Ideology is the soul of writing - Neelima Sharma by Interview Priyadarshan in Hindi Motivational Stories by Neelima Sharrma Nivia books and stories PDF | विचारधारा लेखन की आत्मा होती है - साक्षात्कार प्रियदर्शन द्वारा नीलिमा शर्मा

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विचारधारा लेखन की आत्मा होती है - साक्षात्कार प्रियदर्शन द्वारा नीलिमा शर्मा

नीलिमा शर्मा :- हिन्दी साहित्य से आपका जुड़ाव कब और कैसे हुआ?

प्रियदर्शन :-मैं ख़ुशक़िस्मत रहा कि घर में साहित्यिक माहौल मिला। मां भी लेखक रहीं, पिता भी। मां शैलप्रिया 1994 में कैंसर की वजह से गुजर गईं। लेकिन उसके पहले ही उनकी कविताओं की कई किताबें आ चुकी थीं। पापा विद्याभूषण अस्सी की उम्र में अब भी सक्रिय हैं और उनकी बीस से ज़्यादा किताबें हैं। घर पर मुझे हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण शास्त्रीय कृतियां मिल गईं। प्रेमचंद और जैनेंद्र के अलावा छायावादी कवियों सहित दिनकर आदि को मैंने बहुत बचपन में पढ़ा। वैसे पढ़ने की आदत मुझे भरपूर थी। साहित्यिक-गैरसाहित्यिक पत्रिकाएं, सस्ते जासूसी उपन्यास, कल्याण, रामायण-महाभारत- जो हाथ लगते गए, पढ़ता गया।आठवीं में रहा होऊंगा तभी कविता लिखने का शौक पैदा हुआ।


नीलिमा शर्मा :- पत्रकारिता ने कभी साहित्यिक लेखन में किसी प्रकार का कोई व्यवधान पैदा किया?
प्रियदर्शन :--पत्रकारिता ऐसा कोई व्यवधान कभी नहीं बनी। उल्टे, मुझे लगता है कि पत्रकारिता की वजह से मेरे भीतर तेज़ी से लिखने का अभ्यास पैदा हुआ। मैं बहुत तेज़ी से लिखता हूं। हालांकि यह भी लगता है कि इस हड़बड़ी का संभवतः कुछ असर मेरे साहित्यिक लेखन पर भी पड़ा हो। क्योंकि हमारे भीतर बहुत सारे प्रभाव ऐसे होते हैं जिन्हें हम ठीक से पहचान भी नहीं पाते। यह ज़रूर है कि 1993 में जब मैं दिल्ली आया, तब से 1998 तक मेरा लिखना काफ़ी कम हुआ। हालांकि तब भी 1995 में 'आजकल' के महत्वपूर्ण युवा लेखन विशेषांक में मेरी कहानी शामिल की गई और कुछ जगहों पर मेरी कविताएं आईं। इसके अलावा इस दौर में भी साहित्यिक पत्रकारिता मैं करता रहा जिसका असर यह था कि साहित्य की दुनिया से जुड़ाव बना रहा।

नीलिमा शर्मा :-पत्रकारिता में डेडलाइन होती है, जल्दबाज़ी में काम करना पड़ता है जबकि साहित्य ठहराव मांगता है। दोनों में समन्वय कैसे बिठाते हैं?
प्रियदर्शन :-पत्रकारिता और साहित्य में यह द्वंद्व पुराना रहा है। पत्रकारिता को 'लिटरेचर इन हेस्ट' कहते भी रहे हैं। बेशक, दोनों के चरित्र में अंतर है- लेकिन यह अंतर बुनियादी नहीं है। अच्छी पत्रकारिता हो या अच्छा साहित्यिक लेखन- दोनों सरोकार और संवेदना की मांग करते हैं। यह भ्रम है कि बहुत समय लगाकर लिखने से साहित्य उत्कृष्ट कोटि का लिखा जा सकता है और किसी नियत अवधि में की जाने वाली पत्रकारिता सतही होती है। सच यह है कि जब कोई विषय आपको छूता है तो आप उसकी रिपोर्ट लिखें या उस पर कहानी, दोनों अच्छी बन सकती हैं, लेकिन अगर किसी विषय को ठीक से महसूस किए बिना उस पर लिखा जाएगा तो साहित्यिक लेखन भी बेजान रहेगा और पत्रकारिता भी।

