कामनाओं के नशेमन
हुस्न तबस्सुम निहाँ
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वह अभी तक बेड के पास खड़ा मोहिनी के पूरे आकार को हिंस्रता से घूर रहा था। उसकी नाईटी पर पड़ी सिलवटों के अर्थ को जैसे वह बड़े अशलील ढंग से सोचने लगा था। स्त्री के चेहरे पर जो एक खुमारी वैसे पलों के बीत जाने के बाद चढ़ आती है, शायद वह उसे एक सुलगती चिंनगारियों सी महसूस करता जा रहा था। मोहिनी शायद उसकी आँखों में उस प्रतिक्रिया को गहराई से महसूस करना चाह रही थी। जिसके विस्फोट के लिए वह अपने आप को पूरी तरह तैयार कर ले। एक भयावह चुप्पी के बाद मोहिनी ने उससे पूछा- ‘‘इतनी सुबह तो कोई बस नहीं आती, कैसे आए?‘‘
वह एक विषाक्त मुस्कान के साथ बोला- ‘‘मैं रात ही आ गया था। अच्छा हुआ मैं रात यहाँ नहीं आया, एक होटल में ही ठहर गया।....नहीं तो यहाँ आ कर किसी की हत्या मुझसे हो जाती।‘‘
‘‘किसकी?...मेरी या किसी और की..?‘‘ मोहिनी ने उसकी जलती आँखों में झांकते हुए पूछा।
‘‘घायल नाग को सिर्फ अपना विष याद रहता है। वह किसी पर भी अपना ज़हर निकाल सकता है।‘‘ वह फुंफकारता सा बोला।
‘‘एक बात कहूं...?‘‘ मोहिनी मुस्कुरा कर बोली- ‘‘किसी की हत्या कर देने से या फिर हम दोनों मिल कर साथ-साथ आत्महत्या कर लेने से, इससे किसी सूखे सरोवर में पानी तो नहीं भर जाएगा। उसका सूखापन तो हमेशा सच रहेगा। प्यास अपनी जगह बहुत बड़ा यथार्थ है। एकदम सात्विक है। सूखा पड़ने पर लोग गंदे नाले का पानी भी पीने को मजबूर हो जाते हैं। वे हत्या और आत्महत्या तो नहीं करते...‘‘
वह पलों तक निर्भीक सी हुई मोहिनी की ओर चुपचाप निहारता रहा। उसकी प्यास की सात्विकता के यथार्थ को समझने की कोशिश करता रहा शायद और फिर जैसे किसी कसैले पदार्थ को चबाते हुए बोला- ‘‘रात जब मैंने लोगों से तुम्हारे बंगले का पता जानना चाहा, तो लोगों ने एक अजीब निंगाह से मुझे देखा था। जैसे मैं तुम्हारा कोई ग्रहक हूँ।....वे मजाक करते बोले थे- ‘‘पहले से बुकिंग है या नहीं है?...वहाँ आज ही कोई गया है। तुम्हारा नाम पूछने पर उन्होंने कमेंट किया था- ‘‘अरे, वही मोती चुगने वाली मोहिनी। वात्सायन के कामसूत्र की हस्थिनि राजदान।‘‘ फिर वह एक व्यंग्यात्मक लहजे में मुस्कुरा कर बोला था- ‘‘वैसे तुम हो भी उतनी ही लुभावनी। तुम्हारी भरी-भरी बांहों में एक जाल है जिसमें कोई भी ग्राहक फंस सकता है।‘‘
‘‘शिखर‘‘ वह जोरों से चीखी थी- ‘’तुमने यही वाक्य आज से सात आठ साल पहले भी कहा था। तब उसका अर्थ बहुत मिठास लिए हुए था। तुम खुद उस जाल में फंसना चाहते थे। मेरी इन्हीं बांहों में आने के लिए बेताब थे। और फंस भी गए लेकिन...‘‘
‘‘व्यर्थ....बेमतलब...‘‘ शिखर ने बुझते स्वर में कहा- ‘‘यही कहना चाहती हो न। मैं पुरूषत्वविहीन और नपुंसक था। यही जताना चाह रही हो?‘‘
