bagi atma 5 in Hindi Fiction Stories by रामगोपाल तिवारी (भावुक) books and stories PDF | बागी आत्मा 5

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बागी आत्मा 5

बागी आत्मा 5

पांच

समय अपनी गति से चलता है। शेश संसार के सभी कार्य समय के साथ घटते, बढ़ते रहते है। शिशु पौधा समय के साथ पनपता है। यौवन को प्राप्त होता है। उस समय उसकी सुन्दरता दर्शनीय होती है।

आशा यौवन की ऊची सीढ़ी पर पहुंच चुकी थी। पूर्णिमां के चांद की चांदनी चारों ओर बिखेरने लगी थी। माधव को उस विशय पर सोचने में आनन्द आता था। आशा की बातों पर ध्यान आते ही वह स्वप्न लोक में खो जाता था। उससे शादी कैसे होगी ? यह चिन्ता उसके मन में समा जाती थी।

इस विकराल परिस्थिति के बाद भी आशा के माता-पिता अपनी बात से नहीं मुकरे थे। शिवरात्री का दिन था। आशा मन्दिर में शिवजी पर जल चढ़ाने जा रही थी। व्रत के कारण चेहरे पर अपूर्व सन्तोश था। बालों में कभी कंघी नहीं की थी तो वह जूड़ा बांधे मदमाती चाल में हाथ में जल का कलश लिए मन्दिर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगी।

इस भेश ने उसकी सुन्दरता को कई गुना बढ़ा दिया था। सामने से जल चढ़ाकर आते हुए राव वीरेन्द्र सिंह दिखे। धोती कुरता में सजे राव वीरेन्द्र सिंह शिवजी के सच्चे भक्त नजर आ रहे थे। आकर्शक चेहरा, रंग गोरा। सामने वाले को अपनी ओर आकर्शित करने के लिए पर्याप्त था। आशा उन्हें देख घबड़ा गई। सोचने लगी, उल्टे पांव लौट जाए, वह इतना ही सोच पाई थी कि वह नजदीक आ चुका था। सामने आकर रास्ता रोक कर खड़ा हो गया। बोला-

‘कहो आशा रानी, हम पर भी कभी मेहरबानी होगी ?‘ यह बात सुनकर भी वह चुप रही। निगाहें झुका लीं। स्थिति को देखते हुए वह बोला-‘मैं तो मनुश्य हूँ। देवता भी तुम्हारी मेहरबानी के लिए तरस जायेंगे।‘

आशा बोली- ‘आप मेरे पिता की उम्र के हैं आपको ऐसी बातें शोभा नहीं देती।‘

‘शोभा तो बदनाम माधव को देती होंगी।‘

‘मैं समझी नहीं ?‘

‘मेरी यह बात क्यों समझोगी,रानी ? तुम मेरा अपमान कर रही हो।‘

‘मैंने आपका क्या अपमान किया है ?‘

‘तुम्हारी मेहरबानी हम पर न होकर ं ं ं।‘

‘मैं अपनी जान दे सकती हूँ पर-।‘

‘फिर ये अमानत किसकी है ?‘

‘अभी तो किसी की नहीं।‘

‘मैं समझता था माधव की होगी।‘

‘आप जानते हैं बचपन में माता-पिता ने उसके पिता से वादा कर दिया था।‘ पर आप जैसे महानुभाव ं ं ं।

‘अरे इसमें तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा।‘

‘मेरा क्या बिगड़ जाएगा ?‘

‘आपकी मां, बहिन, बेटी से कोई ऐसी बात करे तो उनका क्या बिगड़ जाएगा ?‘

बात पर राव वीरेन्द्र सिंह गुस्से में आ गया। बोला- ‘तुम अपने को भूल रही हो।‘

‘जब मौत निश्चित है तब क्यों न भूलूंगी ?‘

‘ये अन्तिम फैसला है तुम्हारा ?‘

‘हां ं ं ं।‘

‘रानी ं ं ंऽऽऽ हम तुम्हें ं ं ं मरने भी नहीं देंगे और जीने भी नहीं देंगे।‘ हां अगर तुम्हें माधव के जीवन से प्यार है तो कल ं ं ं । अन्यथा माधव की खैरियत न समझी जाये। यह मेरा भी अन्तिम फैसला है। जिसे परमात्मा भी नहीं बदल सकता। इतना कह कर वह बनावटी मुस्कराहट छोड़ता हुआ आगे बढ़ गया।

