काव्य संकलन -
समय का दौर
वेदराम प्रजापति मनमस्त
सम्पर्क सूत्र. गायत्री शक्ति
पीठ रोड़ गुप्ता पुरा डबरा
भवभूति नगर जिला ग्वालियर 475110
मो0. 99812 84867
समय का दौर
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त जी’ ने समय का जो दौर चल रहा है, उसी के माध्यम से अपनी इन सभी रचनाओं में अपने हृदय में उमड़ी वेदना को मूर्त रूप देने का प्रयास किया है। लोग कहते हैं देश में चहुमुखी विकाश हो रहा है किन्तु हमारा कवि व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है जिसके परिणाम स्वरूप इन रचनाओं का प्रस्फुटन हुआ है। उसे आशा है मेरे विचारों पर लोगों की दृष्टि पड़ेगी और उचित परिवर्तन हो सकेगा। इसी विश्वास के साथ।
रामगोपाल भावुक
समय का दौर
काव्य संकलन
10 स्वर्ग है मेरा भारत ?
स्वर्ग क्या मेरा भारत ? न्याय है, जहाँ नदारत।
संभल के रहना भाई, न बोलो कोई इबारत।।
‘‘जाम है, जामा मस्जिद, काँप रही ताज की हसरत।
‘राम भी असमंजस में, अयोध्या कर रही कसरत।
शर्म खाता है संगम, इलाहाबाद नाम नदारत।।1।।
पाक की सीम काँपती, रोज ऐ.लो.सी. नापती।
मिटी कश्मीर कहानी, जिंदगी जहाँ झांखतीं।
न सुनता कोई किसी की, कहैं केशव से पारथ।।2।।
बढ़ी महंगाई भारी, संग वेरोजगारी न्यारी।
युवा पीढ़ी घबराती, स्वास्थ्य, शिक्षा भी हारी।।
मीडिया की मत पूँछो, रच रहा नित नव भारत।।3।।
मूक मानव की धरती, मानवी पग-पग डरती ।
समय का ऐसा चक्कर, जिंदगी स्वाँसें भरती।
नहीं मनमस्त है कोई, स्वतंत्रता भई अखारत ।।4।।
11 गणतंत्र
देश रहे आजाद, न कोई विवाद हो।
यौं मनें गणतंत्र, न कोई विशाद हो।।
कश्मीर से कन्या कुमारी, एकता रहे।
मानव का वर्ग एक, न्याय-नेकता रहे।
भाषा अनेक हों, मगर भावों में भाव हों-
धीरज की धारिता बढ़े, मिलने का चाब हो।
रंग-रूपता को त्याग, मिट्टी में स्वाद हो।।1।।
संविधान के विधान से, चलता जहान हो।
गणतंत्र भारत देश का, इतना महान हो।
धरती की धारिता बढ़े, चारौ दिशान में-
हिमगिरी-सा ताज शीश पै, अनुपम विहान हो।
बद्री विराट वैभबों का, ही, अनुवाद हो।।2।।
विद्वेश भावना भरी, न बयारि हो कहीं।
फल-फूल से सजे धरा, न खार हों कहीं।
विजय रहे उद्घोष, न हार हो कहीं-
नदियों का नीर एकसा, न खार हो कहीं।
सुनसान का न दौर हो, अबनी आबाद हो।।3।।
संकट विभीषिका नहीं, सब देश हो चंगा।
हो मातृभूमि बंदना, लहराए तिरंगा।
सबको समेट, यहाँ बहे, यमुना-गंगा।
आसमां भी मंद गंध ले, हो रंग-विरंगा।
सातों स्वरों के साज संग, मनमस्त नाँद हो।।4।।
12 एन.आर.सी.
