इक समंदर मेरे अंदर
मधु अरोड़ा
(19)
बाहर खड़ी होकर वह उन नामों को याद करने लगी जो आसपास रहते थे....लेकिन मुसीबत के समय कोई नाम भी तो याद नहीं आते। वह उन नामों को ज्य़ादा तवज्जो दे रही थी जो महालक्ष्मी या दादर के आसपास रहते थे।
तभी उसे दादर में रहनेवाले पापा के एक दूर के रिश्तेदार राम रतन जी याद आये। वे वहां परिवार के साथ रहते थे। उसने सोचा कि क्यों न वहां जाया जाये और अपना परिचय देकर रात काटी जाये।
बस, इतनी सी बात दिमाग़ में आनी थी कि उसके पैर स्वयमेव दादर की ओर बढ़ने लगे थे। सभी लोग पैदल चल रहे थे और जो नज़दीक रहते थे, वे रात होने से पहले घर पहुंच जाना चाहते थे।
जो ट्रेन से जाने वाले थे वे बीच बीच में रुककर सोच रहे थे कि किस दिशा की ओर चला जाये। रास्ते में खाने के लिये कुछ नहीं था, पानी तक के लाले पड़े थे। गला सूख रहा था। आंतें कुलबुला रही थीं। कामना करे तो क्या करे?
इसी बीच आसपास चलते लोगों को बोलते सुना - लवकर चला, दादर मांट़ुगाच्या मधे गैंगवार चालू आहे। एनकाउंटर चालू आहे। कामना के लिये ये सारे शब्द नये थे। वह दो घंटे पैदल चल कर पूछते पाछते सवा छ:बजे उस बिल्डिंग के सामने पहुंची थी।
पांच मिनट तो इसी पसोपेश में रही कि बात कैसे शुरू की जाये। आखिर उसने राम रतन जी का दरवाज़ा खटखटाया। कुछ मिनटों के बाद एक महिला ने दरवाज़ा खोला। दरवाजे पर सेफ्टी चेन लगी थी - कहिये, किससे मिलना है और क्या काम है?
इतने औपचारिक सवाल से वह अंदर ही अंदर सिकुड़ गई थी कि मन की बात कहे या न कहे, फिर भी हिम्मत करके बोली – ‘देखिये आंटी जी, हम दोनों एक दूसरे से अपरिचित हैं। कभी मौका ही नहीं मिला कि आपसे मिलना हुआ हो।
....राम रतन जी हमारे पापा के दूर के रिश्तेदार निकलते हैं। लेकिन मैं उनसे भी आज तक नहीं मिली हूं। आज अचानक दंगा हो जाने से घर नहीं जा पाई हूं। सब कुछ बंद है। यदि आप मुझ पर भरोसा कर सकें तो एक रात अपने यहां रुक जाने दें।‘
उन्होंने उसे तीन—चार बार ऊपर से नीचे देखा, दो एक रिश्तेदारों के बारे में पूछताछ की। कामना ने सही जानकारी दी थी, तब कहीं जाकर उन्हें विश्वास हुआ था और तब पूरा दरवाज़ा खुला था। था। उसने चैन की सांस ली थी।
उसे पिताजी की ओर से चिंता इसलिये नहीं थी कि इस बीच वे ज़रूर वसई स्टेशन गये होंगे और हालात का जायज़ा लिया होगा। इस बीच आंटी ने एक गाउन दिया और कहा – ‘ये बदल लो और खाना तैयार है। खाकर आराम करो।‘
उसने कहा – ‘किचन में मदद की ज़रूरत हो तो बता दें। इस पर वे बोलीं – ‘चलो, ज़रा पूड़ी बेल दो ताकि काम जल्दी सुलट जायेगा। बैसैऊं झोर भात बनाऔ है। बाके संग पूड़ी अच्छी लगेंगी।‘ इस तरह उसने वहां खुद को सहज महसूस किया था और खाने के बाद अच्छी नींद भी आई थी।
वरना उसे तो अपने घर में भी नींद नहीं आती, यदि तकिया और चादर बदल जाये। दूसरे दिन सुबह उठी और उसने कहा - आंटी, आप नाश्ता रहने दें। ब्रेड बटर से चल जायेगा। देखती हूं, ट्रेन शुरू हुई या नहीं। सामने ही तो स्टेशन है, पता चल जायेगा।‘
