कहानी
मंजिल
आर.एन. सुनगरया,
झटका लगा !!!
मालूम हुआ कि मेरी सगाई कर दी गई है।
‘’किससे ?’’
‘’ना मालूम......।‘’
मेरी सम्पूर्ण चेतना इस एक शब्द ‘सगाई’ पर आकर अटक गई। दिमाग सुन्न सा हो गया, कुछ सोचते नहीं बन रहा था, कुछ बोलना या करना तो बहुत दूर की बात है। चाह कर भी विरोध कर पाना असम्भव हो रहा था। अपने आप की निर्बलता, लाचारी, निरीहता व बैचारगी पर मन ही मन कुड़कुड़ा रहा था। और अन्त में मन मसोस कर रह गया। जो होगा देखा जायेगा।
हर युवक इस मुकाम पर आते-आते अपने जीवन साथी की अपने अनुकूल एक छबि बना लेता है; दिलो-दिमाग में। मगर मुझे ऐसा मौका नसीब नहीं हुआ; फिर भी मैंने सोचा.....
कहीं पूज्यनीय लोगों ने यह रिश्ता किया है, तो मेरी पसन्द ना पसन्द, रूचि-अरूचि, बौद्धिक स्तर, शारीरिक मापदण्ड, सम्भावित भविष्य के बारे में सोचकर ही इस महत्वपूर्ण निर्णय पर पहुँचे होंगें।
शक्ल-सूरत, रंग, कद-काठी, लम्बाई वगैरह तो परिवर्तित करना असम्भव है। मगर हॉं, बोल-चाल, बात-व्यवहार; रहन-सहन, मान-सम्मान, मर्यादा/ घर-गृहस्थी और बौद्धिक स्तर को तो अपने अनुकूल प्रयास करके बनाया जा सकता है। मनचाहा इसमें सुधार न विकास ही किया जा सकता है। शुरूआत सुखमय दाम्पत्य जीवन के सूत्रों को अपनाया जा सकता है। जिससे एक दूसरे के स्वभाविक क्रिया-कलापों को प्रभावित किये वगैर प्रगतिशीलता के मार्ग पर चला जा सकता है। आपकी समझ-बूझ एवं सामंजस्य से जीवन आनन्द का लुफ्त उठाया जा सकता है। यही दिमाग में रखकर आगे की चुनौतियों को स्वीकार करने हेतु अपने आपको इसी अपेक्षा में तसल्ली देता हूँ। सम्भवत: यह पहला महत्वपूर्ण निर्णय है, जो पूरी जि़न्दगी को सुप्रभावित या दुष्प्रभावित करेगा, जिसे मेरी सहमति-असहमति के बिना मुझ पर थोप दिया गया है। जिसके अच्छे बुरे परिणामों को नितांत अकेले ही भोगना या भुगतान पड़ेगा। जिसके लिये मुझे कतई जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए।
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अनेक आवश्यक-अनावश्यक रीति-रिवाजों के साथ पारम्परिक तरीकों से अल्पायु में ही शादी तो हो गई।
पूर्णत: मेरी अनिच्छा से!!!
........पुन: अपनी पढ़ाई पर एकाग्र होने लगा। कॉलेज जाने में अभी एक साल बाकी था। फिलहाल बोर्ड परीक्षा का सामना करना था। अच्छा से अच्छा परीक्षा परिणाम प्राप्त करने के प्रयास में जुट गया।
आर्थिक स्थिति तो बहुत जर्जर थी ही; मैं भी अपनी पढ़ाई का खर्च उठाने के बाद, घर परिवार में कोई खास सहयोग नहीं दे पाता था, बल्कि कभी-कभी घर से ही कुछ पैसे मांग लेता था, जरूरी होने पर। मगर आगे आने वाले चुनौतीपूर्ण खर्चों का खयाल करके सिहर उठता था।
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परिश्रम का परिणाम आया.........
‘’मैं प्रवीण सूची में प्रथम रहा !’’
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अपने आप से भाग पाना कठिन ही नहीं असम्भव कोशिश करना है। ज्वलन्त समस्याओं के दवाब से भयभीत होकर मैं यहॉं रमणीक वादियों में रम गया हूँ...........
.......वातावरण शॉंत व सुहाना है, सूर्य अस्त होने को है, आसमान पर लालिमा छाती जा रही है। सांसों में स्निग्ध्ता समाते शरीर को जैसे अपने अदृश्य आलिंगन में कोई आसरा दे रहा हो। एक दिव्य स्वप्न की अनुभूति हो रही है।
प्यार एक जरूरी मानवीय आवश्यकता है।
शुरूआती किशोरावस्था नये-निकोर कोरे-कागज की भॉंति होती है। जिस पर बहुत ही कोमल भावनाऍं, अपनी छाया अंकित करती चलती है। इन्हीं में से एक अत्यन्त मधुर, नितांत निजी, नम्र एहसास का नशा मेहसूस होता हुआ, प्रतीत होने लगता है। हल्के-हल्के मदहोशी मोहपाश में अव्यक्त अनुभूति के आगोश में अदृश्य होकर अतृप्ति के भंवरजाल में घिर जाता हूँ, उसमें तड़पते हुये राहत की तलाश स्वाभाविक रूप से प्रारम्भ हो जाती हैं।
........ऐसी स्थिति में उन अमूल्य धरोहर तुल्य लम्हों को याद कर लेता हूँ। जो मुझे अपने निर्मल अदृश्य आगोश में समेटकर अत्यन्त आनन्दित कर देते हैं। मैं अपने अस्तित्व तक से बेखबर होकर कल्पनाकाश में उड़ने लगता हूँ....आशानुकूल दृश्य ऑंखों के सामने प्रकट हो जाता है, और मैं रोमांचित मनोदशा में ही बातें करने लगता हूँ।
‘’तुम्हारे वगैर तो यर्थाथ के कटीले रास्ते काटना काफी कठिन है।‘’
‘’लेकिन.....’’
