जनवरी का महीना तथा चारों तरफ कुहासा घिर चुकी थी ठंढी हवा चल रही थी, मानो रक्त जमा देती और इसी बीच नौ-दस साल की एक गरीब लड़की फटी चादर ओढ़कर हाथ में कुछ किताबें लेकर जल्दी-जल्दी विधालय जा रही थी
तभी पास से एक कार गुजरी और थोड़ी देर वापस उसी लड़की की तरफ मुड़कर आई,लेकिन वह लड़की इतनी जल्दी-जल्दी चल रही थी, मानो उसे विधालय जाने में देर हो गई हो इसी बीच वह कार उसके पास आकर रुकी और एक अमीर व्यक्ति उस कार से उतरे,तब तक वह लड़की और आगे निकल चुकी थी फिर भी उस व्यक्ति ने पीछे से आवाज लगाई"ऐ लड़की,रुको जरा"लेकिन उनकी आवाज लड़की को सुनाई नहीं दी,अतएव वह कुछ नहीं बोली
लेकिन, वह अमीर व्यक्ति दौड़ते हुए गए और उसके सामने जाकर खड़े हो गए"कौन है आप?और क्या बात है?"
वह लड़की रुककर बोली उसकी बात सुनकर वह व्यक्ति बोले"बेटी,तुम्हारा क्या नाम है?और इतनी जल्दी-जल्दी किधर जा रही हो?"उनकी बात सुनकर वह लड़की बोली"जी,मैं विधालय जा रही हूँ और मुझे काफी देर हो गई है"इतना कहकर वह बड़ी तेजी से चल पड़ी,लेकिन
वह व्यक्ति वही खड़ा उसे चुपचाप देखते रहे और फिर वापस अपनी कार की तरफ मुड़े और चल पड़े
ठीक उसके एक सप्ताह बाद शाम के समय उस अमीर व्यक्ति की मुलाकात उस लड़की से ही जाती है, लेकिन इस बार वह लड़की बड़ी ही धीमी गति से कुछ सोचती हुई चल रही थी उसे देखकर वह व्यक्ति उसके साथ चलने लगे,और बोले"बेटी क्या मैं तुम्हारे नाम जा सकता हूँ?"
"मेरा नाम सीता है और मैं सातवीं कक्षा में सरकारी स्कूल में पढ़ती हूँ"उस लड़की की बात सुनकर वह व्यक्ति बोले"अच्छा सीता,तुम्हारे घर में कौन-कौन रहता है?" उनकी बात सुनकर वह लड़की बोली"मेरी माँ और बाबूजी रहते हैं"इसी बीच ठंढी हवाएं चलने लगी और धीरे-धीरे कुहासा घिरने लगी तभी वह अमीर व्यक्ति बोले"सीता,इतनी ठंढी में भी तुम फटी चादर क्यों ओढ़ी हो?और इतना कहते ही वे सीता के साथ तेज कदमों से चलने लगे उनकी बात सुनकर सीता बोली"मेरी घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है, खाइए मेरा घर आ गया है"सीता इतना कहते ही रुक गई और उस व्यक्ति ने वहाँ आस-पास नजर दौड़ाई तो चारों तरफ झुग्गे-झोपड़ियों से बनी हुई घर थी"क्या मैं तुम्हारे घर में जा सकता हूँ?"वह व्यक्ति बोले यह सुनकर सीता बोली"हाँ.. हाँ.. क्यो नहीं?चलिए"जैसे ही सीता घर में प्रवेश की सामने खाट पर उसके पिताजी बैठे हुए थे और उनकी नजर जैसे ही उस अमीर व्यक्ति पर गई वे खड़े हो गए और हैरानी के साथ देखने लगे
उन्हें देखकर वह व्यक्ति बोले"जी मेरा नाम सुजीत शर्मा है और मैं एक समाजसेवी तथा लेखक हूँ कई बार आपकी बेटी को पैदल आते-जाते देखता था और इसकी पहनावा पोशाक को देखकर मुझे लगता था की इसकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है,इसलिए सोचा इसके घर का मुआयना कर आऊँ"
जैसे ही सीता के पिताजी यह सुने तो उनकी आँखें प्रसन्नता से चमक उठी और वह बोले"अच्छा तो आप ही है सुजीत बाबू!बड़ा नाम सुना हूँ आपका आज दर्शन भी हो गए आइए बैठिए"
उनकी बात सुनकर सुजीत शर्मा बोले"नहीं,नहीं अब मुझे चलना है, लेकिन आप करते क्या है?"यह सुनकर सीता के पिताजी बोले"रिक्शा चलाता हूँ और सीता जब पढ़कर आती है तो पड़ोसियों के घर शाम को बालमजदूरी करती है, तभी घर खर्च चलता है"इतना कहते ही उनकी आँखें सजल हो उठी"ओह!इतनी कठिन परिश्रम!"सुजीत शर्मा सोचने लगे
फिर वे बोले"खैर,मैं चलता हूँ, लेकिन अब सीता बेटी की पढ़ाई का सारा खर्च मैं लेता हूँ और कल से आप मेरे कार्यालय में आ जाइए, मैं आपको चपरासी की नौकरी दूँगा"इतना कहकर उन्होंने अपनी कार्यालय का पता सीता के पिताजी को बता दिए,लेकिन सीता के पिताजी बोले"मैं आपका यह एहसान कैसे चुका पाऊंगा"
"अपनी बेटी को बालमजदूरी से मुक्ति दिलाकर समझें"और इतना कहकर वह अमीर व्यक्ति,अर्थात सुजीत शर्मा मुस्कुरा दिए और अपनी घर की तरफ चल पड़े,लेकिन उनके मन में यह बात थी की काश!यह बालमजदूरी हमेशा के लिए समाप्त हो जाता
:कुमार किशन कीर्ति,बिहार