Pake Falo ka Baag - 12 in Hindi Biography by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | पके फलों का बाग़ - 12

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पके फलों का बाग़ - 12

मुझे महसूस होता था कि अब लोगों से निकट आत्मीय रिश्ते बहुत जटिल होते जा रहे हैं।
आपको ज़रूर इससे हैरानी हो रही होगी। आप कहेंगे कि उल्टे अब तो सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों से त्वरित और अंतरंग रिश्ते बनाना और भी सुगम हो गया था।
मैं ये कहना चाहता हूं कि पहले किसी आदमी को अच्छी तरह जानने के लिए एक लंबा वक़्त बिताना पड़ता था। आप उसके साथ अपने संबंधों को अनुभवों- अनुभूतियों से सींचें, अच्छे बुरे दिनों से गुजरें, तब कहीं जाकर आप उसके बारे में प्रामाणिकता से कुछ कह पाने के काबिल होते थे। उसकी विश्वसनीयता को निरापद मान सकते थे किन्तु अब तंत्र और रिवायत का सहारा लेकर तुरत- फुरत कोई आपका हो जाता था तो आप उससे दिल के रिश्तों में एक जटिलता तो अनुभव करेंगे ही न।
लगभग चार दशक पहले मैं अपने तमाम परिजनों और निकट मित्रों को साथ लेकर जिस लड़की को अपनी ज़िंदगी में लाया था वो अब मेरे साथ नहीं थी। मेरा विवाह पिछली सदी का आठवां दशक बीतते- बीतते हुआ था।
और फ़िर सन दो हज़ार आठ में एक दिन मैं अपने और अपनी पत्नी के भाइयों के साथ शहर के मोक्षधाम में जाकर सुबह- सुबह राख़ के ढेर में से उसकी अस्थियां भी बीन कर लाया। वो दुनिया छोड़ कर चली गई थी।
तो अपने ताने हुए तम्बू यहां ख़ुद ही समेटने भी पड़ते हैं। बिल्कुल वैसे ही, जैसे रेत में खेलते हुए बच्चे शाम को अपने घर जाते वक़्त अपने ही पैर की ठोकर से अपने बनाए मिट्टी के घरौंदे तोड़ - फोड़ जाएं।
बहरहाल अभी मुझे कोई ऐसा संकेत कहीं से भी मिलना शुरू नहीं हुआ था कि मैं भी कहीं जा रहा हूं। कुछ वरिष्ठ और अनुभवी पारिवारिक मित्रों ने मुझे ये संकेत ज़रूर दिया कि मैं अब जी चुका। मुझे अब अपनी ख्वाहिशों का पिटारा बंद करके रख देना चाहिए।
जबकि मैं बदस्तूर था और अकेला था।
हां, पर कभी - कभी उमस और गर्मियों की रात को मैं एक बात से खौफ़ खाकर थोड़ा सा भयभीत ज़रूर हो जाता था।
अकेला होने और अपने प्रकृति पसंद स्वभाव के चलते मुझे अपने बदन पर पहने हुए कपड़े कभी- कभी बोझ सरीखे लगते। ऐसे में मैं उनसे निजात पा लेता।
किन्तु फ़िर भरपूर आराम और आनंद मिलते हुए भी मेरी आंखों की नींद ये सोच कर उड़ जाती कि मान लो, अगर किसी कारणवश नींद में ही मेरी जीवन यात्रा पूरी हो जाये तो सुबह बंद दरवाज़ा तोड़ कर भीतर घुसने वाले परिजन पड़ोसी या अन्य लोग मुझे इस अवस्था में देख कर क्या सोचेंगे? उन्हें क्या मालूम कि मैंने तो सहज आंतरिक आनंद के चलते वस्त्र त्यागे हैं पर वे तरह - तरह की अटकलें लगाने पर विवश हो जाएंगे, और फ़िर मैं यही सोचकर बदन पर न्यूनतम सा कुछ लपेटने के लिए उठ बैठता।
हल्के अंधेरे में अपने शरीर को देखकर मुझे उन लोगों की बात याद आती थी जो कहते थे कि बस,अब मैं जी चुका।
इन्हीं दिनों मुझे एक अजीब सा शौक़ और चर्राया था। मैंने एक उपन्यास में पढ़ा था कि यूनान की एक राजकुमारी मौत से बहुत डरती थी।