‘’तुम्हारे एक शब्द-स्वर के एहसास से ही रोम-रोम खिल उठा, ललायित ऑंखों के सामने एक दम विकट तुम्हारा चेहरा प्रत्यक्ष लावण्य दीप्ति सा झिलमिला रहा है। ओठों की थरथराहट अपनी ओर आकर्षित कर रही है।
‘’परन्तु....’’
‘’कुछ मत बोलो....यह अभूतपूर्व दिव्य दृश्य अवचेतन मन में अनन्तकाल के लिये अमिट अंकित हो जाने दो।‘’
‘’सुनो तो!’’ झकझोर कर
‘’ऐं....!’’ मैं धधकती अंगार की चट्टान पर आ गिरा, ‘’तुम ?....साक्षात!!’’
‘’मैं जानती हूँ, तुम्हारा प्रेम निश्छल व पवित्र है।‘’
लगभग रोते हुये चारों ओर सुरसा की तरह मुँह फाड़े खड़ी समस्याओं में उलझकर भविष्य छिन्न-भिन्न नहीं करते....’’
‘’हर तूफान से जूझने को तैयार....!‘’ दृढ़ता।
‘’नहीं ! मैं नहीं चाहती कि घरौंदा बनने से पहले ही बिखर जाये!’’
मुझसे आगे कुछ कहते नहीं बना, मैं तो जी-जान से कुर्बान, करने हेतु करता....मगर वह चली गई!!
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अपर्याप्त चिकित्सा, मुकम्मल देखभाल का अभाव एवं लापरवाही के कारण, मुख्य कर्ता-धर्ता की असमय मृत्यु परिवार के लिये किसी हादसे से कम नहीं थी।
......रोजमर्रा के सम्पूर्ण कार्यकलाप छिन्न-भिन्न हो गये; आय का रहा सहा स्रोत भी खत्म प्राय: हो गया! पिताजी को मानो लक्वा सा मार गया।
अनचाहे ही मेरे कन्धों पर बोझ बढ़ गया। चारों ओर से बिकट समस्याओं ने मुझे जकड़ लिया। मैं छटपटाने के वजाये उन्हें सुलझाने के लिये कमर कसने लगा। सम्पूर्ण आत्मबल, आन्तरिक शक्ति के जोर पर डट गया, मोर्चे पर! जो स्वयं अपनी मदद करता है, उसकी ईश्वर भी सहायता करते हैं, इसी वाक्य के सहारे, आगे बढ़ने की ठान ली!
रास्ते खुले, मगर मुझे ना जाने क्या-क्या नहीं करना पढ़ा।
हित-चिन्तकों के कोलाहल एवं स्वयं की अतितीव्र इच्छा शक्ति के वशीभूत होकर मैंने कॉलेज में दाखला ले लिया, पूर्णत: साधन रहित स्थिति में...!
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मेरे परिवार में समाज की पृष्ठभूमि परिवेश एवं परम्परानुसार भविष्य का विचार किये वगैर अनाड़ी ठूँठ पत्नी को, अकारक बेरोजगार पति के सर लाद दिया जाता है-बेसहारा!
