Ek Samundar mere andar - 18 in Hindi Moral Stories by Madhu Arora books and stories PDF | इक समंदर मेरे अंदर - 18

Featured Books
Categories
Share

इक समंदर मेरे अंदर - 18

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(18)

प्राइवेट कंपनियां ज्‍य़ादा इंतज़ार नहीं करतीं। इसीलिये वे प्रशिक्षित कर्मचारी चाहती हैं, भले ही वेतन ज्‍य़ादा देना पड़े। उसे पहली नौकरी का अनुभव तो था ही। यहां काम करने का तरीका थोड़ा अलग था।

उसने साबिया से कहा – ‘ज़रा टेलीफोन बोर्ड के तार जॉइन करना बता दे।‘ उन दिनों एपीबीएक्‍स बोर्ड पर प्‍लगसहित तार हुआ करते थे जिन्‍हें बोर्ड पर लगे छेदों में डालकर संबंधित इंटरनल कर्मचारी से बात करवाई जाती थी।

बाहर से आने वाले फोन के लिये लाल लाइट चमकती थी। बोर्ड पर हर पिन के आगे एक्‍स्‍टेंशन लिखे होते थे। इस कार्य के लिये तीन महीने की ट्रेनिंग होती थी। कामना ने बिना ट्रेनिंग के ही यह कार्य शुरू किया था, तो थोड़ी तो परेशानी होनी ही थी।

दूसरी ओर, साबिया ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था। वह उससे ढंग से बात भी न करती, सहयोग की बात तो सोची ही नहीं जा सकती थी। वहां और भी दो लड़कियां थीं। मंगला और शुभा। वे दिन भर डबल मीनिंग की बातें करती रहती थीं।

...हो हो करके हंसतीं थीं और मंगला रजिस्‍टर में आवक जावक पत्रों की प्रविष्टि करती रहती थी। शुभा टाइपिंग का काम करती थी। मिस्‍टर गोयल तो मुश्‍किल से दो घंटों के लिये आते थे। अपनी कंपनी के सिगरेट के कारखाने का मुआयना करते, जो ऑफिस के सामने वाली सड़क पर था।

वहां ज़रूरी आदेश देकर वे चले जाते थे। वे एक अच्‍छे इंसान के रूप में मशहूर थे। इसलिये कर्मचारी भी खूब मन लगाकर काम करते थे। एक बार उन्‍होंने फोन किया और कामना ने फोन उठाया और पूछा – ‘आप कौन?’

इस पर वे हल्के से नाराज़गी भरे स्‍वर में बोले थे – ‘आपको मेरी हैलो से समझ लेना चाहिये। आज अपना नाम बता रहा हूं। आइंदा ध्‍यान रहे।‘ इस बात का उस पर बहुत असर पड़ा था और वह फोन पर हैलो से ही आवाज़ और व्‍यक्‍ति को समझने की कोशिश करने लगी थी।

अब तो हैलो के लहज़े से ही आवाज़ पहचान लेती है। इसमें कम ही धोखा खाती है। पहले खाती थी। अनुभव समृद्ध बनाते हैं। लंच टाइम में टेलीफोन बोर्ड थोड़ा आराम में रहता था और मिस्‍टर गोयल की ओर से आदेश था कि लंच टाइम के 30 मिनट तक कोई फोन अटैंड न किया जाये। खाना खाकर थोड़ा सा आराम करें।

इसके बाद तो साबिया और मंगला और शुभा का ही राज था। वे अपने काम में माहिर थीं पर खासी चालू भी थीं। साबिया का कोई एक बॉय फ्रैंड था। वह बांसुरी बहुत अच्‍छी बजाता था। अब वह दफ्तर तो आ नहीं सकता था।

वह बताती थी कि वह कोई नौकरी नहीं करता था। फिल्‍मों में हाथ आजमाने आया था और अभी तक बेकार था। अब साबिया को वह कैसे मिला, यह रहस्‍य ही था। वह अपने बारे में किसी को कुछ नहीं बताती थी।

