अरमान दुल्हन के 19
"पापा मैं आपकै साथ चालूंगी। " कह कर जोर जोर से रोने लगी।
" ए के होया (क्या हुआ) बेटी!क्यातैं (क्यों )रोई?" सुखीराम ने चिंतित होते हुए पूछा।
"पापा के( क्या) बताऊँ थमनै ईब्ब (आपको अब) , के के (क्या क्या) न्हीं होया इस घरमै मेरै साथ। मेरी सासु घणी कळिहारी (परेशान करने वाली) सै। अर मेरी नणद वा सुशीला उसनै तो मेरी घेटी( गला) ए पकड़ ली थी।" कविता ने सारा वृतांत कह सुनाया।
सुखी राम का गुस्सा सातवें आसमान पर था। पहले सरजू के ताऊ से बात करना बेहतर समझा। ताऊ ने साफ शब्दों में कह दिया।
"देख चौधरी, या ना मानै किस्से की बी(ये किसी की भी बात नहीं मानती) ! घणी ऊत लुगाई सै। जो करणा सै तैं ए देख ले ईब्ब (जो करना आप करो आप) । हाम्म कुछ नहीं कहैवांगे? रांड लुगाई सै, इसका किम्मे भरोसा न्हीं । उल्टा सुल्टा किम्मे कह देगी तो खामेखां पगड़ी उछळज्यागी। "
"आपकी बात तो साच्ची ए सै चौधरी! चलो एकबै तो मैं लेके जाऊं सूं कविता नै। आड़ै न्हीं छोड़ सकदा इस्सी हालत मै।"
"ईब्ब तो वार (देर) होरि सै (हो गई है)चौधरी, सवेर नै चले जाईयो। सरजू के ताऊ ने सुझाव दिया।
"ठीक कहो जी ,सवेर नै ए जावांगे फेर।"
" तेरा बाप खातर सब्जी ल्याणी सै तो लिया।मैं ना लेके आऊं, मेरी तो आसंग ( तबीयत खराब होना) कोनी ।" पार्वती ने चारपाई पर लेटते हुए कहा।
कविता गांव की किसी भी दुकान पर कभी गई ही नहीं थी।न उसे गलियों का ही ज्ञान था। मरती क्या न करती घर में रखी साबूत मूंग की दाल बना दी थी। कविता ने अपनी सास और पापा को खाना परोसा। सास ने थाली वापस कर दी।
"ईब्बे मेरे हाड चालैं सै (अभी मैं तंदुरुस्त हूँ)। तेरी बणाई होई या दाळ खाऊंगी मैं?" पार्वती नाक सिकोड़ती है।
सुखी राम से रहा न गया और बोल ही पड़ा- "देख चौधरण! मेरी छोरी की गलती हो तो बेशक तैं दस बै टोकिये ( टोकना) ! बिना बात के किम्मे तीन - पांच मत करिये। ना तै मेरे तैं बूरा कोय ना (कोई नहीं) होगा ! तैं बी तीन बेटियां की मां सै! किम्मे सोचिये ?"
पार्वती कुछ नहीं बोली और उठ कर चली गई। सुखी राम को रूखा सा खाना देते हुए कविता की आंखों से आंसू टपक पड़े, किंतु कर भी क्या सकती थी । सास घी तक को ताला रखती थी ।
अगले दिन सुबह कविता ने अपनी पैकिंग की ।
सास ने कविता से कहा- "ए सुण बळाई (गोबर फैंकने की जगह) मै पाणी धरया दो घड़वे (घड़े) ।बटोड़ा (गोबर के उप्पलों से बना होता है) दड़ाऊंगी (बनावाऊंगी) ।"
कविता बिना कुछ बोले घड़ा लेकर चली गई। पीछे से पार्वती ने उसका सूटकेस खगांला और उसकी सारी चिट्ठियां निकाल ली।
कविता को शक हुआ। उसने तो सूटकेस सही से बंद किया था किंतु कपड़े बाहर निकले हुए थे और सूटकेस ठीक से बंद नहीं था।
"ए तेरा सूटकेस दिखा ! "अब हर बात अति होने लगी थी । सिर से पानी गुजरने लगे तो बोलने के अलावा कोई चारा नहीं बचता।
"क्युं!"
कविता ने हिम्मत करके पूछ ही लिया।
" मन्नै तेरै पै शक सै, तन्नै चोरी करी सै!" पार्वती ने बिन सोचे ही इल्जाम लगा दिया था।
"हैंययययय!!!!!
मां आप मै थोड़ी घणी शर्म बाकी सै के न्हीं? ईब्ब आप घणे आगै बढ़ण लागगे।"कविता ने रोष प्रकट किया।
कविता ने गुस्से में आकर सूटकेस ही पलट दिया। सूटकेस में कपड़ों के सिवा कुछ न था। कविता की चिट्ठियां गायब थी जो उसने सहेज कर रखी थी। कविता चिल्ला पड़ी थी।
"मेरी चिट्ठी कित सै (कहां है) मां ?"
"मन्नै के बेरा (मुझे क्या पता) ?"
"आपणै घर मै हाम्म दो ए जणी सां, फेर चिट्ठी गई कित्त??"
"तैं तलाक लेगी?"अचानक से पार्वती ने उटपटांग सा सवाल किया।जिसका कोई औचित्य नहीं था।
"मां यो के सवाल होया।बिना मतलब बात क्यातैं करो सो? हर चीज की हद होया करै।" कविता ने गुस्से में कहा।
"तन्नै तो तलाक दिवाके ही दम ल्यूंगी मै। " पार्वती के शब्दों ने उसके कानों में मानों गरम सीसा उड़ेल दिया हो।
"ठीक सै तेरा छोरा राज्जी सै तो मैं तलाक बी दे दयूंगी।" कविता बिफर पड़ी।
और सूटकेस उठाकर ले आई।
"चलो पापा!" और सूटकेस पापा के हाथ में पकड़ा दिया।
क्रमशः
एमके कागदाना
फतेहाबाद हरियाणा