Gavaksh - 36 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | गवाक्ष - 36

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गवाक्ष - 36

गवाक्ष

36==

यकायक एक अन्य अद्भुत दृश्य उनके नेत्रों के समक्ष नाचने लगा

उनके हस्तलिखित पृष्ठ ऊपर की ओर उड़ते तो रहे लेकिन नीचे ज़मीन पर नहीं आए। प्रोफ़ेसर का मस्तिष्क चकराने लगा, वे विश्वास करते थे यदि प्रकृति के साथ छेड़खानी न की जाए तब वह सदा सबका साथ देती है। माँ प्रकृति के आँचल में सबके लिए प्रसन्नता व खुशियाँ भरी रहती हैं । उनके जीवन भर का संचित ज्ञान इस प्रकार ऊपर उड़ रहा था मानो उसके पँख उग आए हों, विलक्षण !उनका गंभीर, शांत मन उद्वेलित हो उठा और वे जैसे ही उन पृष्ठों को पकड़ने के लिए उठने लगे, उनके हाथ के नीचे दबे हुए पृष्ठ भी अन्य पृष्ठों के साथ ऊपर उठ गए ।

कुछ अर्धविक्षिप्त अवस्था में उन्हें पकड़ने के लिए व्याकुल होकर वे पृष्ठों के साथ इधर से उधर लगभग भागते हुए से अपने हॉलनुमा कक्ष में चक्कर लगाने लगे थे परन्तु उनके हाथ में कुछ भी नहीं आ रहा था। विवशता की लंबी साँस लेकर वे अपनी कुर्सी पर बैठ गए।

' ‘ निराशा मनुष्य के मन को हतोत्साहित कर देती है। " बालक की आवाज़ में कोई उनके द्वारा लिखित शब्द पढ़ रहा था ।

प्रोफेसर श्रेष्ठी चौंक उठे ! ये उन्ही के लिखे शब्द थे। अचानक उन्हें पवन के स्वर चौंकाने लगे। उन्होंने पुन:सिर उठा ऊपर की ओर देखा । पुस्तक के पृष्ठ पंखे के ऊपर गोल-गोल घूम रहे थे और उनमें से जैसे कबूतरों के पँखों के फड़फड़ाने की ध्वनि निकल रही थी। वे कभी पंखे को घेरकर चारों ओर चक्कर काटने लगते, कभी नीचे आने का उपक्रम करते दिखाई दिखाई देते फिर अचानक ऊपर की ओर उठ जाते । उन्हें लगा पृष्ठ झुण्ड सा बनाकर बच्चों की भाँति ऊपर-नीचे दौड़ते-भागते हुए पकड़म-पकड़ाई खेल रहे हैं।

इस अनोखे खेल में उन्हें भी आनंद आने लगा जैसे कई छोटे बच्चे मिलकर उन्हें चिढ़ा रहे हों -

'आओ, साहस है तो पकड़ो हमें---' वे अपने पृष्ठों को फड़फड़ाते हुए देखते रहे फिर मुस्कुराते हुए शान्ति से कुर्सी पर बैठे उन्हें देखते रहे ।

"क्यों थक गए ?" पुन: उसी बालक का स्वर सुनाई दिया जो पहले बोला था ।

प्रोफेसर मुस्कुराकर बोले --

" सामने तो आओ, छिपकर कैसे खेल खेलेंगे, पहले तुमसे मित्रता तो कर लूँ । "

" आप मुझ पर क्रोध करेंगे ---"

"क्यों?"

" आपके कार्य में विघ्न किया है न ?"

" नहीं करना चाहिए क्या क्रोध?"----

कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ तो प्रोफेसर ने पुन:आवाज़ दी ।

" क्या हुआ? कुछ तो बोलो!"

वातावरण में चुप्पी पसरी रही ।

" अरे! आ जाओ, कुछ नहीं कहूँगा --"

" गॉड प्रॉमिस?" बालक चिहुंक उठा ।

" हाँ, गॉड प्रॉमिस ---अब आ जाओ और पहले मेरे मित्र बनो --"वे हँस पड़े।

उनके समक्ष एक प्यारा सा पाँचेक वर्ष का बालक खड़ा था । पृष्ठ अभी भी उसी प्रकार गोल-गोल घूम रहे थे। प्रोफ़ेसर ने साधना की थी, उनकी समझ में आ गया कि वह कोई साधारण बालक नहीं था और यह सब कुछ वही कर रहा था ।