उसी तीस मिनट में साबिया अपने बॉय फ्रैंड को फोन लगाया करती थी और वह दूसरी ओर अपने दोस्‍त की दुकान पर उसके फोन का इंतज़ार करता था। उस ज़माने में अपनी दुकान पर लगे पब्लिक फोन पर किसी से से बात करवाने के लिए दुकानदार एक दो या तीन रुपये लिया करते थे।

उनका कहना था कि नौकर अपने सारे काम छोड़ कर उस आदमी को बुलाने जाता है। अगर वह व्‍यक्‍ति उस समय हाजिर न हो तो शाम या रात को अपने लिए आये फोन कॉल्‍स के बारे में पूछता था तो भी उसे प्रति मैसेज एक रुपया दे कर ही दिये जाते थे।

यानी तब फोन करना सस्ता और फोन एटेंड करना महंगा सौदा हुआ करता था। तीन मिनट बाद फोन अपने आप कट जाता था। यदि और बात करना हो तो फिर से डायल करना होता था नंबर और साबिया यह सब करती रहती थी।

वह लड़का फोन पर वह बांसुरी बजाता था और साबिया बारी बारी से मंगला और शुभा के कानों में रिसीवर लगा देती थी और उन सबकी आंखों में एक चमक सी आ जाती थी। एक दिन मंगला ने उसके कान में रिसीवर लगा दिया था।

पहली बार उसने उस आदमी की बांसुरी सुनी थी। अच्‍छी बजा लेता था। बाद में वह काफी देर तक सोचती रही थी कि इस मुहब्बत का अंजाम क्‍या होगा। एक दिन शाम को पांच बजे साबिया ने कहा –

‘कामना, तू कॉलेज ट्रेन से जाती है न.....चल, आज तुझे मैं चर्चगेट छोड़ दूंगी। मैं अपने बॉय फ्रैंड से मिलने जा रही हूं और टैक्‍सी से जा रही हूं। तू भी मिल लेना उससे।‘

उसे साबिया का दुर्व्यवहार याद था फिर भी वह उसके साथ जाने के लिये तैयार हो गई थी। जब वे टैक्‍सी में बैठीं तो वह ज़रूरत से ज्‍य़ादा मीठा बोल रही थी। वह हैरान थी कि उसकी तबीयत तो ठीक थी।

अंततः वह मुद्दे पर आ ही गई थी....’देख कामना, तुझसे मिलवा रही हूं, इसको अपना नसीब समझना। हां, इस बात का खयाल रखना कि मेरे घर में यह बात किसी को पता न चले। इस पर उसने इतना ही कहा था – ‘मुझे क्‍या पड़ी है तुम्‍हारे घर में बताने की। तुम्‍हारा अपना मामला है।‘

जब टैक्‍सी मरीन ड्राइव पर पहुंची तो समुद्र के किनारे रुकने के लिये कहा। वहां टैक्‍सी छोड़ दी गई थी। वे दोनों मरीन ड्राइव की दीवार पर बैठ गई थीं। पांच मिनट बाद ही देखा कि सामने से एक आदमी सिर पर साफा बांधे और राजस्‍थानी पोशाक व पैर में मोजड़ी पहनकर चला आ रहा था। उसे देखते ही साबिया चहककर उठी थी।

कामना का उससे परिचय कराया गया था। उस आदमी को लड़का तो नहीं ही कहा जा सकता था। ख़ासा खेला-खाया लग रहा था और बंजारा लग रहा था। उसने कामना से हाल-चाल पूछा और कामना ने कहा – ‘आपसे मिलकर अच्‍छा लगा। अब मैं चलती हूं।‘

उसे साबिया पर बहुत गुस्‍सा आ रहा था। बात चर्चगेट की हुई और यहां अधर में लटका दिया था। वहां से सामने वाला मैदान पार करके मरीन लाइन्स स्‍टेशन था और वह मैदान पार करने में ही बीस मिनट लग जाने थे। आज तो देर होकर रहेगी।

आज कबीर पर लेक्‍चर था। वे प्रोफेसर आते कम थे पर पढ़ाते बहुत अच्‍छा थे और वह उनका लेक्‍चर कभी बंक नहीं करती थी, पर आज तो होकर रहेगा। घड़ी देखी तो पौने छ: बजने आ रहे थे।