कुछ देर तक तो वह वहीं खड़ी रही, फिर शिवलिंग के निकट पहुंची। जल चढ़ाते हुए कहने लगी- ‘तुम्हारे दरबार में किसी के इज्जत का सौदा हो रहा है और तुम चुपचाप बैठे देखते रहो। इसी कारण लोग पत्थर की मूर्तियों में विश्वास नहीं करते हैं। क्या सच-मुच तुम पत्थर की प्रतिमा हो ? नहीं-नहीं तुम मैं भी प्राण हैं कोई शक्ति है तभी तो सदा संसार तुम्हें पूज रहा है।‘ यह कहकर उसने उनके ऊपर चल चढ़ा दिया।

जब वह घर पहुंची। उसने अपनी माता जी को यह बताना उचित नहीं समझा। जब मां ने उसका चेहरा देखा तो पूछने लगी- ‘बेटी क्या बात है ? आज चेहरा उदास हुआ दिख रहा है। आशा ने फीकी मुस्कान तोड़ते हुए कहा- कुछ भी तो नहीं ं ं ं। मां चुप रह गई सोचने लगी। आज व्रत है शायद इसलिए उदास हो। सयानी हो गई है कहीं कुछ सोचने लगी हो। माधव ने तो कुछ नहीं कह दिया। सोचते-सोचते काम में लग गई।

प्रतिदिन शाम को माधव घूमने के लिए निकलता था। आशा पानी लेने निकली दोनों की मुलाकात हो जाया करती थी।

सच पूछिए तो माधव कभी का बागी बन गया होता या आत्म-हत्या करके मर गया होता। आशा की आशाएं उसे किनारे लगाये हुए थीं। आज भी वह घूमने निकला। इधर-उधर टहलता रहा। निगाहें आशा को खोजती रहीं। चिन्ता लगी, जरूर कोई बात है। आशा के घर की ओर कदम चलने लगे। मानो किसी गली में कोयल कुहुक कर बुला रही हो।

जब वह घर पहुंचा। आशा उसे दरवाजे पर ही मिल गई। माधव उसे देखकर बोला- ‘आज तुम पानी भरने नहीं गई ?‘ आज मेरा व्रत था न इसलिए माता जी गई हैं।

‘पिता जी कहां हैं ?‘

‘वे ग्वालियर चले गये हैं।‘ आशा उसे सामने खड़े देखकर, बोली- ‘आइये न ं ं ंऽऽ।‘ माधव उसके पीछे हो गया। दोनों बैठक में पहुंच गये। कमरे में एक चारपाई थी। माधव उसी पर बैठ गया। आशा भी एक स्टूल खींच कर बैठ गई। माधव ने उसके चेहरे को गौर से देखा। कुछ भांपते हुए पूंछ बैठा-

‘आज खिले हुए गुलशन में मायूसी कैसी है ?‘

‘इस जालिम दुनिया के कारण।‘

‘क्या मुझसे कोई गुस्ताखी हुई है ?‘

‘मैंने ऐसा कब कहा है ? पर आपका नाम बीच में अवश्य आया है।‘

‘क्या मतलब ?‘

‘जब मैं मन्दिर पर जल चढ़ाने गई थी तब ं ं ं।‘

‘तब क्या ?‘

‘तब राव वीरेन्द्र सिंह ने छेड़-छाड़ कर दी और मुझे अपने यहां बुलाया है। आप अच्छे आ गये। मैं आपसे कहना चाहती थी, माधव अपनी अमानत को सम्हालो अन्यथा मुझे दोश न देना।‘

‘राव वीरेन्द्र सिंह की ये हिम्मत ं ं ं।‘

‘मैं डरती हूँ माधव, वह कह रहा था कि मैं तुम्हारे माधव को ठिकाने लगा दूंगा।‘

‘मैं तो उसके द्वारा बहुत पहले ही ठिकाने लग चुका हूँ। अब तो मेरी बाजी है।‘ कहते हुए वह खड़ा हो गया तो आशा ने रोका, ‘जरा बैठ तो लो। कहां चल दिये ?‘

‘आज मैं उसे ठिकाने लगाकर ही रहूँगा। उसने तुमसे ं ं ं ।‘

‘मेरे कारण आप यह नहीं करेंगे।‘

‘ मेरे लिये हिसाब चुकता करने का इससे बड़ा और क्या करण हो सकता है ?‘

‘मेरे कारण ऐसा नहीं करेंगे, फिर मैं तुम्हारी अभी कौन हूँ बोलो ?‘ कहते हुए रो पड़ी।

