ak panv rail me- yatra vritantt - 2 in Hindi Travel stories by रामगोपाल तिवारी books and stories PDF | एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त - 2

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एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त - 2

एक पाँव रेल में: यात्रा वृत्तान्त 2


2 जा पर विपदा परत है, सो आवत यही देश।


श्रावण के महिना में सोमवती का अवसर। हमारे घर के सभी लोग चित्रकूट यात्रा का प्रोग्राम बनाने लगे। वर्षात का मौसम अपना प्रभाव दिखाने लगा। जिस दिन जाने का तय हुआ रिर्जवेशन करवा लिया था। उस दिन वर्षात थमने का नाम ही नहीं ले रही थी किन्तु बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस से रात्री का तृतीय प्रहर समाप्त होते-होते हम सभी चित्रकूट पहॅुंच गये। जगदीश भैया लम्वे समय से रामघाट पर स्थित माँ जी की धर्मशाला में ठहरा करते थे। वहाँ का मैनेजर उनका परिाचित था। हम सभी उसी धर्मशाला में पहुँच गये। संयोग से एक कमरा मिल गया। हम उसी में व्यवस्थित हो गये। शौच आदि से निवृत होकर स्नान करने हेतु जाने को तैयार हो गये। पता चला रात्री को यहाँ ऐसी बाढ आई है कि सारा चित्रकूट ही उसने पने आगोस में ले लिया है।

स्थिति का जायजा लेने मैं धर्मशाला से बाहर निकला। बाढ़़ का पानी सामने की छत पर आ गया था। सुनने को मिला-‘ वाढ़ अचानक आई है, ऐसी ऐसी बाढ़ पहले कभी नहीं आई। हम सभी ने धर्मशाला के सामने रामघाट की दुकानों की छत के ऊपर ही एक एक करके स्नान किया। उसके बाद कामदगिरि की परिक्रमा का लक्ष्य बनाया।

प्रश्न सामने था परिक्रमा मार्ग तक कैसे पहुँचा जाये । हम धर्मशाला के बगल वाले गेट से नीचे उतर कर बगल की रोड़ पर पहुँच गये। वहाँ भी वाढ़ का पानी घुटनो से ऊपर तेज प्रवाह में बह रहा था। मैंने अपने पौत्र पालाश को अपने कन्धे पर बैठा लिया और पानी में उतर गया। मेरे पीछे- पीछे साहस करके पत्नी राम श्री एवं छोटे भ्राता का परिवार भी साथ में पानी में उतर आया। सभी ने एक दूसरे के हाथ पकड़ लिये। डर यह लग रहा था कही सड़क में गढ़ा हुआ फिर क्या होगा? करीब आधा किलोमीटर सड़क इसी तरह चलकर पार की तव हम खुली सड़क पर आ पाये। ऐसी स्थिति में भी परिक्रमा मार्ग में यात्रियों की बहुत भीड़ थी। लोग कैसे भी बाढ़ से बचते हुए परिक्रमा करने चलते चले आ रहे हैं।

डामर वाली पक्की सड़क से चलते हुये हम कामदगिरि पर्वत के मुखारविन्द पर जा पहुँचे । वहॉं भगवान कामतानाथ की मूर्ति के उन्होंने भक्ति भाव से दर्शन किये। श्रीफल फोड़कर तथा धूप दीप से प्रभू की पूजा-अर्चना की। उसके बाद हम कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा के लिए निकल पड़े़। जय श्रीराम जै जै श्रीराम की ध्वनि हमारे मुँह से फूटने लगी। श्रीराम की धुन में वे पूरी तरह लीन हो गये । धीरे- धीरे चलकर हम प्रथम मुखारविन्द के सामने खड़े थे। इस स्थल की मूर्तियों को देखते ही रह गया। मूर्ति की बनोक ऐसी कि उसकी आँखें मटकतीं सी दिखीं। सुना है यह पर्वत से निकली प्रकृतिक मूर्ति है। यहाँ कामतानाथ की दो मूर्तियाँ हैं। दूसरी मूर्ति शायद बाद में स्थापित की होगी।


अब हम थोड़ा और आगे बढ़े कि उस स्थान पर आ गये जहॉंँ तुलसीदास जी ने अपना चातुर्मास व्यतीत किया करते थे। स्थान की रमणीयता मन को भा गयी । हम उस आश्रम में अन्दर पहुँच गये। यहाँ रामचरित मानस की हस्त लिखित प्रति देखने को मिली। सुन्दर लिखावट देखते ही रह गया। यहीं कुछ साधू-महात्मा वहॉं अपनी धूनी रमाये हुये थे। श्रीराम के नाम का कीर्तन चल रहा था। लोग साधु-महात्माओं के चरण छूने दौड़े चले आ रहे थे। मैं सोचने लगा-‘इन बाबा-बैरागियों के मजे हैं। अच्छे-अच्छे इनके चरण छूने चले आ रहे हैं और ये हैं कि अपने चरण छुवाने में भी नखड़े कर रहे हैं। जैसे, कोई उनके चरण छूकर जाने क्या लूट ले जायेगा! ...और वह कुछ ले भी गया तो वह लूट के माल की तरह अस्थाई ही होगा। अरे! किसी को कुछ मिलेगा तो अपने ही श्रम-साधना से । वर्षात थमने का नाम नहीं ले रही थी। पौत्र पलाश मेरे कन्धे पर ही था। मैंने उससे कहा ‘-बच्चा ,राम घुन गाते चतो तो मुझे थकान नहीं होगी। वह कुछ देर तक तो राम घुन गाता रहा। बाद में बोला-‘मैं राम घुन नहीं गाउँगा।

मैंने कहा -‘क्यों?’

