काव्य संकलन -
समय का दौर 5
वेदराम प्रजापति मनमस्त
सम्पर्क सूत्र. गायत्री शक्ति
पीठ रोड़ गुप्ता पुरा डबरा
भवभूति नगर जिला ग्वालियर 475110
मो0. 99812 84867
समय का दौर
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त जी’ ने समय का जो दौर चल रहा है, उसी के माध्यम से अपनी इन सभी रचनाओं में अपने हृदय में उमड़ी वेदना को मूर्त रूप देने का प्रयास किया है। लोग कहते हैं देश में चहुमुखी विकाश हो रहा है किन्तु हमारा कवि व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है जिसके परिणाम स्वरूप इन रचनाओं का प्रस्फुटन हुआ है। उसे आशा है मेरे विचारों पर लोगों की दृष्टि पड़ेगी और उचित परिवर्तन हो सकेगा। इसी विश्वास के साथ।
रामगोपाल भावुक
समय का दौर
काव्य संकलन
18 कौन सी गंगा
भेदभावों का यहाँ क्यों वरण है।
कौन-सी गंगा का, यहाँ अवतरण है ?
हम सभी मानव, मगर क्यों भेद है ?
एक हो कर भी अलग क्यो ? खेद है।
घाव ऐसे क्यों किए ? जो रिस रहे-
कौन की पैंदी में, ऐसे छेद हैं।
समझ से बाहर, क्यों अंगद चरण है।।1।।
एक दिन, हद पर ही, आना पड़ेगा।
यह विषम नासूर, कब तक सड़ेगा।
शल्यक्रिया, कोई तो करलो अभी-
यही दग्ध-सा इतिहास, कोई पढ़ेगा।
हम सभी की बुद्धि का यहाँ हरण है।।2।।
खींच गए रेखा, कहाँ लम्बी भईं।
एक से है एक बढ़कर यहाँ दई।
इसलिए ही यह सभी का दर्द है-
सुबह की शामें, हमेशा ही भईं।
हम सभी की चूनरी, का क्षरण है।।3।।
छोड़ दो अठखेलियाँ ये आज भी।
जिंदगी क्यों कर रहे, मोहताज भी।
हाथ खाली, सिकन्दर भी यहाँ गया-
यह धरा, यौं ही खड़ी है आज भी।
रोज क्यों मनमस्त सीता हरण है।।4।।
19 नमस्ते होली
सबसे रहैं सब दूर यौं, भींगे नहीं चोली।
आओ सभी, मिल खेल लैं यौं नमस्ते होली।
प्यार लेकर, प्यारे से, यौं प्यार बरसाऐं।
प्यार का इजहार हो, पर पास नहीं आँऐ।
दर्द मिट जाऐ दिलों के, दर्द हौं न्यारे-
सब मिलै, हिलमिल, दिलों के गीत ही गाऐं।
बरसतीं खुशियाँ रहे, इस रास्ते होली।।1।।
भबरोग हौंगे दूर सब, नब भोर आऐगा।
आनंद होगा हर कहीं, नहीं दर्द छाऐगा।
दुनियाँ की भीड़-भाड़ ना, ना, शोर सपाटा-
कोरोना जैसा वायरस, नहिं कोई पाऐगा।
सबसे मिलैंगे दूर से, दे प्यार की बोली।।2।।
इस बार होली, इस तरह से खेल लो प्यारे।
बीमार भी नहीं हो ओगे, समझो तो इसरे।
रंग लगे नहीं, गुलाल भी, रोरी नहीं कुमकुम-
भद रंग अंग ना बने, दौलत भी बचा रहे।
मनमस्त हो ऐगी धरा, होली हो अमोली।।3।।
20 कैसे कहैं बसंत.........?