‘मेरे रहते तुम्हारा ?‘ आशा उसका क्रोध बढ़ाना नहीं चाहती थी वह समझ रही थी, इनका क्रोध अब रूप् बदलकर बैर बन गया है। घटना ने उ बैर कोे परि-वर्तित कर क्रोध के रूप में पुन बदल दिया है इसलिए माधव इतना उत्तेजित हो उठा है। यही सोचकर आशा को कहना पड़ा-

‘काश ! उसे किसी का भी डर होता तो ं ं ं।‘

‘तो मुझे जाने दो न।‘

‘यदि जाने दूंगी तो क्या करेंगे ?‘

‘उसे मार दूंगा।‘

‘फिर‘

‘जंगल की हवा ं ं ं।‘

‘यानी आप बागी बनेंगे।‘

‘हां ं ं ं।‘

‘और गरीबों को सतायेंगे।‘

‘नहीं।‘

‘तब तो तुम समाजवादी बागी बनोगे। गरीबों की मदद करोगे, उन्हें शोशण से मुक्त कराओगे।‘

‘हां ।‘

‘और क्या करोगे ?‘

‘इस कस्बे में एक अस्पताल खोलूंगा। क्योंकि मेरे पिता जी इलाज के अभाव में मरे हैं।‘

‘तब तो तुम्हार ेबहुत ऊंचे विचार हैं पर मैं बागी से व्याह नहीं करूंगी।‘

‘क्यों ?‘

‘उनके जीवन का क्या भरोसा ? बागी से याह करके जीवन बर्बाद नहीं करना चाहती। किसी दिन गोली के शिकार बन गये तो ं ं ं?‘

‘अभी से अशुभ बात सोचने लगी।‘यह बात सुनकर वह उठ खड़ा हुआ।

आशा झट से बोली- अरे ! अरे ! थोड़ा और बैठ जाइये आप तो सचमुच ही कहीं चल दिये।

वह बोला-‘मैं सोच चुका हूँ।‘

‘माधव तुम्हें मेरी कसम है। इस बार उसे क्षमा कर दो अबकी बार यदि वह कुछ करता है तो मैं तुम्हें मना नहीं करूंगी।‘

‘किस बात की मना नहीं करेगी बेटी ?‘ कहते हुए आशा की मां शान्ति ने कमरे में प्रवेश किया। उसे आया देख माधव हड़बड़ा गया। माधव को देखकर बोली - ‘अरे बेटा तुम ं ं ं।‘

‘हां मांजी।‘

‘ देखा बेटा, आज राव वीरेन्द्र सिंह मन्दिर के सामने इसे रोक कर खड़ा हो गया और ये है कि उसी का पक्ष ले रही है।‘

‘मां मैं पक्ष कहां ले रही हूँ मैं तो कह रही हूँ यदि वीरेन्द्र सिंह अब कोई गड़बड़ करता है तो मैं मना न करूंगी।‘

‘बेटा,’0 आशा ठीक कहती है। हम भी सब जानते हैं कितने अत्याचार किये हैं उसने तुम पर और तुम्हारे कारण आज मेरी बेटी पर भी ं ं ं।‘

मां की बात पर माधव बोला- ‘मां जी जब तक मैं जिंदा हूँ उसकी क्या मजाल कि....।‘

‘बेटा शान्त रहने में ही फायदा है आशा के हाथ पीले हो जाते।‘

‘इसकी मांजी आप चिन्ता न करें। ‘

‘बेटा, हमें तो तुम्हारी ही चिन्ता रहती है। तुम इतना शर्माते हो कि यहां आते भी नहीं हो। अरे जब संकट का समय आ गया है तो संकोच की जरूरत नहीं है। दुनिया जानती है आशा माधव की है।‘

‘इसकी रक्षा करना भी तो मेरा फर्ज है। ये ससुरा वीरेन्द्र इसे मुझ से छीनना चाहता है।‘

बातों के क्रम में आशा कमरे से निकल गई। शान्ति ने बात को समझाते हुए कहा- ‘बेटा जब ये मन्दिर से लौटी तो इसका चेहरा उतरा हुआ तो इसने मुझसे भी कुछ नहीं कहा।‘

‘मांजी, सोचती होगी मां को क्यों दुःखी करूं।‘ इतनी देर में हाथ में फलहार की प्लेट लिए आशा ने प्रवेश किया। मां ने प्लेट हाथ से ले ली और बोली- ‘ये लो बेटा प्रसाद है कहते हुए माधव के हाथ में थमा दी। अब माधव धीरे-धीरे प्रसाद खाने लगा। शान्ति कहने लगी- बेटा शान्त रहने में ही फायदा है।‘

