नरोत्तम दास पाणेय ‘‘मधु’’ की मुक्त कृतियां
काव्य के निर्बन्ध स्वरूप को मुक्तक कहा जाता है। ‘अग्निपुराण’ में ऐसे श्लोक को मुक्तक कहा गया है जो स्वयं में ही चमत्कारक्षम हो-
मुक्तकं श्लोक एकैकश्चमत्कारक्षमः सताम्।1
आनन्दवर्द्धन ने रसाभिनिवेश की दृष्टि से मुक्तक काव्य पर जो विचार किया है उसकी व्याख्या करते हुए अभिनयगुप्त ने लिखा है कि मुक्तक पूर्वापर पक्षों से स्वतंत्र पद्य होता है। फिर भी उसमें रस निहित रहता है। उन्होंने मुक्तक में पौर्वापर्यं-निरपेक्षता और इस-चर्वणा को आवश्यक माना है।2 साहित्य दर्पणकार ने भी मुक्तक में मुक्तक को ही प्रधान माना है।3
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर मुक्तक ऐसी काव्य-रचना है जिसका प्रत्येक्ष पद्य अर्थ-द्योतन में स्वतः समर्थ हो। प्रन्धकाव्य में भाव की विशद व्यंजना का अवसर रहता है परन्तु मुक्तक में एक ही छन्द में रस-परिपाक होने से अभिव्यक्ति के उपकरणों में संक्षिप्ति की आवश्यकता होती है। उसमें कवि की सफलता कल्पना की समाहार-शक्ति और भाषा की समास-शक्ति पर निर्भर रहती है।4 इसी के साथ मुक्तक में कलागत चमत्कार अन्य काव्य-रूपों की अपेक्षा अधिक रहता है।
मुक्तक में प्रबंध काव्य के समान रस-विस्तार भले ही न हो पर वह रस-विरक्षित नहीं होता है। उसके लिये कवि की प्रतिमा आवश्यक है। आनन्दवर्द्धन ने अमरुक के मुक्तकों को प्रबन्धों के समान प्रसिद्ध माना है।5 मुक्त में रस के छींटे पड़ने से हृदय-कलिका थोड़ी देर के लिए खिल जाती है।
संस्कृत काव्य शास्त्र में मुक्तक के विभाजन में संख्या, विषय अथवा कवि का आधार लिया गया है। मुक्तक, युग्मक अथवा सन्दानितक, विशेषक, कलामक और कुलक क्रमशः एक, दो, तीन, चार और पाँच श्लोकों की रचना को माना गया है। कोश परस्पर असम्बद्ध रूपों का संग्रह है। प्रघट्टक एक कवि के मुक्तकों का समूह है। विकर्षक में अनेक कवियों के मुक्तक संगृहीत होते हैं। संघात अथवा पर्यायबन्ध में एक कवि के एक ही विषय पर रचित छन्द रहते हैं। आज काव्य के विषय और कला के प्रति बदले हुए दृष्टिकोण तथा यथार्थ के आग्रह से शास्त्र के अनेक निर्देश अमान्य हो गये हैं। मधु के काव्य में भी ऐसा परिवर्तन दिखायी देता है।
हिन्दी में संख्यावाची मुक्तक काव्य में पंचक, अष्टक, दशक, पचासा, शतक, सतसई और हजारा रूप मिलते हैं। दोहा, बरवै, कुण्डलियाँ, कवित्त आदि छन्दों के आधार पर भी मुक्तक काव्य की संज्ञा प्रचलित है। इन आधारों पर मुक्तक काव्य का विभाजन भी पूर्ण और निरपवाद नहीं है, क्योंकि संख्यावाची मुक्तकों का भी वर्ण्य विषय तो रहता ही है। इस प्रकार एक ही कृति संख्या और विषय के आधार पर अलग-अलग मुक्तक रूपों में वर्गीकृत हो सकती है।
‘मधु’ ने प्रबन्ध से अधिक मुक्तक काव्य की रचना की है। उनका अधिकांश मुक्तक काव्य कृतियों के रूप में है जिन्हें शास्त्रीय आधार पर संघात या पर्यायबन्ध कहा जा सकता है। इनमें एक ही विषय का निरूपण है, इन कृतियों का नामकरण विषय के आधार पर भी हुआ है, जैसे ‘मुरलीमाधुरी’, ‘होलीमाला’, ‘हाला’ और ‘बुन्देलखण्ड दर्शन’ और संख्या के आधार पर भी हुआ है, जैसे ‘शशिशतक’, ‘विंध्यबावनी’, ‘वेतवा बावनी’। ‘शशितक’ में विषय और संख्या दोनों का निर्देश है। ‘मधुसूक्तिसंग्रह’ में विविध विषयों पर अभिव्यक्ति का वैशिष्ट्य नामकरण का प्रमुख आधार है। इसके अतिरिक्त ‘मधु’ का स्फुट काव्य है जिसमें प्रायः अलग-अलग भावों पर एक या एकाधिक पद्यों की रचना हुई है। ‘विदा’, ‘चन्द्रचकोर’, ‘पतंग और दीपक’, ‘चालक’, ‘वियोगसंगीत’ आदि कुछ रचनाएँ ऐसी हैं जिनमें एक ही विषय पर दस-पन्द्रह छन्दों की रचना हुई है। स्फुट काव्य का विवेचन विषय के आधार पर है।
‘शशि शतक’
‘शशिशतक’ के छन्दों की रचना सतत् रूप से न होकर समय-समय पर हुई है। परन्तु सन् 1943 ई. तक किसी समय इस काव्य की रचना हो चुकी थी। 1943 ई. में प्रकाशित ‘बुन्देलखण्ड वागीश’ में लिखा है, ‘आपकी रची हुई पुस्तकों में ‘शशि शतक’ तथा ‘मुरली माला’ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। ‘शशि शतक’ ब्रजभाषा का अत्यन्त कलापूर्ण खण्डकाव्य है।’
‘शशि शतक’ में 80 छन्द कवि के स्वलेख में प्राप्त हैं। इस संग्रह के नाम से ज्ञात होता है कि कवि ने चन्द्रमा पर 100 छन्द लिखने का विचार किया होगा और 80 छन्दों की रचना के बाद शेष छन्दों का प्रणयन कुछ समय के लिये स्थगित कर दिया होगा जो फिर पूरा नहीं हो सका।
‘शशि शतक’ ‘मधु’ की अत्यन्त भाव सम्पन्न और कलापूर्ण मुक्तक कृति है। इसमें चन्द्र-सौन्दर्य की विविध छटाओं का वर्णन, उसके सम्बन्ध में साम्यमूलक विभिन्न कल्पनाएँ तथा सुन्दर उक्तियों की योजना है। अलंकारों के कुशल प्रयोग तथा बिम्बाधायक चित्रणों से चन्द्रमा की छवियों का सजीव रूपायन हुआ है। प्रकृतिचित्रण में तो चन्द्रमा को आलंबन माना ही गया है, पौराणिक और युगीन सन्दर्भों के आरोप से कल्पनाओं में वैविध्य आया है। एक ही विषय के इतने विविध रूपों की कल्पना और अभिव्यक्ति की कलात्मकता से कवि की असाधारण कारयित्री प्रतिभा का परिचय मिलता है।
‘शशिशतक’ के छन्दों को शीर्षकों से अभिहित किया गया है। ये शीर्षक उन छन्दों में वर्णित भाव के सूचक हैं। इन शीर्षकों से चन्द्र-वर्णन के वैविध्य और कवि की सूझ का पता चलता है। ‘रातपति तथा रतिपति’, ‘गणेश और निशेश’ ‘नन्दपतिनन्द नदपतिनन्द’, ‘विधि और विधु’, ‘ग्रहणमुक्त चन्द्र’, ‘राहुग्रस्त चन्द्र’, ‘कुहूचन्द्र’, ‘चन्द्र और कृष्णचन्द्र, ‘चन्द्रकलंक’, ‘विरहिन और चन्द्र’ ‘सम्मिलित चन्द्र’, राहुल तथा हनुमान दिन का चन्द्रमा, ‘मयंकमृगराज’, ‘चन्द्रमा क्या है’, ‘शरण पूर्णिमा में मधुशाला’, ‘शम्भुशैल पर शरद’, ‘द्विजराज या वैद्यराज’, ‘राजहंस द्विजराज’, ‘चन्द्रकिरणों की करामात’, ‘चन्द्रबाजीगर’, ‘मयंकमणि’ आदि शीर्षकों से इस काव्य की कल्पनात्मक संभावना प्रकट होती है।
‘शशिशतक’ के आरम्भिक छै छन्द वन्दनापरक हैं। ‘मधु’ के काव्यों में निहित वन्दनाओं की यह विशेषता है कि उनमें कृति के वर्ण्य विषय का ही आधार लिया गया है। इस काव्य की सभी वन्दनाओं में चन्द्रमा का आसंग है। सर्वप्रथम चन्द्रमा की वन्दना की गयी है। जिस चन्द्र की अनुरूपता से राधा और सीता के मुख की ओर कृष्ण और राम सदा अनुरक्त रहते हैं और जिसे शंकर ने अपने मस्तक पर धारण किया वह चन्द्रमा आदि वन्दनीय है-
राधा मुखचन्द्र पे जो राजै बनि चंद्रकला,
बारे ब्रजचंद हू कौ चित जौ लियो चुराय।
सीताजू के आनन अमंद, सरसाय जौन,
रामचन्द्र हू कों लियो नेह डोर में फसाय।।
जाहि चन्द्रमौलि पूजै मौलि पर राखि राखि,
चन्द्रदेत कठिन कुहू कौ पूर्णिमा बनाय।
आदि वंझ भालचंद हू कौ जो भयो है वंद्य,
कहो तौन चंद ही न काहे आदि पदांे जाय।।7
एक अन्य वन्दना में राधा के मुख पर चन्द्र का आरोप करके राधा और चन्द्र की एक साथ वन्दना की गयी है-
भरन वसुन्धरा में रिधि सिधि सम्पत्ति को,
दरन दुरूह दीह दाह दुख दन्द है।
करन कृपा की कोर हरन कलेश तक,
असरन सरन प्रदायक अनन्द है।।
‘मधु’ कामदेन हेतु होत दूजो काम धेनु,
दुहु पक्ष रहत समान ही स्वछन्द है।
जन मन नंदनीय नित अभिनंदनीय,
वंदनीय कीर्तिनंदिनी कौ मुखचन्द है।।8
प्रकृति के उपादान और सौन्दर्य के अप्रस्तुत के रूप में चन्द्रमा का काव्य में अनेक प्रकार से वर्णन किया गया है। श्रृंगार-चित्रण में प्रकृति के अन्य उपादानों की अपेक्षा उद्दीपन रूप में चन्द्रमा का अधिक वर्णन किया गया है। परन्तु ‘शशिशतक’ में कवि का अभिप्रेत चन्द्रमा की विभिन्न रूप छवियाँ और सादृृश्य-योजनाएँ प्रस्तुत करना है। अतः चन्द्रमा का वर्णन प्रायः आलम्बन रूप में ही किया गया है। प्रकृति के प्रत्यक्ष रूप का सजीव चित्रण करने के लिये गहरी अन्तर्दृष्टि, रागात्मकता और सशक्त अभिव्यंजना आवश्यक है। प्रकृति के प्रति रागात्मकता जब कवि के हृदय को अभिभूत कर लेती है तो वह उसमें आत्म-प्रक्षेप करने लगता है। उसे प्रकृति में मनुष्यों की तरह प्राणों का स्पन्दन सुनायी देने लगता है और वह मानवीय चेष्टाएँ करती प्रतीत होती है। इसीलिये प्रकृति के इस जीवन्त चित्रण को मानवीकरण कहा गया है। ‘मधु’ के प्रकृति चित्रण में सजीवता का प्रभाव सर्वत्र है। प्रकृति के अलंकृत वर्णन में भी ऐसे साम्य प्रस्तुत किये गये हैं जिनसे प्रकृति जड़ न होकर चेतन प्रतीत होती है। चन्द्रमा को सम्बोधित करके किया गया उसका रूपांकन भी इस प्राणवत्ता की प्रतीति में सहायक हुआ है।
शरद कालीन चन्द्रमा को शरद कन्या के हाथ का खिलौना कहते हुए पूरे दृश्य का अलंकृत चित्रण किया गया है-
अम्बर अनूप उढ्वाय कै सुभाय पुनि,
विष्णुकांत सुमन समूह को दिठौना दै।
हीरन के हार कर तारन कतारन कौ,
समुद विछाय कंज कुमुद बिछौना दै।।
‘मधु’ सुक सारिकादि सुयस उचारिवे कों,
डोलिबे कों संग राजहंसन के छौना दै।
धन्या होय प्रकृति खिलावै शर्द कन्या कहँ,
अमल अमन्द चारु चन्द को खिलौना दै।।9
चन्द्रमा को खिलौना का सादृश्य प्रदान करने के लिये शिशु-क्रीड़ा का पूरा रूपक बाँधा गया है जिससे चन्द्रमा और शरदकालीन वातावरण का पूर्ण चित्र अंकित हुआ है। आलम्बन रूप में चन्द्रमा के अलंकृत वर्णन में एक के बाद एक सादृश्य उभरते चले जाते हैं-
नील नभ आँगन में शरद सुधांशु किधौं,
गात पै गुविन्द जू के जुटित अबीरा है।
तैरे नभ सिंधु माँह लुन्द नवनीत कौ कै,
बुदबुद बुन्द उठ्यौ अधिक अधीरा है।।
‘चन्दन को बिन्दु’ मधु सोहै स्याम शीस किधौं,
दीपै राधामुख नील पट विसतीरा है।
कमल उदार नभ सागर मझार किधौं,
नीलम के थार में उदीयमान हीरा है।।10
नीले आकाश में उज्जवला चन्द्रमा के चित्रण में विरोधी रंग-योजना का प्रयोग तथा आधार और आधेय के आकार के अनुपात का वर्णन कवि की निरीक्षण-शक्ति और भाव निर्वाह की क्षमता का द्योतक है। चन्द्रमा का मानवीकरण के रूप में चित्रण बहुत प्राणवान है। चन्द्रमा के उदय से कुमुदिनी के खिल जाने के प्राकृतिक व्यापार पर मानवीय श्रृंगार-चेष्टा का आरोप किया गया है।
‘मधु’ चन्द्र ने कोटि करों को पसार,
कमोदिनी का मुख घूँघट खोला।।11
प्रकृति के विभिन्न उपादानों में व्यापार-साम्य दिखाकर चकोरी की चन्द्रोन्मुखता के भाव को प्रगाढ़ किया गया है-
मधुपों की मनोहर पंक्ति अहा,
करने मकरन्द की चोरी चली।
प्रिय पुष्प के अंक को त्याग,
समीर के संग सुगन्ध किशोरी चली।।
पहने सितकास धरा अभिसारिका,
नेह के रंग में बोरी चली।
किरणों का कमन्द लगा करके,
प्रिय चन्द्र के पास चकोरी चली।।12
‘शशिशतक’ के कुछ छन्दों में चन्द्रमा का उद्दीपन रूप में भी चित्रण किया गया है। रीति युग में प्रकृति का सर्वाधिक उपयोग उद्दीपन रूप में ही होने से प्रकृति-चित्रण की इस प्रणाली के प्रति पारम्परिकता का भाव बन गया है, किन्तु प्रयोगाधिक्य के कारण ही उसकी मनोभावानुकूलता और सार्थकता समाप्त नहीं हो जाती। हर्ष-विषाद के क्षणों में बाह्य प्रकृति का उद्दीपन प्रतीत होना उसका हमारी अन्तः प्रकृति के साथ योगात्मक सम्बन्ध प्रकट करता है। बाह्य प्रकृति का रूप हमारी भावनाओं को तीव्रता के साथ जाग्रत कर देता है। ‘मधु’ ने ‘विरहिन और चन्द्र’ शीर्षक छन्दों में चन्द्रमा का उद्दीपन रूप चित्रित किया है। यहाँ चन्द्रमा को अभिधात्मक रूप से विरहोद्दीपक नहीं कहा गया है क्योंकि उसमें काव्यत्व नहीं है। कवि ने चन्द्रमा और विरहिणी की स्थिति में विरोध दिखाया है-
तेरे बिन असुध अचेत अबला को जान,
चन्द्र चुरा ताकी छवि करत अनैहौ जू।
मेरी बात रावरे के चित पै न चढ़ै जो तौ,
दिन दिन बढ़ै विधु आपु लखि लैहौ जू।।
साँची तौ कहौ जू कहा करिबौ विचार्यौ मधु,
नेह निरवैहौ किधौं जीवन नसैहौ जू।
साँवरे सलौने स्याम नेक विनै ऊनौ जो पै,
पूनै लौ न ऐहौ तो सदन सूनो पै हौ जू।।13
चन्द्रमा का रूप द्वितीया से पूर्णिमा तक इसीलिये बढ़ता जा रहा है क्योंकि वह विरहिणी की छवि को छीन रहा है। प्राकृतिक व्यापार के हेतु की यह कल्पना अत्यन्त भावपूर्ण है। इधर चन्द्रमा का स्वरूप पूर्णिमा को संपूर्ण हो जायेगा, उधर विरहिणी निष्प्राण हो जायेगी। प्रिय के बिना विरहिणी संज्ञाहीन और शक्तिहीन हो गयी है। उसकी ऐसी स्थिति देखकर और घर में किसी पुरुष को न पाकर चन्द्रमा रोज चोरी कर रहा है। पूर्णिमा तक की अवधि से विरह की असह्यता भी प्रकट होती है और चन्द्रमा के उद्दीपन रूप का भी संकेत मिलता है।
विरह में चन्द्रमा विरहिणी को घातक प्रतीत होता है। कृष्ण की अनुपस्थिति में चन्द्रमा किरणों की कटार लेकर राधा के प्राण लेने उसकी अटारी पर चढ़ आया है-
उन सुखकन्द ब्रजचन्द बिन जानु आजु,
भयौ चन्द मन्द हू तैयार अनाचारी पै।
छहर छटा री तज शम्भु की जटारी लयें,
किरन कटारी आयौ राधा की अटारी पै।।14
