गुड्डू ने झटपट अपनी टेबल खाली कर दी थी. बाउजी ने वहीं अपना सामान जमाया. दो-तीन दिन खूब रौनक रही घर में. सुनील कोलकता में है. उसकी बीवी भी बंगाली है. जाने के एक दिन पहले ड्राइंग रूम में दोनों भाई और उनकी पत्नियां बैठक जमाये थीं. वहां से आती आवाज़ों पर बाउजी ने ध्यान लगाया तो समझ में आया कि उन्हीं के बारे में बात हो रही है. सुधीर कह रहा है कि बाउजी के लगातार एक ही जगह रहने के कारण वे दोनों कहीं खुल के आ-जा नहीं पाते. कहीं घूमने जाने का प्रोग्राम भी नहीं बना पाते. छोटी-छोटी बातों में अजीब सा तनाव पैदा करते हैं बाउजी. कुल मिला के वे साल भर उन्हें झेलने को तैयार नहीं. दंग रह गये बाउजी. घूमने तो खूब जाते हैं दोनों. आठ-आठ दिन को चले जाते हैं. खाना बनाने गायत्री आती है, वही उनका खयाल रखती है दवाई-अवाई का. उन्हें भी कोई दिक़्क़त नहीं होती इनके जाने से. और तनाव कहां पैदा करते हैं वे? चुपचाप वही सब करते हैं जो ये कहते हैं!! यानी ज़ाहिर है, अब ये खुद पर बन्धन सा समझने लगे हैं उन्हें!
ये बात तो मुझे भी समझ में आ रही थी कि बाउजी जैसे शांत व्यक्ति को भी ये दोनों पति-पत्नी अपने पास रखना नहीं चाहते. इतना पैसा देते हैं बाउजी, तब भी उन्हें परेशानी है. एक भी काम बाउजी के मन का नहीं करते, और बाउजी चुप रहते हैं तब भी.....! कोई बकर-बकर करने वाला बुड्ढा होता तब आती इनकी अकल ठिकाने!
“ “लेकिन भैया आप तो जानते हैं, कि हम दोनों ही नौकरी करते हैं. फिर कोलकता जैसा शहर. तबियत बिगड़ जाये अचानक ही, तो कहां ले जायें? हर अस्पताल बीसों किलोमीटर दूर होता है. फिर शर्मिला को हिन्दी बहुत समझ में भी नहीं आती. ये समझ भी ले तो बाउजी को इसकी हिन्दी समझ नहीं आती.””
“ “तो हम लोगों ने पट्टा लिखाया है क्या? जीवन भर हम लोग ही लादे रहेंगे क्या इनके बोझ को....?””
आगे सुनना नहीं चाहा बाउजी ने.......!
आंखों से आंसू बह चले थे उनके. आज बड़ी मम्मा होतीं तो क्या वे इतने असहाय, अकेले होते? कब का उनके साथ गांव चले गये होते. उन्हें अचानक अंधेरे में मम्मा की आवाज़ सुनाई देने लगी थे-“ सुधीर के बाउ, ये लड़के तुम्हारे रहने का फ़ैसला करें, खुद पर बोझ समझें उसके पहले तुम्हें अपना फ़ैसला कर लेना है....”
सुबह जब सुधीर उठा, तो बाउजी तैयार हो के ड्राइंग रूम में बैठे थे.
“अरे! कहां की तैयारी है बाउजी, इतने सबेरे से?”
“कुछ नहीं बेटा, वो गौतम जी बहुत दिन से बुला रहे न. हम दोनों एक ही अवस्था के लोग हैं, वे भी अकेले हैं सो कुछ दिन अब उनके पास रहने का मन है.”
“”टिकट?””
“”टैक्सी करके जाउंगा बेटा. ट्रेन-व्रेन में यात्रा करने की इच्छा नहीं.””
“”अरे! टैक्सी तो कम से कम दस हज़ार.....”” सरोज की आवाज़ थी ये. सुनील और शर्मिला भी बाहर आ गये थे अब तक.
“” है मेरे पास पैसा बहू. दे सकता हूं दस हज़ार.””
बाउजी का खोया हुआ आत्मविश्वास वापस चमक रहा था चेहरे पर.
बाउजी चले गये थे. आज ही गुड्डू को पेंटिंग भी स्कूल ले जानी थी, अन्तिम चुनाव के लिये. पेंटिंग इतनी शानदार और नये विषय पर थी, कि उसका चुना जाना तय था. स्कूल से गुड्डू की पेंटिंग नेशनल लेबल पर चुनी गयी अगले तीन दिन घर में उत्सव से बीते. गुड्डू की पेंटिंग प्रथम आई थी. फिर इसे दिल्ली ले जाया गया, जहां इसे लोककला भवन में आयोजित राष्ट्रीय प्रदर्शनी में रखा गया जिसका उद्धाटन राष्ट्रपति महोदय ने किया और इस पेंटिंग की जी खोल के तारीफ़ की. गुड्डू ने भी झूठ नहीं बोला, और खुल के बताया की ये पेंटिंग उसके अस्सी वर्षीय दादाजी ने बनाई है.अगले दिन राष्ट्रीय/प्रादेशिक सभी अखबारों में बाउजी की “सुरतिया” चमक रही थी.
पुरस्कार वितरण समारोह से खुशियों से लबालब भरे सुधीर-सरोज और गुड्डू घर पहुंचे तो अनायास ही सुधीर ने “बाउजी...........” की लम्बी टेर लगाई. उसे याद ही नहीं रहा कि बाउजी तो घर पर हैं ही नहीं. बहुत दिनों के बाद सरोज को आज घर खाली-खाली लग रहा था बाउजी के बिना....!
समाप्त