इस तरह वह सुबह नौ बजे उनका धन्यवाद करके चलने के लिये तैयार हो गई थी। चलते समय आंटी ने कहा - कभी भी कोई मुसीबत आ जाये तो इसे अपना घर समझना और बिना किसी संकोच के घर आ जाना।‘
जब वह दादर पहुंची तो स्टेशन खचाखच भरा हुआ था। पूरे स्टेशन पर चारों ओर सिर ही सिर दिखाई दे रहे थे। वह जिस तरह से विरार ट्रेन में घुसी, वही जानती थी। घर तो पहुंचना ही था। दूसरे दिन शनिवार था और ऑफिस का आधा दिन था।
सोम से मिलना अच्छा लगने लगा था। दोनों को ही शनिवार का इंतज़ार रहने लगा था। शनिवार को फोन आया था उनका और दोपहर को वे दोनों अंधेरी के अल्फा रेस्तरां में मिले। ‘अरे, आपकी कॉफी तो ठंडी हो गई।‘ उसने मन में सोचा था कि वह कौन सी गरम कॉफी पीती थी।
कॉफी पीते पीते वह बोली – ‘मैं यह नौकरी छोड़ने के मूड में हूं। समय बहुत जाता है और एमए फाइनल ईयर की परीक्षाएं भी नज़दीक आ रही हैं।‘ इस पर सोम ने कहा - यदि आप ये नौकरी छोड़ना चाहती हैं और दूसरा काम करना चाहती हैं तो नौ बजे से पांच बजे तक की नौकरी के बजाय ट्यूशन करें।
....सप्ताह में तीन दिन ट्यूशन और सप्ताह के बाकी दिन आप खुद को और पढ़ाई को दे पायेंगी। ट्यूशन एक डेढ़ घंटे का होगा। मेरे दो सीनियर्स को अपने बच्चों के लिये हिंदी ट्यूटर की ज़रूरत है। पैसे भी अच्छे देंगे। उन बच्चों के बोर्ड के पेपर हैं। सोच लीजिये और बता दीजिये।‘
‘सोचना क्या है...आप मेरी ओर से हां कर दीजिये। उन्हें सूचित भी कर दीजिये। आज 26 तारीख़ हो गई है। एक तारीख़ से जाऊंगी वहां।‘ सोम ने अपने सीनियर्स के घर के पते नोट करा दिये थे। दोनों पते जसलोक अस्पताल के पास के थे।
उसका कॉलेज भी तो उसी के आसपास था। पारसियों की कॉलोनी थी। ट्यूशन के पतों ने उसे एक बार फिर अतीत के गर्भ में भेज दिया था। हरीश मेहरा तो कितना दीवाना था। उसकी सहेली सुनीता का कजिन था। जब जब वह अपनी कजिन के यहां आता, वह वहां होती थी।
हरीश के पिताजी का केमिकल का बिजिनेस था और वह इंजीनियरी कर रहा था, लेकिन इंजीनियरी उसके वश की नहीं थी। बाद में उसने अपने पिताजी का बिजनेस ही संभाल लिया था। सुनीता स्कूल में उसकी सबसे पक्की सहेली थी।
वह सिर्फ़ एक बार अकेले में मिलने की मिन्नतें कई बार कर चुका था और अंतत: निराश हो गया था। कामना ने खूब सोचा था और उससे कभी मिलने गई ही नहीं।सुनीता ने बाद में बताया था कि हरीश किसी लड़की से शारीरिक संबंध स्थापित कर बैठा था और लड़की वालों के दबाव में आकर शादी करनी पड़ी थी।
यह सोचते ही कामना के चेहरे पर हल्की सी हंसी आ गई थी। बड़ा आया प्यार जताने वाला.....हरीश....फंस गया न बच्चू हमेशा के लिये। सुनीता बताती थी कि उसकी पत्नी उस पर चौकस नज़र रखती थी