‘शशिशतक’ के कुछ छन्दों में शास्त्रीयता का निर्वहण भी हुआ है। प्रकृति का उपयोग नायिका के मनोभावों की व्यंजना में किया गया है। प्रिय के आगमन पर हर्षोत्फुल्ल आगत्पतिका नायिका उसे रिझाने के लिये साधारण श्रृंगार नहीं करना चाहती-
विरह दबाग सों जो पजरत गात रह्यौ,
हरित भयो है हियें हर्ष दौर्यौ दून री।
लागी युग लोचन कों लालसा दरस कान,
वानी सुनिवे कों भये व्याकुल विधून री।।
आज मनभावन के आवन की औध अरी,
तिनके रिझावन कों ऐती बिनै ऊन री।
सुनरी शरद नेकु देर को मिन्हा दे मोय,
तारन के हार चाँदनी की चारू चुनरी।।15
प्रस्तुत छन्द में शरद कालीन शुभ्र ज्योत्स्ना के प्रसाद और उसकी शीतलता का भी चित्रण हुआ है और प्रोषित पतिका नायिका का चित्र भी अंकित हुआ है।
‘शशिशतक’ के काव्य-सौन्दर्य का एक प्रमुख आधार उक्तिगत कल्पना है। ये उक्तियाँ केवल वचनवक्रता अथवा सामान्य लोकानुभवों के रूप में नहीं हैं, बल्कि कल्पना की सूझ से चित्रित भाव के रूप में हैं। उनमें अभिनवता, विदग्धता और चारुता है। चन्द्र-कलंक के विषय में सुन्दर कल्पनाएँ की गयी हैं-
पेखि शशि कालिमा सुहाई हिय भाई भल,
उकति अनौंखी एक आई ‘मधु’ मन में।
एकत भये जौ आज पाप दाय भूतल पै,
तिनहू को बिम्ब दीसै चन्द दरपन में।।16
इससे भी अधिक भावपूर्ण उक्ति में कवि ने चन्द्र-कलंक की कल्पना की है। कोई उसे समुद्र का पंक कहता है, कोई उसे हिरण की आकृति बताता है, कोई उसे राहु-दंश मानता है और किसी के अनुसार वह अमृत का सारहीन अंश है। ‘मधु’ की कल्पना इन सब अनुमानों को अमान्य ठहराती है-
याही विधि कोऊ कछू कैबौ करै,
ऐबौ करै ए ही पर ‘मधु’ की लहर में।
अन्धकार पान जौ कर्यौ है मन मौद मान,
ताही की खचान जा दिखात चन्द उर में।।17
चन्द्रमा ने अंधेरे को पी तो लिया लेकिन उसके हृदयस्थल पर उसका अमिट चिन्ह अंकित हो गया। कवि की उर्वर कल्पना एक ही प्रस्तुत के लिये अनेक सादृश्यों का अनुसंधान करती चली आती है। चन्द्र-कलंक के लोक-प्रचलित अथवा कवियों के द्वारा बहुप्रयुक्त हेतुओं और स्वरूपों से संतुष्ट न होकर ‘मधु’ ने नवीन सादृश्यगर्भित उक्तियों का विधान किया है।
द्वितीया के चन्द्रमा के क्षीण आकार का निरूपण करते हुए कवि ने श्लेष की सहायता से उक्ति-कौशल दिखाया है-
काहे कलंकी कहावते हे शशि,
जो कहूँ कारे हिया के न होते।
मारी न यों मति जाती तुम्हारी,
जु वारुनी वारी धिया के न होते।।
दोष न देखते यों तुममें ‘मधु’,
प्रेमी जु दोषा प्रिया के न होते।
छीन छिनेक में होते नहीं तुम,
हे शशि जो द्वितिया के न होते।।18
द्वितीया चन्द्र को द्वितिया करके कवि ने श्लेष से उसका दो स्त्रियाँ अर्थ लेकर क्षीणता का स्वाभाविक और प्रतीतिजनक कारण बताया है।
चन्द्र वर्णन में पौराणिक और युगीन सन्दभों का भी ग्रहण किया गया है। कहीं सादृश्य के आधार पर उसे कला के समान कहा गया है और कहीं व्यतिरेक भाव से उसे कामदेव से भी श्रेष्ठ बताया गया है। ग्रहणयुक्तचन्द्र के वर्णन में कृष्ण की अघासुर-वध लीला का प्रसंग लिया गया है। जिस प्रकार कृष्ण अधासुर के पेट में से अक्षत निकल आये थे और उन्होंने उसका वध कर दिया था उसी प्रकार चन्द्रमा भी राहुग्रास से कला करके निकल आया।
कवि की दृष्टि सामयिक सन्दर्भों पर भी गयी है। एक छन्द में कवि ने चन्द्रमा पर व्यापारी अंग्रेज के श्वेत रूप और अनाचारी स्वभाव का आरोप किया है-
जो भी सिर धारता है नंगा कर देता उसे,
बहिरंग स्वेत अंतरंग सकलंक है।
पग वारुणी की ओर बढ़के बढ़ाता सदा,
रखता न एक रूप सीधा कभी बंक है।।
ज्योति जिसकी से ज्योतिमान उसके ही प्रिय,
कोक कंज जनों पै जमाता निजातंक है।
जानता जगत अनाचार की कहानियाँ हैं,
मानों बरतानिया का बानिया मयंक है।।19
इस प्रकार ‘शशिशतक’ ऐसी कृति है जिसमें कल्पना का दूरगामी प्रसार, नवीन सूझ, उक्ति, कौशल, मनोहर भाव-सृष्टि और अभिव्यक्ति की कलात्मकता पूरे प्रभाव के साथ प्रस्फुटित हुई है। ‘बुन्देलखण्ड बागीश’ के सम्पादक के अनुसार ‘शशिशतक ब्रजभाषा का अत्यन्त कलापूर्ण खण्डकाव्य है। अनेक अलंकारों और कल्पना का मधुर मिश्रण तो है ही भाषा का संस्कृत प्रयोग एवं पृथुल प्रवाह परम प्रशंस्य है।20 विषयाश्रित मुक्तक काव्य होने के कारण सम्पादक ने उसे खण्डकाव्य कह दिया है।
मुरली माधुरी
‘मुरली-माधुरी’ भी 1943 ई. के पहले की रचना है। सन् 1943 में प्रकाशित ‘बुन्देलखण्ड वागीश’ में ‘मधु’ की उल्लेखनीय कृतियों में मुरली माला को भी माना गया है। प्रारम्भ में ‘मधु’ ने इस कृति का नामकरण ‘मुरलीमाला’ किया था। बाद में उन्होंने उसका नाम ‘मुरली-माधुरी’ कर दिया।
‘मुरली-माधुरी’ में कृष्ण की मुरली से सम्बन्धित ब्रजभाषा में 28 कवित्त-सवैये हैं। इन छन्दों में बाँस की बनी बाँसुरी का कृष्ण को पाने का सौभाग्य, वंशी का महत्व, वंशी के प्रति गोपियों का सपत्नी-भाव आदि विषयों पर भावपूर्ण और अलंकृत काव्य रचना हुई है।
बाँसुरी के सम्बन्ध में अनूठी उक्तियों के प्रयोग से ‘मुरली माधुरी’ के छन्द भी बहुत प्रसिद्ध हुए। ‘शशि शतक’ और ‘मुरली-माधुरी’ के काव्यत्व से सिद्ध है कि 26-27 वर्ष की अवस्था में ही ‘मधु’ अपने काव्य-जीवन के उत्कृष्ट काल में पहुँच गये थे।
इस मुक्तक काव्य में अभिजात काव्य-परम्परा में और स्वतंत्र रूप से कृष्ण की मुरली के प्रभाव का वर्णन किया गया है। सूर ने मुरली के प्रति गोपियों की अनुभूति का और गोपियों के प्रति मुरली के विनम्र निवेदन का ऐसा रागपूर्ण चित्रण किया है कि मुरली जड़वाद्य न होकर जीवित व्यक्ति की चेतना से समन्वित प्रतीत होने लगती है। अभिजात काव्य में श्रृंगार-चित्रण में मुरली-वादन विषय का प्रयोग रीतियुग में पर्याप्त रूप से हुआ है। ‘मधु’ ने भी परम्परानुसार मुरली के प्रति गोपियों का सपत्नीभाव दिखाया है। इसी के साथ मुरली के आकर्षण और उसके प्रभाव के सम्बन्ध में स्वतंत्र कल्पना और उक्तियों का भी सौन्दर्य इस कृति की विशेषता है। प्रेम की कोमल और मार्मिक अनुभूति की व्यंजना में मुरली का प्रसंग बहुत उपयुक्त है।
कवि के अन्य काव्यों की तरह इस कृति के आरम्भिक छन्द भी वन्दनापरक है। इन वन्दनाओं में भी कृति के वर्ण्य विषय का आधार लिया गया है। कृष्ण के सम्पर्क से बाँस की बाँसुरी भी दिव्यशक्ति से समन्वित हो गयी है। कवि की अभिलाषा है कि उसके हृदय में अनहद नाद उत्पन्न करने वाली और सभी स्वरों को धारण करने वाली बाँसुरी सदैव बजती रहे। कवि यमुना के किनारे कदम्ब के नीचे त्रिभंगी मुद्रा में वंशीवादन करते हुए कृष्ण की वन्दना करता है-
तहीं स्याम रंगी नव निरख त्रिपंगी छवि,
‘मधु’ माधुरी में भव्य भाव उपज्यौ करंे।
अनहदनादिनी समस्त सुर साधिनी सो,
श्याम की हमारे हियें बाँसुरी बज्यौ करे।।21
समस्त सुरों वाली बाँसुरी की कृपा से सभी देवताओं की कृपा प्राप्त हो जाती है। बाँसुरी की ध्वनि कृष्ण-भक्ति का पर्याय बन गयी है। कृष्ण की बाँसुरी के अलौकिक नाद-प्रभाव से ब्रह्मा और शिव का कार्य-व्यापार भी स्थगित हो जाता है। उसकी शक्ति और गरिमा का निर्वचन सरस्वती और नारद भी नहीं कर पाते। अन्य देवता तो उसके महात्म्य को स्वीकार करते ही हैं-
हरि के अधर लालि बाजत जबै तू अरी,
चारि दस भुवन त्रिलोक बलिहारी जात।
सृष्टि विरचायबौ विरंचि कांे विसरि जात,
औचक ही टूट शिव की समाधि तारी जात।।
‘मधु’ शेष शारदादि नारद विशारदादि,
हू पै गूढ़ गरिमा तिहारी ना उचारी जात।
ए री वनवारी तो पै वारी वनवारी तू तो,
सब सुरवारी तो पै सब सुरवारी जात।।
श्रृंगार-चित्रण में कृष्ण और मुरली में पारस्परिक रतिभाव दिखाया गया है। मुरली ने प्रेम की अनन्यता और समर्पित भावना से कृष्ण की निकटता प्राप्त की है। वह कृष्ण के प्रेम में उसी तरह अनुरक्त है जिस प्रकार हंसिनी मानसरोवर के प्रति और कोयल वसन्त के प्रति आसक्त होती है। बादल को देखकर पुकार उठने वाली मयूरी और चन्द्रमा की ओर अपलक दृष्टि से देखती रहने वाली चकोरी की तरह मुरली भी कृष्ण के प्रेम में निमग्न है। कृष्ण का अथरामृत पाकर उसे भूख और प्यास का बोध ही नहीं होता।22
यदि मुरली कृष्ण के प्रति इतनी अनुरक्त है तो उसका अपना भी आकर्षण है जिससे तीनों लोकों को नचाने वाली कृष्ण की उँगलियाँ उसके अनुसार नाचती हैं-
जादू भरो इह के सुर में,
उर में यह बात समावो करै।
मुरली धर की मुरली छन तान,
सुना वनतान भ्रमावो करै।।
कहु काह कहें इह की करनी,
वरनी में कछू नहिं आवो करे।
‘मधु’ जे हरि की अँगुरी त्रयलोक,
नचावै तिन्हें ये नचावो करै।।
वांसुरी मनमोहन की मनमोहिनी है। कृष्ण का बाँसुरी के वश में रहना स्वाभाविक ही है, क्योंकि एक हाथ से किसी स्त्री का पाणिग्रहण करके पुरुष सदा उसके वश में रहता है, फिर कृष्ण तो मुरली का ग्रहण दोनों हाथों से किये हुए हैं-
इक हाथ गही तिया के वशीभूत,
रहें नर रीत सनातन सों।
इह के वंश में हरि क्यों न रहें,
वे गहे इह कों दुहू हातन सों।।
कृष्ण के हृदय पर बाँसुरी की प्रेम-विजय इसी बात से सिद्ध है कि पावन गंगा तक को उन्होंने विष्णु-रूप में चरणों में स्थान दिया और सिन्धु-सुता लक्ष्मी को प्रियत्व दिया तो उन्हें भी शरीर के मध्य भाग हृदय में ही बिठाया परन्तु बाँसुरी का इतना आकर्षण है कि उसे उन्होंने मुख पर धारण किया।23
मुरली का यह सौभाग्य ही गोपियों के सपत्नी भाव का विभाव है। मुरली का कृष्ण के अधरों का संयोग और उँगलियों का स्पर्श प्राप्त करते देखकर इस दुर्लभ सुख से वंचित गोपियों के मन में यह अभिलाषा जागती है कि वे कृष्ण की बाँसुरी बन जायें-
मो मन आस सबै पुरी होती,
जो बाँसुरी वारे की बाँसुरी होती।
बाँसुरी की तान ने गोपियों के हृदय में मर्मान्तक पीड़ा उत्पन्न कर दी है। तीर जब शरीर को वेध कर निकल जाता है तब उतनी पीड़ा नहीं होती जितनी शरीर के भीतर ही गड़े हुए तीर से होती है। बाँसुरी की तान गोपियों के प्राणों में नष्ट शल्य की तरह चुभ गयी है। कृष्ण की मुख-माधुरी का आस्वाद लेने में गोपियों को बाँसुरी उसी तरह बाधक प्रतीत होती है जैसे गुड़ में ईख का छिलका।24
मुरली के सौभाग्य को देखकर गोपियों की व्यथा सपत्नी-भाव में परिवर्तित हो जाती है। सपत्नी का अस्तित्व प्रिय के प्रेम का विभाजन है। प्रेमी के मन में प्रिय पर एकाधिकार की कामना रहती है। किसी अन्य आलम्बन के प्रति प्रिय का आकर्षित होना प्रेमी की मार्मिक पीड़ा पहुँचाता है-
सखि सौत भई मुरली अपनी,
गह कें हरि के अधरासन कों।
‘मधु’ तानें सुनाय कै ताने से देत,
हमारे उभै श्रुति दाहन कों।।
ईर्ष्या-भाव में दूसरे की सम्पन्नता के कारण ईर्ष्यालु में जो हीन भावना होती है। उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप वह अनेक दोष ढूँढकर उसके महत्त्व का अवमूल्यन करता है। इससे उसे यह परितोष मिलता है कि जिस सम्पन्नता ने उस व्यक्ति का वरण किया है वह यदि ईर्ष्यालु व्यक्ति को नहीं मिली तो इसका कारण यह नहीं है कि उसमें कोई कमी है, बल्कि यह अनीति और अन्याय का फलना फूलना है। गोपियाँ मुरली को सपत्नी मानती हुई सीधे उसकी जाति पर प्रहार करती हैं। कोई अपने वंशागत दोष को कैसे छोड़ सकता है? जो अपने ही वंश को जला दे उसे दूसरों को जलाने में कष्ट नहीं होता। सपत्नी भाव, ईर्ष्या और परछिद्रान्वेषण की अभिव्यक्ति इस छन्द में बहुत स्वाभाविकता के साथ हुई है-
तन में रस सार को अंश नहीं,
गई वंश कुवंश के बीच जनी।
जड़ जौन में जन्म लयौ तिहि पै,
बहु छिद्रन पूरित देखी धनी।।
भर श्वाँस समीर के भक्षन को,
रहे संतत नागिनी ही सी तनी।
हरि के संग में बस के अस आसुरी,
बाँसुरी हूँ सुरवारी बनी।।
सपत्नी भाव के क्षोभ में एक ओर तो गोपियाँ मुरली के दोषों को गिनाती हैं, दूसरी ओर उसके आकर्षण से कृष्ण को विरत करने के लिये वे उसके अत्याचार का भी वर्णन करती हैं-
ऐसी का टिढ़ाई तो मैं तू ही बाँसुरी री बता,
जातें धारे ही तें तोय अधर अगारे के।
कुछवि उतंग ‘मधु’ सूंधे-सूंधे अंग टेढ़े,
टेढ़े होत प्यारे स्याम सुन्दर हमारे के।।
बाँसुरी के स्वतंत्र चित्रण में कल्पना और उक्ति-विधान के प्रयोग से भावगत और कलात्मक सौन्दर्य की सृष्टि हुई है। बाँसुरी में आकर्षण, उच्चाटन, वशीकरण आदि सभी प्रकार की शक्तियाँ हैं। आकर्षण का स्वर उत्पन्न करके वह गोपियों को अपनी ओर खींच लेती हैं। उच्चाटन मंत्र के द्वारा वह उनका घरों से उच्चाटन करा देती है। सम्मोहन और वशीकरण के द्वारा उसने गोपियों को अपने वश में करके उन्हें बहुत नाच नचाये हैं। ये सभी मंत्र बाँसुरी को ‘मंत्री मनमोहन’ से मिले हैं।25
बाँसुरी के प्रभाव-निरूपण के लिये कवि ने हास्यपरक उक्ति का भी प्रयोग किया है। कृष्ण की बाँसुरी की तान सुनकर शंकर के साँप छूट-छूटकर भागने लगते हैं-
कहत गिरीश ब्रजाधीश जू सों रावरे की,
बाँसुरी ने विपदा दई जो सो बतावेंगे।
‘मधु’ धुन ताकी सुन बहकें हमारे व्याल,
कौ लौं तिन्हें बंधन में बाँधि राखि पावेंगे।।
सौ कौं जो सम्हारें तो हजार छूट भागत हैं,
