल कारण होंगे पर मैंने क्या दिया? अंजू ने कहा कि दुआएं कमाओं, पर इसके लिए पहले दुआएं देनी भी पड़तीं हैं, साफ दिल से, तभी उनकी अनुगूँज लौटकर आती हैं| अंजू खुश है क्योंकि वह दुआएं बाँटती है, खुशियाँ बाँटती है|

भोर हो गई है| श्रद्धा ने अनुभव किया दिन की उजास का भी अपना आकर्षण है| सबकुछ धुला-पुंछा, साफ-सुधरा नज़र आने लगता है|

आज बुधवार है, पर श्रद्धा 12 बजे से ही कॉरीडोर में चहलकदमी कर रही है| आखिर लिफ्ट आने का संकेत हुआ| उसे देख अंजू खिल उठी, “बुधवार को तो आपकी छुट्टी होती है दीदी जी, बाजार जा रहीं है?” श्रद्धा बस मुस्कुरा दी| गेट के बाहर आकर श्रद्धा चुपचाप अंजू के साथ चल दी, उसने ठिठककर पुछा, “कहाँ जाएंगी?” “जरा यहाँ तक|” कुछ ही देर में दोनों मंदिर के द्वार तक आ पहुंची| अंजू का आश्चर्य आँखों मे समा नहीं रहा था| “दीदी जी आप तो भगवान को नहीं मानती, फिर आज मंदिर में क्यों?”

“हाँ, मैं नहीं मानती, पर मेरी एक प्यारी सी सखी है, उसकी बहुत आस्था है| उसी के लिए दुआ करने आई हूँ|” श्रद्धा हक्की-बक्की खड़ी अंजू का हाथ थामकर मंदिर में प्रवेश कर गई|

पंडित जी ने कलेवा दिया तो श्रद्धा ने अपने हाथों से अंजू की कलाई पर लपेट दिया| “अगले बुधवार तक कंपनी के फ्लैट में रहने जा रही हूँ| तुम्हारा चिंटू आए तो मुझे खबर करोगी न? पता नहीं तुमसे कभी मिल पाऊँगी या नहीं पर विश्वास मानो, तुम हमेशा मेरी मंगलकामनाओं में रहोगी|”

-शैली बक्षी खड़कोतकर