उपल साथ, गहरारे बदरा, कैसे कहैं बसंत।
फसलें ताक रहीं अंबर को, लगता है बस-अंत।।
बंद भई कोयल अभिव्यक्ति, उल्लू रागे-राग।
बाज झपट्टा, गीदड़ भबकीं, खेले लोमड़ि फाग।
स्वान उबाऊ भाषा बोलें, बिल्ली म्याँऊ- म्याँऊ-
चमगादड़ लटकीं उल्टीं हैं, करैं सभाएँ काग।
मंदिर की आरति, वे करते, जिनके कोउ न पंथ।।1।।
भाषा की भाषा भी बदली, मिटा व्याकरण आज।
मानव से मानव की दूरी, समझ न पाए राज।
साँप रास्ता काट रहे हैं, मिला सुबह ही काग-
जानैं नहिं विच्छू का मंतर, बने वेई वैद्यराज।
बड़ीं-बडीं माला जिनके गर, वेई आज के संत।।2।।
भोरयीं से चौराहे सूने, सकुचाईं-सीं शाम।
अंधियारे की कहा बताऐं, कितना है बदनाम।
इतना-सा, सन्नाटा पसरा, सूनी-सूनी रातें-
चौपालों पर स्वॉन सो रहे, कहूँ-कहूँ चल रहे जाम।
विफरीं-सीं मनमस्त बहारैं, ले कर आए बसंत।।3।।
21 ये ही मुखिया..............?
ये ही मुखिया हमारे हैं ? जिनके सोच न्यारे हैं।
सुनते नहीं किसी की ये, अड़ियल घुड़सवारे हैं।।
इन्हें परिषद (संसद) कभी देखा ? दिया कुछ, कोई क्या लेखा ?
ययावर बन, सदाँ घूमे, खींचीं कई, अलग रेखा।
धरा की धारिता डोली, खोदे कुआ खारे हैं।।1।।
उन्हें गोदी में बैठाए, जिनसे शूल ही पाऐ।।
छाले नहीं मिटे दिल के, उन्हीं के गीत ये गाऐ।
जिननें मंजिलें थामीं, उन्हीं पग काँटे डारे हैं।।2।।
बातें ये कहैं मन की, लगैं नहिं बो हमें, मन कीं।
इनके आठ, बारह सुन, धड़कनें बढ़ीं जन-जन कीं।
लगा सठिया गए अब तो, कह रहे, गली- द्वारे हैं।।3।।
किसी के राय नहीं लेते, किसी को राय नहीं देते।
अपनीं ठान, ही ठानीं, इससे बन रहे हेटे।
बातें मियाँ-मिट्ठू सीं, मगर कारनामे कारे हैं।।4।।
हद पर आ गई गाड़ी, इनकी बोल रही नाड़ी।
भए धृतराष्ट्र से अंधे, लगता पी लयी ताड़ी।।
जन्नत रोयेगा, तुम पर समझा मनमस्त हारे हैं।।5
22 हाथ जोड़े की नमस्ते !
संक्रमण मिटे, इसी रस्ते।
हाथ जाड़े की नमस्ते।।
बो समय गुजरा, लिपटते एकदूजे।
छू लिए मस्तक, किसी ने पाँब पूजे।
मिलन ऐसा भी कहो ! नाँक से भी नाँक रगड़ी-
जीभ-जीभों से मिलाईं, बाँह पूजे।
होओगे बीमार निश्चित रोग के खोले हैं रस्ते।।1।।
छोड़ इन परिपाटियों को, इधर आओ।
स्वस्थ रहना चाहते, तो डिस्टेन्श पाओ।
हाथ सेनेटाइजर कर, खूब धोओ-
संक्रमण हाथों से होता, नाँक-मुँह को नहीं छुओ।
सेट डाउन होओ घर में, नाँक-मुँह हो मास्क बस्ते।।2।।
दूर से मिल लो, न होगा रोग कोई।
संक्रमण का दौर है, कहाँ समझ खोई।
है सफाई में सभी सुख, बात सुनलो-
तुम रहोगे स्वस्थ्य, तो संसार सोई।
होओगे मनमस्त-खुश करके नमस्ते।।3।।
23 ...........जिनका कोऊ ना ?