" नाम बताओ ---और वास्तविक रूप में आओ --"

बचने का कोई मार्ग न था ---

" जी, मैं कॉस्मॉस -----"उसने हिचकते हुए कहा । मंत्री जी की चेतावनी उसे फिर से स्मरण हो आई ।

" हूँ---मृत्युदूत !मेरे सामने अपने वास्तविक रूप में आओ ---"

भोर के सुनहले प्रकाश की किरणों से जैसे किसी नन्हे सूर्य का उदय हुआ । प्रोफेसर श्रेष्ठी ने आगंतुक का स्वागत किया ।

" बैठो और अपने आने का कारण बताओ--- "

कॉस्मॉस विद्वान प्रोफेसर से प्रभावित प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनके समक्ष खड़ा रह गया । पुस्तक के पृष्ठ अभी तक धरती तथा कक्ष की छत के मध्य त्रिशंकु बने हुए थे ।

" बैठो, खड़े क्यों हो?अपने आने का कारण बताओ !"

'मृत्युदूत हूँ, क्यों आऊंगा भला ? कैसे प्यारे-प्यारे लोग हैं इस पृथ्वी पर ---लेकिन हमें बनाया गया है उनको समाप्त करने के लिए --'उसे अपने ऊपर क्षोभ था ।

आगंतुक ने विनम्र भाव से अपने आने का कारण बताया । प्रोफेसर मुस्कुराए ;

"अच्छा ! तो मेरा समय आ गया? लेकिन कुछ जल्दी है कॉस्मॉस---"

'बताइए, जहाँ भी कहीं जाता हूँ, वहीँ ये ही शब्द सुनता हूँ । एक बार स्वामी यमदूत जी ज़रा आकर तो देखें, उन्हें भी इनसे प्रेम न हो जाए तो !पता नहीं क्यों इतना कठोर बनाया है हमें ?' वह बड़बड़ करने लगा ।

प्रोफेसर के मुख-मंडल पर मुस्कुराहट तैर गई । वे उस ‘बेचारे से कॉस्मॉस’ के मन में झाँकने लगे थे, उसकी सारी भावना का ज्ञान हो रहा था उन्हें । 'क्या करे यह बेचारा, अपने कर्तव्य का मारा !' उन्होंने भी मन ही मन सोचा ।

" सर!मुझे अपना कर्तव्य पूरा करना है । "उसने सहमते हुए कहा । जहाँ कहीं भी जाता था, यही तो कहता था फिर बैरंग चैक सा वापिस लौट जाता था।

" मेरे कर्तव्य में विध्न डालकर ?"उन्होंने सहज भाव से पूछा ।

कॉस्मॉस शर्मिंदा था, उसे ज्ञात था कि वह एक विद्वान के महत्वपूर्ण कार्य में विघ्न बन रहा है ।

वह जहाँ जाता था वहाँ यही संवाद उसके मुख से निकलते थे । 'सर!मुझे अपना कर्तव्य पूरा करना है' क्या करता ? इस पृथ्वी के प्यारे लोगों ने उसे इतना अभिभूत कर दिया था कि वह अपना 'कॉस्मॉस' होना कभी-कभी भूलने लगता था ।

" मैं आपसे तथा आपकी विद्वता से भली-भाँति परिचित हूँ --"दूत अभी तक खड़ा था तथा विनम्रता से प्रोफेसर के प्रश्नों का उत्तर दे रहा था ।

" सर !आप महान दार्शनिक हैं, ज्ञानी हैं, जीवन की वास्तविकता समझते हैं। मेरे कार्य की महत्ता को भी समझते हैं, आपसे क्या छिपा है ?" कॉस्मॉस विनम्र बना रहा ।

"यह तुम्हारी शालीनता है किन्तु जितना मैं मृत्युदूत के बारे में जानता, समझता हूँ उसमें शालीनता की संवेदना का होना कुछ अद्भुत नहीं है ?"प्रोफेसर एक समर्थ विचारक थे, दूत के आचरण ने उन्हें यह समझने के लिए बाध्य किया कि वह मृत्युदूत है भी अथवा नहीं ?

" सबसे पहले तुम मेरे पृष्ठ उतारो और यह बताओ तुम मेरे कक्ष में एक छोटे बालक बनकर क्यों प्रविष्ट हुए थे?क्या तुम्हें लगा कि मैं मृत्यु का नाम सुनकर भयभीत हो जाऊंगा ?"