‘‘शायद तुम ठीक समझ रहे हो।‘‘ मोहिनी ने जलती आँखों से शिखर को निहारते हुए कहा- ‘‘तुम्हारा इरादा दूसरा था...मेरी इन जाल वाली बांहों को लेकर। तुमने इनका प्रयोग अपने लिए नहीं किया बल्कि एक चालाक ठेकेदार की हैसियत से किया सिर्फ बड़-बड़े ठेके पाने के लिए। इंजीनियरों अफसरों को फंसाने के लिए। मैं तुम्हारे लिए सिर्फ एक खूबसूरत पत्थर की मूर्ति भर थी। इससे ज्यादह कुछ भी नहीं।‘‘
वह थोड़ी देर जैसे मोहिनी के इस सच को किसी कड़ुवे घूंट की तरह निंगलने को मजबूर हुआ हो। इसलिए चुप सा रहा। वह मोहिनी के चेहरे पर तिर आए किसी घृणा के भाव को निरखता रहा और फिर बोला- ‘‘मैं तुम्हारा पति हूँ। यदि मैं एक संबंध के काबिल नहीं हुआ तो और संबंध भी तो हैं जो ईमानदारी के साथ जिये जा सकते हैं। फिर क्या तुम यह सोच सकती हो कि मेरा पुरूष यह सब सह पाएगा कि तुम मोती चुगने वाली मैना बन जाओ। वात्सायन की हस्थिनि राजदान बन जाओ।.....या फिर पूरी वेश्या बन जाओ।‘‘
‘‘मैं तुम्हरे पुरूष होने के अहं को या फिर एकाधिकार की भावना को अच्छी तरह समझती हूँ‘‘ मोहिनी ने बहुत ठोस स्वर में कहा- ‘‘लेकिन मैं प्यासी हिरणी की तरह कब तक रेगिस्तान में भटकती रहूँ? जहाँ सरोवर दिखेगा, मैं जाऊँगी ही। प्यास कभी किसी संबंध या नैतिक बंधन को नहीं स्वीकारती। उसे सिर्फ बुझना चाहिए। वह प्यास किसी सरोवर की नैतिकता से कभी बंधना नहीं जानती। तुम चाहो तो मुझे तलाक दे सकते हो। लेकिन तुम हत्या जैसी बात नहीं कर सकते।‘‘
वह तलाक की बात पर बहुत ही सहज ढंग से मुस्कुराया और उठते हुए बोला- ‘‘तुम्हारी मांग में सिंदूर होने से तुम्हें क्या फर्क पड़ा और तलाक लेने से ही तुममे क्या फर्क आ जाएगा। यह बस संबंधों की एक औपचारिकता है, एक कोरी औपचारिकता। सिर्फ मन को ढांढ़स देने के लिए।‘‘
तभी मोती आ गया है। उसने बहुत मासूमियत के साथ बताया- ‘‘मेमसाहब, वो साहब बड़े अजीब आदमी थे।‘‘
मोहिनी ने एक बार शिखर की ओर निहार कर पूछा- ‘‘क्यों, क्या हुआ?‘‘
‘‘आपने उन्हें गेस्ट हाउस में ठहरने के लिए कहा था वह कहने लगे कि बस स्टैंड कहाँ है? वह वापस जाना चाहते थे।‘‘
‘‘क्या वह वापस चले गए?‘‘ मोहिनी ने पूछा।
‘‘नहीं, पता नहीं क्या सोच कर वह गेस्ट हाउस ही चले गए।‘‘
शिखर उस लड़के को घूरता रहा फिर बोला- ‘‘अभी तुमसे उनका मन नहीं भरा होगा। कल रात ही सुना था कि कोई आया है। है भी तो बहुत प्यारी जगह। ऐसी पहाड़ियों पर कोई तुम जैसी मिल जाए तो फिर उसे किसी स्वर्ग में कुछ तलाशने नहीं जाना पड़ेगा। यहाँ प्लेजर ही प्लेजर है तुम्हारे पास आने वालों के लिए।‘‘