नीलिमा शर्मा :- पहली कहानी कब और कहां प्रकाशित हुई... पुस्तक प्रकाशन में किसी प्रकार के संघर्ष का सामना करना पड़ा?
प्रियदर्शन :-पहली कहानी संभवतः 1986 में 'युद्धरत आम आदमी' में प्रकाशित हुई। तब मेरी उम्र 18 साल थी। उन दिनों रमणिका गुप्ता झारखंड में ही रहती थीं और वहीं से पत्रिका निकालती थीं। पुस्तक प्रकाशन में इसलिए संघर्ष नहीं करना पड़ा कि मैंने किताब छपवाने की कभी कोशिश ही नहीं की। 1986 में मेरी पहली कहानी आई थी, 21 बरस बाद 2007 में मेरा पहला कहानी संग्रह आया। जबकि इन बीस वर्षों में मैं भरपूर लिखता रहा, छपता रहा और हिंदी के तमाम छोटे-बड़े लेखकों-प्रकाशकों से घनिष्ठ संपर्क में रहा। कई महत्वपूर्ण लेखकों की किताबों के अनुवाद किए जो बड़े प्रकाशनों से आए।2000 में इंडिया टुडे के युवा लेखन विशेषांक में भी मेरी कहानी आई। 2002 में राजकमल समूह के अशोक माहेश्वरी ने चिट्ठी लिखकर मुझसे संग्रह मांगा। तब भी मेरा ध्यान नहीं गया। 2007 में अचानक खयाल आया कि सबकी किताब आ रही है तो मेरी भी आनी चाहिए। फिर मैंने अशोक जी से पूछा कि उनका 5 साल पुराना प्रस्ताव अभी वैध या नहीं। उन्होंने बहुत उदारतापूर्वक कहा कि मैं उन्हें किताब दूं और तत्काल मेरा पहला कहानी संग्रह 'उसके हिस्से का जादू' छापा भी। तब से अब तक दस किताबें आ चुकी हैं। बल्कि अब मैं पा रहा हूं कि किताबें छपने में समय लग रहा है।

नीलिमा शर्मा :- क्या पत्रकारिता के माध्यम से कभी कोई नये थीम मिले जिन पर कहानियां लिखी हों?
प्रियदर्शन :-बिल्कुल। मेरी बहुत सारी कहानियों पर मेरी पत्रकारिता से जुड़े अनुभवों की छाया है। एक कहानी का नाम ही है- ब्रेकिंग न्यूज़। इसके अलावा टीवी चैनलों में काम करने वाली लड़कियों पर एक कहानी हंस के मीडिया विशेषांक में छपी थी- 'ख़बर पढ़ती लड़कियां।' मेरा उपन्यास 'ज़िंदगी लाइव' भी न्यूज़ रूम में चली बहसों से ही बना है। इसके अलावा भी हाल के वर्षों का बहुत सारा लेखन इस अनुभव से उपजा है।


नीलिमा शर्मा :-आपके लेखन को आपकी राजनीतिक सोच कितना प्रभावित करती है?
प्रियदर्शन:-सोच के बिना कोई लेखन संभव नहीं है। इस सोच में राजनीति, समाज, संस्कृति सबसे जुड़े सरोकार शामिल होते हैं। निश्चय ही आप किसी भी विषय को देखते हैं तो आपकी राजनीतिक सोच से ही आपका नज़रिया तय होता है। हालांकि राजनीतिक सोच से मेरा मतलब किसी दलीय प्रतिबद्धता से नहीं है। लेकिन किसी समग्र संवेदना या विचार के अभाव में लेखन बेमानी है। अपनी इस सोच को बहुत स्थूल ढंग से व्यक्त करना चाहूं तो बस यही कहूंगा कि सामाजिक न्याय और बराबरी मुझे बुनियादी मूल्य लगते हैं। इसके अलावा सद्भाव, सांस्कृतिक बहुलता और अहिंसा को मैं अपने लिए बड़े मूल्यों की तरह देखता हूं।


