जिंदगी मेरे घर आना
भाग – १५
डैडी ने दो-चार बेहद करीबी दोस्तों को चाय पर बुला लिया था... (शर्मा अंकल तो, खैर सुबह से यहाँ ही थे) सब शरद को शुभकामनाएँ देना चाहते थे।
सबके बीच भी शरद की जिंदादीली वैसे ही, बरकरार थी - खन्ना आंटी को सफेद बैकग्राउंड वाली साड़ी में देखकर बोला -‘क्या आंटी, आपने ऐसी साड़ी पहन रखी है अरे! ये तो सुलह का प्रतीक है। इस बार हम लोग कोई समझौता-वमझौता नहीं करेंगे। इस्लामाबाद तक खदेड़ कर न रख दिया तो कहना‘ -‘वही बेमतलब सी बातें जो कोई अर्थ नहीं रखतीं पर जड़ता तोड़ने में बड़ी सहायक होती है।
जब रघु चाय लेकर आया तो फिर शुरू हो गया -‘यार रघु! क्या चाय बनाते हो तुम, चाय तो तुम्हारी नेहा दीदी, बनाती हैं। आह! एक बार पी ले आदमी तो स्वाद जबान से नहीं छूटे। जीवन भर दूसरा कप पीने की जरूरत नहीं। क्यों नेहा? आइडिया... उन पाकिस्तानियों पर गोलियाँ बरबाद करने से क्या फायदा... बस एक-एक कप चाय पिला दी जाए उन्हें... उनके सात पुश्त भी न रूख करने की हिम्मत करेंगे, भारत का... अऽऽ नेहा, जरा नोट करवा दो तो रेसिपी...‘
इस बात को गुजरे दो साल से ऊपर हो चले थे। पर शरद एक भी मौका नहीं छोड़ता - इसका जिक्र करने का। अभी भी बड़ी तफसील से सबको बता रहा था - ‘कैसे वह पहले दिन पेश आई थीं... और कोई रिएक्शन न देख, बड़ी निराश हो चली गई थी।‘
वह फिर से उठकर जाने लगी तो बोला -‘अरे, अपनी तारीफ सुन कोई यूँ भागता है... बैठो, बैठो... और नेहा उस दिन शास्त्रीय संगीत का कौन सा रेकॉर्ड लगाया था, तुमने?‘
‘मुझे याद नहीं‘ - उसने नजरें झुकाए धीरे से कहा तो एकदम झुंझला गया, वह - ‘ओह! गाॅड! दुश्मन की गोली खत्म करे, इससे पहले तुम लोगों की ये मनहूस चुप्पी, मार देगी, मुझे... वहाँ के रोने-धोने से घबराकर भागा तो यहाँ ये आलम है।... सबके चेहरे ऐसे गमगीन है, जैसे मेरी मय्यत का सरंजाम हो रहा है... बाबा अभी बहुत दिनों तक रहना है, मुझे इस संसार में, क्यों तुमलोग अंतिम विदा कहने पर तुले हो?‘
भैय्या ने तेजी से आकर उसे कंधों से थाम लिया, और सीधा आँखों में देखता हुआ जोर से बोला - ‘डोऽऽन्ट... एवर से दैट, ओक्के?‘
मम्मी भी उठकर उसके पास चली गईं और हल्के से उसके बाल बिखेरते हुए बड़े अधिकारपूर्ण स्वर में लाड़ भरा उलाहना दिया -
‘ऐसा नहीं कहते, बेटे‘
‘तो क्या करूँ आंटी... आप देख रही हैं न घंटे भर से अकेले ही हँस-बोल रहा हूँ और किसी के चेहरे पर हँसी की एक रेखा तक नहीं।‘
‘अब कोई शिकायत नहीं होगी बेटे...‘ और मम्मी खुलकर मुस्करा दी।
‘वाउ! वंडरफुल... ऐसा ही माहौल रहा तब तो मेरी भी हिम्मत बनी रहेगी... वरना कभी-कभी तो लगता है - क्या सचमुच लौट कर नहीं देखूंगा ये सब -‘
‘अरे, तूने फिर बोला ये... और भैया के हाथ में कोई पेपर था, उसे ही गोल कर... दो-चार जमा दिया शरद को।
‘अरे... इतनी जोर से लगी... अभी बताता हूं तुझे...‘ और वह भैय्या के पीछे दौड़ा... दोनों की इस धींगामुश्ती ने घर का माहौल हल्का करने में काफी मदद की।
लेकिन शरद खुद भीतर से कितना अशांत है... उसके ठहाके कितने बेजान हैं, हँसी कितनी खोखली है... ये तो बाद में पता चला।
जाने क्यों... सबके बीच उसका मन नहीं लग रहा था... छत पर चली आई और यूं ही शून्य में जाने क्या देख रही थी कि किसी की उपस्थिति का अहसास हुआ। पलट कर देखा, तो शरद था... जाने कब से खड़ा था... एक हूक सी उठी लेकिन जब्त कर गई। स्नेहसिक्त मुस्कान से नहलाते हुए बोला... ‘चलो, जरा टहल आएं... थोड़ी दूर‘। उसने असमंजस में दरवाजे की तरफ देख तो आश्वस्त कर दिया -‘मैंने मम्मी से पूछ लिया है।‘
छोटे वाले गेट से निकल कर वे पगडंडी पर आ गए - थोड़ी दूर पर ही एक पतली सी पहाड़ी नदी बहती थी... कोई भी बात शुरू नहीं कर पा रहा था... दोनों ही खोए-खोए से अपने विचारों में गुम कदम बढ़ा रहे थे... थोड़ी देर बाद शरद ने धीरे से उसका हाथ, अपने हाथों में ले लिया... बस अंतर उमड़ पड़ा नेहा का... आँखों से वर्षा की झड़ी की तरह बूंदे चेहरा भिगोने लगीं। नेहा ने निगाह नीची कर ली, सिसकी अंदर ही घोंट ली। शरद खुद में ही खोया सा चल रहा था। नदी के कगार पर पहुंच इधर-उधर देखते हुए बोला -‘कहाँ बैठा, जाए?‘
और इस क्रम में जो उसपर नजर पड़ी तो चैंक पड़ा - ‘अरे, नेहा! ये क्या?...बेवकूफ लड़की...‘ लेकिन वह अब और नहीं जब्त कर सकी - अपना हाथ खींच, पास ही एक पत्थर पर बैठ, घुटनों में सर छुपा, बेसंभाल हो फफक पड़ी। शरद उसके पैरों के पास बैठ गया। दोनों हाथों से उसका सर उठाने की कोशिश करता हुआ बोला - ‘नेही, प्लीज, ये क्या लगा रखा है?‘
पर जाने कहाँ से आँसू उमड़े चले आ रहे थे। भीतर मानो कोई ग्लैशियर पिघल गया था, जो आंखों के रास्ते अपनी राह बना रहा था।