जीवन में एक बार उसके राज्य में किसी आपदा के आने की आशंका में उसे ये आभास हो गया कि अब उसे ये संसार त्यागना पड़ेगा।
ऐसे में मृत्यु से भयभीत उस लावण्यमयी तन्वंगी ने मृत्यु की भयावहता को आंकने के लिए कई जतन किए और अपने सेवकों को कई विधियों से मरवा कर देखा कि मौत का सबसे आसान रास्ता कौन सा है जिसमें काया को कम से कम कष्ट हो।
कभी- कभी अकेले में मैं भी मन ही मन सोचा करता था कि यदि उस राजकन्या की जगह मैं होता तो मैं किस विधि से इस नश्वर संसार से कूच करना पसंद करता।
और तब मुझे हहराता- गहराता- उमड़ता पानी ही सबसे बेहतर विकल्प नज़र आता।
जबलपुर के भेड़ाघाट में नर्मदा नदी में हुआ एक अनुभव मुझे फ़िर- फ़िर याद आता और मैं सिहर उठता। जब पानी में खड़े हुए मैंने एक महिला के बहते हुए शव का स्पर्श अपनी पीठ पर भारी धक्के के साथ अनुभव किया था।
मुझे गहरी नींद में सोते हुए परलोक की गाड़ी पकड़ लेने का ख़्याल भी पर्याप्त निरापद लगा था।
किन्तु दुनिया में आना और जाना कुदरत ने किसी इंसान के अपने अख़्तियार में नहीं छोड़ा है, इस बात से भी मैं वाक़िफ रहा हूं।
तो फ़िर ऐसी बात पर क्या सोचना जो अपने अख़्तियार में न हो।
ख़ैर, ये सब क्या बात लेे बैठे हम लोग।
दुनिया में पैदा होने से पहले जब कोई दुनिया की बात नहीं कर सकता तो मरने का समय आने से पहले मरने की बात भी कोई क्यों करे।
अब मैं कुछ ऐसे किस्से आपको सुनाना चाहता हूं जिनकी अहमियत आज की दुनिया में एक अलग ही अस्तित्व रखती है।
ये किस्से कुछ ऐसे लोगों के हैं जिन्होंने आभासी दुनिया में ही देख- जान कर मेरे बारे में कुछ धारणाएं पूरी दृढ़ता से बना लीं और फ़िर इन्होंने मन की गहराई, ईमानदारी और निष्ठा से मेरे साथ हमेशा रहने की इच्छा ज़ाहिर करते हुए मुझे आमंत्रित किया अथवा मेरे पास चले आने का प्रस्ताव दिया।
जाहिर है कि ये मेरे लिए ज़िन्दगी में अपने अकेलेपन को ख़त्म करने का एक जोखिम भरा जरिया हो सकता था। पर मैं आज पूरी सच्चाई और निष्ठा से आपको इनके बारे में इसीलिए बता पा रहा हूं क्योंकि मैंने इनमें से किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।
और इसीलिए इन लोगों का परिचय मैं आपको नहीं दे रहा हूं, क्योंकि किसी का प्रस्ताव न मानना और उसे सार्वजनिक भी कर देना तो ऐसा ही होगा जैसे किसी के जलेे पर नमक छिड़कना।
मैं केवल ये चर्चा कर रहा हूं कि ये प्रस्ताव कैसे थे। सबसे पहले तो मैं ये स्पष्ट कर दूं कि मैं केवल उन्हीं प्रस्तावों की बात कर रहा हूं जो मुझे मेरी साठ साल की उम्र पूरी हो जाने के बाद मिले। अर्थात ये सब लोग ऐसे थे जो एक साठ वर्षीय अकेले व्यक्ति के साथ रहना चाहते थे।
इनमें कुछ ऐसे भी थे जो मुझे हमेशा, जीवनपर्यन्त साथ रहने का आश्वासन देते थे।
मैं पहले भी कह चुका हूं, पर एक बार फ़िर से दोहरा दूं कि इनमें महिलाओं के प्रस्ताव नहीं थे, क्योंकि मैं समय समय पर काफ़ी स्पष्ट रूप से ये बात जाहिर कर चुका था कि मैंने अपनी पत्नी को एक बार उसके जीवन में ही कभी किसी अन्य महिला के साथ शारीरिक व भावनात्मक संबंध न रखने का वचन दिया था। हम दोनों की नौकरी में एक बार अलग- अलग जगह पर पोस्टिंग हो जाने पर उसे उसकी इच्छा के विपरीत मुझसे दूर जाने के लिए मनाने के क्रम में मैंने ऐसा किया था, क्योंकि हमारे भविष्य के हित, बच्चों की पढ़ाई और पारिवारिक सुरक्षा व स्थायित्व के लिए मैं ऐसा ज़रूरी मानता था।
