आवारा अदाकार
विक्रम सिंह
(5)
उस पूरे दिन गुरूवंश मुँह लटकाये घूमता रहा। न किसी से बात कर रहा था न ही किसी से मिलजुल रहा था। वह अपने-आप को बेबस महसूस कर रहा था। हम सब तो यही सोचते रहे थे कि बबनी उसके बिना नहीं रह पाएगी। लेकिन घड़ी की सुई तो उल्टी घूम गई। दीवानगी अब जुनून में बदल गई थी और जुनून में वह विवके और होशोहवास दोनों गंवा बैठा था। वह अपनी नौकरी छोड़ कर दिन भर बबनी के घर के बाहर घूमता रहता और मौका पाते ही पीसीओ की तरफ भागता था। इसी तरह फोन कर करके उससे ब्याह की बात करता रहता। हर बार बबनी का जबाव न में होता। यह वो वक्त था जब हम सब एम.ए की परीक्षा की तैयारियों में लगे थे। कैरियर की चिंता में थे। उसे बस बबनी के सिवा कुछ सूझ नहीं रहा था। कॉलोनी मे लोग उसे दुखी देवदास तक कहने लगे थे। बस फर्क इतना था कि वह शराब नहीं पी रहा था न ही किसी चंद्रमुखी के पास आ जा रहा था। शरीर और शक्ल से वो पराजित देवदास हो गया था। एक बार फिर से कॉलानी में उसकी चर्चा जोर-शोर से शुरू हो गयी थी। उसके बारे में लोग तरह-तरह की बातें करने लगे थे। एक बार अजय की बहन ने ही बबनी की दीदी से कह दिया,’’बबनी ने तो गुरूवंश को सरासर धोखा दे दिया। बेचारी की हालत कैसी हो गयी।’’
बबीता को यह बात अच्छी नहीं लगी। उसने तपाक से जबाव दिया। कुछ ढंग की नौकरी है नहीं। न ही एक जगह स्थिर रहता है। कभी कुछ करता है तो कभी कुछ। उसके पीछे खुद को कौन बर्बाद करे।’’
’’यह सब तो वो बबनी के लिए ही कर रहा है। उसी के कारण ही उसने अपनी पढ़ाई छोड़ दी।’’
’’बबनी ने उससे कभी नहीं कहा कि वो पढ़ाई छोड़ दो।’’ इतना कह वह चली गयी।
अब तो ऐसा था कि बबनी और गुरूवंश दोनों खामोश थे। लोगबाग ही उनके बारे में ज्यादा बतिया रहे थे। वैसे भी हमारी कॉलोनी की एक खास आदत थी, अगर कोई तरक्की करता तो लोग जलन से उसका नाम तक नहीं लेते थे, और अगर कोई जीवन में असफल हो रहा होता तो दिन भर उसकी ऐसी-तैसी करते रहते। अब लोगबाग गुरूवंश की चर्चा ज्यादा करते। कुछ तो गुरूवंश को छेड़ते हुए मजे लेने लगे। कभी तुमने उसकी बजायी नहीं,होगी इसीलिए छोड़कर चली गयी। कुछ लोग उसे चिढ़ाने के लिए कहते,’’यार लड़कियाँ तो पैसे पर मरती है। पैसा है तो सब है।’’ कुछ तो साफ-साफ कहते कि भाई तेरे पास कोई ढंग की नौकरी नहीं थी इसलिए तुझे छोड़ दिया।’’ शुरूर-शुरू में तो लगता था जैसे गुरूवंश पर इन सब बातों का कोई असर नहीं है। उसी दौर का एक दिन था। गुरूवंश एक मैंदान में अकेला बैठा हुआ था। इत्तेफाक से मैं भी उस दिन मैंदान की तरफ टहलने निकल आया था। गुरूवंश को अकेला देख मैं उसके पास चला गया। पास बैठते हुए मैंने कहा,’’कही मैंने तुम्हें डिसर्टब तो नहीं किया?’’
