अरमान दुल्हन के-18
समय बीतता जा रहा था और दूसरी तरफ सास का प्यार भी बढ़ता जा रहा था। कविता को आठवां मास लग चुका था। उसे अब काम करने में भी परेशानी होने लगी थी। मगर फिर भी सासू मां नाराज न हो जाये इसलिए लगी रहती।और फिर एक दिन सुशीला आ धमकी। कविता का जरा भी मन नहीं था सुशीला से बात करने का। मगर सासु मां की खातिर उसे सुशीला की आवभगत करनी पड़ी। उस दिन सरजू की बूआ भी आ गई थी। सुशीला मौका तलाश रही थी लड़ने का।और वह मौका जल्द ही मिल गया। कविता ने बूआ के लिए चाय बनाई तो सबने ही पीने के लिए बोल दिया। बूआ को शुगर थी तो चाय फीकी पीती थीं। कविता को याद नहीं रहा और उसने सबको फीकी चाय दे दी।
सुशीला ने ज्यों ही चाय की घूंट ली बिफर पड़ी "चा ना पियाणी तो नाट ज्याती (चाय नहीं पिलानी थी तो मना कर देती) ।फीका पाणी पिण तैं तो ठीक था ना ए बणाती।"
" इसकै काम करती हाण जोर पड़ै सै।
ठीक कह सै सुशी बेटा तैं। तैं आग्गी इसकै बाकी ना रहरी।" मां ने अपना असली रंग फिर दिखाया।
बूआ सब सुन रही थी और बोल पड़ी-"फेर के होग्या ए सुशी ,बाळक सै भूलगी होगी। ऊपर तैं गेर ले चम्मची गेल। क्यूं इतणा हांगा लारि सै (क्यों इतना गुस्सा हो रही है) !चाळे(हद पार करना) करै सै छोरी तैं बी!"
सुशीला तब तो चुप हो गई थी। मगर कसक अभी बाकी थी। बूआ ताऊ के घर चली गई और सुशीला को फिर से मौका मिल गया।
"देख मां इसकै आंख जिब होवैंगी (आंख खुलेंगी), हाम्म(हम) जाप पै आवैंगी कोनी अर तैं मेरै मामा कै चली जाईये। देखांगे फेर कोण जापा काढ़ैगा! फेर बुला लेगी इस बूआ नै।"
"तेरी मां तेरे जापे काढ़ सकै सै तो मेरी मां बी जीवै सै।" कविता सुशीला पर गुस्से में चिल्ला पड़ती है।
"ए घणी (ज्यादा) ना बोलै! तेरै ईब्ब टेटुए (गले)मै गूंठा (अंगूठा)दे दयूंगी।" पार्वती कविता पर बरस पड़ी।
"हां बेटी ठीक कहरी सै। इनकै घरां बी चिट्ठी गिरवा (भेज)दी । ओड़ै तैं बी (वहाँ से भी) कोय ना आवै। ईब्ब देखूंगी के (क्या) करैगी??" पार्वती अपनी जीत पर इतरा रही थी।
कविता की आंखों के सामने तारे टूटने लगे। उसका सिर चकराने लगा। अब उसे थोड़ी थोड़ी बात समझ आ रही थी। वह सर पकड़ कर बैठ गई।उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था।
सुशीला भी चली गई।अब रह गई सिर्फ सास- बहू और खामोशी। कविता को अपनी बेवकुफी पर हंसी आ रही थी। वह सोचने लगी मैने पत्र में लेने आने के लिए क्यों नहीं लिखा?क्यों नहीं अपनी बुद्धि का प्रयोग किया? वह इस जद्दोजहद में थी इस परिस्थिति से कैसे बाहर निकलूं।
"हे राम!!तूं किते सै तो सुणले मेरी पुकार, मैं बार - बार करूं सूं तेरै तैं मनुहार ! भगवान भगुऊन किम्मे ना होता? जै भगवान होता तो उसनै के दिखदा ना इस धरती पै के होण लागरया सै?" वह रूआंसी हो अपने आप से बातें कर रही थी।
तभी आवाज आई ।
"कविता ए!" उसे आवाज परिचित सी लगी ।वह आवाज की ओर दौड़ी।
वह आवाज किसी और की नहीं कविता के पापा की थी।
कविता पिता को देखकर खुशी से उनसे लिपट गई और उसकी रुलाई फूट पड़ी।
क्रमशः
एमके कागदाना
फतेहाबाद हरियाणा