क्या सोच है उन पर ? बोलो ! जिनका कोऊ ना।
सरा लॉकडाउन है भारत, अब भी सोओ ना।।
पन्नी बीनें, भीख माँगते, पागल पन डोलें।
कोढ़ी और अपाहिज, अंधे, नंगे, विन झोले।
उनकी कहाँ व्यवस्था भाई, कुछ तो, समझाना।।1।।
रोज कमाते, बने ययाबर, बस, रेलों देखे।
आज यहाँ, कल कहाँ न जाने, उनके क्या लेखे।
नंगे हाथ, खड़े चौराहे, उनको पहिचाना।।2।।
कितने खो गए यहाँ शून्य में, खोह, बीहड़, जंगल।
लॉकडाउन से सोचो ! उनका कहाँ मंगल।
क्या होगा ! मनमस्त अब आगे, कोई क्या जाना।।3।।
गॉय तड़फती खड़ीं रोड़ पर, पन्नी नहिं मिलतीं।
कौए, कुत्ते पटक रहे शिर, रोटीं नहीं मिलतीं।
चिड़ियों ने भी बंद किया अब, मधुर स्वरों गाना।।4।।
सूना-सूना सब, सूना पन, राह गलीं रोतीं।
दरबाजे सब बंद, लगै ज्यौं, अनहौनी-होती।
यौं लगता मनमस्त नहीं जग, है कोई शमशाना।।5।।
24 ...........नहिं मंदिर आते हैं।
लॉकडाउन क्या हुआ ! मुडेर नहिं कौए गाते हैं।
यूँ लगता -भगवान, नहीं अब, मंदिर आते हैं।।
सिर्फ पुजारी और आरती, नहीं तालियाँ हैं।
चार रेबड़ी पड़ीं चरण में, खालीं थालियाँ हैं।
पूजा में मन नहीं पुजारी, इधर-उधर झांखें-
क्या लेकर जाऊँगा घर पर, भोज, लालियाँ हैं।
द्वार खड़े हौं-वेटा-वेटी, रोते जाते हैं।।1।।
भगवान मूरत घूर रही यौं, दोष कहीं मेरा।
चूहे भी, स्थान छोड़ गए, मिलैं नहीं पेरा।
दीपक का घी खूँट रहा है, खाली मत डिब्बा-
केले, सेब न दर्शन होते, कहाँ थे- पौ-बारा।
ये कोरे पाषाण लग रहे, झूठें नाते हैं।।2।।
इतना लम्बा लॉकडाउन यह, कहाँ गुजर होगी।
आटा-दाल खूँट गया सारा, मामा भी रोगी।
मुझ से तो अच्छा बह कल्लू, सब्जी वेच रहा-
नोटों से खिलवाड़ कर रहा, मैं केवल ढोंगी।
नहीं मनमस्त पुजारी, अब मंदिर नहीं जाते हैं।।3।।
25 कोरोना के साए में
कोरोना के साए में पड़, जन मन भारत देख रहे हैं।।
रामायण-महाभारत के संग, मोदी भारत देख रहे हैं।।
भरत-राम का त्याग, कौरवी कपट कहानी।
केरोना की मार, कि जनता माँगत पानी।
आओ मेरे मीत, समीक्षाऐं कुछ कर लैं-
वर्तमान जन दशा मर रही सबकी नानी।
न्याय-नीति परकटे, अन्यायी लेख रहे हैं।।1।।
बजैं कपट, छल शंख, नीति ध्वनि मंदी-मंदी।
नकटीले संवादी, भाव-भाषा भी गंदी।
खटपटियों के साथ, मंत्रणाऐं अनहौनी-
सिर्फ मजूरी बचन, छदम छाया, छल छन्दी।
त्रिकोणी हैं कथा, मगर सब समझ रहें हैं।।2।।
रामायण को समझ, दृश्य महाभारत देखो।
वर्तमान है दोऊ, समझ जीवन में लेखो।
क्या होगी, भगवान दशा भारत की बोलो-
रही त्रिवेणी मचल, काट रही सबकी मेखों।
क्या जन गण मनमस्त ? लेख-क्या लेख रहे हैं।।3।।