विनय विनीत यातें इतनी सुनावेंगे।
आज संे कै आप ही कहै हैं मुरलीधर,
हम्हीं कै अब भूषण भुजंग कहलावेंगे।।
‘मुरलीमाधुरी’ काव्य का चारुत्व कोमल भावनाओं की विदग्ध अभिव्यंजना में, कल्पना की सृजन-शक्ति में तथा अनोखी सूझ और उक्तियों में निहित है।
होली माला
‘होली माला’ में होली और फाग से सम्बन्धित 58 छन्द हैं। अधिकांश छन्दों में रीतिकाव्य की परम्परा में राधाकृष्ण की बाल क्रीड़ाओं का वर्णन है। कुछ छन्दों में अन्य सुरति दुःखिता, सुरति संगोपना आदि नायिकाओं के उदाहरण हैं। कुछ छन्द प्रकृति के सुन्दर चित्र हैं। अन्य छन्दों में राष्ट्रीय भावना तथा कृषकों के शोषण और दुर्भाग्य का वर्णन है। ‘होली माला’ जैसे छन्द रीतिकालीन काव्य-सिद्धियों और कलात्मकता के कारण विभिन्न अवसरों पर होने वाली गोष्ठियों में भी पढ़े जाते थे और उनका स्थायी महत्त्व भी है। इस काव्य के अधिकांश छन्द ब्रजभाषा में हैं। कुछ छन्द खड़ी बोली में हैं तथा एक छन्द में उर्दू शब्दों की बहुलता है।
‘होलीमाला’ होली और फाग के पर्व से सम्बन्धित मुक्तक छन्दों का संग्रह है। इस काव्य का प्रमुख वर्ण्य विषय श्रृंगार है। अन्य प्रासंगिक विषयों में देव-स्तुति तथा राष्ट्रीय भावना है।
प्रायः सभी काव्यों की भाँति कवि की इस कृति का प्रारम्भ भी देव-वन्दनाओं से हुआ है। भाव-संगति की दृष्टि से फाग-वर्णन में परम्परा से राधाकृष्ण ही वन्दना के आलम्बन माने गये हैं। ‘मधु’ ने राधाकृष्ण के अतिरिक्त शंकर, सरस्वती और सीता की स्तुतियों में भी होली के भाव का सार्थक आरोप किया है। ये स्तुतियाँ भक्तिभावना-भ्रसून तो हैं ही, उनमें अर्थ की रमणीयता भी है।
भगवान शंकर के तीसरे नेत्र की होली की वन्दना करते हुए कवि ने उसे क्रोध के अनुभावक होने से और उसकी दहन-सामर्थ्य के कारण प्रज्जवलित अग्नि के वर्ण-सादृश्य में रोरी के समान लाल कहा है। कामदेव को जलाने वाले इस नेत्र की दहन-शक्ति में होली से उचित साधर्म्य है-
मैन की मान विमोचनी तौन,
त्रिनैन के तीसरे नैन की होरी।
मैन की मान विमोचनी में कामदेव के दर्प-मोचन का भाव भी है और यह संकेत भी है कि फाग के रागरंग में नायक-नायिका का मान समाप्त हो जाता है। फाग के निर्बन्ध उल्लास में कुछ समय के लिये सभी के मन का शोक समाप्त हो जाता है। उसी तरह शिव का तीसरा नेत्र भी संसार के शोक को दूर कर हर्ष प्रदान करता है।
कवि ने सीता की अग्नि-परीक्षा में भी होली का रूपक लेते हुए सीता की वन्दना की है।26 अग्नि देह या स्थूल पदार्थ को तो जला सकती है, परन्तु सीता ‘विदेहजा’ हैं। दाहक होने के स्थान पर अग्नि उन्हें चन्दन की तरह शीतल प्रतीत हुई। ‘विदेहजा’ शब्द के साभिप्राय प्रयोग में अनूठा अर्थचारुत्व है।
वामदेवी की कृपा जिस कवि को प्राप्त हो जाये उसकी लेखिनी का स्पर्श पाकर काले रंग की स्याही की अनेक रंगों के भाव व्यक्त करने लगती है। राधा और कृष्ण की युगल रूप में वन्दना करते समय कवि ने उनमें लौकिक श्रृंगार का आरोप नहीं किया है, बल्कि उनमें ‘पावन पुनीत प्रीत’ का सम्बन्ध माना है।27 राधा को जगज्जननी मानकर कवि ने उनसे अक्षरों की अबीर, कल्पना का कुमकुम, कीर्ति की केसर, गरिमा की गुलाल, माथे पर सुषमा की रोली का टीका और दृष्टि की पिचकारी से कृपा का जल माँगा है।28
श्रृंगार-
श्रंृगार ‘मधु’ के काव्य का प्रधान स्वर नहीं है। जहाँ उन्होंने श्रृंगार का चित्रण किया भी है वहाँ उन्होंने प्रेम के अतीन्द्रिय मानसिक रूप को ही आदर्श माना है। प्रेम की उदारता के प्रतिपादन में उन्होंने वियोग का चित्रण ही अधिक किया है, क्योंकि उसी अवस्था में प्रेम की वास्तविक परीक्षा होती है। ‘होली माला’ में विषय की पारम्परिकता के अनुरोध से श्रृंगार के दोनों पक्षों का चित्रण हुआ है। इस श्रृंगार-चित्रण में रीति और स्वच्छन्दता दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों के दर्शन होते हैं।
संयोग श्रृंगार-
प्रेम जीवन का अत्यन्त रमणीय अनुभव है। जीवन में प्रेमोदय की आकस्मिकता की विविध स्थितियाँ हो सकती हैं। कवियों ने इस सम्बन्ध में प्रसंगानुकूल अनेक कल्पनाएँ की हैं। यों तो काव्य में गुण-श्रवण अथवा चित्र-वर्णन से भी प्रेमोदय का वर्णन किया है, परन्तु व्यावहारिक रूप से प्रत्यक्ष दर्शन प्रेम की भावना को जाग्रत करने वाला अधिक सबल और स्वाभाविक आधार है। प्रत्यक्ष दर्शन में आकृति के मनोहर सौन्दर्य का बोध तो होता ही है, आलम्बन की मोहक चेष्टाओं और मुद्राओं का भी उद्दीपन सहयोग रहता है। ‘होलीमाला’ में प्रथम प्रेमानुभूति की सुन्दर कल्पना की गई है-
गोरी इतै चली होरी हितै,
भरें झोरी उमंगन अंगन ऊठी।
धाय उतैई चले नँदलाल,
लयें पिचकारी उताल उदूठी।।
दीठ सों दीठ जो जूटी भई,
‘मधु’ दोउन की दसा ऐसी अनूठी।
भूली उन्हें पिचकारी भरी,
इन्हें भूल गई त्यों गुलाल की मूठी।।
नायिका और नायक के परस्पर दृष्टि-विनिमय होते ही उससे दोनों की विचित्र दशा हो गयी। नायक को भरी हुई पिकारी भूल गयी और नायिका को यह ध्यान नहीं रहा कि उसकी मुट्ठी में गुलाल भरी है।
होली के राग-रंग की बावड़ी में नायिका इस तरह डूब गयी है कि उसके तन के साथ मन भी अनुराग-रंजित हो गया है। इस प्रेमानुभूति के बाद वह घर-बार का ध्यान भूलकर नायक का ही नाम रटती रहती है। छलिया नायक पर होली की विजय का अभिमान लेकर जाने वाली नायिका स्वयं मन हार बैठी है।43
होली खेलने की इच्छुक नायिका जैसे ही घर से निकली वैसे ही नायक वहाँ आ गया। उन्होंने नायिका को ताककर इस तरह गुलाल मारी कि उसका हृदय टुकड़े-टुकड़े हो गया। नायक ने देखने में तो शरीर पर ही गुलाल का प्रहार किया किन्तु नायिका तन और मन दोनों से आहत हो गयी-
गात में लागी गुलाल की मूठ,
हियें लग्यौ मूठ चलावन हारौ।
प्रेमभावना की प्रगाढ़ता के कारण दोनों के हृदयों के संवेदन एक हो जाते हैं। यह स्थिति तभी प्राप्त होती है जब प्रेमी अपनी चेतना को प्रिय की चेतना के साथ अविभाज्य रूप से एक कर लेता है। प्रेम की यह तल्लीनता सहानुभूति अथवा करुणा की अपेक्षा बहुत गम्भीर है। फाग-क्रीड़ा के समय नायक के शरीर पर पानी की फुहार पड़ती है तो नायिका का अंग शीत के कारण सिहर उठता है। नायक के मुख पर धूल फंेकी जाती है और मलिनता नायिका के अम्लान मुख पर छा जाती है। ऐसा विचित्र दृश्य कहीं नहीं देखा गया-
कानन सुन्यौ न कहँू आँखन लख्यौ न जैसो,
आज ‘मधु’ देखत हों फाग घमसान में।
नैन बलवीर के तो परत अबीर वीर,
नीर फरफरत तिहारी अँखियान में।।
इस प्रगाढ़ प्रेम की पूर्णता भावाद्वैत में होती है। प्रिय के ध्यान में नायिका द्वैत भूलकर स्वयं को ही प्रिय मान बैठती है और अपने ही हाथों से अपने ही शरीर पर रंग डालने लगती है तथा गुलाल लगाने लगती है।30 यह प्रियमयता अहं के सम्पूर्ण विसर्जन के बाद ही प्राप्त होती है।
कवि को कोमल भावों के चित्रण में तथा कल्पना की चारुता में विशेष सफलता मिली है। एक अनुरागवती स्त्री की कामना का चित्रण दृष्टव्य है। नायक कृष्ण के शरीर-संस्पर्श का सुख पाने की नायिका की कामना पूरी नहीं हो सकी। वह फाग के अवसर पर सोचती है कि अगर उसका डाला हुआ रंग ही कृष्ण के शरीर का स्पर्श कर ले तो उसे स्वयं स्पर्श जैसा ही सुख मिल जायेगा। इसी अभिलाषा से उसने उमंग में भरकर नायक पर रंग डाला, किन्तु दुर्भाग्य से उसकी इतनी सी इच्छा भी पूरी नहीं हुई। कृष्ण के साँवले शरीर को रंग का एक छींटा भी नहीं छू सका। सारा रंग शरीर पर ओढ़ी हुई कामरी ने पी लिया।31 प्रेमी मन की कामनाओं की तथा अतृप्ति जन्य विषाद की मार्मिक व्यंजना से भाव में अनूठा सौन्दर्य खिल उठा है।
विनोद-
विनोद और परिहास रति-भाव के उद्दीपक हैं। परिहासशील वाणी की वक्रता और विदग्धता से प्रेम में चटपटापन आ जाता है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार वास्तव में संयोग के आनन्द और प्रेम के गर्व को प्रकट करने के लिये इससे सुन्दर माध्यम संभव नहीं है।32 होली का अवसर परिहास के लिये बहुत उपयुक्त है। सामान्य अवसरों पर अमर्यादित प्रतीत होने वाली चेष्टाएँ और बातें होली के मुक्त उल्लास में क्षम्य हो जाती हैं। ‘होलीमाला’ में विनोद का एक चित्र बहुत रमणीय है। फाग के समय कृष्ण गोपियों को एकान्त में मिल जाते हैं। वे सभी मिलकर उनके साथ होली खेलती हैं। अन्य अवसरों पर तो कृष्ण ही गोपियों को परेशान करते हैं परन्तु आज गोपियाँ अपने हृदय की कसक शान्त कर लेना चाहती हैं। कोई कृष्ण के कपोलों पर रोली मलती है, कोई गुलाल उड़ेल देती है और कोई दूर खड़े होकर पिचकारी से रंग बरसाती है। इतना ही नहीं, आज गोपियाँ कृष्ण की सारी स्वच्छन्दता का बदला ले लेना चाहती हैं-
बढ़िके दिगम्बर बनायवे के हेतु कोउ-
कम्मर तें हरि के भितम्बर उतारतीं।
एक अन्य अवसर पर नायिका कृष्ण को रंग डालने से मना करती हुई मीठी झिड़की देती है। यदि इस सुन्दर रंगवाली साड़ी पर थोड़ा सा भी रंग पड़ गया तो पति, सास और ननद कलंक लगाकर जो उत्पात मचायेंगी उसमें तुम्हारी यह सारी होली निकल आयेगी। फिर तुम्हारी यह कामरी दमड़ी के मोल भी नहीं बिकेगी कि तुम साड़ी का मूल्य चुका सको।33
वियोग श्रृंगार-
‘होली माला’ के कुछ छन्दों में वियोग का चित्रण भी है। रागरंग का यह पर्व प्रिय के अभाव में अत्यन्त कष्टदायक प्रतीत होता है।
एक रूपकाश्रिक विरह-चित्र में कवि ने विरहिणी ब्रज-बालाओं को कृष्ण के वियोग में होली के समान जलते हुए दिखाया है। गोपियों की दुर्बल देह होली का दण्ड है। कृष्ण शरीर में दिखाई देती अस्थियाँ काठ हैं। रोमावली काँटों का जाल है। गोपियों की अन्तिम कामना है कि होली की इस समस्त सामग्री में कृष्ण स्वयं आकर आग रख जायें।34 विरह-वर्णन के इस छन्द में उपालम्भ की भी सुन्दर व्यंजना हुई है। उपालम्भ में आलम्बन के प्रति गहरी आत्मीयता, अनन्यता, प्रिय की निष्ठुरता, आश्रय के प्रेम की दृढ़ता, निराशा और व्यथा का भाव निहित रहता है। गोपियों की एकनिष्ठ अनुराग भावना और प्रिय की निर्ममता की विषमता के निरूपण से यहाँ उपालम्भ की दीनता और निराशा भी व्यक्त हुई है तथा प्रिय के मन में दया उत्पन्न करने की सूक्ष्म अभिलाषा भी है। उपालम्भ के साथ व्यंग्य का संकेत भी निहित है। प्रिय की निष्ठुरता को लक्ष्य कर गोपियाँ यह कहना चाहती हैं कि तुम्हारे ही कारण हमारा यह हाल हुआ है। अब कृपापूर्वक हमें मृत्यु भी प्रदान कर दो।
दृढ़ प्रेम अविचल विश्वास और आस्था प्रदान करता है। दुःख सुख की भूमिका है। मनुष्य अपने उद्देश्य के लिये जितना अधिक कष्ट सहन करता है उतना ही वह दृढ़ होता जाता है। गोपियों को भी यह विश्वास है कि जिस प्रेम में वे इतनी घुल गयी हैं वह व्यर्थ नहीं जायेगा-
देह घुराय गई जिहि में वह
नेहु हमारो न नाहक जैहै।
भाग में दीह दवागिन सी,
विरहागिन होरी लिखी जिहिनै है।
एक न एक दिना तिहि नै,
रंगराग की फाग हू तौ लिखी ह्वै है।।
नायिका-निरूपण-
‘होलीमाला’ के कुछ छन्दों में काव्य-शास्त्र में मान्य कुछ नायिकाओं का वर्णन है। कवि का उद्देश्य शास्त्रीय विवेचन करना अथवा लक्षण-ग्रंथ की रचना करना नहीं है। उसने केवल कुछ प्रमुख नायिकाओं का ही चित्रण किया है। फाग-वर्णन में इसकी भाव-संगति भी है। उस समय स्थानीय काव्य-परम्परा में नायिकाओं के उदाहरण देना प्रचलित था। नायिकाओं के उदाहरण के पहले उनके नाम भी कवि ने लिख दिये हैं।
सुरति संगोपना-
आचार्यों ने प्रकृति के अनुसार परकीया नायिका के छैः भेद माने हैं। गुप्ता इन्हीं में से एक है। देव ने ‘भाव विलास’ में परकीया के भेदों का उल्लेख इस प्रकार किया है-
ता मैं गुप्ता विदग्धा लक्षितारु कुलटानु।
अंतरभूत बखानिये अनुसयना मुदितानु।।35
आचार्य भिखारीदास ने गुप्ता नायिका के भूत, भविष्य और वर्तमान तीन भेद माने हैं।36 कवि तोष ने लिखा है कि गुप्ता नायिका वह है जो भूत, भविष्य और वर्तमान की सुरति को छिपाती है।37 ‘मधु’ ने गुप्ता नायिका को सुरति संगोपना कहा है।
भूत सुरंति संगोपना-
भूत गुप्ता नायिका नायक के साथ ही हुई अपनी सुरति को छिपाकर सुरति-चिन्हों के लिये अनेक बहाने गढ़ लेती है-
तोरि डारी माल मुक्तान की बिधोर डारी,
वेनी मृगनैनी दृग दै दै कहा जोवै री।
भारी अधरान पै गुलाल पाछै छार डारी,
फार डारी सारी वृथा श्वासनि समोवै री।।
वारौ जसुदा कौ भयो ‘मधु’ फगुवारो नयौ,
ऊधम अपारौ करै विपति विगोवै री।
वीर व्रज में तो वर जोरी होन लागी चल,
रहें तौन खोरी जाँ न होरी होत होवै री।।
ब्रज छोड़कर अन्यत्र रहने की बात करके नायिका सखी के मन में यह विश्वास उत्पन्न करना चाहती है कि वह निर्दोष है। उसके साथ फाग में बरजोरी हुई है। उसने नायक के साथ रमण नहीं किया है अन्यथा वह अपने सुखद अनुभव की आवृति की संभावना का लोभ छोड़कर अन्यत्र चले जाने की बात क्यों कहती?