...हरीश को लंच के लिये घर आने में ज़रा देर हुई नहीं कि वह फोन करना शुरू कर देती थी। दबाव वाला प्रेम-विवाह था और वह जानती थी उसका रसिया स्वभाव। और वह वीनू!....उसका घर सुनीता के घर की बगल में था।
वह जब भी उसकी बिल्डिंग के पीछे वाले दरवाज़े की ओर से जाती थी तो वह वहां अपनी मोटर साइकिल को ठीक करता मिलता था। बहुत खूबसूरत था। बड़ी बड़ी और बोलती आंखें थीं। वह एक बार सिर उठाकर कामना को देखता और गाने लगता था - ये रेशमी जुल्फें, ये शरबती आंखें...इन्हें देखकर जी रहे हैं सभी। और फिर मोटर साइकिल की ओर झुक जाता था।
एक दिन शाम को उसी बगीचे में वह कामना का रास्ता रोककर खड़ा हो गया था – ‘कामना, तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो। तुम कुछ नहीं बोलतीं, पर तुम्हारी बोलती आंखें, सुनहरी घुंघराले बाल, हंसी....।‘ कहते कहते वह उसके बहुत नज़दीक आ गया था।
कामना को थोड़ा सा डर लगा था, फिर भी वह संभलते हुए बोली थी – ‘देखो वीनू, मुझे भी तुम बहुत अच्छे लगते हो। हम दोनों बात कर सकते हैं। मैं तुम्हारी मम्मी से मिलने आती हूं न। तुम्हारा ऐसे रास्ता रोकना शोभा नहीं देता।‘
इस पर वह बोला था – ‘मम्मी के सामने क्या बात करेंगे? एक काम करते हें, तुम सुनीता की बाहर वाली बाल्कनी में आ जाना। हम वहां बात करेंगे। तुम्हें डर भी नहीं लगेगाल् और यह कहकर वह पहली बार खुलकर हंसा था।
उन दिनों बाल्कनी कॉमन हुआ करती थी। सब अपने अपने कमरे के सामने के हिस्से में खड़े होकर बात करते थे। आजकल तो लोग अपनी बाल्कनी में इकलबिलौंटे की तरह खड़े रहते हैं और राह चलती महिलाओं को ताकते रहते हैं।
थोड़ी देर बाद कामना सुनीता की बाल्कनी में खड़ी थी। वीनू आया और वे दोनों बात करने की शुरूआत कर ही रहे थे कि वीनू की मम्मी की आवाज़ आई - कामना, हे चंगी गल्ल है, वीनू तेरे नाल बोलदा पया है। साड्डे घर चाय पीके जावीं।‘
यह सुनकर दोनों हंस दिये थे। वह बोला – ‘मम्मी, तुस्सी चा बनाओ। असी आंदे हां। चलो, कामना, आज हमारे घर चाय पी लो। सुनीता के घर तो रोज़ पीती हो।‘ वह उसका मन रख लेती थी।
वह एक अच्छा दोस्त साबित हुआ था। वे कभी पिक्चर नहीं गये थे। उनकी बातचीत बाल्कनी तक ही सीमित रही थी। वह भी एक दोस्ती थी और यह सोचते ही उसकी आंखों में नमी और होठों पर मुस्कान तिर आई थी। पता नहीं, अब कहां होगा।
वह याद करती है, सुनीता के चाचा गोरेगांव में रहते थे। वह उस दिन गई थी सुनीता की तलाश में। उनकी कॉलोनी में चारों बिल्डिंगें चार चार माले की थीं और लिफ्ट नहीं थी। उसने बारी बारी से उन सभी बिल्डिगों की एक एक मंज़िल को छान मारा था, पर शायद वे बेचकर कहीं और चले गये थे।
कामना अपना दोस्त या सहेली भी उसी को बनाती थी जो देखने में कुछ तो अच्छा हो, अच्छी सेहत हो और चाल सधी हुई हो। उसे हड्डी के ढांचे कभी अच्छे नहीं लगते। शरीर थोड़ा तो भरा हो। ग़लती से छू भी लिया जाये तो अच्छा लगे. हड्डियां तो चुभती हैं।