नीलिमा शर्मा :-क्या विचारधारा के दबाव में स्तरीय सृजनात्मक लेखन लिखा जा सकता है?
प्रियदर्शन :-दरअसल विचारधारा के बिना तो लेखन संभव नहीं है। लेकिन विचारधारा हमेशा लेखन को निर्देशित भी नहीं कर सकती। बल्कि कई बार लेखन ही विचारधारा को निर्देशित कर डालता है। कहते हैं, टॉल्स्टॉय ने अन्ना करेनिना लिखने के पहले सोचा था कि वे एक आदर्श स्त्री का चरित्र प्रस्तुत करेंगे। लेकिन अन्ना उनके हाथ से निकल गई। उसने अपनी कहानी खुद तय कर ली। यह बहुत सारे लेखकों का अनुभव है कि उन्होंने लिखना कुछ चाहा था, उनके किरदारों ने कुछ और तय कर लिया। विचारधारा लेखन की आत्मा होती है, उस पर थोपी हुई कोई परत नहीं। जब हम ऐसा विचारधारात्मक लेखन करने या उसके दबाव में किसी लेखन को खारिज करने की कोशिश करते हैं तो अक्सर नाकाम होते हैं।


नीलिमा शर्मा :-की तमाम बड़ी पत्रिकाएं तो बन्द हो चुकी हैं। जो आजकल प्रकाशित हो रही हैं वे ठेठ साहित्यिक पत्रिकाएं हैं। क्या हिन्दी साहित्य के पास पाठक उपलब्ध हैं या फिर लेखक ही पाठक हैं और पाठक ही लेखक।
प्रियदर्शन :-हिंदी का संकट दरअसल पत्रिकाएं या पाठक न होने के संकट से काफ़ी बड़ा है। वह एक सामाजिक संकट है। फिल्मों, टीवी चैनलों और इंटरनेट पर फलती-फूलती हिंदी देखकर हम खुश हैं, यह बताते नहीं अघाते कि दुनिया में किन-किन देशों में हिंदी के लेखक हैं- लेकिन हिंदी पठन-पाठन की, स्कूल-कॉलेज की, ज्ञान-विज्ञान की, रोटी और रोज़गार की भाषा के रूप में लगातार पिछड़ती जा रही है। हमारे बच्चे अब हिंदी नहीं पढ़ते। वे हिंदी सीखना नहीं चाहते। यह भी एक वजह है कि हिंदी के पाठक घटते जा रहे हैं, हिंदी की पत्रिकाएं घटती जा रही हैं। इसका असर इसके बौद्धिक चरित्र पर भी पड़ा है। हिंदी में प्रचारप्रियता, पुरस्कार-लोलुपता, आलोचक-निर्भरता बढ़ी है और बहुत सारे औसत से भी ख़राब लेखक लगातार चर्चा में बने रहते हैं। अच्छा लेखन कहीं पीछे छूटा हुआ है।


नीलिमा शर्मा :-आपका उपन्यास एक विशेष घटना पर आधारित है। आपको उस विषय पर उपन्यास लिखने का विचार कैसे आया?

प्रियदर्शन :- लाइव 26 नवंबर, 2008 को मुंबई में हुए आतंकी हमलों की छाया में लिखी गई। दरअसल वह बहुत नाटकीय भी था, त्रासद भी और तीन दिन के उस घटनाक्रम ने पूरे भारतीय जनजीवन को जिस तरह झिंझोड़ दिया था, उसके बाद जिस तरह राष्ट्रवाद, आतंकवाद और नागरिकता से जुड़ी बहसें चल पड़ी थीं, उनमें एक औपन्यासिक त्वरा थी। मैं अरसे से ऐसे किसी उपन्यास की कल्पना करता था जो दो-तीन दिन के घटनाक्रम में बहुत सारे अनुभवों को समेट ले। लेकिन ऐसा नहीं था कि किसी 'आइडिया' की तरह इसे झटक कर मैंने इस पर कुछ लिख डाला। मैंने पूरे सात साल बाद यह कहानी बुनी। जब बहुत सारी चीज़ें मेरे भीतर आ चुकी थीं। मुझे खुशी है कि अमूमन वह उपन्यास पसंद किया गया।