भविष्य सुरति संगोपना-
पीन पिचकीन के कुरंग रंग छोरन में,
खोरन में ब्रज की अवस्थ अरुझाउँगी।
उमंग अबीर की उछालें कोऊ झालें झुकी,
गहब गुलालन की कैसें सहि पाऊँगी।।
फैली फगुवारे काल पूरव प्रभात ही तें,
घात में फिरेंगे लखि संकनि सकाउँगी।
गिरत गिरात बनें जैसे जौन भाँत आली,
आज अधरात ही मैं नीर भरि लाऊँगी।।
लक्षिता-
परकीया का ही एक भेद लक्षिता है। लक्षिता नायिका के हेतु लक्षिता और सुरति लक्षिता दो भेद माने गये हैं। ‘मधु’ ने सुरति लक्षिता का वर्णन किया है। सुरति लक्षिता वह नायिका है जिसके परोपभोग का ज्ञान रति-चिह्नों के द्वारा हो जाये-
छूटे बन्द कंजुकी के उरज उतंगन पै,
कुमकुम चोटन की जान परै खाई हौ।
आज ‘मधु’ कौन मधु पान कर्र आइं तुम,
राँची रस रंग अंग पुलकन छाई हौ।।
अधर तुम्हारे बिन बोलें ही बतायें देत,
फगुवा में रतन अमोल हर लाई हौ।
दीपित दिखात रंगराग भरी देह आज,
कौन बड़भाग संग फाग खेल आई हौ।।
अन्य सुरति दुःखिता-
देव ने स्वकीया के अन्य चार भेदों में पर रतिदुःखिता नायिका को माना है।38 भिखारीदास ने अन्तर्भावों के अनुसार नायिका के कुछ अन्य भेदों के अन्तर्गत अन्य सुरति दुःखिता को रखा है। ये अन्तर्भाव सभी स्त्रियों में प्राप्त होते हैं।39 कवि तोष ने अन्य संयोग दुःखिता का लक्षण इस प्रकार बताया है-
और नारि पति सो रमै, ताकौ लक्षन देखि।
अन्य संयोग दुखिता कहत, ताकौ सुकवि विसेखि।।40
‘मधु’ ने अन्य सुरति दुःखिता के ईर्ष्या-जन्य दुःख का सजीव चित्र अंकित किया है-
पलकन छाई लाल गरद गुलाल त्यों ही,
अलकन वैसई कछूक असनाई है।
जोटन उरोजन पै कुमकुम चोट ओछी,
आँगी उपटी में नहीं दुरत दुराई है।।
काम तू न आई जौन काम कौ पठाई रही,
ताह तज कुटिल कुकाम में समाई है।
सब उघरी री जो तें करनी करी री अरी,
हरि लों गई ना कहूँ होरी खेल आई है।।
किसी अन्य स्त्री के शरीर पर रति-चिन्ह देखकर नायिका को उसके सुख की कल्पना ईर्ष्यालु बना देती है और यह जानकर कि उसे यह सुख उसके ही नायक से प्राप्त हुआ है उसका दुःख करुणाजनक हो जाता है।
ऊढ़ा-
‘ऊढ़ा’ परकीया नायिका का एक भेद है। परपुरुषरत विवाहिता स्त्री को ऊढ़ा नायिका कहा गया है।41 ‘मधु’ ने ‘ऊढ़ा’ के उदाहरण में नायिका के मन की मधुर कामनाओं का वर्णन किया है। फागक्रीड़ा के अवसर पर नायिका पिचकारी बनकर कृष्ण के हाथों में रहने का सुख प्राप्त करना चाहती है। वह रंग बनकर उनका देह-संयोग पाना चाहती है। यदि वह गुलाल होती तो नायक के माथे पर लगकर प्रसन्नता से इठलाती रहती और यदि वह अबीर होती तो प्रिय की आँखों में समा जाती।
प्रेम गर्विता-
आचार्यों ने ‘प्रेमगर्विता’ उस नायिका को माना है जो अपने प्रति नायक के प्रेम को गर्व के साथ दूसरों को बताती है। ‘मधु’ ने अपने उदाहरण में इस लक्षण का पूर्णतः अनुगमन न करके किंचित् भिन्न स्थिति की कल्पना की है। नायिका नायक के अपने प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति शब्दों द्वारा नहीं करती है, बल्कि अपनी चेष्टाओं द्वारा अपनी सखी को बता देती है कि वह उसे कितना प्रेम करता है। नायिका अपने हाथों से अपने ही शरीर पर गुलाल और अबीर लगाती है, अपने कपोलों पर अपने ही हाथों से केसर लगाती है और रंग उड़ेलती है।
इन चेष्टाओं से नायिका यह प्रकट करती है कि उसका प्रेमी उसके साथ इसी प्रकार से फाग खेलता है। कुछ कहे बिना ही नायिका सब कुछ व्यक्त कर देती है। ‘मधु’ की प्रेमगर्विता के चित्र में नायक के प्रेम का तो संकेत है ही, प्रेम में नायिका की तन्मयता का भी चित्रण हुआ है। नायिका नायक के प्रेम में इतनी तन्मय हो जाती है कि स्वयं नायकवत् चेष्टाएँ करनी लगती है।
प्रोषित पतिका-
देव के अनुसार ‘प्रोषित पतिका’ वह नायिका है जिसका पति किसी कारण से बाहर गया हो और अपने आने की अवधि दे गया हो।42
कवि ने ‘होली माला’ में प्रोषित पतिका की विरह-व्यथा का शाब्दिक कथन न करके उसकी क्रियाओं का चित्र अंकित किया है-
फागुन की आवन की स्याम कहि गये सो तो,
आपु नहिं आये लिख भेजी पतियान कों।
पढ़ि पढ़ि ताहि लागी व्याकुल विसूरनि सी,
लिखत बनें ना बढ़ी विरह विथान कों।।
नातौ भूलि संगिन संगाती सबै एकै करि,
बिन फाग के ही लगी दैन फागदान कों।
द्रगन अमीचे की बनाय पिचकारी बाल,
सलिल उलीचें लगी ताते अँसुआन कों।।
‘मधु’ के नायिका-निरूपण में रीति के प्रति भक्ति न होकर प्रसंगानुकूल विभिन्न भावदशाओं की कल्पना है। इसीलिये कवि ने उन्हीं नायिकाओं का वर्णन किया है जो फाग-वर्णन के साथ उपयुक्त और स्वाभाविक प्रतीत होती हैं। कवि का रीति-निरूपण लक्षणों का भावहीन पद्य-विस्तार नहीं है। इन छन्दों में शास्त्र प्रधान न होकर भावपूर्ण काव्य प्रधान है। इसलिये कहीं-कहीं कवि ने लक्षणों के यथावत् अनुधावन की चिन्ता नहीं की है।
कवि ने ‘ऊढ़ा’ नायिका वाले छन्द का शीर्षक ‘ऊढ़ा’ (विवाहिता) दिया है, परन्तु छन्द में नायिका के विवाहित होने का स्पष्ट कथन नहीं है। ‘प्रेमगर्विता’ नायिका द्वारा भी नायक की प्रीति का शाब्दिक उच्चार नहीं है। एक छन्द में अन्य सुरति दुःखिता के साथ ही कवि ने ‘लक्षिता’ शीर्षक भी दिया है। ‘लक्षिता’ में नायिका के शरीर पर परोपभोग के चिन्ह लक्षित होते हैं। उसमें देखने वाली स्त्री के हृदय की ईर्ष्या तथा दुःख का वर्णन नहीं होता है। ‘अन्य संभोग दुःखिता’ में सखी के शरीर पर अपने नायक के साथ रमण के चिन्ह देखकर नायिका के ईर्ष्या-जन्य संतोष का वर्णन होता है। ‘लक्षिता’ में नायिका के शरीर पर रमण के प्रमाण का वर्णन प्रधान है और ‘अन्य संयोग दुःखिता’ में नायिका के दुःख की अनुभूति प्रधान है। उक्त उदाहरण में नायिका के दुःख का स्पष्ट उल्लेख तो नहीं है, किन्तु लक्षिता को देखने वाली स्त्री जैसी तटस्थता भी नहीं है। दुःख की अनुभूति का अत्यन्त सूक्ष्म संकेत होने से यह चित्र ‘लक्षिता’ के साथ ही कवि ने अन्य सुरति दुःखिता का भी मान लिया है। ‘अन्य सुरति दुःखिता’ नायिका के द्वारा लगाये गये स्पष्ट आरोप में जो दुःख है वह दुःखिनी नायिका द्वारा पूछे गये व्यंग्य प्रश्नों से अधिक मार्मिकता से ध्वनित होता है। आहत हृदय की व्यथा की यह अधिक कोमल व्यंजना है। ‘ऊढ़ा’ और ‘प्रेम गर्विता’ के चित्रण में भी कल्पना की नवीनता है।
प्रकृति-चित्रण-
‘होलीमाला’ के कुछ छन्दों में प्रकृति पर भी होली का आरोप किया गया है। ‘सूर्योदय और होली’ शीर्षक के अन्तर्गत रखे गये छन्दों में प्रभातकालीन दृश्यों में होली का सादृश्य दिखाया गया है। कवि ने सूर्य को नायक और ऊषा, निशा तथा पृथ्वी को नायिकाएँ मानकर उनके बीच में फाग क्रीड़ा दिखायी है। अधिकांश प्रकृति-चित्रों में रूपक-योजना के द्वारा होली का दृश्य अंकित किया गया है।
निशा सुन्दरी के तन से लिपटी,
मुक्ता जटी साटिका खोलते आये।
उषा शीस की माँग विथोलते से,
पिचकी करों की कर तोलते आये।।
विहगावलि के कल वादन से,
मृदु मादक बोल से बोलते आये।
तुम कौन प्रभात ही से ‘मधु’ प्राची,
परात में केसर घोलते आये।।
प्रातः कालीन सूर्य के लिये कवि ने कल्पना की है-
उदित उषा ने मेरे जान अनुराग-भरि,
मुख पै दिनेश के गुलाल मूठ मारी है।
अन्य भाव-
‘होलीमाला’ में राष्ट्रीय भावना और आर्थिक रूप से विपन्न जीवन के प्रति करुणा और क्रान्ति की भावना है। कवि ने आवेश के स्वर में घोषणा की है कि होली की आग की तरह दुःखी हृदयों की आह से ऐसी विनाशकारी ज्वाला निकलेगी जिसमें देश के कंटक जल जायेंगे और आततायियों के अभिमान की पताका धूल में मिल जायेगी। अज्ञानरूपी अंधकार का चिन्ह भी शेष नहीं रह जायेगा। ज्ञान की ज्योति प्रकाशित हो जायेगी।
जमींदारों और साहूकारों के द्वारा शोषित किसानों के लिये होली राग-रंग का नहीं आग का पर्व है। शोषकों की क्रोधाग्नि में झुलसते हुए इन कृषकों के भीतर और बाहर ज्वलन का ही दृश्य है-
अन्न का अभाव आग पेटमें लगाता विधि,
नित्य नई एक आग आपदा की लाता है।
जानते ही नहीं रंग राग अपना तो बस,
जीवन में शेष रहा आग से ही नाता है।।
बुन्देलखण्ड दर्शन
ओरछा (टीकमगढ़) के राजा वीरसिंह देव को बुन्देलखण्ड की संस्कृति और साहित्य से बहुत अनुराग था। उन्हीं की इच्छानुसार ‘मधु’ ने उस काव्य की रचना की। यह काव्य 45 छन्दों में बुन्देलखण्ड के गौरव का अभिलेख है। इसमें बुन्देलखण्ड की प्राकृतिक सुषमा, बुन्देलों के शौर्य तथा बुन्देली भाषा की मधुरता का चित्रण किया गया है।
इस काव्य की प्रेरणा प्रमुख रूप से राष्ट्रीय भावना रही है। स्वाधीनता-संग्राम के दौरान घनीभूत राष्ट्रीय चेतना के अन्तर्गत हिन्दी कविता में अतीत का गौरव गान किया जा रहा है। राष्ट्र को जड़ भूमि-खण्ड न मानकर उसे माता की पूजा भावना-अर्पित की जा रही थी और भारत के निवासियों को केवल जन-समुच्चय न मानकर भारत माता की सन्तान माना जा रहा था। यही राष्ट्रीय गौरव कभी-कभी क्षेत्रीय और स्थानीय भू-भार्गों के उज्ज्वल अतीत के स्मरण के रूप में व्यक्त हो रहा था। बुन्देलखण्ड की भूमि ऋषियों, महाकवियों और पराक्रमी असिधर्मियों की प्रसविनी रही है।
इसी समय के लगभग स्वयं तत्कालीन टीकमगढ़ नरेश वीरसिंह देव की प्रेरणा से ओरछा सेवा-संघ और बुन्देलखण्ड सेवा-संघ के द्वारा बुन्देलखण्ड प्रान्त निर्माण की व्यापक माँग की जा रही थी। लगभग 70 लाख बुन्देलखण्ड निवासियों की सांस्कृतिक और भाषिक इकाई के रूप में बुन्देलखण्ड प्रान्त-निर्माण की इस माँग का समर्थन उस समय के अनेक राजनेता और साहित्यकार कर रहे थे।
‘बुन्देलखण्ड दर्शन’ ‘विंध्याबावनी’ और ‘बेतवाबावनी’ तीनों कृतियों की मूल प्रेरणा बुन्देलखण्ड की भूमि का गौरव गान है। बुन्देलखण्ड की भूमि वीरता, आध्यात्मिकता, साहित्य तथा सांस्कृतिक आदर्शों के लिये प्रख्यात रही है। विंध्याचल की श्रृंखलाओं, गहन उपत्यकाओं, गिरि-कन्दराओं, सघन कान्तारों और गम्भीर सरिताओं के द्रुमाच्छादित तटों ने इस भूखण्ड को अद्वितीय नैसर्गिक सुषमा प्रदान की है। वीरता के प्रतिमान आल्हा-ऊदल, वीरसिंह देव, चम्पतराय, छत्रसाल और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने असाधारण शौर्य का प्रदर्शन किया। तुलसी केशव, पद्माकर आदि कवियों ने यहीं अपने काव्य की रचना की। यहाँ मधुकर शाह जैसे धर्मप्राण और दृढ़प्रतिज्ञ शासक हुए तथा हरदौल जैसे त्यागवीर हुए।
‘बुन्देलखण्ड दर्शन’ की रचना में ओरछा-नरेश वीरसिंह देव का बुन्देलखण्ड-प्रेम भी प्रेरक हेतु रहा है। इसी के साथ व्यापक राष्ट्र-प्रेम के साथ जन्मभूमि का यह गौरवगान भावनात्मक रूप से सम्बद्ध है।
इस काव्य की सफल रचना के लिये वन्दना के रूप में अलौकिक उपकरणों का आवाहन किया गया है। बुन्देलखण्ड की कीर्ति इतनी विशाल है कि उसका वर्णन लेखन के सांसारिक उपकरणों से हो ही नहीं सकता-
स्वागत कल्पतले शुभ स्वागत,
तू मम लेखनी रानी पै आ जा।
व्योम अनंत के स्याम समुद्र का,
पानिप व्है मसिदानी पै आ जा।।
ओ तरुपत्र समूह तू पुस्तिका,
हो करके युग पानी पै आ जा।
गानी बुन्देल वसुन्धरा कीर्ति,
ओ रानी जरा मम वानी पै आ जा।।
दूसरी वन्दना में बेतवा की धारा के काव्य-प्रवाह की याचना की गयी है। कवि ने अपनी कविता में अमृतत्व की अभिलाषा की है जिसका अर्थ काव्य का स्थायित्व भी है और यह भी है कि वह लोगों को जीवन में अमृत के समान सजीवता और मधुरता प्रदान करे।
किसी भूखण्ड की प्रशस्ति में उसके भौगोलिक परिवेश तथा ऐतिहासिक और सांस्कृतिक गौरव का वर्णन प्रमुख रूप से किया जाता है। परन्तु ऐसे वर्णनों में प्रायः विवरण प्रधानता अथवा तथ्यों का नीरस परिगणन हो जाता है और कभी-कभी कवि वर्ण्य विषय का ऐसा अतिरंजित वर्णन कर देता है जो अपने वास्तविक आधार से सर्वथा विच्छिन्न होकर सामान्य प्रशस्ति बन जाता है। किसी भूखण्ड के नैसर्गिक सौन्दर्य और उसके गौरव का भावपूर्ण प्रत्यंकन तभी संभव है जब उसके साथ कवि का निजता और रागात्मकता का सम्बन्ध हो। मग्नता की स्थिति में कवि के सामने तथ्य सारिणी के रूप में नहीं रह जाते बल्कि वे उसकी अनुभूति में घुल मिलकर कल्पना के संयोग से नवीन काव्य-वस्तु बन जाते हैं।
बुन्देलखण्ड ‘मधु’ की जन्मभूमि है। स्वभावतः उसके प्रति कवि को गहरा अनुराग है। अपनी जन्मभूमि के असाधारण प्राकृतिक वैभव और उसकी परम्पराओं के ऊपर कवि को गर्व है। इसीलिये ‘बुन्देलखण्ड दर्शन’ में वर्णन परिगणनात्मक न होकर भावोच्छ्वसित है। जिस मिट्टी में हमने जन्म लिया है, जहाँ का पानी पिया है और जिस वायु में साँस ली है उसके साथ हमारी गहरी सम्बन्ध-भावना बन जाती है-
