ग्यारह वर्षीय शैली अपनी सभी सहेलियों में क़द-काठी में सबसे लम्बी थी। खेलकूद प्रतियोगिताओं और पढ़ाई में सबसे होशियार परन्तु साथ ही सबसे अधिक शरारती भी। चित्रकारी और शायरी का इतना शौक़ कि गणित की कक्षा में भी बैठी हुई कापी के पिछले पन्नों पर टीचर की तस्वीर बनाकर उसके नीचे शायराना अंदाज में कुछ भी दो पंक्तियाँ और लिख देती। कक्षा के सभी छात्र शैली के द्वारा की गई चित्रकारी और शेरो-शायरी की ख़ूब सराहना करते और इसी के साथ उसकी कापी वाहवाही बटोरतीं पूरी कक्षा में घूमतीं रहती। टीचर जब कक्षा के सभी बच्चों की कापी चैक करने के लिए माँगती तो शैली भी बड़ी होशियारी से सबकी कापियों के नीचे सरका कर अपनी कापी भी रख देती। घंटी बजते ही चुपके से उसे वापस भी निकाल लेती।
एक दिन की बात है कि कक्षा में टीचर ब्लैक बोर्ड पर सवाल समझा रहीं थी। शैली आसपास की गतिविधियों से बेख़बर और हमेशा की तरह अपनी आदत के हाथों लाचार, टीचर का ही कार्टून बनाने में मग्न थी। अचानक, शैली अपनी बड़ी बहन को क्लास में आकर टीचर से बात करते देखकर कुछ सहम सी गई। उसे आसार कुछ अच्छे नहीं लग रहे थे। शैली की बहन उससे चार कक्षा आगे उसी स्कूल में पढ़ती थी। शैली इसी उधेड़ बुन में थी कि ये दोनों इतने घुटकर क्या बातें कर रहे हैं। वो यह सोच ही रही थी कि यकायक शैली की बहन टीचर को साथ लेकर उसके पास आ धमकी और शैली के हाथ से झट से कापी ली और टीचर के हाथ में थमा कर कहा,
“ देखिए ना मैडम, कितनी होनहार है मेरी बहन, कि क्लास में बोर ना हो जाए इसलिए बैठी आपका ही चित्र बनाकर मन बहला रही है। अब आप इसे जो होमवर्क देंगी, घर जाकर मेरी खुशामद करके अपना सारा काम मुझसे ही कराएगी। आज इसे अच्छे से डाँट लगाइए आप ।”
इतना कहकर शैली को टीचर के हवाले कर टीचर को नमन करते हुए बड़ी बहन तो अपना काम करके वहाँ से चलती बनी। इधर टीचर ने शैली की कापी में अपना विचित्र रूप देख आग-बबूला होकर शैली की ख़ूब तसल्ली से धुनाई की। इतने शानदार प्रदर्शन से हुई इस ताजपोशी की शैली को ज़रा भी उम्मीद ना थी। रह रहकर उसे अपनी बहन पर ख़ूब ग़ुस्सा भी आ रहा था कि घर जाकर जितना भी डाँट देतीं परन्तु क्लास में आकर टीचर को इतना जोश दिलाने की क्या ज़रूरत थी।
दो-चार दिन तक तो शैली को यह सबक़ ख़ूब अच्छे से याद रहा। परन्तु धीरे-धीरे इस सबक़ की यादें धुंधली पड़ने लगी और कक्षा में फिर से उसकी चित्रकारी और शेरो-शायरी की वाह वाही गूंजने लगी।
एक दिन तो शैली अपनी नादानी में अति ही कर बैठी। स्कूल की छुट्टी के बाद बाहर गेट के कोने में गोलगप्पे वाले को देख उसकी सहेली ने शैली को कहा, “चलो ना शैली, गोलगप्पे खाए”। गोलगप्पे के नाम से शैली के मूँह में भी पानी आने लगा। फ़टाक से हामी भर दी और जाकर खड़ी हो गई गोलगप्पे वाले के पास। अगले ही पल में दोनों सहेलियाँ लगी चटकारे ले-लेकर गोलगप्पे खानें। कभी तीखे तो कभी खट्टे-मीठे पानी में गोते लगाते गोलगप्पों के स्वाद में ऐसी मुग्ध हुई कि भूल ही गईं कि पास में पैसे कितने हैं। जब अच्छी तरह से तृप्ति हो गई, तब गोलगप्पों के पैसे पूछकर दोनों ही घबरा गई। दोनों सहेलियों के मिलाकर भी पूरे पैसे नहीं बन पा रहे थे। उधर गोलगप्पे वाला बाबा भी दोनों की बढ़ती बेचैनी को हैरानी देख रहा था। तभी शैली ने उस बाबा को जमा पूँजी पकड़ाई और कहा, “ बाबा बाक़ी के बचे पैसों के बदले यह ले लो, रद्दी में बेच कर पैसा ले लेना।” यह कह कर अपनी और अपनी सहेली की गणित की कापी लेकर गोलगप्पे वाले के हाथ में पकड़ा दी ओर दोनों सहेलियाँ अपने अपने घर की ओर चल पड़ी।
अगले दिन कक्षा में टीचर ने जब दोनों को ख़ाली बैठे हुए इधर उधर झांक कर समय व्यतीत करते देखा तो दोनों के पास जाकर बस्ते से कापी निकालने को कहा। दोनों सहेली थोड़ा घबराकर एक-दूसरे को देखने लगी।आज तो कोई अच्छा बहाना भी दिमाग़ में नहीं आ रहा था। टीचर ने एक बार फिर ग़ुस्से में ज़ोर से कापी माँगी, तब शैली की सहेली ने डरते डरते काँपते स्वर में टीचर को बताया,
“मैडम जी, कापी के तो हमने गोलगप्पे खा लिए।”
फिर क्या था ! टीचर ने सुनते ही दोनों की अच्छे से ख़बर ली और दोनों को हाथ ऊपर करके बैंच पर खड़े होने को कहा “अगले छ: दिन तक ऐसे ही रहना। और कल नई कापी लाकर , बिना किसी की मदद के दुबारा किताब के सारे सवालों के जवाबों को उसमें लिखना।” नए सिरे से दुबारा कापी सजाने के चक्कर में कई दिन लग गए। इसके कारण सहेलियों के साथ हर रोज़ शाम को खेलने का मौक़ा भी हाथ से जाता रहा। तत्पश्चात् दोनों सहेलियों की गहरी दोस्ती भी जाती रही।
परन्तु इस वारदात ने शैली को जीवन का एक अच्छा ख़ासा सबक़ दे दिया। धीरे-धीरे शैली के व्यक्तित्व में भी काफ़ी बदलाव आने लगा। अब वह पहले जैसी चुलबुल शैली नहीं रही। अब जब भी स्कूल के दिनों को याद करती, उसे अपनी गोलगप्पे वाली सहेली की ख़ूब याद आती। अक्सर सोचती कि काश कभी उससे मिलना होपाता।
धीरे-धीरे दिन बीतते चले गए। शैली भी शादी के पश्चात विदेश चली गई और वहीं बस गई। फिर एक दिन अचानक ही शैली को एक अनजान फ़ोन नंबर से मैसेज मिला।
“ शैली, तुम कैसी हो, कहाँ खो गई थी? बहुत ही मुश्किल से तुम्हारा नंबर मिल पाया है मुझे। फ़ोन करना, ढेरसारी बातें जो करनी हैं तुमसे।
तुम्हारी वही, गोलगप्पे वाली सहेली।”
समाप्त———गीता कौशिक “रतन”
कैरी, नार्थ करोलाइना, अमेरिका