नीलिमा शर्मा :-हिन्दी साहित्य को वैश्विक स्तर पर कभी उतनी स्वीकृति नहीं मिली जैसे कि रूसी, फ़्रेंच और अंग्रेज़ी साहित्य को मिली है। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
प्रियदर्शन :-भाषाओं और उनके साहित्य को उनकी अपनी गुणवत्ता से ही नहीं, उनकी राजनैतिक-आर्थिक हैसियत से भी ताकत मिलती है। हिंदी साहित्य को भारत में ही स्वीकृति नहीं मिली है, विश्व की क्या बात करें। अंग्रेज़ी के बहुत औसत किस्म के लेखक हिंदी के लेखकों के मुक़ाबले ज़्यादा जाने जाते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हिंदी में स्तरीय लेखन नहीं है। बहुत सारे लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं, लगभग अंतरराष्ट्रीय स्तर का लेखन कर रहे हैं।


नीलिमा शर्मा :-भारत के बाहर लिखे जा रहे हिन्दी साहित्य के बारे में आप क्या सोचते हैं? क्या प्रवासी हिन्दी साहित्य पाठकों और आलोचकों के बीच अपनी उपस्थिति रेखांकित करने में सफल रहा है?
प्रियदर्शन :- दुर्भाग्य से भारत से बाहर लिखा जा रहा ज़्यादातर साहित्य खराब है। बल्कि यह संदेह भी होता है कि बहुत सारे लेखकों की किताब इस वजह से छप जाती है कि उनके पास एक विदेशी पता है- और संभवतः कुछ आर्थिक संसाधन भी लगाने को हैं। हालांकि ठीक यही बात देश के भीतर रह रहे बहुत सारे औसत लेखकों के बारे में कही जा सकती है- वे अपनी प्राध्यापकी, अफ़सरी या अपने पैसों के बल पर किताब छपवाते हैं, उन पर कार्यक्रम करवाते हैं और पुरस्कार तक जुटा लेते हैं। लेकिन फिर भी कई ऐसे प्रवासी लेखक हैं जिनको आप ध्यान से पढ़ सकते हैं। तत्काल नाम लेना हो तो इला प्रसाद का ले सकता हूं जिनकी कहानियों में एक अंतर्दृष्टि मिलती है। लेकिन यह मेरे अध्ययन की भी सीमा हो सकती है क्योंकि विदेशों में लिखा जा रहा बहुत सारा हिंदी साहित्य मैंने पढ़ा नहीं है।


नीलिमा शर्मा :- आजकल के लेखको के बारे में आपके क्या विचार है ? किन लेखको का लिखा आपको बेहद पसंद आता है । क्या आप नई हिंदी लिखने वाले लेखको को स्वीकार करते है ? अपने पसंदीदा समकालीन कहानीकारों उपन्यासकारों के नाम बताएं?

प्रियदर्शन -इस दौर में बहुत विविधता भरा लेखन हो रहा है। कविता-कहानी-कथेतर गद्य में कई लोग अपने लेखन से बिल्कुल चमत्कृत करते हैं। सूची बनाने बैठूंगा तो बहुत सारे नाम छूट जाएंगे और दुखी होंगे। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जिन लेखकों की रचनाएं पढ़ कर अपने समृद्ध होने का एहसास होता रहा है, उनकी संख्या बहुत बड़ी है। युवतर लेखक भी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।
जहां तक नई हिंदी का सवाल है- मुझे कम से कम ऐसी कोई हिंदी नहीं मिली जिसे निश्चयपूर्वक नई कहा जा सके। इस नई हिंदी के नाम पर जो भी गद्य आ रहा है, उसके बहुत सारे पूर्ववर्ती लेखन में भी पर्याप्त रूप में मिलते रहे हैं।


नीलिमा शर्मा : प्रियदर्शन जी मेरे पश्नो का उत्तर देने के लिए आपका हार्दिक आभार
प्रियदर्शन : आपका भी आभार