"मैं आपके कार्य में विघ्न नहीं बनना चाहता था किन्तु क्या करूँ ----" उसने अपनी वह सारी गाथा प्रोफ़ेसर के सम्मुख रख दी जो अन्य सबको बताई थी ।

"लेकिन बालक बनकर क्यों?"

" क्योंकि बच्चे को कोई आसानी से डाँटता नहीं न !" उसने इतने भोलेपन से कहा कि प्रोफेसर मुस्कुरा पड़े।

" तुम भी पृथ्वी से राजनीति सीख गए हो ---"सोचकर वे हँसे ।

" अच्छा ! अब पहले मेरे लिखे हुए पृष्ठ उतारो फिर आगे बात करो । "

कॉस्मॉस ने आगे बढ़कर अपने हाथ का यंत्र प्रोफेसर की मेज़ पर स्थित कर दिया और पृष्ठ उतारने के प्रयास में आगे बढ़ा ।

" यह तो समय-यंत्र है---"प्रोफेसर ने कहा । मेज़ पर स्थित होते ही उसकी रेती नीचे की ओर आनी प्रारंभ हो गई थी ।

" जी, " और उसने यंत्र के बारे में बताया तथा पुस्तक के लिए लिखे गए पृष्ठ ऊपर से उतारने का प्रयास करने लगा ।

कमाल था ! जितनी आसानी से पृष्ठ ऊपर चले गए थे, उतनी ही कठिनाई अब कॉस्मॉस को उनको नीचे उतारने में हो रही थी । ऊपर -नीचे उछलते-कूदते उसकी साँसें धौंकनी की भाँति चलने लगीं थीं। प्रोफ़ेसर कॉस्मॉस की उछल-कूद देख रहे थे और मन ही मन मुस्कुरा रहे थे।

बहुत देर तक जूझने के पश्चात अपने चेहरे को प्रश्न-चिन्ह बनाकर वह नतमस्तक हो प्रोफ़ेसर के सम्मुख खड़ा था । यंत्र की रेती अपना कार्य समाप्त कर चुकी थी, वह पुन: शून्य पर था ।

" लो, पहले बैठकर पानी पीओ --"प्रो.श्रेष्ठी ने उसे अपने पास कुर्सी पर बैठाया और जग से पानी लेकर उसे पिलाया ।

कॉस्मॉस ऐसे गटककर पानी पी गया जैसे जन्मों का प्यासा हो । उसकी साँसें अब भी बहुत तीव्रता से चल रही थीं । पानी पीकर कॉस्मॉस ने एक तृप्ति का अनुभव किया ।

" यह क्या ? मुझे तो न भूख लगती थी न ही प्यास !"

" अब लगेगी " प्रोफेसर ने मुस्कुराकर कहा ।

" क्यों?"

"क्योंकि अब तुम्हारे शरीर में संवेदनाएं प्रविष्ट हो गई हैं । "

" मैं आपके पृष्ठ भी नहीं उतार सका ---" वह शर्मिंदगी से बोला ।

"क्या इसका कारण जानते हो?"

" जी नहीं "

"क्योंकि तुम्हारा ज्ञान अधूरा है!यदि हम किसी वस्तु अथवा व्यक्ति का आकार नष्ट करते हैं और पुन: उसे वही आकार नहीं दे सकते तो उसको नष्ट करने का अधिकार भी नहीं होना चाहिए । "

" प्रोफेसर! मैं ये सब कैसे जान सकता हूँ । मैं तो एक कॉस्मॉस हूँ, अपने स्वामी यमदूत का एक अदना सा दूत !"

" तुम्हारा दोष नहीं है, मैं जानता हूँ किन्तु मुझे यही चेतना तो सबमें उद्दीप्त करनी है। हम केवल अधिकार की बात करते हैं, कर्तव्य करने में आनाकानी करते हैं, क्यों?"

" आप भी नहीं चलेंगे तो इस बार मुझे और भी कठोर दंड का भागी बनना होगा-- इस बार तो मेरा भाग्य --" उसने अपना चेहरा लटका लिया ।

" अरे ! भाग्यवादी बन गए ! कैसे?" प्रोफ़ेसर, हँस पड़े ।

" इस पृथ्वी ने बहुत सी बातें सिखाईं प्रोफ़ेसर, अब मुझे इसमें रूचि उत्पन्न हो गई है । जो होगा देखा जाएगा, भयभीत होकर भी क्या करना !आप कृपया मुझे अपनी इस पुस्तक के बारे में बताइये, यह आपके लिए महत्वपूर्ण क्यों है?" सहसा कॉस्मॉस में जैसे किसी नवीन शक्ति का संचार होने लगा । क्या वह ज्ञानी का प्रभाव था?