उसे शैतानी सूझी और बोला-‘ मैं चाहता हूँ आप थक जाये और मुझे नीचे उतार दें।’

मैं समझ गया-‘ इसे वरसते पानी में पैदल चलने की इच्छा हो रही है। इस लिये यह चाहता है मैं थक जाउँ और इसे पानी में उतार दूँ। मैं उसकी इच्छा जानकर खुली सड़क पर उसे उतार दिया। उसे कुछ देर तक उगली पकड़कर वरसते पानी में चलाया।

इसी समय तेज वरसात आ गई तो हम एक स्थान पर कुछ समय के विश्राम के लिये रूक गये। जब थोड़ा पानी थमा तो बूढ़े पीपल की परिक्रमा करते हुये हम उस स्थल पर पहुँच गये जहाँ भगवान श्रीराम और भरत का मिलन हुआ था। पत्थर के शिला खण्डों पर चरण चिन्ह देखकर हमें लगा-‘ये उस समय की घटना की याद दिलाने के लिए प्रकृति ने पर्याप्त साक्ष्य छोड़े हैं। हम चरण चिन्हों को नमन करते हुए आगे बढ़ गये।‘

अब हम बहुत सारी सीढ़ियाँ चढ़कर लक्ष्मण टेकरी पर जा पहुँचे । यहाँ टेकरी पर एक मन्दिर बना हुआ है। हमने वहाँ का पूरा आनन्द लिया। हम वहॉं से कामदगिरि पर्वत की ऊपरी सतह का अवलोकन करने का प्रयास करने लगे। वहीं पर संयोग से एक व्यक्ति वहाँ बैठा कुछ यात्रियों से कह रहा था-‘कामदगिरि पर्वत के ऊपर चढ़ने की परम्परा नहीं हैं किन्तु एक वार मैं उसके ऊपर चला गया। वहाँ एक जल से परिपूरित तालाब है। उसके ऊपर चौरस जगह है। जहाँ श्री राम और सीता रहे होंगे। उसकी बाते गुनते हुए हम नीचे परिक्रमा मार्ग में आ गये। परिक्रमा में कई छोटे-बड़े नये- नये मन्दिर बनते जा रहे थे।


अब हम सभी तृतीय मुखारविन्द के समक्ष खड़े थे। बाल रूप में कामता नाथ की सुन्दर प्रतिमा को देखकर हम सब भाव विभोर हो गये । हम खोही ग्राम की गली से निकले, यहाँ की हर दुकान पर खोये की मिठाई बन रहीं थी। यहाँ का खोहा बहुत प्रसिद्ध है। हमने परिक्रमा की पूर्णाहूति हेतु खोये के पेडे एक दुकान से प्रसाद क्रे लिये लके लिये । वर्षात थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। परिक्रमा की पक्की गली जल से परिपूरित हो रही थी। हम परिक्रमा पूरी करना ही चाहते थे। हम पुनः धीरे- धीरे आगे बड़ने लगे, खोही गाँव निकल गया। हम कामदगिरि पर्वत की तलहटी में वने हुनुमान जी के मन्दिर पर पहुँच गये। यहाँ विराजित मूर्ति प्रकृतिक है। पर्वत में से प्रगट हुई है। परिक्रमा देकर भक्ति भाव से आगे बढ़ते रहे। बैठका नामक स्थान पर आ गये। यहाँ कामदगिरि को प्रणाम करके हम पर सामने पड़ीं बैचों पर बैठ गये। यहाँ परिक्रमा में बैठ कर आराम करने की परम्परा चली आ रही है। यहाँ से परिक्रमा एक किलोमीटर रह जाती है। कुछ देर आराम करने के बाद हम आगे बढ़ गये। इस समय तक वादल साफ हो गये थे। हमने जल्दी जल्दी चलकर परिक्रमा पूरी की । हम अन्तिम पडाव पर आ गये। यही वाँके विहारी का भव्य मन्दिर है। बाँके विहारी की दिव्य झाँकी ने मन को मोह लिया। बड़ी देर तक उसका आनन्द लेते रहे। उस मन्दिर के सामने हनुमान जी के दर्शन करते हुए हम सब पुनः मुख्य मन्दिर पर पहुँच गये। पेडों के प्रसाद का भोग लगाया, आरती की और लौट पडे।