शिखर का मोती के सामने इस तरह कहना कुछ अच्छा नहीं लगा। वह मोती की ओर उसके चेहरे पर उभरती प्रतिक्रिया जानने के लिए निहारने लगी थी। फिर उसने एक व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ कहा था- ‘‘तुम भी तो मेरे पास आए हो। क्यों नहीं मुझे और इन पहाड़ियों को एन्ज्वाए करते। एक पति होने के नाते तुम्हारा मुझ पर इतना अधिकार तो है ही। हैव प्लेज विद मी।‘‘ फिर उसने एक तीखी मुस्कुराहट के साथ कहा- ‘‘वैसे, यहाँ तुम्हें अकेले नहीं आना चाहिए था, अपने किसी इंजीनियर या बड़े अफसर को लेकर आना चाहिए था। कोई बड़ा सा ठेका पा जाते।‘‘
‘‘मैने कभी किसी इंजीनियर या अफसर को तुम्हें छूने नहीं दिया है अब तक।‘‘ शिखर ने जोर से चिल्ला कर कहा- ‘‘यह तुम मुझ पर इल्जाम लगा रही हो।‘‘
‘‘हूँ...ह...मैने ही हाथ नहीं लगाने दिया उन लोगों को। वे सिर्फ एक गंदी सी उम्मीद पर तुम्हें बड़े-बड़े ठेके देते रहे। ...उनकी उम्मीद मैंने पूरी नहीं होने दी।‘‘ मोहिनी ने एक ताना देने के लहजे में कहा। शिखर एक अपराधी की तरह चुप रहे जैसे। एक अजीब सन्नाटा तन गया। तभी मोहिनी ने कहा- ‘‘चल रहे हो मेरे साथ यहाँ एन्ज्वाए करने। आए तो हो। क्यों नहीं यहाँ के मोहक मौसम और पहाड़ियों पर मुझे जी भर जी लेते।‘‘ इस बार शिखर जैसे किसी मोम की तरह पिघलने लगा था। उसकी आँखों में एक बहुत पीड़ा से भरी हुई कातरता उतर आई थी। उसकी आँखों से हठात् वह हिंस्रता लुप्त हो गई थी। उसने बहुत कातर स्वर में कहा- ‘‘पैरों से असमर्थ किसी को दौड़ने के लिए कहना कितना पीड़ाजनक होता है क्या तुम इसे महसूस नहीं करतीं, दौड़कर तुम्हें पकड़ने लायक होता तो यह सारे सवाल ही क्यूं पैदा होते। दया या सहानुभूति कोई टेबलेट नहीं है जो तुम्हारे मुँह में डाल दूं। यह स्वयं महसूस करने की चीजें हैं। किसी अंग के बेकार हो जाने से मैं पूरी तरह समाप्त नहीं हो गया। मेरी लालसाओं का आकाश पूरी तरह साफ नहीं हो गया है। कुछ लालसाओं के बादल अभी भी मन के आकाश पर छाए हुए हैं।‘‘
अभी शिखर जैसे रोने को हो गए हैं। उनकी कातरता जैसे बहुत अर्से से अंदर ही अंदर रिस रही अभी पूरी तरह बाहर आ गई है। उन्होंने अपना सिर सोफे के पिछले मुट्ठे पे टिका लिया है एक पराजित व्यक्ति की तरह।
जिस सहज ढंग से शिखर अभी एक पराजित पुरूष की तरह दिखे हैं, मोहिनी के भीतर सारे विरोधों को जैसे चीरती हुई एक अजीब दया शिखर के लिए मन में सहसा उपज आई है। वह बहुत पास आ कर शिखर के बालों को सहलाती बोली- ‘‘मैं तुम्हारे सामने यहीं निरूपाय हो जाती हूँ। घृणा की एक मजबूत जमीन रहते हुए भी मैं तुमसे घृणा नहीं कर पाती। मैं यहीं कमजोर हो उठती हँ शिखर। मैं तुम्हें अब तक छोड़ चुकी होती हमेशा के लिए लेकिन पता नहीं किस मन के छोर से तुमसे अपने आपको बहुत बंधी हुई पाती हूँ।....आई लव यू...‘‘ इतना कह कर मोहिनी ने एक गहरी सेंक के साथ शिखर के माथे को चूम लिया था।