अहंकार के पुतले मानव, अपनों से ही, क्यों लड़ते हो।
कुछ तो, नियम-नीति की सोचो, विनशिर, पैरों क्यों अड़ते हो।।
नया वितण्डा क्यों रच डाला, अनचाही बातों का तुमने।
घृणा-द्वेश के बीज बो दए, शान्ति-प्रिये, जनता में तुमने।
कितना खूँन-खराबा हो गया, इस धरती पर, सी.ए.ए. से-
संवैधानिक संकट भारी, अश्रुभरा, देखा है सबने।
मानवता की क्यों सुनते नहिं, दानवता को क्यों गढ़ते हो।।1।।
सार्वजनिक बहसों की कहते, कौन आऐगा ? इन हालों में।
विक्षिप्ती मानसिकता जहाँ हो, नकली साधू, नट चालों में।
विद्वत नेता, अर्थशास़्त्री, कलाकार कोई साथ नहीं है-
राजनीति बदले पर हाबी, घृणा झूठ, इर्श्या ख्यालों में।
अहंकार के मद को पीकर, विषम पहाड़ों क्यों चढ़ते हो।।2।।
बहुत बड़ा तबका विरोध में, चलता आन्दोलन की राहों।
पुरुषों संग नारियाँ बच्चे, खड़े हुए, ऊँची कर बाहों।
आम जनों की कुछ तो सुन लो, पीछे कदम मोड़लो अपने-
कैसी भाषा-मारो मारो, गद्दारों को, जो मन चाहो।
चाटुकारिता, गुण्डा-गर्दी, धर्म-ढकोसे, क्यों मढते हो।।3।।
व्याकरण-भाषा का विगड़ा, भय से काँप रहा, जन जीवन।
अपनों की नजरैं भी नीचीं, राष्ट्रवाद की उखड़ी सींबन।
जन जीवन दुविधा में ठाड़ा, साँप-छछूँदर सी गति हो गई-
मुश्किल में, व्यापारिक चिंतन, जन गण मन, गहरी टीभन में।
देश विभाजन-मूल लड़ाई, क्या मनमस्त कमी पढ़ते हो।।4।।
13 आया बसंत
आया-आया प्यारा बसंत, सर्दी का होता जहाँ अंत।
आया-आया न्यारा बसंत।।
गीतों की शाम नवेली है, पुरवाई भी अलवेली है।
कचनार खिली है, डाली-डाली, होली जिसने यौं खेली है।
महुअन पै बैठा है बसंत।। आया-आया न्यारा बसंत।।1।।
बागों में, बागी अलि डोलैं, अमराई बैठी पिक बोलै।
सरसों पर समरसता झूमे, पीयरी साडी ओढे डाले।
रंगीला -टेशू-पुश्पबन्त।। आया-आया न्यारा बसंत।।2।।
गलियन में डोलैं आल-बाल, मौसम में बरसत रंग गुलाल।
धरती अंगड़ाई भरती है, मन जाता, रूठा कोई ख्याल।
जीबन ही जाता पुलंकबंत।। आया-आया न्यारा बसंत।।3।।
कलियों के राग सुरीले हैं, तितली के पंख रंगीले हैं।
सुगना है सगुन मुडेली पर, भामिनि के गलबा गीले हैं।
मनमस्त आ गए अवैयीं कंत।। आया-आया न्यारा बसंत।।4।।
झूमत खेतों में बालें हैं, हिल-मिल-मिलने की चालें हैं।
दिखते कौंपल में राग रंग, पीतम संग-प्यार उछालें हैं।
अंगन-अंगन, मनमस्त अनंग।। आया-आया न्यारा बसंत।।5।।
14 समरस-प्रबाह (दोहे)
सर्वोपरि हो राष्ट्रहित, चिंतन जिनके माँहि।
उन सत्-पुरवों को सदाँ, हृद वंदन मन माँहि।।
जनजीवन हित, दुःख सहे, टरे न अपनी लीक।
कर्मठ-कृत, संकल्प से, समरस बने प्रतीक।।
श्री गुरू नानक देब जी, नारायण गुरूदेब।
संत कबीरादास संग, रैदासी पद सेब।।
नामदेव महिमा अमित, ज्योतिबा फुले सुजान।
दयानंद सरस्वती बने, पीर रामदेब जान।।
संत प्रबर तरूवल्दर जी, बाबा अम्बेडकर साहब।
भारत माँ के लाड़िले, चित-चिंतन-निर्बाह।।
क्षेत्र, पंथ, भाषा सहित, जाति, वर्ग से दूर।
राष्ट्रभाब सर्वोपरि, देख शत्रु हों चूर।।
राष्ट्र एकता, अस्मिता, रक्षा जिन मन माँहि।
उनका पथ अनुकरण कर, विजय होय, जग माँहि।।
समरसता की पहल में, शामिल हो जा आज।
भारत हो मनमस्त भी, सफल होंय सब काज।।
15 समरसता
आज, जन-गण की यही दरकार है।
प्रश्न है ? यह कौन-सा-संसार है।।
है नहीं, कोई किसी का, क्या कहीं ?