साथ ही मन में सवाल उठ रहा था कि क्‍या साबिया इस बंजारे से शादी करेगी? पता नहीं वह आज कितने बजे घर पहुंचेगी। इन्‍हीं सवालों के घेरे में उलझी हुई वह मरीन लाइन्स स्‍टेशनपहुंची थी और ट्रेन भी मिल गई थी।

चर्चगेट उतरकर लगभग दौड़ते हांफते वह छ: बजकर बीस मिनट पर क्‍लास में पहुंची थी और नसीब उसका अच्‍छा था कि सर भी उसी समय क्‍लास में आये थे।

जब वह रात को दस बजे घर पहुंची तो साबिया की मां घबराती हुईं उसके घर आई थीं - कामना, तू और साबिया तो एक ही जगा काम करती न, वो अभी तलक घर नहीं नहीं आई। काम पर तो आई थी न?’

इस पर वह बोली थी – ‘हां, काम पर आई थी। मैं तो पांच बजे कॉलेज के लिये चली जाती हूं। आती होगी....आप डरो मत’ और वे या ख़ुदा कहते हुए चली गई थीं। कामना साफ मुकर गई थी और सफेद झूठ बोल गई थी।

वह तभी झूठ बोलती है जब खुद को बचाना हो या दूसरे को बचाना हो। झूठ उससे बोला नहीं जाता और सच बोलकर हमेशा फंस जाती थी और आज भी वही हाल है। दूसरे दिन जब वह ऑफिस पहुंची तो साबिया आ चुकी थी।

दोनों में कुछ बात नहीं हुई। कामना ने बोर्ड खोला और रजिस्‍टर खोलकर आईटीसी को रिकार्ड दर्ज़ कराने लगी थी। इतने में मिस्‍टर दुआ आये। वे इस कंपनी का माल ट्रकों में लदवाकर दूसरे शहरों में भिजवाया करते थे।

कामना की उनसे यह पहली मुलाक़ात थी। उन्‍होंने उसे नीचे से ऊपर देखा, मानो आंखों ही आंखों में तौल रहे हों। हंसकर बोले – तुस्‍सी वधिया लग रहे हो जी.....पढ़े लिखे भी लगदे पये हो।‘

उसने उनकी बात को अनसुना करते हुए कहा – ‘आज ट्रक कब तक पहुंचेगा यहां? माल भरकर भिजवाना है।‘ अपनी दाल न गलते हुए दुआ रिसिया गये और बोले – ‘ऐसे तो कभी साहब ने भी नहीं कहा।

-….ट्रक शाम को छ: बजे भेजेंगे। हमें तो पता चला था कि कोई नई टेलीफोन ऑपरेटर आई हैं, सो हल्लो करने चले आये।‘ इस पर उसने कहा था – ‘ठीक है। छ: बजे साबिया जी देख लेंगी। वैसे भी मेरा काम ट्रक भरवाने का नहीं है।‘

इसके बाद दुआ आगे बढ़ गये थे और वह अपना बैग ठीक करने में लग गई थी। उसे इन चालू लोगों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। ये फ्लर्ट करने में माहिर थे और वे इस प्रकार का ट्राय सभी पर मारते होंगे।

कभी कभी एक दूसरी टॉबैको कंपनी के इंचार्ज आया करते थे और वह भी लंच टाइम में आते थे। कामना हर आगत से हैलो ज़रूर करती थी और उनसे भी करती थी। उनके यहां रिपोर्ट जो जाती थी। अच्‍छे व्‍यक्‍तित्‍व के मालिक थे।

वे खूबसूरत थे और हमेशा प्‍लेन नीली शर्ट पहना करते थे जो अलग अलग शेड की हुआ करती थीं। वे दो मिनट ज़रूर खड़े रहते थे रिसेप्शन टेबल पर, लेकिन वह अपना रजिस्‍टर खोलकर अपना काम करने लगती थी।