‘‘तुम्हारा यही एहसास मुझे न मरने देता है न मारने देता है। चलो लखनऊ मेरे साथ अपने घर। वहाँ क्या नहीं है मेरे पास। किसके लिए इतना सबकुछ कमा रहा हूँ। यहाँ तुम्हें नौकरी करने की जरूरत नहीं है।‘‘ शिखर ने बहुत ही द्रवित स्वर में कहा।
मोहिनी इन बातों पर चुप सी रही। जैसे उसके पास से उत्तर कहीं गुम गया था। फिर उसने शिखर के बालों को पूरी तरह सहलाते हुए पूरी आत्मीयता से कहा था- ‘‘चलो पहले नहा लो, तुम्हारे लिए खाना बनाती हूँ, कितने अर्से से मेरे हाथ का बना नहीं खाया है न। फिर चलने या न चलने का फैसला करेंगे।‘‘
शिखर मोहिनी की बांहों का सहारा लेते हुए खड़े हुए फिर बहुत ही सहज भाव से कहा- ‘‘जिसे तुमने गेस्टहाउस में रहने के लिए कह दिया है उसे भी बुलवा लो, हम साथ ही खाना खाएंगे।‘‘ अचानक शिखर में ऐसा परिवर्तन मोहिनी को कहीं गहरे तक छू गया है। वह बहुत द्रवित भाव से उन्हें निहारने लगी है चुपचाप। शिखर ने फिर कहा- ‘‘उस व्यक्ति का क्या कसूर। वह सिर्फ तुम्हारी स्वीकृतियों और अस्वीकृतियों पर निर्भर था। और उन स्वीकृतियों और अस्वीकृतियों पर सिर्फ तुम्हारा अधिकार है। मुझे आड़े नहीं आना चाहिए। मैं अभी स्वयं फ्रेश होकर उन्हें यहाँ बुला लाऊँगा...वैसे तुम उन्हें कबसे जानती हो?‘‘
‘‘मुंबई से ही। जब मैं वहाँ संगीत सीख रही थी। तीन-चार वर्षों तक इन्हीं के पास रह कर संगीत सीखा था। वहाँ से लखनऊ लौटने के बाद अमल पहली बार मेरे पास आए हैं। शायद पचमढ़ी घूमने या फिर मुझसे मिलने।‘‘ मोहिनी ने बहुत ही सहज भाव से बतलाया पर शिखर के चेहरे पर पहले जैसा हिंस्र भाव नहीं उभरा था। तभी मोहिनी ने मोती को आवाज देकर शिखर से कहा था- ‘‘यही लड़का मोती है। जिसके लिए यहाँ के लोग मुझे मोती चुगने वाली मैना के नाम से कटाक्ष किया करते हैं। इस लड़के को मैं सचमुच बहुत चाहती हूँ। मैं तुमसे झूठ नहीं बोलूंगी। वह यहाँ मेरे लिए एक छोटा सरोवर है। मैं उससे प्यास बूझाने के लिए मजबूर हुई हूँ शिखर। मैं जानती हूँ कि मैं उस लड़के का एक तरह से शोषण ही कर रही हूँ। वह बेचारा कुछ भी अपने साथ बने संबंधों को गहराई से नहीं समझता। बस, इसी वजह से मैं उसे बहुत चाहने लगी हूँ। बस, सच यही है शिखर। मैं अपनी प्यास को नहीं संभाल पायी। यही अपराध है तो यहीं मैं अपराधी बनती हूँ। प्यास की तृप्तता यदि अपराध है तो मैं तुम्हारी अपराधी हूँ।‘‘
तभी मोती आ गया है। शिखर उसके मासूम से गालों को थपथपाते हुए हँस कर, बहुत ही सहज भाव में बोले- ‘‘तेरा कर्ज मुझ पर भी बहुत है रे। तू कहीं मुझसे बहुत बड़ा है।‘‘
मोती चुपचाप जैसे शिखर की बातों का अर्थ निकालता हुआ उनका चेहरा भर निहारता रह गया। अभी मोती के गाल को थपथपाने में जो शिखर में एक बहुत दुरूह सा भाव मोहिनी ने महसूस किया है उससे वह अपराजेय सा लगा है इस क्षण।
