आज मैं आपके सामने राजभाषा बनाम राष्ट्रभाषा पर कुछ कहना चाहती हूं भाषा एक ऐसी श्रृंखला है जिसके द्वारा हम एक राज्य से दूसरे राज्य तक अपनी सीमा और विस्तार बढ़ा सकते हैं सीमा विस्तार बढाने का अर्थ किसी क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित करना नहीं अपितु,भाषा के द्वारा सभी के मन मस्तिष्क तक सरलता से पहुंचने का सुगम और सरल मार्ग...प्राचीन काल में यातायात के साधन भले ही दुर्गम थे. परंतु पत्र के माध्यम से मानव अपनी भावनाओं , संवेदनाओं के द्वारा अपने मन की बात आसानी से अपने संबंधियों तक पहुँचा सकते थे वह भी अपनी ही बोली में ,भाषा में , अपनी ही उप बोली में, देशराज, तद्भव, तत्सम तथा प्रांतीय बोलियों के द्वारा हाव भाव प्रकट कर सकते थे... एवं कालांतर तक करते ही रहे... परंपरा तथा संस्कृति का निर्वाह करते हुए समस्त मानव समाज ने भाषा ,ध्वनि, बोली के तहत अपनी भाषा के स्वरूप को पीढ़ी दर पीढ़ी जिंदा रखा...
तब उस समय ऐसी कोई भी विकट परिस्थिति नहीं आयी..
हम सभी सभ्यता के परिदृश्य पर हम दृष्टिपात करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि मानव मात्र ध्वनि के आधार पर ही नहीं हाव भाव के द्वारा भी विचार प्रकट करने में सक्षम था. या फिर दृश्यात्मक संवादों के द्वारा भी मूक भाषा में भाषा का हस्तांतरण करता रहा.. कहीं कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई..
न ही उस समय कोई विवादित प्रसंग सामने आया...न हीं बोली बनाम भाषा, राष्ट्रभाषा बनाम बोली का द्वंद्वात्मक युद्ध चला ... क्योंकि मानवों को सभ्यता की ओर चलना था आने वाले काल में उन्हें अपनी प्रगति करनी थी ....उन्हें अपने जीवन का विस्तार करना था, पाषाण कालीन मानव ने धातु युग ढूंढा मात्र ध्वनि के आधार पर, मात्र पत्थरों के टकराहट और उससे निकलने वाली ध्वनि मात्र से मानव ने आने वाले काल को निसंदेह सरल बनाया.......
......ना कहीं अंतर्द्वंद ना कहीं, बोली भाषा की किच किच ना ही कहीं बोली भाषा की कठिनाई... अजीब नहीं लगता आज का वातावरण .... ???
मानवीय भावनाओं के कारण भाषा कलुषित विचारधाराओं का पुलिंदा बन गयी है.............. भाषा बनाम बोली... बोली बनाम भाषा... तो.......
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बस एक बहाना है या यूं कहिए ............."हम सभी मानव जाति को बस जिंदगी को हाशिए पर लाना है और राजनीति की आंच में स्वार्थ की रोटियां सेंकनी है"........जब तक हम सभी भाषा राजभाषा बनाम राष्ट्रभाषा पर सच्ची दलीलें पेश नहीं करेंते और राजनीति के आग में अपनी रोटियां नहीं सकेंते तब तक हमारा पेट नहीं भरता.....
क्योंकि हम अपनी विवादास्पद जिंदगी के द्वारा सदियों मानव मन में तथा इतिहास के पन्नों में जिंदा रहना चाहतें हैं...... क्या यह आपको नहीं लगता कि हम कहीं-कहीं हम जानबूझकर ऐसी गलतियां करतें हैं..... ???
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प्रासंगिकता यह है कि भाषा को हम राजनीति से जोड़ देते हैं हम किसी समस्या से मुक्ति पाने हेतु उपाय ढूंढ ही रहे होते हैं तब तक दूसरी समस्या आ जाती....
तब तक राजभाषा बनाम राष्ट्रभाषा कहीं अ, ब, ,क ,ड नामक आयोगों की परिधि में कैद हो जाती है और एक नया मुद्दा राजनीति के हाशिए पर तलवार की तरह लटकता हुआ उपस्थित हो जाता है अर्थात आज तक हम सभी ने राजभाषा बनाम राष्ट्रभाषा पर राजनीति की है सब कुछ जानते हुए भी हम सभी अंजान बने रहते हैं और यह सब कुछ तक तब तक चलता है जब तक अगली सरकार नहीं आ जाती, इनकी फाइलें ताख पर धूल खाती नजर आती हैं तब तक सीलन और सड़ांध की बदबू उसे अपने अंक में समेट लेती हैं..
लोग बदल जाते हैं सत्ता बदल जाती है सरकार बदल जाती है कुर्सी बदल जाती है पर समस्याएं जस की तस रह जाती हैं...
अनेक आयोगों के गठन के बावजूद भी इन मुद्दों पर “ पुनर्विचार करना सिर्फ एक बहाना है हमें तो बस राजनीति के क्षेत्र में सबके सामने नया मुखौटा दिखाना है” या यूं हम कह लें आज तक आजाद भारत में जितने भी मुद्दों ने सर उठाया बस उसका लिहाफ बदला ऊपरी पृष्ठ बदला.... कलेवर वैसा ही रहा स्कूली विद्यार्थियों को यह समझाना आसान नहीं है कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा है ...
प्रासंगिक काल में मानवों ने भाषा को सेकुलर की नजरों से देखा है, मानववादी विचारधारा अब जातीयता प्रांतीयता के ढर्रे पर चल पड़ी है ऐसा लगता है भाषा ही नहीं हमारे समाज के नैतिकता का भी दोहन हो रहा है सामाजिक अवधारणाएं कलुषित हो रहीं हैं......
इसका कारण भाषा नहीं है हमारे मन के अंदर मलिन भावनाएं हैं जिसनें उसे राजनीति में समेट लिया है इसलिए तो हम भारत में अखंडता , सहिष्णुता , संप्रभुता और राष्ट्रीयता की बात करते हैं तब हम कहीं कहीं बेधड़क सेकुलर हो जाते हैं उस समय हम तनिक भी नहीं सोचते कि हम सभी खुद भाषावाद, प्रांतवाद की दीवार खड़ी कर रहे हैं यहां पर राजभाषा और राष्ट्रभाषा का प्रश्न कहां से आया.. ???
ऐसा हम सोचना भी नहीं चाहते...जब तक हम अपनी मानसिक अवधारणाओं को परिवर्तित नहीं करेंगे तब तक भाषा बनाम बोली, राजभाषा बनाम राष्ट्रभाषा का खंडन मंडन होता ही रहेगा होता ही रहेगा भाषा को अगर हमें समृद्ध बनाना है सबसे पहले हमें अपनी अवधारणाओं को बदलना होगा क्योंकि भाषा कभी सैकुलर नहीं हो सकती .... भाषा जब तक प्रांतीयता के कलेवर का त्याग नहीं करती तब तक उसकी बोली कभी समृद्ध नहीं हो सकती .......
बोली और प्रांतीय बोली के संग तालमेल बिठाते हुए मानव जीवन को समृद्ध बनाने में सहायक होती है...
लोग वर्षों से राजभाषा और राष्ट्रभाषा को राजनीति के चश्मे से देखते आ रहे हैं तब ही हमारे समक्ष यह प्रश्न उठता है हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है या राजभाषा..
मैं भाषा के जितना भी कहूं वह कम ही होगा...
#डॉअनामिका