यद्यापि मुस्कान उसके चेहरे से कोसों दूर जा चुकी थी। फिर भी उसने बनावटी मुस्कुराहट दिखाते हुए कहा,’’नहीं,नहीं कैसी बात कर रहे हो, तुम आये तो मुझे अच्छा लगा।’’
’’और काम पर नहीं गए?’’
’’नहीं मैंने काम छोड़ दिया है।’’
’’क्यों?’’
’’बस कुछ बड़ा करना चाहता हूँ।’’
’ठीक सोचा तुमने,दुबारा से पढ़ाई ज्वाइन कर लो। पीएचडी करो।’
’’नहीं अब पढ़ाई में मन नहीं लग रहा है।’’
’’फिर क्या करोेगे। बिना पढ़ाई के तुम कुछ भी बड़ा नहीं कर सकते।’’
’’देखता हूँ।’’
’’वैसे तुम करना क्या चाहते हो?’’
’’वक्त आने पर पता चल जायेगा।’’
हम इस तरह कुछ देर बैठे रहे और फिर उठ कर चल दिए।
……….
मेरा अनुमान था कि गुरूवंश के दिमाग में एक ही बात ठक-ठक कर के बजती रहती थी’’,बबनी ने मुझे इसलिए छोड़ा क्योंकि मेरी कोई पहचान नहीं हैं। मैं बड़ा आदमी नहीं हूँ। खैर,उसने भी जैसे मन ही मन संकल्प कर लिया था उसे कुछ बन कर दिखाऊँगा।
मैं इस बात का दावा तो नहीं कर सकता मगर इसे झुठला भी नहीं सकता। कहीं न कहीं से तो इंसान को प्रेरणा तो मिलती ही है। तमाम चैनलों की भीड़ के एक चैनल में वह देख रहा था कि एक फिल्म कलाकार के इर्द-गिर्द भारी भीड़ उमड़ी थी। लोग बाग उसकी एक झलक पाने के लिए बेताब थे। कुछ तो अपनी पाकेट के डायरी में उसकी एक आॅटोग्राॅफ लेने के लिए पागल हो रहे थे। पत्रकार अलग से अपना माइक लेकर उसके पास जाने के लिए व्यग्र हो रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे मधुमक्खियाँ फूल के चारों तरफ मंडरा रही हों। यूँ तो गुरूवंश ने अपने जीवन में बहुत कुछ देखा होगा,मगर इस दृष्य ने उसे बहुत प्रभावित किया था। गुरूवंश के अंदर भीड़ से कुछ अलग करने की इच्छा इसी दृष्यने पैदा की थी। उस दिन से ही वो कुछ बड़ा करने की सोचने लगा।
अचानक गुरूवंश एक नाटक मंडली में शामिल हो गया। रिहर्सलों में जाने लगा। कुछ दिन तो घर से लेकर कॉलोनी में किसी को भी पता नहीं चला कि गुरूवंश क्या कर रहा है? मगर एकाएक घर में गुरूवंश के पिता अमर सिंह एक दिन उसे चिल्ला-चिल्ला कर डाँटने लगे। वो पहले ही गुरूवंश के काम-काज को लेकर परेशान थे। ऊपर से नाटक मंडली की बात पता चलते ही वो बौखला गए। उन्हें लगा कि बेटे का मन चंचल हो गया है। एक जगह दिमाग नहीं लगा पा रहा है। बेटे को डाँटते हुए कहा,’’क्यों तुम अपनी जिंदगी खराब कर रहे हो? मेरे लाख कहने पर भी तुमने पढ़ाई छोड़ दी। अब सब कुछ छोड़ कर नाटक नौंटकी में लग गए। आखिर तुम करना क्या चाहते हो जीवन में?’’