पानी पिया तेरा ज्ञात हुआ,
कि पियूष अदोष अगार छिपा है।
सेवन वायु जो की तब जाना,
कि प्राण प्रपोष प्रसार छिपा है।।
व्योम में ब्रह्म सकार छिपा ‘मधु’
अग्नि में रोष अपार छिपा है।
वीर वसुन्धरे धूल में तेरी,
त्रिलोक के कोष का सार छिपा है।।
बुन्देल वसुन्धरा की धूल के आगे कवि को त्रिलोक का वैभव भी धूल के सामने तुच्छ प्रतीत होता है। वस्तु का मूल्य सदैव उसकी उपयोगिता पर निर्भर नहीं रहता। किसी अत्यन्त प्रिय वस्तु के सामने हमें बहुत मूल्यवान वस्तुएँ भी तुच्छ लगने लगती हैं। बुन्देलखण्ड की धूल के आगे स्वर्गोपवन के फूल भी महत्त्वहीन हैं। भारतीय संस्कारों में व्यक्ति के प्रति पूजा और श्रद्धा की भावना की अभिव्यक्ति उसके चरणों की धूल लेकर की जाती है। बुन्देलखण्ड की भूमि में बार-बार जन्म लेने के सुख से बढ़कर निर्वाण भी नहीं है। कवि इसी भूमि में जन्म लेना चाहता है-
है बुझे दीपक सी गतिवाला,
नहीं मुझको निरवान ये देना।
मैं जनमूँ मरूँ भूमि बुन्देल में,
देव मुझे वरदान ये देना।।
ओरछा बुन्देलखण्ड का प्रमुख स्थान रहा है। वह असिधर्मी वीरों के लिये तो प्रसिद्ध है ही वहाँ दानवीरता, साहित्य, आत्मोत्सर्ग और पातिव्रत की भी अप्रतिम घटनाएँ घटित हुई हैं। केशव की शिष्या रायप्रवीण के सन्दर्भ से पातिव्रत का माहात्म्य बताया गया है-
हुए दानी वृसिंग समान जहाँ,
बताएँ वह ओरछा है इसी में।
जहाँ केशव काव्य सुधा सरिता,
बहाये वह ओरछा है इसी में।।
हरदेव जहाँ धरदेव हुए,
दिखाये वह ओरछा है इसी में।
रहीं पातुरें भी जहाँ पूर्ण,
पतिव्रताएँ वह ओरछा है इसी में।।
बुन्देलखण्ड रत्नगर्भा भूमि है। पन्ना में हीरे निकलते हैं। पृथ्वी का वसुन्धरा नाम यहाँ सार्थक हुआ है।
इस कृति में बुन्देलखण्ड की नैसर्गिक सुषमा के चित्रण में उसकी प्रमुख नदियों पर्वतों कन्दराओं तथा वृक्षावली का वर्णन किया गया है। प्रकृति-चित्रण में रम्य चित्र भी हैं और ओजपूर्ण भी परन्तु यह सौन्दर्य जड़ प्रकृति का नहीं है। प्रकृति के इन उपकरणों का वर्णन बुन्देलखण्ड के शौर्य और उसकी गौरवशाली परम्पराओं के आसंग में हुआ है। इसलिये उसमें प्राणवत्ता और ओज का भाव प्रधान है। बुन्देलखण्ड में सर्वत्र जीवन का जयघोष सुनायी देता है-
यों सब ओर ही गूँज बुन्देल,
धरा जयगान की देती सुनाई।
हाँक कहीं पर बेतवा की,
कहीं धाक धसान की देती सुनाई।।
बेतवा की भाँति धसान भी बुन्देलखण्ड की प्रमुख नदी है। इसका मूल नाम दशार्ण है। इसी के नाम पर इस प्रदेश को दशार्ण प्रदेश कहा जाता था। धसान नदी का वर्णन यहाँ के ‘पुष्टाश्च दुष्टाश्च’ निवासियों की वीरता के सन्दर्भ में ओजपूर्ण है-
तड़-तड तोरत तड़ाक तरु पाँतिन कांे,
मसक मरोरत महीधरन मान में।
करत जलाजल तलातल रसातल कांे,
भरत जलाजल ही उर उमगान में।।
ढार ढार सलिल अपार नदनारन में,
तिनकों बनावत नदीस निरवान में।
पापन कों पीस पीस करत पिसान गाजै,
धमक धसान की दिसान विदिसान में।।
प्राकृतिक सुषमा के रम्य रूपांकन में यहाँ की शैल श्रृंखलाओं, आम्रवनों तथा पक्षियों से निनादित कुंजों का सजीव चित्रण किया गया है-
कांत कपोत कपोती से कूजित,
कुंज यहीं अनयारी मिलेगी।
शोभित सी कहीं शैल की श्रृंखला,
दूर दिगंत लांे जारी मिलेगी।।
साखें झुका झुकी चूमती भूमि,
को झूमती आमकतारी मिलेगी।
न्यारी मिलेगी यहीं नदी केन,
यहीं नदी बेतवा प्यारी मिलेगी।।
कवि ने बुन्देली भाषा का भी गुणगान किया है। सभी को अपनी भाषा से प्रेम होता है। अपने विशेष मार्दव के कारण बुन्देली का विशेष महत्त्व है। कवि ने बुन्देली में विविध भावों की अभिव्यक्ति-क्षमता का उल्लेख अनूठे ढंग से किया है-
सारदा की शुभ आशिष ने,
मधुराई अनूपम जा महँ मेली।
वीर वृसिंग की वीरता वेली जो,
जो हरदौल हिये हिल हेली।।
सम्पति श्री मधुशाह की रानी,
गणेश दे की कल कीर्ति कमेली।
खेली जो ईसुरी की रचना पर,
वन्दिये तौनई बोली बुन्देली।।
एक छन्द में स्वाधीनता के पूर्व टीकमगढ़, झाँसी और सागर में चल रहे बुन्देलखण्ड प्रान्त-निर्माण के आन्दोलन का भी सन्दर्भ लिया गया है। उस समय सागर सी.पी. में था। सागर और सी.पी. शब्दों में कवि को चमत्कार उत्पन्न करने का अवसर मिल गया-
हटा से निगाह को हटाइये हमारा है ये,
रचना दमोह से न मोह काम आयेगा।
गुना बेगुनाह की भी अर्ज सुनी गुनी जावे,
हमको छत्तीसगढ़ छोड़ नहीं पायेगा।।
झाँसे में न झाँसी आदि फस सकते हैं कभी,
युक्त प्रान्त और युक्तियों से बच जायेगा।
वसुधा बुन्देल की अगस्त अंजुली बढ़ी है।,
सी.पी. में किसी विधि न सागर समायेगा।।
सारांशतः ‘बुन्देलखण्ड दर्शन’ ऐसा चित्र-संग्रह नहीं है जिसमें केवल दृश्यों की विविधता दिखायी गयी हो, बल्कि इन चित्रों की पुष्ट और स्पष्ट रेखाओं में भावना और कल्पना के रंग भरे गये हैं। कवि का चित्र-फलक तो विशद है ही उस पर उकेरी गयी रचनाओं में प्राणों का स्पन्दन है, रागात्मकता है और भावों की सजीवता है।
विंध्य बावनी
‘विंध्य बावनी’ में 47 छन्द ही प्राप्त हुए हैैं। ‘विंध्यबावनी’, ‘बुन्देलखण्ड’ दर्शन और ‘बेतवा बावनी’ की भावभूमि पर रचित काव्य है। इसमें विंध्यपर्वत के गौरव विंध्यभूमि की प्राकृतिक छटा और बुन्देलों के ऐतिहासिक पराक्रम का वर्णन हुआ है। विंध्यभूमि से सामान्यतः कवि ने बुन्देलखण्ड क्षेत्र का आशय लिया है, स्वंत्रता के पश्चात् राजनीतिक इकाई के रूप में बनने वाले विंध्यप्रदेश का नहीं। अधिकांश छन्द विंध्यपर्वत को लक्ष्य करके कहे गये हैं।
‘विंध्यबावनी’ बुन्देलखण्ड दर्शन के भाव सातत्य की मुक्तक कृति है। इस कृति का मूल भाव भी विंध्य भूमि का गौरव-गान है। विंध्य अंचल से कवि का तात्पर्य बुन्देलखण्ड से ही है जिसमें विंध्यपर्वत की श्रृंखलाएँ हैं। इस काव्य में बुन्देलों का शौर्य-वर्णन विशेष रूप से विंध्यपर्वत के लक्ष्य से हुआ है।
‘विंध्य बावनी’ की विषय-वस्तु के अनुरूप इस कृति में विंध्य भूमि को दुर्गा मानते हुए विंध्यवासिनी देवी की वन्दना की गयी है। बुन्देले दुर्गा के उपासक रहे हैं। गढ़ कुण्डार में, जो बुन्देलों के राज्य की प्रथम राजधानी थी, विंध्यवासिनी देवी का मन्दिर भी है। देवी की वन्दना कालिका, लक्ष्मी और सरस्वती तीन रूपों में की गयी है-
शत्रु संहारने हेतु जो खड्ग की,
धार में कालिका हो के समानी।
खण्ड बुन्देल प्रजा जनों में,
बहुरूप से लक्ष्मी बनी जो दिखानी।।
जो है बसी ‘मधु’ वानी के ऊपर,
होकर काव्य सुधामयी बानी।
मंगलदानी रहे सबको सदा,
सो त्रिगुणात्मिका विंध्य भवानी।।
कवि ने विंध्यभूमि का वर्णन करने के लिये जो काव्य-वरदान माँगा है उसमें गति, ताल, रस, ध्वनि और कल्पना की याचना है-
मातु पदाप्बुजों की कृपा से,
गति ताल के पंख मिलें छवि छाये।
त्यों रस व्यंग्य समीरण भी,
अनुकूल रहे वरवेग बढ़ाये।।
कीरति सौरभ पुण्य प्रसारित,
दिव्य दिवांगन को महकाये।
मेरी कवित्वमयी कल कल्पना,
विंध्य की चोटियों पै चढ़ जाये।।
इस छन्द में अप्रत्यक्ष रूप से कवि का यह संकेत है कि प्रस्तुत कृति में सुन्दर भावों को कल्पना के संयोग से गति और लयपूर्ण छन्द योजना में व्यंजित किया गया है। भाव का अनिधात्मक वर्णन अथवा प्रकथन प्रभावपूर्ण नहीं होता है। उसका सौन्दर्य ध्वनि के माध्यम से अधिक प्रस्फुटित होता है। कल्पना को पक्षी का रूपक देते हुए कवि ने उसकी ऊँची उड़ान की अभिलाषा की है। इतने ऊँचे पर्वत का वर्णन लघु कल्पना के द्वारा हो भी तो नहीं सकता। गति और लय के लिये चरणों की कृपा माँगना अत्यन्त सार्थक है क्योंकि गति और लयात्मक संचरण का सम्बन्ध चरणों से ही होता है। उड़ान भरने के लिये पंखों की कामना करते समय चरण-कमलों का स्मरण भी बहुत युक्तियुक्त है। कमल के पत्तों में पंखों के सादृश्य का संकेत है। उड्डयन के लिये अनुकूल वायु भी आवश्यक है। कवि की कामना के अनुसार उसकी कल्पना ने वास्तव में वेग के साथ ऊँची उड़ान भरी है।
विंध्यभूमि के प्रति कृतज्ञता अर्पित करते हुए कवि कहता है कि उसकी वाणी में यही जल और वायु कविता बनकर प्रवाहित होता है। विंध्य बावनी में विशेष रूप से विंध्यपर्वत की उच्चता और दुर्गमता का ओजपूर्ण वर्णन किया गया है। विंध्यपर्वत बुन्देलों का प्रतीक है। जिस प्रकार प्रणवीर बुन्देलों ने अपनी आनबान में कभी किसी को सिर नहीं झुकाया उसी प्रकार विंध्यपर्वत भी गर्वोन्नित है। उस पर लहराते हुए वृक्ष बुन्देलों की विजय पताकाएँ हैं। वह उस भूमि की रक्षा के लिये प्रहरी की भाँति सजग और सन्नद्ध है। विंध्य-पर्वत बुन्देलों की विभूति के रूप में तपस्यारत साधक की तरह अविचलित भाव से स्थित है।
मंत्र स्वतंत्रता का जपती,
कुल देव में ध्यान दिया करती है।
आशा हरी रखती है सदैव,
न भूल हताश हिया करती है।।
आतप शीत की भीतियों को,
निज शीश पै ही ले लिया करती है।
विंध्य के रूप में वंश बुन्देल,
विभूति तपस्या किया करती है।।
विंध्यपर्वत की उच्चता के लिये ऐसी कल्पना की गयी है जिससे उसकी गगनस्पर्शिता और उसका हेतु प्रकट हुआ है। विंध्याचल बलिदानी बुन्देलों के स्वर्गारोहण के लिये सीढ़ी की तरह है-
कवि कल्पना द्वारा पिछान गये,
तुम विंध्य जो व्योम लौ छाये हुए हौ।
वलिदानी बुन्देलन के चढ़िवे हित,
स्वर्ग लौ सीढ़ी लगाये हुए हौ।।
यदि विंध्याचल की गगनस्पर्शी चोटियाँ न होती तो चन्द्र-ज्योत्स्ना रूपी बालिका आकाश की अट्टालिका से उतरकर पृथ्वी पर नहीं आ पाती-
छूट के व्योम की उच्च अटालिका
तें यह बालिका क्यों बच पाती।
चारुता चन्द्र की चाँदनी की,
चकचूर ह्वै धूल में ही मिल जाती।।
विंध्याचल के गौरव-गान में कवि की कल्पना अभिनव सादृश्यों और उक्तियों के रूप में भी प्रकट हुई है। रुडयार्ड किपलिंग की प्रसिद्ध उक्ति का कि पूर्व पूर्व है और पश्चिम पश्चिम, ये दोनों कभी नहीं मिल सकते भाव लेकर यहाँ विंध्यपर्वत को भारत की पूर्वी और पश्चिमी दिशाओं को मिलाने वाला कहा गया है-
विश्व की युक्ति विशालता से निज,
यों झुठलाया किया करते हो।
पश्चिम पूर्व विरोधी दिशाओं के,
कौने मिलाया किया करते हो।।
विंध्याचल एकता का संस्थापक है। इस भाव को व्यक्त करने के लिये पौराणिक सन्दर्भ से एक अनूठी उक्ति का प्रयोग किया गया है। मंदराचल ने सिन्धु-मंथन करके उसकी एकता को नष्ट कर दिया। विंध्याचल ने पूर्वी और पश्चिमी समुद्रों को मिलाकर अपने बन्धु का कलंक धो दिया-
विंध्य गिरीन्द्र कृतार्थ हुए,
निज बंधु का दोष विगो दिया तूने।
पूरवी पश्चिमी सिंधु मिलाकर,
जाति कलंक को धो दिया तूने।।
विंध्यभूमि के वनों में सिंहों का स्वच्छन्द विचरण और निर्झरों का निर्बन्ध प्रवाह उसकी स्वातन्त्र्यप्रियता का परिचायक है। परतंत्र भारत में बुन्देलखण्ड में चल रहे स्वातंत्र्य-आन्दोलन और क्रान्ति वीरों के साहसपूर्ण प्रयासों की ध्वनि भी इस छन्द में व्यंजित है-
हो के स्वच्छन्द रचा रहे मोद,
कहीं इस गोद में केहरी मानी।
और कहीं निरबन्ध से निर्झर,
स्वीय प्रवाह के हैं अभिमानी।।
यद्यपि है परतंत्रता से,
अति आरत भारत की रजधानी।
किन्तु प्रदेश में विंध्य के आज लौ,
खेलती खेल स्वतंत्रता रानी।।
कवि की राष्ट्रीय भावना इस काव्य में अतीत के गौरव-गान के रूप में तो व्यक्त हुई ही है उसका प्रत्यक्ष वर्णन भी किया गया है। विंध्याचल को सत्याग्रही गान्धी के समान निरुपित करते हुए कहा गया है कि पावस रूपी अंग्रेज ने वर्षा और बिजली से जितना उसका दमन किया उतना ही वह नवांकुरों में फूला फला। जिस प्रकार गान्धी जी के सत्याग्रह के सामने अंग्रेज पराजित हो गया उसी प्रकार बादल भी नष्ट हो गया।
कल्पना के इन रमणीय चित्रों में पर्वत-श्रृंखला की तरह विंध्य के निर्झर भी कवि के लिये प्रेम और गौरव के विषय हैं। ऐसे चित्रणों में प्रकृति सौन्दर्य तो कवि का प्रतिपाद्य है ही उसे विंध्यभूमि के गौरव के साथ संयुक्त करके ओज समन्वित बनाया गया है। निर्झर अपने नाद से बुन्देलखण्ड का कीर्तिगान करते हैं और आगे बढ़़़ने की प्रेरणा देते हैं। निर्झर बलिदान का पाठ पढ़ाते हैं-
विंध्य के निर्झरों का यही पानी,
बुन्देलों में पानी भरा करता है।।