और अब इतनी कम अवस्था में मेरी पत्नी के दुनिया छोड़ देने के बाद मैं अपने दिए गए वचन से किसी भी स्थिति में डिगने के लिए हरगिज़ तैयार नहीं था।
मैं इन सब प्रस्तावों को मोटे तौर पर तीन हिस्सों में बांटता हूं।
इनमें कुछ प्रस्ताव पचास वर्ष से अधिक आयु के उन लोगों के थे जो अपने जीवन में या तो अकेले थे, या पारिवारिक कलह के चलते अकेले रहना चाहते थे। ये लोग आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर थे और महज़ एक साथी की तरह रहना चाहते थे ताकि दोनों का ही समय अच्छा व्यतीत हो।
दूसरे वर्ग में वे लोग थे जो आयु में पंद्रह ( अपवाद स्वरूप एक ग्यारह वर्षीय बालक भी ) से पच्चीस साल के बीच थे। ये या तो विद्यार्थी थे, अथवा पढ़ाई पूरी करके अभी जीवन में स्थिर होने की कोशिश कर रहे थे। इनमें कुछ संपन्न थे, कुछ साधारण घरों से तो कुछ बेहद गरीब अथवा अनाथ बच्चे। ये मेरे साथ किसी गोद लिए बच्चे की तरह रहना चाहते थे। कुछ अपने दादा- नाना को मिस करने वाले बच्चे भी थे तो कुछ अपने माता - पिता के बीच कलह, तलाक या अपनी अवहेलना सहने वाले भी। सभी मुझे जीवन भर निष्ठा के साथ रहने का आश्वासन देते थे। कुछ का कहना था कि वे मेरे लिए कुछ भी कर सकते हैं।
ये विचित्र अनुभूति थी।
तीसरा वर्ग अठारह से पैंतीस- चालीस वर्ष की आयु के ऐसे लोगों का था जो भारतीय कानून में धारा 377 हटने के बाद की स्थिति से उत्साहित और प्रेरित थे तथा समाज व कानून द्वारा मिली सुविधा के अन्तर्गत अपना जीवन जीना चाहते थे। ये विभिन्न कारणों से महिलाओं का अपने जीवन में कोई दखल नहीं चाहते थे।
मैं पहले ही कह चुका हूं कि मैंने तीनों ही वर्गों के लोगों से मिला कोई भी प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया।
फ़िर भी मैं चाहता हूं कि इनमें से कुछ लोगों की बात मैं आपके सामने करूं। ताकि आप जान सकें कि हमारा समाज आज किस जटिल दौर से गुज़र रहा है।
इनमें से चार प्रस्ताव विदेशों से थे - भूटान, फ़्रांस, म्यामार और श्रीलंका से एक - एक। ये मात्र चैटिंग के स्तर तक ही रहे क्योंकि इनमें से किसी से मैं नहीं मिला।
भारत में मिले ढेर सारे ऐसे प्रस्तावों में से लगभग बीस- पच्चीस ऐसे लोगों के थे जो लंबी और कई बार की बातचीत के बाद मुझसे मिलने भी अाए।
इनमें से कुछ के साथ मेरी सिर्फ़ एक मीटिंग ही हुई पर चंद ऐसे भी थे जो दो - तीन दिन मेरे साथ मेरे मेहमान बन कर भी रहे।
ये सभी बेहद संजीदा, विश्वसनीय और प्यारे लोग थे जिन्होंने मुझे कभी ये महसूस नहीं होने दिया कि हम पहली बार मिल रहे हैं।
मेरा अंतर ये देख कर भीग गया कि इनमें से कुछ युवा अभी नौकरी या व्यवसाय में न होते हुए भी अपने पास से खर्चा करके दूर से मुझसे मिलने आए।
अब आप सोच रहे होंगे कि जब मुझे इनमें से किसी के भी साथ रहने का प्रस्ताव स्वीकार ही नहीं करना था तो मैंने इन्हें मिलने का समय दिया ही क्यों?