गुरूवंश ने कुछ फिल्मी स्टाइल में कहा-’’मैं फिल्म कलाकार बनना चाहता हूँ।’’
अमर सिंह की काटो तो जैसे खून नहीं। एक ऐसां पिता जिसने अपनी पूरी जिंदगी एक छोटी सी नौकरी कर के काट दी हो। बस अपने बेटे से भी इतनी ही उम्मीद रखते थे कि वह भी अपनी जिंदगी एक छोटी नौकरी कर के बिता दे। अमर सिंह को उस दिन बस यही लगा कि बेटे को किसी अच्छे ज्योतिष को दिखा कर कुछ ताबीज-बावीज पहना दिया जाए। उन्हें लगा कि इस मर्ज की दवा तो कोई ज्योतिष ही दे सकता है। उस दिन वो खामोश रहे। कहते हैं दीवारों के भी कान होते है। पड़ोसियों से निकलकर यह बात चाय-पान की दुकान तक जा पहुँची और एक बार फिर उसकी चर्चा होने लगी। लोग यह कहकर ठहाके लगाने लगे कि ,चला मुरारी हीरों बनने। हमारी कॉलोनी ही नहीं पूरे शहर में जो लड़के-लड़कियों की मानसिकता थी, उसमें यह गुरूवंश की ख्वाहिशें एडजस्ट नहीं हो पा रही थी। अब तक हमारे पूरे शहर में फिल्म कलाकार बनने की बात किसी ने नहीं सोची थी। उन सब को यही लगता कि वो अलग ही दुनिया से आये हुए लोग होते है। वे सब फिल्मी सितारों को आसमान के चाँद सितारें की तरह मानते थे जिनके पास पहुँचना भी बहुत मुश्किल था।
पिता अमर सिंह शहर के ख्याति प्राप्त ज्योतिशी के पास गये। जहाँ पहले से कई लोग लाइन लगा बैठे थे। तब उन्हें भी लगा कि सही में जीवन के कुछ दर्द ऐसे होते हैं जिनकी दवा डाक्टरों के पास नहीं होती। उसने ज्योतिश को बताया कि बेटा एक काम में स्थिर नहीं रहता है। काम भी ऐसे करने लगता है जो करना नहीं चाहिए। अब आज कल नाटक नौंटकी करने लगा है। बोलता है फिल्म कलाकार बनेगा। ज्योतिश ने जन्म की तारीख,समय,स्थान पूछा, फिर कुछ किताबों पर नजरें भगाते हुए कहा-’’ नाम का कोई साइन तो नहीं आ रहा है। अगर वह नाम कमाने के लिए कुछ करेगा तो नाम होना मुश्किल है। उसका शुक्र भी खराब है,मंगल भी ठीक नहीं है, शनि भी टेढ़ा दिख रहा हैं। ’’शुक्र मनाइये की सप्ताह के चार दिन अभी ठीक थे। फिर आगे कहा-’’ उपाय करने से सफलता मिल सकती है।’’ बस पिता तो इतना ही चाहते थे कि बेटे के सर से कलाकार बनने का भूत उतर जाए। आगे ज्योतिशी जी ने दो दवाएं बतायी। कुछ महंगीं अंगूठियाँ या अगर पैसे नहीं है इतने तो कुछ ताबीज बना कर दे देगें, जिसे सही वक्त पर बेटे के गले में पहना देना है। अमर सिंह ने ताबीज बना देने के लिए कहा और कुछ पैसे दे चले गए।
गुरूवंश फिल्म कलाकार बनने की तैयारियों में लग गया था। टी.वी पर फिल्मों की खबर बड़े चाव से सुनता। वह घर आये अखबार में भी सिर्फ फिल्मी खबरें ही पढता था। उसे देश-दुनिया की खबर से कोई मतलब नहीं रहता था। चाहे वह राजनीति हो या फिर खेल। कई बार वह फिल्मी पत्रिका खरीद कर ले आता और पढ़ता रहता।