‘और माजी जब शान्ति से काम न चले तो।‘

‘बेटा सोचती हूँ ,कुछ करोगे तो तुम दोनों की जिंदगी बर्बाद हो जायेगी।‘

‘वैसे भी तो जंदगी बर्बाद ही है फिर भी आशा के कहने से उसे एक बार और क्षमा कर रहा हूँ। अब की बार उसने कोई हरकत की तो ं ं ं।‘

‘हां बेटा जो भाग्य में होगा उसे कौन टालने वाला है।‘ बातों में प्लेट का प्रसाद निपट चुका था तो वह उठ खड़ा हुआ। और कुछ सोचते हुए घर चला आया। घर आकर खटिया पर आ गिरा। सोचता रहा, सोचते-सोचते मन में कहा आज वीरेन्द्र सिंह की ओर चलना चाहिये शान्ति से बात करने में क्या नुकसान है। यही सोचकर वह घर से निकला।

राव वीरेन्द्र सिंह के दरवाजे पर हर शाम को बैठक जमा करती थी। चापलूसों की भीड़ लगी रहती थी। प्रतिदिन की तरह राव वीरेन्द्र सिंह कुर्सी डाल कर बैठ चुके थे। घूमते हुए माधव दरवाजे से निकला माधव को देखकर वीरेन्द्र सिंह बोला- ‘अरे आओ माधव‘।

माधव आगे बढ़कर जमीन पर बैठने का उपक्रम करने लगा। वीरेन्द्र सिंह बोला -‘अरे वहां नहीं, इस कुर्सी पर बैठो।‘ कहते हुए उसने पास पड़ी कुर्सी की ओर इशारा किया। माधव उस कुर्सी पर तनकर बैठ गया।

माधव ने अच्छा अवसर जाना तो बोला- ‘आप मेरे पिता की उम्र के हैं, मेरे चाचा लगते हैं। पर यह तो बतलाओ कि मैंने आपका क्या बिगाड़ा है ?‘

राव वीरेन्द्र सिंह उसकी बात को समझ गया- मैं उससे से सीधे सीधेे उलझना नहीं चाहता। न हो तो इस समय इसे समझा बुझा कर संतुश्ट कर दूं। यही सोचकर बोला- ‘और मैंने तुम्हारा ?‘

‘यह आपका हृदय जानता है।‘

‘तुम चाहते क्या हो ?‘

‘आप सब बातें जानते हैं कि मैं क्या चाहता हूँ ?‘

‘तब कितने में सौदा हो जायेगा ?‘

‘क्या मतलब ं ं ं ? मैं समझा नहीं साफ-साफ कहे।‘

‘मतलब तो साफ है बेटा आशा के बदले कितने रूपये चाहिये तुम्हें ?‘

‘लेकिन मेरा उस पर क्या ं ं ं ?‘

‘ये बातें तो मैं सब जानता हूँ।‘ तुम चाहो तो ं ं ं।‘

‘यह आपका भ्रम है।‘

‘भ्रम है !‘ तुम्हारे कारण तो वह मेरा अपमान कर चुकी है।

‘अच्छी बेवकूफ लड़की है इतना भी नहीं जानती कि आप यहां के जमींदार हैं।‘

‘अरे जमींदारी चली गई नही ंतो ं ं ं ।‘

‘आप अपनी उम्र का भी ख्याल कीजिए। वह आपकी बेटी के समान है।‘

‘तुम चुप रहो।‘ ऐसी बातें करने में शर्म नहीं आती। संसार की सभी लड़कियां मेरी बेटी नहीं हो सकतीं।‘

‘हां आप ठीक कहते है, वे संसार की सभी लड़कियां आपकी बेटी नहीं बन सकतीं। बीबीयां तो बन सकती हैं।‘

‘तुम्हें शायद याद हो एक बार ऐसी ही बातें तुम्हारे पिता ने कही थीं। जिसका फल तुम्हारे पिता श्री भुगत चुके हैं।‘

‘मैं सब जान गया हूँ। पर अब ध्यान रखना। आप धूल में लात मारेंगे तो वह सिर पर चढ़ेगी कि नहीं।‘यह कहकर माधव उठा और तेज कदमों को रखते हुए वहां से चला आया। ‘