हड्डियों के मंजीरे तो कभी नहीं बजने दिये उसने और जीरो फिगर...यह सोचकर वह एक बार फिर खिलखिलाकर हंस दी थी.....शरीर में कुंडे कब्जे ऐसे तो हों, जिनका रोमांस के मूड में स्पर्श सुख प्राप्त किया जा सके।
कामना और सोम एक दूसरे के नज़दीक आते जा रहे थे, पर यह शहर ज्य़ादा समय और प्राइवेसी ही नहीं देता था कि साथ बैठकर कुछ बातें की जा सकें। पेड़ों के आगे-पीछे घूमना या झाड़ियों के बीच में बैठकर रात के अंधेरे में प्रेम की पींगें बढ़ाने का मतलब ही नहीं था।
दो एक बार वह सोम के साथ शाम के झुटपुटे में जुहू के किनारे बने भव्य होटल सन एण्ड सन की समुद्र के सामने वाली दीवार के नीचे बैठी थी। उन दिनों वहां लाइट नहीं हुआ करती थी। रात को कई जोड़े वहां आकर बैठते थे।
वहां बैठे सभी जोड़े दीन दुनिया से परे एक दूजे में लीन थे। सीमाएं लांघते हुए भी। किसी को दूसरी ओर देखने की न तो ज़रूरत थी और न फुर्सत थी। उसे यह सब बड़ा अजीब लग रहा था और अपनी आंखों से पहली बार नंगई देख रही थी।
उसने सोम से साफ कह दिया था – ‘यह जगह हमारे बैठने के लिये नहीं है। मेरा कोई भी परिचित यहां आ सकता है। आपका कुछ नहीं जायेगा, पर मेरी तो इज्ज़त पर बन आयेगी। मुझे इस तरह की जगहें पसंद नहीं हैं।‘
इस पर सोम ने कहा था – ‘सच कहूं तो मुझे भी नहीं पता था कि यहां ये सब होता है। अगली बार शिकायत का मौका नहीं दूंगा।‘वे दोनों वहां से उठ गये थे। उसके बाद वे लोग वहां कभी नहीं गये थे।
ये अच्छा था कि सोम उसकी ज़रूरत और जिम्मेदारी समझते थे। सोमवार को जब वह अपने ऑफिस गई तो उसने जल्दी से हाथ से ही मिस्टर गोयल के नाम पत्र लिखा कि वह अगले महीने से काम पर नहीं आयेगी।
कामना के फाइनल पेपर शुरू होने वाले थे और उसे परीक्षा की तैयारी करना था। उन्होंने न चाहते हुए भी उसका इस्तीफा स्वीकार कर लिया था। उनके दफ्तर में वही अकेली थी जो सबसे ज्यादा पढ़ी लिखी थी। फोन पर सभी से सलीके से बात करती थी।
डेढ़ साल में दो नौकरियां और अब ट्यूशन.....क्या तो किस्मत थी कामना की। भूखी तो वह कभी नहीं रहेगी। अगले हफ्ते से उसने ट्यूशन पर जाना शुरू कर दिया था। दोनों ट्यूशनों से उसे 1200 रुपये मिलने वाले थे।
सोमवार, बुधवार और शुक्रवार.....ये तीन दिन तय हुए थे ताकि छात्र अपना होमवर्क पूरा कर सके। यदि ट्यूशन का होमवर्क और स्कूल का होमवर्क पूरा न हो तो बच्चा पढ़ाई में कमज़ोर होता जाता है।
कामना बच्चों की इस मानसिकता को जानती थी। यह उसने अपने अनुभव से जाना था। बाकी तीन दिन उसने अपने लिये रखे थे, जिनमें सोम से मिलना भी शामिल था, बशर्ते वक्त़ इजाज़त दे तो।
पता नहीं वे बच्चे हिंदी में कितने होशियार थे या कमज़ोर थे। जब पहले दिन उसने राहुल को पढ़ाने बिठाया तो हैरान रह गई कि हिंदी बोलने वाले परिवारों के बच्चे हिंदी में इतने कमज़ोर कैसे हो सकते हैं?