एक दिन पिता अमर सिंह ने बुधवार की सुबह उसके गले में ताबीज पहनाते हुए कहा,’’बेटा इसे पहन लो इसे पहनने के बाद तुम्हें तुम्हारे काम में सफलता मिलने लगेगी।’’
पिता को ताबीज पहनाते हुए खुशी हो रही थी कि धीरे-धीरे वह सुधर जाएगा। फिल्मी कलाकार बनने का भूत भी उतर जाएगा। चूंकि उन दिनों वह हर दिन फिल्मी पत्रिका लाकर पढ़ता था। सो कहते हैं’’ जहाँ चाह वहाँ राह।’’ पत्रिका में एक फिल्म कोर्डिनेटर के काटेक्ट नम्बर के साथ किसी फिल्म में अभिनय करने का मौका देने की बात भी लिखी हुई थी। उसने तत्काल ही उसे पी.सी.ओ से फोन लगाया। उसने अपने बारे में बात करते हुए कहा कि वह भी मुम्बई आकर फिल्मों में काम करना चाहता है। उस व्यक्ति ने उसे कहा,’’भाई! मुम्बई में कलाकारों की कमी है जो आप को इतनी दूर से मुम्बई बुलाए।’’इस बात का उस पर बहुत प्रभाव पड़ा। वह मुम्बई जाने की योजना बनाने लगा। मगर मुम्बई जैसे शहर में उसका कोई जानने वाला नहीं था। उसने पत्रिकाओं में कई बार पढ़ा था कि कई फिल्म स्टारों के भी मुम्बई में जानने वाले नहीं थे। उन लोगों ने प्लेटफार्म पर रातें गुजारीं।,भूखे प्यासे रह कर अपने मुकाम पर पहुँचे। उसने मुम्बई जाने की योजना अपनी माँ को बताया। ,माँ ने उसे समझाते हुए कहा’’,बेटा कहाँ इतनी दूर जाओगे अपना कोई जानने वाला भी तो वहाँ नहीं है। कहा धक्के खाते फिरोेगे। आखिर पैसे कमाने से ही तो मतलब र्है। कोई अच्छी सी नौकरी ढूंढ ले बेटा। ऐसे सपने क्यों देखता है जो कभी पूरे नहीं हो सकते।’’
’’माँ! वह इंसान ही कैसा जिसका कोई सपना न हो। संघर्ष करने से सब मिलता है।’’
मुझे नहीं लगता तेरा वहाँ जाना ठीक होगा। फिर तेरे पापा भी नहीं मानेंगें।’’
’’माँ! एक मौका तो दो मुझे।’’
माँ ने एक रात गुरूवंश के पिता के समझ यह बात रखी-’’बेटा मुम्बई जाना चाहता है।’’
’’ठीक से तो पढ़ाई कर नहीं सका,मुम्बई में क्या खाक कर लेगा।’’
’’एक मौका तो दीजिए, क्या पता उसकी किस्मत में क्या लिखा है?’’
’’ तुम उसकी तरफदारी न कर के उसे समझाने की कोशिश करो।’’
फिर दोनो ने चुपी साध ली।
गुरूवंश की जिद्द के आगे आखिरकार अमर सिंह को झुकना पड़ा और उन्होंने दिल पर पत्थर रखकर मुम्बई जाने की बात स्वीकार कर ली।
जब मुम्बई जाने की योजना पूरी तरह बन गयी, गुरूवंश में आत्मविश्वास भर गया। गुरूवंश ने मुझे आकर कहा,’’मित्र! में मुम्बई जा रहा हूँ।’’
मैंने कहा,’’हीरो बनने के लिए।’’
’’अब तुम जैसा समझो।’’
’’यह फिल्मी चक्कर छोड़ यार। यह सब अमीरजादों का काम है। मुम्बई बहुत महँगा शहर है।’’
’’कोई नहीं दोस्त! मैं वहाँ कोई नौकरी पकड़ लूँगा।’’
’’भगवान करे तुझे सफलता मिले।’’
………