‘बुन्देलखण्ड दर्शन’ की ही भाँति इस कृति में भी वर्ण्य विषय की सरस अभिव्यक्ति में कल्पना शक्ति की प्रधानता है। विंध्यभूमि की प्रकृति का वर्णन जड़ रूप में न करके इस प्रकार से किया गया है कि वह उसके गौरव और उसके निवासियों की चेतना का साकार रूप प्रतीत होता है। कवि की कल्पनाशक्ति की यह विशेषता है कि वह अभिव्यक्ति के खण्डरूप चमत्कार तक ही सीमित नहीं रह जाती बल्कि पूर्ण भाव की सृष्टि करके उसका सफल निर्वाह करती है।
बेतवा बावनी
‘बेतना बावनी’ में भी ‘विंध्य बावनी’ की तरह पूरे 52 छन्द प्राप्त नहीं है। इसमें 40 छन्द ही प्राप्त हैं। इनमें से तीन छन्द ‘बुन्देलखण्ड दर्शन’ में भी मिलते हैं। ‘कलौ वेत्रवती गंगा’ के अनुसार बुन्देलखण्ड में बेतवा नदी का बहुत महत्त्व है। राष्ट्रीय भावना के अन्तर्गत पर्वतों और नदियों को पौराणिक महत्त्व से मंडित करके पूज्य भाव से देखा गया है। ‘बेतवा बावनी’ में बेतवा के ऐतिहासिक महत्त्व का वर्णन हुआ है और सुन्दर कल्पनाओं के संयोग से काव्यात्मक चित्रण किया गया है।
उपर्युक्त तीनों कृतियों की भाषा खड़ी बोली है। बुन्देलखण्ड की सुषमा उसके शौर्य और उज्ज्वल परम्पराओं का गुणानुवाद बुन्देलखण्ड के अनेक कवियों ने गाया है परन्तु अधिकांश में प्रायः तथ्यों का परिगणन मात्र है। ‘मधु’ के ये तीनों काव्य भावपूर्णता के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
बेतवा बुन्देलखण्ड की प्रमुख नदी है। जहाँ अपनी गम्भीरता, लम्बे प्रवाह-पथ, आर-पार की विस्तृति और सघन वृक्षों से भरे हुए चौड़े कछारों के कारण वह नैसर्गिक सुषमा में अनुपम है वहीं बुन्देलों की प्राचीन राजधानी ओरछा के पार्श्व से प्रवाहित होने के कारण उसके साथ वीरता का भी एक लम्बा क्रम जुड़ा हुआ है। बुन्देलखण्ड में बेतवा के प्रति पूज्य भावना व्याप्त है। ‘कलौ वेत्रवती गंगा’ के अनुसार उसे गंगा के समान पाप-ताप हारिणी माना गया है। ‘मधु’ ने बेतवा का चित्रण इन्हीं विविध सन्दर्भों में किया है।
विषय-वस्तु का विशद और वृत्तात्मक आधार न होने से ऐसी रचना में कल्पना के द्वारा विभिन्न भाव-सृष्टियाँ की जाती हैं। तथ्यों का क्षीण आधार लेकर उन्हें कल्पना के द्वारा हृदयस्पर्शी भावों के रूप में परिणत किया जाता है। कवि ने कृति के आरम्य में ही बेतवा की वन्दना करते हुए यह याचना की है कि वेतवा की तरंगों की तरह उसके काव्य में नूतन सूक्तियाँ और भाव उत्पन्न हों। वह जहाँ भी जाये वहाँ कविता की नयी बेतवा प्रवाहित करता रहे।42 नवीनता के प्रति कवि का विशेष आग्रह है। नवोन्मेष में कवि की सर्जक कल्पना सहायक हुई है।
प्रातः कालीन सूर्य की पीताभ किरणों से बेतवा के स्वर्ण सदृश जल के सादृश्य के लिये कवि ने स्थानीय ऐतिहासिक सन्दर्भ लिये हैं। बेतवा का पानी ऐसा प्रतीत होता है जैसे उसमें वीरसिंह देव का स्वर्णतुला दान झलक रहा हो। ओरछा के शासक वीरसिंह देव (प्रथम) ने मथुरा में इक्यासी मन सोने का दान किया था। बेतवा में उसके तट पर बसे राज्य के प्रतापी नरेश का यश प्रतिबिम्बित होना बहुत रम्य कल्पना है-
बेतवा वारि में प्रात समै दिन-
नाथ मरीची हँसंे हलें हौलें।
होत सबै जल स्वर्ण समान,
निहार किये अस भावना औलें।।
वीर वृसिंग ने बोयी हुती ‘मधु’,
जो कल कंचन दान की बौलें।
तेरी तरंगन में तुलतीं मनों,
तेई अतौल तुलान की तौलें।।
उसी प्रकार बेतवा में प्रतिबिम्बित सूर्य-किरणों को मधुकरशाह के तिलक की रेखाएँ कहा गया है। मधुकरशाह ओरछा के प्रसिद्ध कृष्णोपासक राजा थे। वे अपने धर्म-पालन में इतने दृढ़ थे कि अकबर के आदेश की अवहेलना करके और उसके कोप की चिन्ता न करके वह उसके दरबार में तिलक लगाकर उपस्थित हुए थे-
बेतवा में प्रतिबिम्बित दीसती,
छाया न मंजु मरीचिन कीं जे।
देखें प्रतच्छ लिखी दिखती हमें,
श्री मधुशाह की टीकन की जे।।
बेतवा के चित्रण में कवि ने सभी ऐतिहासिक सन्दर्भ ओरछा के ही लिये हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि बेतवा इसी भू-भाग में सर्वाधिक सुरम्य, गंभीर और चौड़ी है। वह ओरछा को स्पर्श करती हुई बहती है। दूसरे ओरछा में अनेक पराक्रमी और गौरवशाली शासकों की परम्परा रही है। इसी के साथ कवि का सम्बन्ध भी इसी अंचल से है। शिला खण्डों से टकराकर बेतवा के जो जलकण उछलते हैं वे मानो आँसुओं की माला हैं जिसे यह सरिता अपने वीर हरदौल के करुण बलिदान की स्मृति में पिरो रही है-
बारि के व्याज तें बेतवा संतत,
ही अँसुवान की माला पिरोवै।
वैभव बौल की वीर अतौल की,
श्री हरदौल की याद में रोवै।।
ओरछा के राजा मधुकर शाह की रानी गणेशकुँअर राम को लेने अयोध्या गयी थीं। किंवदंती है कि सरयू में उन्हें राम की मूर्ति प्राप्त हुई थी। इस सन्दर्भ में भी बेतवा के प्रवाह का लक्ष्य दिखाया गया है-
रूठि के मानहुँ रानी गणेश दे,
राघव राम को लैन सिधावै।
बेतवा के किनारे कुंजों में गुंजन करने वाले भौरों का स्वर रायप्रवीण की वीणा के रूप में मुखरित होता रहता है। ‘प्रवीन की वीना’ में कवि ने ‘प्रवीण’ शब्द का धात्वर्थ वीणा बजाने में निपुण लेकर वीणा-वादन के भाव को चमत्कारपूर्वक व्यक्त किया है।
बेतवा के स्वरूप-चित्रण में कवि ने अनेक भावपूर्ण कल्पनाएँ की हैं। कवि ने तत्कालीन अन्य कवियों की तरह केवल उसके भूगोल और इतिहास का तथ्यात्मक वर्णन नहीं किया है बल्कि उसने जो कुछ भी कहा है वह भावोच्छ्वासित है।
हाला
इस काव्य की रचना सन् 1946 ई. के आसपास हुई है। इसमें उमर खैयाम की रुबाइयों की ही भावभूमि पर 50 सवैयों की रचना की गयी है। ऐसा प्रतीत होता है कि उमर खैयाम की 30-32 रुबाइयों के अनुवाद के बाद कवि ने उसमें स्वतन्त्र काव्यकला के प्रयोग का अवकाश न पाकर अलग से छन्द लिखने का विचार किया होगा।
यह काव्य अप्रत्यक्ष रूप से वीरसिंह देव को समर्पित है। एक छन्द में वीरसिंह देव को साकी, उनके दरबार को मैकदा और कवियों को रिन्द कहकर ‘मधु’ ने औरछा-नरेश के काव्यानुराग और कवियों को उनके द्वारा प्रदत्त संरक्षण का रूपक लिया है। यह छन्द नरेश को कवि के आर्शीवाद के रूप में है। कवि ने स्वयं छन्द के ऊपर आर्शीवाद शब्द लिखा है-
आवै नई मस्ती लिये तैरे
यहाँ हर शाम हर एक सबेरा।
मैकशों की मतवालों की टोलियाँ
यों ही लगाती रहें नित फेरा।।
खाली न जाम रहे उसका
तेरे नाम पै जो वहाँ डाल ले डेरा।।
देते दुआ हमरिन्द सदा
रहे साकी सलामत मैकदा तेरा।।6
अनेक दुर्लभ गुणों के संयोग के साथ ही महाराज को सुरापान का अत्यधिक व्यसन था। उनकी आसक्ति भी इस काव्य के विषय के साथ सम्बन्धित है।
महाराज कभी-कभी हँसी और विनोद में जाहिदों को भी शराब का आमंत्रण दे दिया करते थे। एक छन्द में यह भाव ध्वनित होता है कि महाराज ने कभी ऐसा ही विनोद ‘मधु’ से उनके नाम की सार्थकता के लिये किया होगा जिसका उत्तर सात्विक वृत्ति और सनातनी संस्कार वाले कवि ने इन छन्दों में दिया होगा-
एक पिता की हैं बेटी दौऊ ‘मधु’
छोटी बड़ी कौ सुमेद न कीजै।।
दौऊ सुवर्णसनी जग जाने
नसावनी चिन्ता उमै गुन लीजै।।
ओरछानाथ जू मो पै प्रसन्न हौ
तौ हम पै इही भाँति पतीजै।।
सिंधुजा ही हमें दैन चहौ, जु पै
सिंधुजा दीजै न सिंधुजा दीजै।।
मैं निज रंग में हो मखमूर
सुरूर हमेशा सिये रहता हूँ।
बैखुदी भी इतनी बढ़ती
खुद का भी न ख्याल दिये रहता हूँ।।
आपका जामे इनायत पाके ही
यों कुछ एंग लिये रहता हूँ।
है मुझसे दुनियाँ कहती कि,
बिना पिये ही मैं पिये रहता हूँ।।
कवि के आध्यात्मिक जीवन-दर्शन में भोगवादी धारणा की कोई संगति नहीं है। अतः इस काव्य में स्थूल रूप से जीवन की स्वच्छ्न्दता के उपकरण शराब और साकी की आध्यात्मिक व्यंजना की गयी है। शराब परमात्मा का प्रेम और साकी स्वयं परमात्मा है। इसके अतिरिक्त हाला में मानव-प्रेम की भी प्रतीकात्मकता है।
‘मधु’ का यह मुक्तक काव्य हिन्दी की वैयक्तिक स्वच्छन्दतावादी काव्य प्रवृत्ति की परम्परा का काव्य है। हिन्दी की यह काव्य-प्रवृत्ति उमर खैयाम के दर्शन से प्रभावित है परन्तु ‘मधु’ ने अपनी इस कृति में साकी, शराब, पैमाना और मैखाना के प्रतीकों से जीवन में पारस्परिक और आध्यात्मिक प्रेम की व्याख्या की है।
उमरखैयाम की रुवाइयों में क्षणभंगुर जीवन में प्रेम और मस्ती के महत्त्व के साथ ही सूफी आध्यात्मिकता के प्रेम प्रधान दर्शन की भी झलक मिलती है। लौकिक प्रतीकों के प्रचुर प्रयोग, प्रेम और मस्ती के अधिक वर्णन और आध्यात्मिकता की क्रमबद्ध उपपत्ति न होने से खैयाम की रुबाइयों में भोग की स्थूलता प्रधान हो गयी है। गुप्त जी ने उनमें किसी आध्यात्मिकता की व्याख्या के प्रयत्न को व्यर्थ माना है।44 किन्तु आपाततः मात्र उत्तेजक और वासनाजन्य उद्गारों व चित्रणों से भरी होने पर भी उनके भीतर सूफी दार्शनिकता है।45
उमरखैयाम का प्रभाव ग्रहण करके हिन्दी में हालावाद के अभिधान से जो वैयक्तिक काव्य प्रवृत्ति प्रचलित हुई उसमें परिवेश और प्रेरणा की भिन्नता थी। उसमें संघर्ष जन्य पराभव और अवसाद से निर्मित व्यक्तित्व का आध्यात्मिक-नैतिक विद्रोह और प्रत्यक्ष भोगवाद का आकण्ठ स्वीकार है।46 बच्चन की कविता में उपभोग का यह भाव अधिक मुखर है। परन्तु इसी प्रवृत्ति के अन्य कवि ‘हृदयेश’ ने हालावाद को सुरा और सुन्दरी के स्थूल सन्दर्भ में न लेकर कभी हाला को जीवन का सुख-दुःख माना है, कभी प्रकृति पर मधुशाला का आरोप किया है और कभी यमुना-तट पर कृष्ण की बाँसुरी के माधुर्योत्पादक स्वर को आसव कहा है।
‘मधु’ के इस काव्य में दार्शनिकता का तत्त्व स्पष्ट है। कवि की मानसिकता में पराभवजनित अवसाद, पलायन और निराशा नहीं है। उसके नैतिकता प्रधान दृष्टिकोण में मुक्त प्रयोगवाद की कोई संगति नहीं है। उसके सम्पूर्ण काव्य में आशा, कर्मशीलता और उत्साह के स्वर गूँजते हैं। इसलिये इस काव्य में भी उसने भोगजन्य सुख की स्वच्छन्दता को व्यक्त न करके प्रेम के अलौकिक और अतीन्द्रिय रूप का ही प्रतिपादन किया है। वैचारिकता की दृष्टि से कवि कबीर के अधिक निकट है। कबीर की तरह ‘मधु’ में भी हाला की परमात्मा का प्रेमरस माना है। कवि ने निवृत्ति और साधना के बाह्याचार को व्यर्थ बताते हुए परमात्मा के प्रति हार्दिक प्रेम को ही सार्थक माना है। माधुर्य भाव के प्रति ज्ञानियों और निवृत्तिमार्गियों का भ्रू-कंुचन और बन्धनारोपण प्रतिक्रियात्मक है। वह जीवन की सहज प्रवृत्ति नहीं है।
प्रेम की प्रवृत्ति नैसर्गिक है। सम्पूर्ण प्रकृति में यही प्रेम भावना व्याप्त है। प्रेम की तृषा शाश्वत और समष्टिगत है-
टूटता है नहीं तार कभी,
मधुपों की जमात अटूट पिये है।
सामने सावन साकिया के,
खुली चोंच का प्याला पपीहा लिये है।।
ज्योतित चन्द्रमा के मधुपात्र की,
और चकोर निगाह किये है।
पण्डित देवता तू दे बता कि,
गुनाह क्यों ढालना मेरे लिये है।।
प्रेम की इस प्रवृत्ति में व्यापकता है, पारस्परिकता है। सम्पूर्ण सृष्टि प्रेम के आदान- प्रदान से ही परिचालित है। नदियाँ निर्झरों से जल लेकर सागर को पिला देती हैं। सागर वह जल बादलों को दे देता है और बादल भी उसे धरती पर बरसा देते हैं-
विश्व परस्पर प्रेम सिये हुए,
जो न पिये तो जिये फिर कैसे।।
वैयक्तिक सुख-साधना से दूसरों को कष्ट होना स्वाभाविक है। एक का संचय दूसरों की वंचना से ही हो सकता है। प्रेम से दूसरों के प्रति भी आत्मवत् निजता और अभिन्नता का अनुभव होता है। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य दूसरों को सुख प्रदान करना है-
साकिया सावन की घटा होकर,
के जग प्यास बुझाता चला जा।
सूखे मरुस्थल मानसों को भी,
हरे तृण दे हरयाता चला जा।।
शीश जो जाम का काम न हो,
तू अटूट ही धार बहाता चला जा।
जीवन पाकर सार यही है कि,
पीता चला जा पिलाता चला जा।।
प्रेम ही परमात्मा है। हृदय में प्रेम का जागरण हो जाना ही परमात्मा का साक्षात्कार है। प्रेमोदय से संसार की सारी चिन्ताओं का शमन हो जाता है और आनन्द का अजस्र उत्स फूट पड़ता है-
सातवें चर्ख के फर्श के ऊपर,
अर्श मुअल्ला किसी ने बताया।
मैंने वहिश्त यहीं पर वादये,
जाम के एक ही घूँट में पाया।।