इसमें उनको बड़ी बेइज्ज़ती लगती थी। वे मंगला और साबिया की ओर बढ़ जाते थे। मंगला अपनी कुर्सी से उठ खड़ी होती थी – ‘या साहेब या, बसा इकडे। काय घेणार? चहा, थंडा?’ यह कहते कहते वह पीछे से उनकी गर्दन में अपनी बांहें डाल देती।

साबिया उनका हाथ अपने हाथ में ले लेती थी। शुभा चुपचाप टाइपिंग का काम करती रहती थी। कामना को आवाज़ दी जाती थी और वह जाती भी थी, पर एक सुरक्षित दूरी बनाकर खड़ी हो जाती थी।

उसे शारीरिक छुआ-छुऔवल का खेल शुरू से ही पसंद नहीं था। बिना वजह आदमी छू-छूकर बात करे, उसे बिल्‍कुल पसंद नहीं था। उसे आज भी यह सब अच्‍छा नहीं लगता। वे लोग डबल मीनिंग के जोक बोलते और हा हा..खी खी करके हंसते और

‘दे ताली’ कहकर हाथ आगे कर देते। हाथ पकड़ने का यह अच्‍छा तरीका था। ना बाबा ना....इन शर्तों पर तो वह यह नौकरी बिल्‍कुल नहीं करेगी। उसे बताया गया - ये साहब बहुत पहुंच वाले हैं। इनको खुश करेगी तो ये तुझे अपना सेक्रेटरी बना लेंगे।

....अभी बोल रहे थे। हम लोग को भी उधर ही लेने वाले हैं। हम लोग को तो एक्‍सपीरियन्‍स भी है, पर सेक्रेटरी नहीं बनायेंगे।‘ वह उनको एक नज़र देखती और अपनी सीट पर वापिस चली जाती थी। उनके हंसने की आवाज़ें आती रहती थीं। वह बोर्ड पर नंबर डायल करती और सोम से बात करने लगती थी।

वह शुरू से ही कम बोलती थी, पर मन ही मन निर्णय ले लिया करती थी। उसने तय कर लिया था कि वह इस नौकरी को छोड़ देगी। बस, सही वक्‍त़ का इंतज़ार था। मिस्‍टर गोयल से बात करना ठीक नहीं होगा। क्‍या पता, उनको सब पता हो, पर वे कुछ न कहते हों।

उन्‍हें कंपनी के फायदे से मतलब था। जो भी होता था, उनकी ग़ैरहाज़िरी में होता था। कामना जीवन में बहुत कुछ सीखती जा रही थी और अपने निर्णय स्वयं लेने में सक्षम होती जा रही थी। मिस्‍टर दुआ का फोन आता रहता था

...एक दिन फोन आया और वह बोला - कामना जी, अस्‍सी चा पिवांगे। मेड्डा ऑफिस नजीक है जी, बोलो तो गड्डी लेके आ जावां।‘ वह धीरे से लेकिन दृढ़ स्‍वर में मना कर देती थी।

एक दिन तो जब इस अवांछित आमंत्रण की हद हो गई तो उसने कह ही दिया – मिस्‍टर दुआ, आप सिर्फ़ ऑफिशियली बातें किया कीजिये। आइंदा इस तरह के आमंत्रण न दें तो बेहतर होगा।‘

वह चाहती तो ये आमंत्रण स्‍वीकार कर सकती थी। वह बहुत कुछ कर सकती थी। किसी को पता भी न चलता। लेकिन उसकी ज़िंदगी का ये मक़सद कभी नहीं रहा था। अब आफिस का काम बढ़ जाने के कारण उसकी क्‍लासेस भी मिस होने लगी थीं।

टॉबैको कंपनी के हेड ऑफिस की ऑपरेटर को रिकॉर्ड देना होता था कि उस दिन कितना माल बना, कितना सप्लाई हुआ और कितना माल बाकी है। इस वजह से सोम से भी मिलना नहीं हो पाता था। एक दिन मिस्‍टर गोयल सुबह ही आ गये थे और कहा –