उन्हें की और कि का, कंजक्शन्स तक का पता नहीं था। मात्राओं की तो बात ही न की जाये। इन बच्चों पर शुरू से ध्यान क्यों नहीं दिया गया?
राहुल से पूछा तो बोला....मैम, पिताजी व्यस्त रहते हैं और मम्मी लेडीज़ पार्टियों में और किटी पार्टी में व्यस्त रहती हैं। अब चूंकि उसने जिम्मेदारी ले ही ली है, तो मेहनत भी खूब करनी होगी। कोई फ्री में ही तो इतने रुपये नहीं देगा।
कामना को लगा कि बच्चे को पास करवाना है तो सप्ताह के तीन दिनों में साढ़े चार घंटों के बजाय आठ घंटे देने होंगे, तब जाकर बात बनेगी और ये बच्चे परीक्षा दे पायेंगे। इन्होंने ट्यूटर रखा भी तो बोर्ड की परीक्षाओं के तीन महीने पहले।
क्या राहुल के माता-पिता को नहीं पता था कि उनका बच्चा इतना कमज़ोर था हिंदी में या वे ही शर्म महसूस करते होंगे हिंदी पढ़ाने में....पता नहीं। वह जाती रही राहुल को पढ़ाने और कोई कसर नहीं उठा रखी थी।
बोर्ड के पेपर हुए। अंततः उसे हिंदी में अस्सी नंबर मिले थे। तब भी श्रीमती और श्री शुक्ला प्रसन्न नहीं थे। वे बोले – ‘हम तो कामना कर रहे थे कि उसे पचासी नंबर मिलेंगे।‘
यह सुनकर कामना मन ही मन खूब झल्लाई थी पर खुद को नियंत्रण में रखते हुए कहा – ‘शायद यह मेरी ही गलती थी कि मैंने आपके बच्चे के साथ इतनी मेहनत की। आपको पता भी था कि वह कितना कमज़ोर था? आप लोग कैसे माता पिता हैं।‘
न चाहते हुए भी वह कड़वा बोल गई थी। उसे बहुत गुस्सा आता है, जब सामने वाला अपनी गलती नहीं मानता बल्कि दूसरों पर दोषारोपण करता है। वह तीन बार तो गलती माफ़ कर देती थी पर चौथा मौका नहीं देती थी। अच्छी तरह आड़े हाथों लेती थी।
जो इंसान ज़मीन पर पैर रखते हैं, वे ही सफलता प्राप्त करते हैं। हवाई बातों से कुछ हासिल नहीं होता। उसने मिस्टर सरकार के बच्चे का ट्यूशन छोड़ दिया था, जबकि वह नौवीं में ही था.....लेकिन उसने भांप लिया था कि वह बच्चा भी बहुत मेहनत मांगता था।
पहले की बनिस्बत अब थोड़ा ज्य़ादा समय मिलने लगा था, तो सोम की और उसकी मुलाक़ातें भी बढ़ने लगी थीं। कभी वे अपने ऑफिस के काम से बाहर जाते थे तो वापसी में मुंबई यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में आ जाते थे।
वहीं पास के रेस्तां में चाय पी लिया करते थे। अकेले मिलने के बावजूद वे दोनों पिक्चर कभी नहीं गये थे। सच कहे, तो वह जाना ही नहीं चाहती थी। कुछ भी तो तय नहीं हुआ था। बस, मित्रता थी और वह उसे वहीं तक सीमित रखना चाहती थी।
जब तक सगाई नहीं हो गई थी....शनिवार, रविवार को लाइब्रेरी में अपना काम पूरा करने के बाद शाम को मरीन ड्राइव पर पैदल चलना और रात को हल्का सा डिनर लेकर समय से घर पहुंच जाना।