जीवन क्षणभंगुर है। दिन-रात के समान ही जीवन के दिन-रात भी बीतते जाते हैं। हम कभी अतीत की चिन्ता में पड़े रहते हैं, कभी कल्पना-तंतु से भविष्य के ताने-बाने बुनते रहते हैं। दोनों ही स्थितियों में संघर्ष भीरुता और पलायन की प्रवृत्ति लक्षित होती है। वर्तमान को ही गढ़ने-संवारने में जीवन की क्रियाशक्ति का परिचय मिलता रहता है। सुनिर्मित वर्तमान ही सुखद भविष्य का पूर्व रूप है। अतीत और भविष्य के चिन्तन में डूबे रहने से वर्तमान हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है। वर्तमान का प्रत्यक्षीकरण प्रवृत्तिपरक है और अतीत और भविष्य की चिन्ता निवृत्तिपरक मार्ग है-
पानी समान प्रवाह लिये हुए,
वेगी समीर सा वेग में साना।
शोक है आयु में से हमारी,
तुम्हारी दिन आज का भी ये सिराना।।
मैंने कभी उन दो दिनों का ‘मधु’
चिन्तन भी करना नहीं जाना।
एक वो जो कल हो चुका दूसरा,
है वह जो कल सामने आना।।
जीवन क्षणभुंगुर है, परन्तु उससे कवि के मन में निवृत्तिप्रेरक निराशा नहीं उत्पन्न होती। वह वर्तमान के प्रति विधेयात्मक सक्रियता के साथ संलग्न होता है। प्रेम तार्किक ऊहापोह और विकल्प के विवर्त को मिटाकर संकल्प-बुद्धि उत्पन्न करता है। मोक्ष के लिये संसार-त्याग साधन माना गया है। दूसरे लोक के लिये इस लोक का अस्वीकार निवृत्तिमार्ग में आवश्यक समझा गया है। अदृष्ट की कल्पना में हम इस जीवन को भी विनष्ट कर लेते हैं। पारलौकिक सुगति के लिये हम धरती पर कर्त्तव्यपरायणता और परदुःखकातरता जैसे सामाजिक भावों को भूलकर ऐकान्तिक साधना में निमग्न हो जाते हैं। परस्पर प्रेम के द्वारा धरती के जीवन को सँवारना ही सच्ची स्वर्गोपलब्धि है। पूर्ण आनन्द की स्थिति ही स्वर्ग है। उसे धरती पर ही प्राप्त किया जा सकता है-
लोभ में स्वर्ग-सुधा के फँसा,
वसुधा के सुधा घट फोड़ रहा है।
झूठे प्रकल्पित स्वर्ग के पीछे,
प्रत्यक्ष के स्वर्ग को छोड़ रहा है।।
तप और वैराग्य की कृच्छसाधना में वह रंग और तरंग नहीं होती जो प्रेम की आह्लादक स्थिति में होती है। इस प्रेम-सुरा का आनन्द वही जानते हैं जिन्होंने इसका आस्वाद लिया है। यह अनिर्वचनीय आनन्द कबीर के शब्दों में ‘गूंगे केरी शर्करा’ है। बिना आस्वाद लिये ही इस आनन्द को बुरा कहना तो गलत निर्णय देना है-
खोल सझे न शरीयत के हाँ,
सलाह जरूर तबीयत की ले।
तू कहता है शराब जिसे वह,
आबे बका है जरा चख ही ले।।
दर्द उसे दुनिया में न हो कोई,
जो इसको जबाँ से लगा सी ले।
गायज है या नहीं कहना फिर,
वायज तू पहले जरा पी ले।।
प्रेम-सुरा के मतवाले को यह विश्वास है कि आशंका और वर्जना आस्वादपूर्ण की स्थितियाँ हैं। पी लेने के बाद वायज भी उसका समर्थक हो जायेगा।
बाह्याडम्बर और शारीरिक क्रियाओं के द्वारा मन को नहीं जीता जा सकता। बौद्धिक सम्पन्नता और देहाभ्यास से हृदय की सात्त्विकता और ईश्वरोन्मुखता का अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है। घनानन्द ने प्रेम की पदवी ज्ञान से ऊँची मानी है। कबीर के अनुसार पोथियों का ज्ञाता पण्डित नहीं बल्कि प्रेम के ढाई अक्षर पढ़ लेने वाला व्यक्ति पण्डित है। प्रेम ईश्वरोपलब्धि का अचूक साधन है-
साँस को साध उसाँस को बाँध के,
तू जितना चहै जोर लगाये।
जीत न पायेगा पै मन को भले,
जिन्दगी लाख करोड़ बिताये।।
प्यालियों में जो छिपा उसे पोथियों,
मैं किस भाँति तू पण्डित पाये।
नामे खुदा पर एक ले जाम,
खुदी मिट जाये खुदा मिल जाये।।
परमात्मा की प्राप्ति का अर्थ अपने व्यक्तित्व को सुरक्षित रखते हुए किसी वस्तु की प्राप्ति नहीं है। यह लय की अवस्था है। हम जब तक अपने अहं भाव को विसर्जित नहीं कर देते तब तक किसी में अविभाज्य रूप से मिल नहीं सकते। शारीरिक और बौद्धिक अभ्यास उपलब्धि के साथ ही अहंकार बढ़ाता है। इसलिये उसके द्वारा मन तन्मय नहीं हो सकता। अहंकार-नाश प्रेम में ही होता है। प्रेम स्वयं को प्रिय में इस प्रकार खो देना चाहता है जिससे उसके अस्तित्व का कोई नाम-रूप शेष न रहे। दूसरे के लिये आत्मोत्सर्ग ही साधना का चरम आदर्श है। जिस तरह शराब के पीने से आत्मज्ञान नहीं रह जाता है उसी प्रकार परमात्मा के प्रेम में भी अहं का विभेदक बोध समाप्त हो जाता है। इस प्रेम-सुरा का नशा कभी नहीं उतरता-
जो उतरे न कयामत लौ,
अलमस्तगी ऐसी अजीब चढ़ा दे।
बाकी रहे न खुदी का निशाँ,
खुदा के लिये साकिया ऐसी पिला दे।।
‘मैं’ और ‘तू’ की भावना ही लौकिक सन्दर्भ में सारे अनर्थ की जड़ है और आध्यात्मिक संदर्भ में ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में बाधक है। ‘मैं’ और ‘तू’ का बोध प्रेम के द्वारा ही हट सकता है, बाह्यसाधना से नहीं। परमात्मा माला और नमाज से नहीं, प्रेम से प्रसन्न होता है-
पास में प्याला रहे फिर माला,
रहे न रहे परवाह नहीं है।
बन्दानवाज है मेरा खुदा,
उसे पूजा नमाज की चाह नहीं है।।
‘हाला’ के कुछ छन्द ओरछा नरेश वीरसिंह देव को सम्बोधित हैं। इन छन्दों में भी अर्थ की प्रतीकात्मकता है। कवि ने उनकी सुराप्रियता की ओर भी संकेत किया है और रिन्द को कवियों का प्रतीक मानकर ओरछेश की उदार संरक्षण भावना को भी व्यक्त किया है-
आवै नई मस्ती लिये तेरे,
यहाँ हर शाम हरेक सवेरा।
मैकशों की मतवालों की टोलियाँ,
यों ही लगाती रहें नित फेरा।।
खाली न जाम रहे उसका,
तेरे नाम पै जो यहाँ डाल ले डेरा।
देते दुआ हम रिन्द सदा रहे,
साकी सलामत मैक़दा तेरा।।
गीतिकाव्य
‘मधु’ का अधिकांश काव्य तो कवित्त-सवैया छन्दों में लिखा गया है परन्तु उन्होंने अनेक गीतों की रचना भी की है। कवि के काव्य-जीवन का प्रारम्भ गीतों के ही रूप में हुआ था। छायावाद-युग में प्रसाद, पन्त, निराला और महादेवी के गीतों का पाठकों पर मोहक प्रभाव पड़ा। ‘सुकवि’ तथा अन्य पत्रिकाओं में कवित्त-सवैयों के साथ-साथ छायावादी गीत भी छप रहे थे। गीति-शैली के इसी प्रचलन से आकर्षित होकर ‘मधु’ ने भी गीति-काव्य का प्रणयन किया है। उनके कुछ गीत छायावादी गीतों की तरह वैयक्तिक हैं और अनेक गीत विषय प्रधान हैं। कुछ गीत राष्ट्रीय हैं, जिनमें महान नेताओं, अविस्मरणीय घटनाओं और स्वाधीनता आन्दोलन से सम्बन्धित विषय हैं। कुछ गीत सांस्कृतिक उत्सवों और व्यक्तित्वों को समर्पित हैं। कुछ गीतों में प्रगतिशील चेतना के दर्शन होते हैं और कुछ गीत व्यंग्यात्मक हैं। ऐसे अनेक गीत कवि ने लिखे हैं किन्तु उनमें से लगभग 50 गीत ही प्राप्त हैं। कवि ने एक शोकगीत, एक पत्रगीत और तीन गज़लें भी लिखी हैं।
गीति-काव्य अन्तर्वृत्ति-निरूपक काव्य है। वह भावावेग के क्षणों की ऐसी स्वानुभूति-परक रचना है जिसमें गेयता का तत्त्व निहित होता है। उसमें कवि का विशिष्ट अनुभूति की आत्मपरक अभिव्यंजना होती है। गीति के अंग्रेजी समानार्थी शब्द लिरिक में वीणा (लायर) के साथ गाये जाने का भाव है। प्रारम्भ में ऐसी रचना को ‘लिरिक’ कहा जाता था जिसे वीणा के साथ गाया जा सके। बाद में उसका अर्थ ऐसी संगीतमय अभिव्यक्ति हो गया जिसकी रचना भाव अथवा प्रेरणा के सशक्त आवेग के अन्तर्गत हुई हो।
महादेवी वर्मा ने ऐसी रचना को गीति कहा है जो सुख-दुःख की भावावेशमयी अवस्था की गिने चुने शब्दों में गेय अभिव्यक्ति होती है।47
गीति-काव्य उस काव्य-रूप को कहा जा सकता है जिसमें कवि के अन्तर्मन की स्वतः प्रेरित, तीव्रभावात्मक तथा संगीतात्मक अभिव्यक्ति होती है। गीतिकाव्य में जो कुछ व्यक्त होता है वह कवि की विशिष्ट और निजी अनुभूति के रूप में होता है। स्वानुभूति का तात्पर्य कवि की ऐसी ऐकान्तिक और विलक्षण अनुभूति नहीं है जो अन्य-निरपेक्ष हो। कवि जिन मनोवेगों से उद्धेलित होकर गीति-रचना करता है वे सार्वजनीन होते हैं, परन्तु सार्वजनीन अनुभूतियों को गीति में आत्म निवेदन के रूप में व्यक्त किया जाता है। गीति भाव-प्रधान रचना है। भावावेग की स्थिति दीर्घजीवी नहीं होती। इसलिये गीति में संक्षिप्ति होती है।
इस प्रकार गीति-काव्य के प्रमुख तत्त्व आत्माभिव्यंजना, गेयता, भावावेग और संक्षिप्ति माने जा सकते हैं।
आत्माभिव्यंजना
काव्य के अन्य रूप जहाँ बाह्यार्थ निरूपक होते हैं वहाँ गीति-काव्य आत्माभिव्यंजक होता है। अन्य काव्य-रूपों में कवि का दृष्टिकोण बस्तुमुखी होता है, परन्तु गीति-काव्य कवि के अन्तर्जगत के राग-विराग को व्यक्त करता है। कवि गीति-काव्य में जो कुछ कहता है उसमें उसकी विशिष्ट आत्मानुभूति की वैयक्तिकता झलकती है पर वैयक्तिकता का तात्पर्य यह नहीं है कि कवि के ‘स्व’ का ‘पर’ से कोई भावनात्मक सम्बन्ध नहीं होता है। एक के अनुभव का परिपार्श्व कितना भी निजी और ऐकान्तिक हो वह दूसरों के प्रत्यय से सर्वथा पृथक नहीं होता। आत्माभिव्यंजना का आशय यही है कि गीति-काव्य में जो भाव व्यक्त होते हैं वे पर-सम्बन्ध होते हुए भी आत्म निवेदन के रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं।
‘मधु’ के आरम्भिक गीत आत्माभिव्यंजक हैं। उनमें विषय के स्थान पर विषयी की प्रधानता है। ‘झंकार’ में बीते हुए सुख की स्मृति की कसक की व्यंजना है-
नाचती आती है तू कौन,
साथ में लिये व्यथाएँ मौन।
बहा जाती इस अंचल मध्य,
छिपाकर मेरा सुख संसार।।
आत्माभिव्यंजना का एक रूप यह भी है जिसमें वस्तु कवि की अपनी भावनाओं से अनुरंजित हो जाती है-
फूल कर प्रतिफूल में भी जो नहीं फूले समाते,
खगों के कल कण्ठ से यह कौन अस्फुट राग गाते।
नील नभ की पट्टिका पर लिख रहे क्या मौन भाषा,
गोप्य कौन रहस्य ऐसा आज जो मुझसे छिपाते।।
देश-विभाजन के विषाद ने कवि के स्वातंत्र्य-प्राप्ति के हर्ष को धूमिल कर दिया-
दिल में जब होली जलती है,
मैं दीप जलाऊँ फिर कैसे।
भीतर हो गर्द गुबार रंग,
रोली बरसाऊँ फिर कैसे।।
रो रो उठता है, कंठ तुम्हीं
कह दो मैं गाऊँ फिर कैसे।
मातम करने को, मन कहता,
मैं ईद मनाऊँ फिर कैसे।।
भावावेग
काव्य का मूलाधार भाव है। विचार भी भाव के रूप में ही काव्य-वस्तु बनकर आते हैं। गीति-काव्य में भाव के तीव्र स्फुरण और उसकी अन्विति का विशेष महत्त्व है। गीति-काव्य का जन्म तीव्र भावावेग के क्षणों में स्वतः प्रेरित रूप से होता है। बाह्य परिस्थितियों के सम्पर्क से संवेदनशीलता के अनुसार मनोवेग उद्धेलित हो जाते हैं। गीत ऐसे ही क्षणों में जन्म लेता है। अनुभूति की विशिष्टता गीति काव्य का अनिवार्य तत्त्व है। गीत इतना सहज प्रेरित होता है कि उसकी अभिव्यक्ति अनुभूति का अधिक से अधिक अविकल रूप प्रतीत होती है। भावना और उसकी अभिव्यंजना के तादात्म्य में ही प्रगीतत्व है।48
गीति-काव्य में भाव-प्रधानता का अर्थ विचार-तत्त्व का सर्वथा निषेध नहीं है। विचार-तत्त्व का बुद्धि-तत्त्व से भावों में संयोजन और औचित्य के गुण आते हैं। औचित्य से विश्वसनीयता और प्रभाव उत्पन्न होता है।49 मनोवेगों को विचार के द्वारा ही व्यवस्थित और संवेदनीय माना जा सकता है।50 फिर भी गीति-काव्य में बौद्धिकता का उतना ही अंश स्वीकार्य होता है जितने से उसकी भावात्मकता आक्रान्त न हो। विचारात्मक गीति-काव्य में भी तार्किकता और बौद्धिक विश्लेषण न होकर रागात्मक अनुभूति ही प्रधान होती है। उसमें चिन्तन का स्पर्श अवश्य रहता है।
गीत भाव की पूर्ण इकाई होता है। उसमें भावों की विविधता या बिखराव नहीं होता है। भावान्विति गीति-काव्य का महत्त्वपूर्ण लक्षण है। भाव की पूर्णता उसकी अखण्ड एकता में रहती है।51
‘मधु’ के अधिकांश गीतों में भाव तीव्रता और अन्विति का पूर्ण समावेश है। उनके राष्ट्रीय और सांस्कृतिक गीत छायावादी गीतों की तरह आत्माभिव्यंजक तो नहीं हैं, परन्तु उनमें मुक्तक काव्य की तरह वस्तुपरकता अथवा कलागत चमत्कार भी नहीं है। उनमें किसी परिस्थिति के प्रति कवि की भावात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त हुई है। यह प्रतिक्रिया तीव्र भावावेग से प्रेरित और प्रसूत है। ‘मधु’ के राष्ट्रीय गीतों में आक्रोश और ओज के स्वर प्रधान हैं। उनमें भावों का उद्रेक और अतिरेक है। ऐसे गीतों में कवि की चेतना समष्टिमूलक है। इनमें स्थितियाँ और विषय तो बाह्य जगत से लिये गये हैं, परन्तु वही विषय लिये गये हैं जिन्होंने कवि की संवेदना को झकझोरा है और फिर पूरा गीत भावतीव्रता की विशिष्ट आत्माभिव्यंजना के रूप में निकला है। गरीबों का शोषण करने वाले पूँजीपतियों के प्रति कवि का भावावेग आवेश के रूप में प्रकट हुआ है-
ओ उच्च भवन वालो बोलो,
ओ अतुलित धन वालो बोलो।
कांतित कंचन वालो बोलो,
जगमग जीवन वालो बोलो।।
क्या कभी निहारी है तुमने,
अनजान गरीबों की दुनियाँ?
बेजान गरीबों की दुनिया?
वीरान गरीबों की दुनिया?
श्मशान गरीबों की दुनिया?