हमारे मन ने निष्कर्ष निकाला- निश्चय ही परिक्रमा के मनमोहक दृष्य आत्मसन्तोष प्रदान करने के लिए पर्याप्त हैं। इस तरह बड़ी ही कठिनता से परिक्रमा दे पाये। बाढ़ के पानी से बचने लम्बा चक्कर लगाकर धर्मशला में आ पाये।

जगदीश भैया कहीं से किसी भी भाव में मिलीं सूखी लकड़ियाँ और राशन लेते आये। धर्मशाला में भोजन बनने लगा। दाल- रोटी का वह स्वाद मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ।

भ्रमण का क्रम चल रहा था। अगले दिन मंगलवार का दिन था। वरसात बन्द थी। वाढ़ का पानी घटने लगा था। सड़कों का जल भराव साफ हो गया था। हम हनुमान धारा की तरफ मुड़ गये। सीढ़ियों द्वारा पहाड़ के ऊपर पहुँचना कठिन हो रहा था। ऊपर पहुँचकर हनुमान जी के पास से निकल रही पानी की धारा हमें आश्चर्य में डाल रही थी। लोग कह रहे थे, यह जल धारा हर मौसम में चलती रहती है। हम उस पहाड़ के सबसे ऊपर चढ़कर सीता रसोई तक पहुँच गये। वहाँ के रहने वाले विक्री के लिये दूध- दही की मटकी लिये चढ़ाई की थकान मिटाने के लिये यात्रियों को संतुष्ट करने का प्रयास कर रहे थे। हम सब ने एक- एक गिलाश गरम- गरम दूध पिया।


तीसरे दिन हम लोग चारों धाम की यात्रा पर निकल पड़े। ओटो द्वारा घने जंगलों के बीच सड़क मार्ग से जानकी कुण्ड से फटिक सिला के दर्शन करते हुये घनघोर जंगलों के मध्य बसे सती अनसुइया के आश्रम में पहुँच गये।

इस स्थान को प्रकृति ने अपने हाथों से सजाया है। मन्दाकनी का कलकल करता प्रवाह, दोनों किनारों पर बडे़-बड़े वृक्ष इस तरह खड़े हैं मानों प्रकृति का आनन्द लेने ही उन्होंने धरती पर अवतार लिया हो! सो इन्होंने भी इस पवित्र स्थान का पूरा आनन्द लिया। एक बोला-‘यह स्थान इतना सुन्दर न होता तो गोस्वामी जी शायद इसे अपनी तपस्या के लिए न चुनते। निश्चय ही यहाँ प्रकृति के रुप में श्री राम जी के साक्षात् दर्शन होते रहते हैं। माँ सती अनसुइया ने ब्राह्मा ब्राह्मा, विष्नू और महेश को बालक बनाकर अपने पास रखा था। इन तीनों देवों के बाल रूप के कहीं दर्शन होते हैं तो यहीं।

इसतरह पौराणिक प्रसंगों में खोये हम ओटो से गुप्त गोदावरी की गुफा पर पहुँच गये। प्रकृति ने इन गुफाओं की प्रकृतिक रूप से संरचना की है। घुटने-घुटने जल से परिपूरित इन गुफाओं में हमने अन्दर जाकर देखा। ऐसा प्रकृतिक दृष्य आँखों के सारमने से आज तक हटा नहीं है। शाम होते- होते हम धर्मशाला लौट आये थे।


चौथे दिन हम जानकी कुण्ड पर स्नान-ध्यान से निवृत हो गये तो जानकी कुण्ड के जल में आचमन लेने एकत्रित हो गये। यहाँ सभी ने एक साथ इस छोटे से कुण्ड में से अपने-अपने हाथ से जल लेकर आचमन किया। इससे कुण्ड का जल अपवित्र नहीं हुआ। भेदभाव का सारा बातावरण तिरोहित हो गया। पत्नी राम श्री कह रहीं थीं-‘‘एक कहावत याद हो आई- जल में छोत करम में कीरा। जो जल में छोत मानते हैं उनके कर्म में कीडे पड़ जाते हैं। तीर्थयात्रा में किसी के मन में ऊॅँच-नीच, छुआ-छूत का भाव यदि किन्चित मात्र भी रहा फिर तो तीर्थयात्रा करने का कोई औचित्य नहीं है।

नीचे मन्दाकिनी का जल अभी भी बाढ़ के अवशेष प्रदर्शित कर रहा था। हम नीचे से चढ़कर ऊपर सड़क पर आ गये। पास में ही शासन द्वारा निर्मित श्रीराम दर्शन म्यूजियम टिकिट लेकर के दर्शन करने हेतु उसमें प्रवेश कर गये। देश- विदेश में श्रीराम के विभिन्न रूपों के दर्शन करने का सौभाग्य हमें मिल पाया। जो आँखों से ओझिल नहीं होता।

चौथे दिन ही हमारा लौटने का महाकौशल ट्रेन से रिजर्वेशन था, इसलिये समय पर हम चित्रकूट धाम कर्वी आ गये।

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