मैंने इन्हें मिलने का अवसर केवल दो कारणों से दिया।
एक तो इसलिए कि सारी बातें स्पष्ट हो जाने के बावजूद ये अनुरोध कर रहे थे कि मैं चाहे जो निर्णय लूं, पर वे सिर्फ़ एक बार मुझसे मिलना ज़रूर चाहते हैं। मैंने उन्हें निराश करने की कोई वजह नहीं देखी।
दूसरे, इनमें कुछ ऐसे लोग भी थे जो साहित्यिक, शैक्षिक कारणों से मुझसे निरंतर संपर्क में रहना ही चाहते थे चाहे हमारा हमेशा साथ में रहना संभव न हो। ऐसे लोगों का भी मैंने स्वागत किया।
अब एक बात और।
क्या मैं वास्तव में इतना पत्थर दिल था कि जीवन भर अकेले रहने की ठान कर किसी से मिलना - जुलना भी पसंद न करूं? मेरे मन के किसी कौने में भी तो आस का एक छोटा सा जुगनू मंडराता ही रहता था कि शायद मुझे कोई सुपात्र ऐसा मिले जो मेरा अच्छा सहायक और मित्र सिद्ध हो।
मेरी इस सोच ने ही तो संभावित मित्रों का ये चांदी सा चमकता सैलाब मुझे दिखाया था! कभी बाकायदा मैंने फ़ेसबुक पर इसके लिए एक विज्ञप्ति डाली थी।
अजनबी मेहमानों का ये काफ़िला मेरे लिए एक अद्भुत अनुभव रहा। मुझे ये देख कर एक रोमांच सा हो आया कि लोग एक दूसरे से इतना लगाव रखते हैं, लोग एक दूसरे पर इतना यकीन रखते हैं, लोग एक दूसरे को इतना प्यार करते हैं।
अठारह- उन्नीस साल के शिक्षित और संजीदा लड़कों को अपनी ज़िंदगी के इतने महत्वपूर्ण निर्णय इस दृढ़ता से लेते देखना अच्छा लगा।
अपने भविष्य की ज़मीन खोजने निकले ये भटकते कोलंबस और जिज्ञासु वास्कोडिगामा न जाने अपने जीवन में अपने परिजनों से ऐसा क्या व्यवहार झेल रहे होंगे जो एक अजनबी पर इतना ऐतबार लेकर चले आए।
काश, मैं भी कोई जोखिम लेे पाता, और इनमें से किसी का जीवनपर्यंत साथी बनता।
मुझे इन बातों पर कोई अचंभा नहीं था कि हमारे देश की बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या एक बड़ी मुसीबत है और शायद कुछ लोग इसी से खिन्न होकर अब और संतानें पैदा नहीं करना चाहते।
उनकी ये ख्वाहिश इस कदर बढ़ गई है कि उन्हें अब किसी लड़की या महिला से शादी करके घर बसाना महज़ एक झंझट लगता है।
यद्यपि कुछ शिक्षित युवतियां अब स्वयं नियंत्रित मातृत्व पसंद करती हैं पर आज भी ऐसी महिलाओं की कमी नहीं है जो औरत का जीवन बच्चे पैदा करने में ही सफल मानती हैं।
एक बार आप किसी के प्रेम में पड़े, अपने प्रेम को विवाह की मंज़िल तक लेे गए तो आप भी उस भेड़ चाल के शिकार हो ही जाते हैं कि ... अरे, शादी के बाद अब तक बच्चा नहीं हुआ? अरे, इस लड़के की कोई बहन नहीं, बेचारा किससे राखी बंधवायेगा? अरे, लड़की का कोई भाई नहीं है?
और इस तरह एक पूरा का पूरा देश... इंसानों का गोदाम बनने पर आमादा हो गया।
ये एकतरफा सोच है। आप ऐसा कह सकते हैं कि अगर सब ऐसा सोचेंगे तो दुनिया कैसे चलेगी?
बस, यही पेच है। सब एक सा न सोचें। क्योंकि सब एक से नहीं होते!
जो जितनी बड़ी ज़मीन जोतने का दम रखे वो उतनी ही ज़मीन का मालिक बने।
यही कहना है मेरा!