तभी बाथरूम की तरफ जाते-जाते शिखर ने हँस कर कहा- ‘‘मोहिनी, मैं तुम्हें महाभारत की गांधारी नहीं बनाना चाहता। यदि पति अंधा हो तो तुम भी मेरे लिए अपनी आँखों पर पट्टी बांध लो। तुम्हें अपने ढंग से देखने और जीने का अधिकार है। बस...मेरा पुरूष ही पशु हो रहा था।‘‘ इतना कह कर शिखर बाथरूम में बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए चले गए। तभी मोती ने बहुत सहज भाव से पूछा- ‘‘यह साहब कौन हैं?‘‘
मोहिनी ने एक गहरे अर्थ के साथ उसके चेहरे पर आए भावों को पढ़ते हुए हँस कर कहा- ‘‘यही तेरे असली साहब हैं। मेरे साहब तुझे अच्छे नहीं लगे?‘‘
‘‘बहुत ही अच्छे।‘‘ मोती ने मुस्कुरा कर कहा। फिर उसने बहुत ही सहज भाव से पूछा..‘‘ और वो गेस्टहाउस वाले साहब कौन थे?‘‘
अभी मोती का यह प्रश्न जैसे कहीं ढेर सारे मर्मों को उधेड़ता सा लगा है। मोहिनी जैसे इस प्रश्न का उत्तर तत्काल नहीं दे पायी है। वह शायद उत्तर की प्रतीक्षा में मोहिनी का चेहरा निहारता रहा। मोहिनी को अभी जैसे एहसास हुआ कि पुरूष, पुरूष ही होता है। उसकी प्रवृत्ति एक सी होती है। चाहे वह प्रवृत्ति प्रौढ़ हो या अपरिपक्व। अभी जिस कच्ची सी या फिर बहुत ही अपरिपक्व सी ईर्ष्या से गेस्टहाउस वाले साहब के बारे में पूछा उसने, मोहिनी उसे मुस्कुराती निहारती भर रह गई।
उसने अपना उत्तर न पाकर एक पीड़ा के भाव में पूछा- ‘‘क्या आपके साहब आपको लिवाने आए हैं?‘‘
‘‘तुझे छोड़ना मेरे लिए बहुत मुश्किल होगा रे।‘‘ वह उसके गालों को चूमते हुए बोली- ‘‘तुझे मैं अपने साथ पिंजड़े में बंद करके ले जाउंगी। जब तू पिंजड़ा समझने लायक हो जाएगा, तू खुद ही मेरे हाथ से उड़ जाएगा।....चल साहब के लिए सब्जी काट। कल रात से कुछ खाए नहीं हैं।‘‘ फिर कुछ याद करते हुए बोली ‘‘गेस्टहाउस भी चले जाना और उन साहब से कहना कि मेम साहब ने उन्हें यहीं बुलाया है। उनका सारा सामान भी उठा लाना।‘‘ फिर अचानक बोली-‘‘...नहीं...तू रहने दे मैं ही जाती हूँ‘‘
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अमल को गेस्टहाउस में बहुत खाली-खाली लगा है। वो कितनी बार आ कर खिड़की पर खड़े हुए हैं, सामने की बिखरी सी पड़ी सुरम्य पहाड़ियाँ भी जैसे मन को छू न सकी हैं। सारी रात उन्हें एक दुस्वप्न डरता सा रहा| सुबह जल्दी ही उठ गए| आकाश में सुबह से ही हल्के-हल्के बादल छा गए थे। मौसम में एक अजीब सा रस घुला हुआ था। लेकिन अमल को सब अछूता सा लग रहा था। इतने मोहक मौसम में वह जिस उदासीनता को पूरी तरह से झेलते रहे हैं, आखिर उन्होंने वापस जाने की तैयारी कर ली थी। उनका कितनी बार मन हुआ था कि जाने से पहले वे एक बार मोहिनी से मिल लें और उस अपनी कृतज्ञता का कम से कम एहसास तो करा ही दें कि उसके मांसल स्पर्श ने उनके मुर्झाए से पुरूष में एक उष्णता भर दी है। लेकिन कितनी बार उसने मोहिनी के पास जाने से रोका भी था। उसके यहाँ आए हठात् उस रहस्यमय व्यक्ति ने मोहिनी के पूरे वर्तमान को जैसे झकझोर दिया था। वह निरूपाय सी हुई, बेहद असमर्थ सी लगी थी।