नवकिशोर के अवचेतन मन पर यौवन की दस्तक, किसी अलौकिक ऑंधी से कम नहीं थी। सारे शरीर में उल्लासित कम्पन्न के मैं तल्लीन होकर किसे सुध रहेगी, उज्जवल भविष्य पर विचार करने की; सबकुछ द्रवित होकर एक दूसरे में घुलमिल गया। और एक नई अनुभूति का आगाज़ हो गया। एवं आहिस्ता-आहिस्ता सिलसिले में परिवर्तित होता चला गया। संयुक्त परिवार में जब कोई वस्तु घर आती है, तो सब के सब सदस्य अपने-अपने तरीके से, सुविधा या उपयोगिता के अनुसार योजना बनाकर दिमाग में सुरक्षित रख लेते हैं। और समय आने पर उन्हीं अपेक्षाओं की आशा रखते हैं। जब वह पूर्णरूप से संतुष्ट नहीं हो पाती, तब अनेकों विरोधाभासी वाक्य उत्पन्न होते हैं। अप्रत्यासित घटनाओं का जन्म होता है।
ऐसी ही स्थिति से मेरी नई नवेली पत्नि को गुजरना पड़ा।
‘’हमेशा कमरे में घुसी रहती है!’’ प्रताड़ना का स्वर।
‘’कोई काम नहीं करती घर का।‘’ आरोप जड़ दिया।
‘’रोटी-सब्जी चाय तक तो ढंग की बना नहीं सकती।‘’ निठल्ले देवर ने राग अलापा।
‘’हम भी तो ईंधन के लिये जंगल से लकड़ी-कुकड़ी, कण्डे बनाने हेतु गोवर लाते हैं।‘’ सास ने अपने काम की तान भरी।
‘’बड़े खानदान की बेटी है! रईसजादी।‘’ ननन्दों ने व्यंग कसा।
वह तो खैर अपमानित सी लग रही थी, मुझे भी ऐसा लग रहा था, जैसे अनेक विच्छुओं ने बारी-बारी से डंक मारा हो। मैं भी तिलमिला उठता।
खामोश उघेड़-बुन में कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।
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अगले सुबह अनेक मिश्रित आवाजों से मेरी नींद टूटी, मालूम हुआ कि मेरी पत्नी कहीं नज़र नहीं आ रही है। मैं अन्जान आशंका से आतंकित हो उठा। गम्भीरता पूर्वक सोच-विचार में डूब गया। समझ नहीं आ रहा था कहॉं ढूँढू़ ? फिर भी दिशाहीन तलाश में भटकने लगा।
थकहार कर, पसीने से तरबतर होकर, प्यास से बिलबिलाकर झुंझलाहट में नदी किनारे सुस्ताने एवं प्यास बुझाने रूक गया। पानी पीकर अंजुलि से चेहरे पर पानी के छींटे मारे एवं शांत दिमाग से सोचने लगा- ‘’आखिर गई कहॉं होगी......?’’
खजूर के नीचे हरी-हरी मुलायम घांस में अधलेटा सा होकर दूर नजरें दौड़ाने लगा-काफी लम्बा-चौड़ा ऊबड़-खाबड़ मैदान है, घनी घांस से भरा।
अत्यन्त निकट पारिवारिक पात्रों के द्वारा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष खड़े किये गये परेशानियों के पहाड़ से पार पाने हेतु जब गहन मंथन किया, तो कारण बड़े चौंकाने वाले मिले हर पात्र चरमोत्कर्ष तक स्वार्थपरता में लिप्त मेहसूस हुआ।
तत्काल निराकरण में सिर्फ वही निश्चय करना उचित लगा कि सभी को उनकी सुविधानुसार संतुष्ट करने के बाद ही आगे बढ़ा जा सकेगा। अन्यथा ये कोई मुसीबत की साजिश रच कर तमाशा देखेंगे!
जाने अन्जाने उन सबके स्वार्थपूर्ति में तीन चौथाई समय नष्ट होने लगा। बचे-खुचे वक्त में अपनी पढ़ाई सुचारू रूप से जारी रखने की चुनौती चट्टान की तरह सर पर सवार रहती।
....ऐसा नहीं है कि इन ढोते हुये रिश्तों को झटकने का ना सोचा हो। अनेकों बार ऐसा क्रोध आया कि सम्पूर्ण संबंधों को तिलांजली देकर स्वतंत्र रूप से अपने कैरियर को बनाया जाय। शिखर को छूने का प्रयत्न किया जाये। लेकिन कर्त्तव्यबोध संस्कारों, सामाजिक/पारिवारिक लगाव ने रोक लिया। और यह सोचकर कि आगे जाकर मैं भी तो उनका साथ दूँगा। यह ख़याल करके तो वे मुझे प्रोत्साहित करेंगें। शायद ऐसा ही हो!!
अफसोस! दूर-दूर तक कोई राहत का नामोनिशान तक दिखाई नहीं दिया। चारों तरफ से नकारात्मक भँवर में चकराता रहा। स्थिति यह हो गई कि लोग पूरी तरह निर्वस्त्र होकर नाचने लगे। प्रत्येक आवश्यकता के लिये मुझे हर स्तर पर कुतरने का अनवरत सिलसिला चल पड़ा।
....पलायन का निर्णय लिया ही था कि पता चला मैं बाप बनने वाला हूँ! खबर अभूतपूर्व खुशी की थी! रोमांचित सा मेहसूस कर रहा था। मेरा पूरा अस्तित्व एक मात्र केन्द्र पर ठहर गया। अनायास ही नये सपने भविष्य में तैरने लगे। जीवटता का अहसास होने लगा! कुछ भी हो अब तो मंजिल पाना ही है।
♥♥♥ इति ♥♥♥
संक्षिप्त परिचय
1-नाम:- रामनारयण सुनगरया
2- जन्म:– 01/ 08/ 1956.
3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्नातक
4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से
साहित्यालंकार की उपाधि।
2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से
5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्यादि समय-
समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।
2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल
सम्पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्तर पर सराहना मिली
6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्न विषयक कृति ।
7- सम्प्रति--- स्वनिवृत्त्िा के पश्चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं
स्वतंत्र लेखन।
8- सम्पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)
मो./ व्हाट्सएप्प नं.- 91318-94197
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