जल रही क्यों ? इस तरह भारत महीं।
लग रहा, शासक यहाँ के सो गए-
आज के परिवेश का, चिंतन यही।
कौन, इसका हो ऐगा, गुनहगार है।।1।।
सोचते क्या कौन इस झँझट पड़े।
अपने-अपने ख्वाब पर सबही अड़े।
डूबता जन जागरण मझधार में-
सब किनारे पर, समर के यौं खड़े।
कोई, बचाने को नहीं, तैयार है।।2।।
अस्मिता विखराव गाने गा रहे।
बर्ग, जाति, पंथ, पथ अपना रहे।
समरसता को, तोड़ने को ये कदम-
जो चलै नहिं, वे उन्हीं को ढहा रहे।
एकता खण्डन के, नए हथियार हैं।।3।।
आओ ! मिलकर बैठ, कुछ चर्चा करैं।
मातृ-भू के दर्द को, कुछ तो हरैं।
इस तरह से, मौन रहना, कब सही-
राष्ट्रीय एकता के, कुछ बादे करैं।
पोप-लीला में न कोई सार है।।4।।
संत मत जो राष्ट्रहित, चिंतन करो।
जो लगे-प्रतिकूल, बह त्यागन करो।
अन्तरकलह के बीज, मत बोओ कहीं-
उग रहे हौं यदि कहीं, खण्डन करो।
हम सभी का, यही तो-उपकार है।।5।।
वेद मत, छोटे-बड़े से दूर है।
जो सही है, ईश का ही नूर है।
उस बड़े दरबार में, सब एक है-
एक रस, सब प्यार से, भरपूर हैं।
उसी पथ पर, चल पड़ो, शुभ कार्य है।।6।।
संकल्प लेना पड़ेगा, आपको।
और को झेलेगा, इसके ताप को।
बदल सकता है सभी कुछ, सत्य यह-
इस तरह से, मैट दो अभिशाप को।
बस यही तो इसका समझो सार है।।7।।
हो ओ सब तैयार, बंधन तोड़ कर।
तोड़ने वाले, वितण्डे छोड़ कर।
राष्ट्र रक्षा का यही मूल मंत्र है-
भटकी हुई, इस आत्मा को मोड़कर।
मनमस्त होगी, मातृ भू, उपकार है।।8।।
16 होली
कौन सा रंग लाऐगी, इस साल की होली ?
मानव के दर्द गाऐगी ? इस साल की होली।।
भुज दण्ड, दण्ड पैलते उनको लखा सबने,
म्ंचों के होश उड़ गए, इतना घमण्ड था।
उदण्डता के दौर में, विश्वास ना रहा,
आँखों में तेज, तम भरा, भारी प्रचण्ड था।
अनजान से तूफान में, कैसे चली गोली।। 1।।
हंसों के बंश मिट गए, किसके उडे कौये,
तों-तों ने राम-राम की, मैंना की चाल से।
सिंहों ने साँस थामली, गीदड़ दई भबकी,
लोखड़ि की पूँछ देख कर, चीतल विहाल से।
इतना भयानक शोर था-चैना नहीं बोली।।2।।
भाषा के भाव-घट गए, भाषण के भाव में,
ऐक तो करेला थे, फिर नींम पर चढे।
आवाज भौंपुओं सी थी, कि बाज उड़गए।
लगता था, कौऊआ गया, जो विलाँत में पढे।
मानें नहीं जो......उन्हें, दाग दो गोली।।3।।
लगता है आज, हर जबाँ, शाहीन बाग है।
रोड़ों पै लाश नाचती, वे-हाल जबानी।
सागर की चाल थम गई, नदियाँ भई सूखी,
पत्थर से आस क्या करो ? माँगते पानी।
मनमस्त, रहे अकेले, ऐसे खिली होली।।4।।
17 कौन की यहाँ हार है ?
कौन के शिर पर धरा का भार है।
सोचते हो ? कौन की यहाँ हार है।।
युग विनाशी, पत्थरों के ढेर क्यों ?
इस तरह का, घोर ये अंधेर क्यों ?
कौन सी दुनियाँ की, ये तैयारियाँ-
जिंदगी और मौत से, मुठभेड़ क्यों ?
कौन से दरबार का, उपहार है।।1।।
मौन बैठे, बुद्धिजीवी क्यों यहाँ ?
जल रही जब, इस तरह सारी जहाँ।
यहाँ पर, किस साए का पहरा लगा-
खून की होली, खिलीं हैं जहाँ तहाँ।
इस व्यथा पर, कौन का अधिकार है।।2।।
ये विनाशी बोल, कहाँ से गा रहे ?
गीदड़ों के झुण्ड, कहाँ से आ रहे।
क्या कहानी होऐगी ? इस देश की-
विपल्वी-से, घोर बादल छा रहे।
लग रहा, होना है, बंटाढार है।।3।।
कोई तो सोचो ! समय क्या गाऐगा ?
किस तरह का देश यह, कहलाऐगा ?
कब तलक आँखें झुकाए रखोगे-
और कितना कहर, युग बरसाऐगा।
मनमस्त हम सब को उठाना भार है।।4।।