‘आज यहां सभी को सारे दिन रहना होगा। कोई जल्‍दी नहीं जायेगा। यूनियन की कुछ मांगें हैं और उन्‍होंने मैनेजमेंट से न कहकर ट्रेड यूनियन के अध्यक्ष तक अपनी फ़रियाद पहुंचाई हैं....वे शाम को आ रहे हैं।

....हमने यूनियन से कुछ समय मांगा था, पर वे नहीं मानें। अब देखते हैं। कामना, आज आप कॉलेज नहीं जायेंगी। शाम की मीटिंग के मिनट्स बनाने होंगे।‘

यह पहला मौका था जब वह यूनियन की मीटिंग देखेगी और उसका हिस्‍सा बनेगी। शाम को पौने छ: बजे यूनियन के अध्यक्ष अपने चार पांच आदमियों के साथ आये। मिस्‍टर गोयल ने सारी तैयारी करवा ली थी।

मंगला बहुत आगे पीछे हो रही थी ताकि लाइम लाइट में रह सके। इन हरक़तों का किसी पर क्‍या असर होना था। वे गरम जोशी से बातें करते रहे। एक दूसरे पक्ष पर आरोप लगाते रहे। क़रीब सात बजे तक मीटिंग चली और उसने मिनट्स बनाकर शुभा को दे दिये। उसका काम पूरा हो चुका था।

गोयल ने शुभा से कहा – ‘सुबह आकर टाइप कर लेना। रात होने को है और तुम्‍हारा घर भी दूर है।‘ वह अंबरनाथ से आती थी। घर जाकर वह खाना बनाती थी, साथ ही बच्‍चों का होमवर्क भी करवाती थी।

उसके बच्‍चे स्‍कूल से बालवाड़ी जाते थे। उसके मुकाबले तो कामना फिर भी नज़दीक ही रहती थी। एमए फाइनल पेपर भी नज़दीक आ रहे थे। एक दिन ऑफिस में वह काम कर रही थी कि सोम का फोन आया –

‘शहर में दंगा हो गया है और वह भी पब्लिक और पुलिस के बीच। लोग नियंत्रण में नहीं आ रहे हैं। पूरा शहर बंद हो रहा है...यहां तक कि ट्रेनें भी। उसके ऑफिस के लोगों को पता ही नहीं चल पाया था।

कुछ देर बाद बोर्ड पर फिर से इनकमिंग कॉल की लाल लाइट चमकी। उसने फोन उठाया तो सोम का ही फोन था – ‘शहर में कर्फ्यू लग गया है। चार लोग सड़क पर एक साथ नहीं चल सकते। हम सब तो अपने दफ्तर में ही रुक रहे हैं।‘

कामना थोड़ी सी तो डरी थी और हिचकते हुए पूछ बैठी थी – ‘यदि आप अन्‍यथा न लें तो क्‍या मैं आपके ऑफिस रुक जाऊं? यहां से ज्‍य़ादा दूर नहीं है, पैदल चला जा सकता है। मेरे ऑफिस से आधे से ज्‍य़ादा लोग तो निकल लिये। समझ में नहीं आ रहा है कि क्‍या करूं।‘

इस पर वहां से आवाज़ आयी – ‘आसपास कोई पहचान का हो तो देख लीजिये। आप मुंबई की हैं, कोई तो पहचान का होगा। आपको क्‍या करना है, आप देख लीजिये। मेरे लिए संभव नहीं हो पायेगा। आफिस का मामला है।‘

इस पर उसने ठंडे स्‍वर में कहा था – ‘ओ के। आप चिंता न करें। मैं देख लूंगी कि मुझे क्‍या करना है और अब फोन भी न करें।‘ उस दिन वह एक बार फिर अकेली थी। इस अकेलेपन ने उसमें स्‍वनिर्णय लेने की क्षमता को और मज़बूत बना दिया था।

सोम से उस दिन वह अंतिम बात थी। फिर दो दिन तक कोई संपर्क नहीं हो सका था। फैक्टरी के चौकीदार ने आकर लाइट बंद करना शुरू कर दिया था और इसका मतलब था कि उसे बाहर निकल जाना चाहिये। उसने भी अपना बैग उठाया और निकल ली। ट्रेनें बंद थीं।