" इसमें मेरे जीवन का समस्त अर्जित ज्ञान है, वह ज्ञान जो मैंने दूसरों से भी प्राप्त किया है, स्वयं भी चिंतन किया है । वह मैं केवल अपने पास रखकर कैसे जा सकता हूँ ? एक अध्यापक होने के नाते मैं इस ज्ञान को समाज में बाँटकर जाना चाहता हूँ । "

कॉस्मॉस ज्ञान के पृष्ठ नीचे न उतार पाने के कारण उदास था, प्रोफेसर खुलकर हँस पड़े ;

" मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ, तुमने मेरी हँसी लौटा दी । मैं तो इस गंभीरता से लेखन में डूब गया था कि हँसना भी भूलता जा रहा था जो जीवन की विशेष आवश्यकता में से एक है । आज बहुत समय पश्चात तुम्हारे साथ हँसा हूँ । "

"लेकिन तुम क्यों उदास हो गए हो?" उन्होंने कॉस्मॉस के लटके हुए चेहरे को देखकर पूछा ।

"अपने अधकचरे ज्ञान के कारण, बिलकुल ठीक कहा आपने, मुझे किसी का आकार बदलने का कोई अधिकार नहीं यदि मैं अपने कर्तव्य को पूर्ण नहीं कर सकता । "

"उदासी तब आती है जब हम अपनी समस्या से जूझने का जोश खोने लगते हैं। जिस जोश से तुमने इन्हें ऊपर उठाया था यदि वही जोश बनाए रखते तब संभवत: ये नीचे आ भी सकते थे किन्तु तुमने अपना जोश ही खो दिया। "

"आप भी तो उन्हें नहीं उतार पाए, क्या आपका ज्ञान भी संपूर्ण नही है ?"

" मैंने कभी दावा नहीं किया मेरा ज्ञान संपूर्ण है । ज्ञान हर पल से प्राप्त होता है, हर पल हमें कुछ नई शिक्षा देता है। हमारा कर्तव्य प्रयास करना है, उससे विमुख होना नहीं है । 'चरैवेति चरैवेति' हर पल चलना ही जीवन है, ठहर जाना यानि समाप्ति ! पूरे जीवन की सार्थकता विद्यार्थी बने रहने में है। " कुछ रूककर वे पुन: बोल उठे;

“हम जो ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह विद्यार्थी बनकर और जो वितरित करते हैं, वह गुरु बनकर । इस प्रकार पूरे जीवन हम विद्यार्थी व गुरु दोनों ही बने रहते हैं । तुमने मुझे मंत्री जी के बारे में बताया । हाँ, मैं उनका गुरु था लेकिन कुछ बातें जो मैंने उनसे सीखी हैं, उनमें वे मेरे गुरु थे । मैं जानता हूँ वे विनम्रतावश इस बात को स्वीकारते नहीं हैं किन्तु सत्य तो यही है । ज्ञान प्राप्ति में छोटा-बड़ा, शिक्षित-अशिक्षित, जाति -पाँति कुछ नहीं होता, केवल गुरु व शिष्य होते हैं, हम छोटे बच्चों से भी बहुत कुछ सीखते हैं । "

कॉस्मॉस के ह्रदय में ज्ञान अर्जित करने की तरंगें प्रसृत होने लगीं ।

" मुझे भी तो कुछ ज्ञान बाँटिए ---" कॉस्मॉस ने कहा तो प्रोफ़ेसर फिर मुस्कुराए ।

" ज्ञान हाथ पर रखकर दिया जाने वाला प्रसाद नहीं है, यह अर्जित किया जाता है । मैंने जो कुछ भी चिंतन किया है, उसके बारे में तुमसे अवश्य चर्चा करूंगा । आज स्थिति यह है कि कोई किसी की बात समझना व स्वीकारना नहीं चाहता क्योंकि आज बड़े 'आई' व छोटे 'आई' में होड़ लगी रहती है । सभी बड़ा बनना चाहते हैं, छोटा कोई नहीं । इसीलिए सब गुरु बनना चाहते हैं, शिष्य की विनम्रता कोई नहीं रखना चाहता, इसीलिए ज्ञान प्राप्त नहीं होता । "

क्रमश..