शाम को गेस्टहाउस के चपरासी से अमल ने पूछा- ‘‘यहाँ से बस कितने बजे छूटती है?‘‘
‘‘कहाँ जाना है आपको....?‘‘ उसने सहज भाव से पूछा और फिर तत्काल बोला था- ‘‘वैसे...यहाँ से स्टेशन के लिए हर एक घण्टे पर बस जाती है।‘‘
‘‘कहाँ जाना है...यही अब जीवन में जैसे सोचने को रह गया है।‘‘ अमल न जाने फिर किस भाव में स्वतः बोल पड़े हैं- ‘‘कहीं जाने से क्या होता है। वहाँ ठहरने के लिए मन को तो कहीं बंधना चाहिए।‘‘
चपरासी चुपचाप अमल को बड़बड़ाते सुन कर बोला- ‘‘साहब, जब जाना होगा बताना, सामान पहुँचाने के लिए आदमी बुला दूंगा।‘‘ और वह इतना कह कर चला गया। अमल ने सिगरेट निकल कर सुलगा ली|
तभी अचानक मोहिनी आ गई। अभी उसके चेहरे पर एक अजीब सा भाव उभरा हुआ था। उसकी मांग में सिंदूर का चमकना जैसे उसे आज कुछ थोड़े से पलों में बदल गया था। उसका पूरा व्यक्तित्व ही जैसे किसी कालखण्ड में जा कर बहुत तेजी से परिवर्तित हुआ था।
अभी अमल ने अवाक् से मोहिनी के पूरे आकार को एक कुतुहल के साथ देखा। कल रात की तरह वह न तो कामसूत्र की हस्थिनी लग रही थी, न ही मोती चुगने वाली मैना की झलक उसमें उभर रही थी। उसकी मांग में भरे सिंदूर और गले में चमकता हुआ मंगलसूत्र उसकी उन्मुक्त सी मादक काया को इस तरह आच्छादित किए हुए थे कि उसकी पूरी छवि ही जैसे धुंधलायी सी लग रही थी। मोहिनी के चेहरे पर न तो सहज मुस्कान थी और न तो कोई स्थिरता ही जिससे उसके किसी भाव को पढ़ा जा सके। उसकी आँखों में जैसे वृक्ष की एक डाली स्थिर थी जिस पर कोयल बैठी तो हो लेकिन चुप हो। वह पलों तक मौन सी अमल को खड़ी निहारती रही। उसके होंठों पर जैसे सारे शब्द बर्फ के टुकड़ों की तरह जम गए थे।
तब अमल ने उस असह्य मौन को तोड़ते हुए मुस्कुरा कर कहा- ‘‘तुम आ गईं, बहुत अच्छा हुआ नहीं तो तुमसे मिले बगैर ही चला जाता तो मन में हमेशा एक टीस सी बनी रह जाती।‘‘
‘‘वापस जा रहे थे?‘‘ मोहिनी ने बहुत ही आहत भाव से पूछा- ‘‘लेकिन क्यों? इसलिए कि तुम्हें गेस्टहाउस में भेज दिया थ?‘‘
‘‘ऐसा नहीं है। मेरे यहाँ ठहरने से तुम बहुत ही डिस्टर्व हो रही थीं।‘‘ अमल ने उसकी आँखों में कल रात वाली असहज घटना की प्रतिक्रिया जैसे टटोलनी चाही। और फिर धीरे से कहा- ‘‘यदि तुम पर किसी की कड़ी नजर न हो तो थोड़ी देर यहीं पास में बैठो।‘‘
अमल की इस टिप्पणी पर वह थोड़ा एक अजीब भाव में मुस्कुराई और सामने वाली कुर्सी पर बैठती बोली- ‘‘मैं तुम्हें लेने आई हूँ, वापस अभी कहाँ जाओगे?‘‘