देश-विभाजन पर कवि का विषाद और आवेश भी भावावेश प्रसूत है-
छूट गये बन्धु बँट गया देश,
फुट गई करोड़ों की किस्मत।
अरमान धूल में मिले दे रहा,
निज मन निज ही को लानत।।
खतरे में जहाँ साफ दिखती,
लाखों माँ बहिनों की अस्मत।
उस आजादी की क्या कीमत,
उस स्वतंत्रता की क्या कीमत।।
स्वतः स्फूर्त भाव-पूर्णता कवि के समस्त काव्य का गुण है। उसके गीति-काव्य में उसका घनीभूत रूप प्रकट हुआ है।
गेयता
जिस प्रकार ‘लिरिक’ शब्द में वीणा-वादन के कारण संगीत प्रधानता का भाव है उसी तरह गीति शब्द में भी गेयता की अवस्थिति है। भावातिरेक के क्षणों में हमारी वृत्ति गीतात्मक हो जाती है। ‘मधु’ के गीतों में पदों की तरह संगीत तत्त्व तो नहीं है परन्तु उनमें संगीतात्मकता का समावेश अवश्य है। प्रायः सभी भाषाओं के आरम्भिक गीतों में संगीत तत्त्व की प्रधानता है परन्तु विकास-क्रम में उनमें संगीतात्मकता का प्रभाव ही आवश्यक रह गया। वह केवल गेय रचना नहीं रह गयी, बल्कि गेयता के साथ वह पठ्य रचना भी हो गयी। ‘मधु’ के गीतों में प्रायः छन्द-योजना, लय और नाद-तत्त्व से संगीतात्मकता का प्रभाव उत्पन्न हुआ है-
कौन शुभ सन्देश लाये ऐ विजय त्यौहार मेरे।
-- -- -- --
जो अब तलक नाशाद था वो शाद हो गया।
चालिस करोड़ का वतन आजाद हो गया।।
संक्षिप्ति
गीति-काव्य में संक्षिप्ति भावावेग की स्थिति का स्वाभाविक परिणाम है। भावतीव्रता की स्थिति दीर्घजीवी नहीं होती। मनोवेगों की उत्तान अवस्था का सातत्य अधिक समय तक नहीं रहता। इसलिये गीति में संक्षिप्ति का गुण रहता है। संक्षिप्ति के कारण ही गीति में संगठन रहता है। ‘मधु’ के कुछ गीत तो, जो आत्मानुभूति-व्यंजक हैं, आकार में संक्षिप्त हैं, परन्तु जिन गीतों में विषय का निरूपण हुआ है उनका आकार प्रदीर्घ है। ‘झंकार’, ‘कुम्हलाये कुसुम से’, ‘विजय पर्व’ आदि गीत प्रथम कोटि के हैं और ‘बुन्देलखण्ड-परिचय’ ‘सैनिक का पत्र’ आदि गीत वर्णनात्मकता के कारण लम्बे हैं।
वस्तुगत-विभाजन
राष्ट्रीय गीत
‘मधु’ के अधिकांश गीतों का विषय देश-भक्ति की भावना है। राष्ट्र-प्रेम की अभिव्यक्ति इन गीतों में विभिन्न प्रकार से हुई है। कहीं राष्ट्र के स्वरूप की दिव्य कल्पना करके उसका अभिनन्दन किया गया है, कहीं अतीत-गौरव का प्रेरक स्मरण किया गया है, कहीं वर्तमान हीनता पर क्षोभ और आक्रोश का भाव व्यक्त हुआ है और कहीं स्वातंत्र्य-आन्दोलन के वीरों के प्रति श्रद्धा अर्पित की गयी है। राष्ट्र के भौतिक स्वरूप के प्रति पूज्य भावना ‘अखण्ड हिन्दुस्तान’ गीत में व्यक्त है-
उत्तर में इसके मस्तक पर,
हिम गिरि देता हिम का चन्दन।
दक्षिण में हिन्द महासागर,
करता है इसका पदमार्जन।।
पूजता भुजा दांई इसकी,
कश्मीर लिये केसर कंचन।
इसकी बांई भुज छाया में,
रहता है ब्रह्मदेश पावन।।
अतीत-गौरव के अंकन में भी राष्ट्रीयता की भावना ‘बुन्देलखण्ड परिचय’ गीत में व्यक्त है-
जो जगत ख्यात रणधीर भूमि,
जो पूर पराक्रम वीर-भूमि।
जो विश्व बीच विख्यात हुई,
बलशाली विक्रम वीर भूमि।।
जलियाँवाला बाग और नोआखाली की घटनाओं ने कवि की भावनाओं को उद्धेलित किया है-
भारत स्वतंत्रता के हित ओ लाखों की बलि देने वाली।
तू अजर हुई तू अमर हुई चिरकाल तलक नोआरवाली।।
‘मधु’ के राष्ट्रीय गीत प्रमुख रूप से ओजपूर्ण हैं। उनमें क्रान्ति और उत्सर्ग का आवेश है।
सांस्कृतिक गीत
‘तुलसी’ ‘क्या तुम्हें स्वीकार है’, ‘विजय पर्व’, ‘देहाती दुनिया’ आदि गीतों में सांस्कृतिक मूल्यों और आदर्शों का वर्णन तथा वर्तमान स्थिति में उन आदर्शों के तिरोभाव पर क्षोभ व्यक्त किया गया है। ‘तुलसी’ गीत में उनके ‘रामचरितमानस’ द्वारा निरूपित सांस्कृतिक आदर्शों का वर्तमान पराभाव की स्थिति में आह्वान किया गया है-
फिर आज आस्तिकता के ऊपर
हुई नास्तिकता भारी।
फिर आज मनुजता के ऊपर,
दानवता भरती हुंकारी।।
जड़ कलम लिखे किस तरह भला,
कितना महान है क्लेश हमें।
फिर एक बार ओ कवि तुलसी,
राघव का दो सन्देश हमें।।
‘विजय पर्व’ गीत में सांस्कृतिक अवमूल्यन पर क्षोभ व्यक्त किया गया है और विजयादशमी के पर्व से प्रेरणा प्राप्त करने का उद्बोधन दिया गया है। ‘देहाती दुनिया’ गीत में महानगरीय पाश्चात्य सभ्यता की कृत्रिमता की कुत्सा तथा ग्रामीण जीवन की सरलता, सात्विकता और निश्छलता की प्रशंसा की गयी है।
व्यंग्य-गीति
कुछ गीतों में तत्कालीन राजनीति और अंग्रेजों के प्रति भारतीयों की चाटुकारिता पर व्यंग्य किया गया है। ‘गोरी’, ‘रायबहादुर’, ‘रायपार्टी नेता’, मेम्बरी का नया नुस्खा आदि ऐसे ही गीत हैं। ‘छायावादी कवि’ और प्रगतिशील कवि गीतों में तथाकथित भाव-विरहित चमत्कारपूर्ण और रौद्र रूपायनयुक्त कविता पर व्यंग्य किया गया है। ‘गोरी’ गीत में अंग्रेज को ऐसी पत्नी के रूप में चित्रित किया गया है जो पति के धन से अपने पितृ-गृह को सम्पन्न कर रही है। अपने रूप से पति को वश में करके उसने घर में कलह उत्पन्न कर दिया और सारा धन अपहृत कर लिया-
घुसतन ही घर में खरी फूट तें पारी,
द्योरन जेठन तें गुपचुप कीनी यारी।
उन हमतें उनतंे चुगली करी हमारी,
घर ही में रुपवा दई हाय यों रारी।।
लड़ मरे इतै हम बात बनी उत तोरी,
दिखराव दया अब जाव मायकें गोरी।
‘रायबहादुर’ गीत में ऐसे भारतीयों पर व्यंग्य हैं जिन्होंने अंग्रेजों की चापलूसी करके और उन्हें रिश्वतें देकर रायबहादुरी जैसे पद प्राप्त कर लिये-
इसकी नहीं जरूरत इनको नित्य प्रति बहलाओ।
डाली फसली पर प्रसाद की जगह अवश्य चढ़ाओ।।
उच्च यूनियन जैक करो ध्वज पीली लाल भुलाओ।
जी हाँ सम्पुट सहित खुशामद मंजु मंत्र दुहराओ।।
रोज रोज जो नहीं बने तो मासिक ही दर्शन लो।
आओ आय बहादुर आओ राय बहादुर बन लो।।
चुनाव में पराजित उम्मीदवार की दशा पर व्यंग्य करते हुए मेम्बर बनने का नया और सफल उपाय सुझाया गया है-
हारे चुनाव में आप अगर,
दिल में मत चिन्ता ल्याव पिया।
बस मुझको मेम बनाव पिया,
यों मेम्बर आप कहाव पिया।।
स्वतंत्रता-प्राप्ति से पूर्व भी स्थानीय नगर पालिका के चुनाव हुआ करते थे। चुनाव में उचित अनुचित सभी प्रकार के साधनों का उपयोग किया जाता है-
निज चमड़ी के भी लिये नहीं,
जो दमड़ी भी खरचाते हैं।
वे एक वोट के लिये लखो,
नोटों पर नोट लुटाते हैं।।
विचारात्मक गीति
बौद्धिकता गीतिकाव्य की प्रकृति के विपरीत है। उसमें विचारतत्त्व की अधिकता गीति की कोमलता और भावात्मकता को आघात पहुँचाती है। फिर भी विचार गीति की परिधि से सर्वथा वहिष्कृत नहीं होता है। अनेक अनुभव हमारे चिन्तन को उद्धेलित करते हैं और हम जीवन के सम्बन्ध में विचारात्मक निष्कर्ष निकालने लगते हैं। ‘मधु’ के कुछ गीतों में विचारात्मकता की झलक मिलती है। ‘कुम्हालाये कुसुम से’ गीति में फूल के जीवन की परार्थता पर दार्शनिक चिन्तन है। फूल भ्रमरों को रसदान देता है, वातावरण को सुरभित करता है, सुन्दरियों को श्रृंगार-साधन प्रदान करता है, भक्तों को पूजा की सामग्री देता है और कवियों तथा कलाकारों को भाव-प्रेरणा प्रदान करता है। उसके असमय मुरझा जाने से इन सबको वंचित रह जाना पड़ेगा-
किस पर कहाँ निछावर कर दी तुमने ऊषा की लाली।
किस पर मुग्ध चित्त होकर पी गये हलाहल की प्याली।।
तुम्हीं कहो किन-किन बातों का तुम्हें गिनावें हम लेखा।
अरे अभी क्या मुरझाते हो तुमने जग का क्या देखा।।52
स्वरूपगत विभाजन
सम्बोध गीति
हिन्दी में सम्बोध गीति अंग्रेजी के ‘ओड’ का पर्याय है। ‘ओड’ ऐसा गीति-प्रकार है जिसकी वस्तु, भावना और शैली में भव्यता होती है। उसमें विचार का तार्किक विकास होता है। उसमें काव्यात्मक वक्रता का कुछ गुण निहित रहता है।53 अन्य गीति-भेदों की अपेक्षा सम्बोध गीतियों में विचारात्मकता अधिक रहती है। अंग्रेजी काव्य में दो प्रकार की सम्बोध गीतियों की रचना हुई है-व्यवस्थित अथवा नियमित और स्वतंत्र अथवा अनियमित। नियमित सम्बोध गीतियों में बाह्य छन्दोविधान निश्चित रहता है और अनियमित सम्बोध गीतियों में स्वरूप का ऐसा प्रतिबन्ध नहीं होता।
‘मधु’ की सम्बोध गीतियों में इस काव्य-रूप की आन्तरिक विशेषताओं का सफल निर्वाह हुआ है। ‘कुम्हलाये कुसुम से’, ‘नोआखाली के प्रति’, ‘सुभाषचन्द्र बोस के प्रति’, ‘तुलसी’, ‘क्या तुम्हें स्वीकार है’, ‘गरीब की दुनिया’, ‘विजयपर्व’ आदि गीतियों में किसी को सम्बोधित करके कवि ने भाव तथा विचार की व्यंजना की है। इन सम्बोध गीतियों में भावावेग और वैचारिकता के साथ ही करुणा की क्षीणरेखा भी विद्यमान है। ‘कुम्हलाये कुसुम से’ गीति में व्यक्तिगत सुख की अपेक्षा परहित-साधन की उदारता का विचार है। ‘तुलसी’ गीति में वर्तमान नैतिक और सांस्कृतिक अवमूल्यन की स्थिति में तुलसी के आदर्शों की अभियाचना की गयी है। ‘क्या तुम्हें स्वीकार है’ गीति में सामाजिक और नैतिक हृास पर विषाद व्यक्त किया गया है। सम्बोध गीतियों में प्रत्यक्ष रूप से सम्बोधित अनुभूति के कारण प्रभावपूर्णता अधिक रहती है। प्रश्नात्मक शैली इस प्रभाव में वृद्धि करती है। ‘गरीब की दुनिया’ गीति में प्रश्नों की सतत आवृत्ति भावपूर्णता और विचार-संघटन में सहायक हुई है।
शोक गीति-
शोक गीति वह गीति-रूप है जिसमें किसी प्रिय या सम्मान्य व्यक्ति की मृत्यु से उत्पन्न शोक की अभिव्यक्ति होती है। हिन्दी में ‘शोक गीति’ नाम अंग्रेजी के ‘एलिजी’ शब्द का समानार्थी है। पाश्चात्य साहित्य में शोक गीति के मूल आशय में व्यापकता आ गयी है। अब केवल प्रिय जन अथवा महान व्यक्ति के निधन पर अभिव्यक्त गीति का नाम ही शोक गीति नहीं रह गया है, बल्कि उसे जातीय अथवा समष्टिगत अनुभूति का माध्यम भी स्वीकार किया जाने लगा है। उसमें किसी महान व्यक्ति के जीवन और चरित्र का अध्ययन तत्संबंधी संस्मरण तथा कवि का उसके प्रति आदर भाव समाविष्ट हो गया है। इस प्रकार शोक गीति में संस्मरणात्मकता और प्रशस्तिपरकता के तत्त्व आ गये हैं।54
शोक गीति में प्रायः दार्शनिकता और चिन्तन की प्रधानता रहती है। कभी-कभी तो इनकी प्रधानता से ऐकान्तिक और निजी सन्दर्भ गौण हो जाते हैं। कवि मूल भाव से सम्बन्धित प्रश्नों पर मनन करने लगता है।55
‘मधु’ ने मऊरानीपुर के प्रसिद्ध कवि और स्वाधीनता-आन्दोलन के कर्मठ सेनानी श्री घासीराम व्यास की मृत्यु पर ‘हा व्यास जी’ शीर्षक से शोक गीति की रचना की है। व्यास जी ने तत्कालीन काव्य-प्रवृतियों के अनुरूप अभिजात विषयों पर भी भाव-पूर्ण काव्य रचना की है और राष्ट्रीय भावना की ओजपूर्ण अभिव्यक्ति भी की है। वह स्वाधीनता आन्दोलन में समर्पित भाव से संघर्षरत थे। देश के शीर्षस्थ नेता उनकी स्वातंत्र्य-चेतना तथा प्रेरक काव्य से भली-भांति परिचित थे। वह आन्दोलन के समय अनेक बार जेल गये थे। संघर्षों से जूझते हुए 38-39 वर्ष की अवस्था में उनका निधन हो गया। उनके सामाजिक प्रभाव के साथ ही उनसे कवि का व्यक्तिगत स्नेह-सम्बन्ध भी था। दोनों कवियों की प्रकृति और व्यक्तित्व में अनेक समान गुण होने से उनमें पारस्परिक सौहार्द्र और मैत्री भाव था। इसीलिये व्यास जी के निधन से कवि को गहरा आघात पहुँचा है।
किसी व्यक्ति के निधन से उत्पन्न शोक की अभिव्यक्ति में उसके गुणों का स्मरण किया जाता है। शोक गीति की रचना में तीन बातों का प्रमुख रूप से वर्णन रहता है-अवसर अथवा स्थान विशेष की व्यंजना, तज्जनित भावों की व्यंजना और दार्शनिक समाप्ति।56 प्रस्तुत शोक गीति में इन तीनों लक्षणों का समावेश है।
व्यास जी के निधन से कवि को ऐसा लगता है मानो सवेरे से ही रात घिर आयी हो। उनका निधन प्रातः काल हुआ था-
उर पर असह्य आघात हुआ,
यह कैसा वज्र निपात हुआ।
प्रातः से ही तम तोम घिरा,
थी रात हुई न प्रभात हुआ।।
उनके निधन से अनमोल रत्न कवि लुट गया।
मऊ का साहित्य विकास लुटा,
कविता का अतुल हुलास लुटा।
उस काल कूर के हाथों से,
अनमोल रत्न कवि व्यास लुटा।।
शोक की गंभीरता का आभास आलम्बन के गुणों की महत्ता से भी होता है। स्वाधीनता आन्दोलन में व्यास जी के कर्मठ नेतृत्व का सश्रद्ध स्मरण किया गया है-
गांधी जब टेर लगायेगा,
जब स्वतंत्रता रण छायेगा।
तब सबसे पहिले कौन जेल,
इस मऊ नगरी से जायेगा।।
दार्शनिकता के रूप में नियति को प्रबल माना गया है और अन्त में परमात्मा से दिवंगत आत्मा की शान्ति और सच्चिदानन्द की प्राप्ति की कामना क गयी है-
सत् चित आनँद का कोष मिले,
पावन प्रपूर्ण परितोष मिले।
उन सुकवि व्यास की आत्मा को,
सुख शांति मिले संतोष मिले।।
शोक गीति के व्यापक अर्थ के आधार पर ‘मधु’ की कुछ अन्य गीतियाँ भी इसी वर्ग में रखी जा सकती हैं। ‘सुभाषचन्द्र बोस के प्रति’, ‘क्या तुम्हें स्वीकार है’, ‘वीरधर बोस की बालक सेना’ तथा ‘पन्द्रह अगस्त 1947’ गीतियों में भी अभाव जनित शोक की व्यंजना है। ‘सुभाषचन्द्र बोस के प्रति’ गीति में महान स्वातंत्र्य योद्धा सुभाष के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की गयी है। ‘क्या तुम्हें स्वीकार है’ गीति में परतंत्रता की स्थिति में नैतिक और सामाजिक हृास का वर्णन करते हुए क्षोम और करुणा का अनुभव किया गया है तथा भगवान शंकर के अभिनन्दन में स्वयं को अक्षम कहकर शोक व्यक्त किया गया है। ‘वीरवर बोस की बालक सेना में बोस की बालक सेना के करुण बलिदान के प्रति श्रद्धा और शोक का भाव प्रमुख है-
दूध भरा जीवन तज जिसने,
पिया मृत्यु विष का पानी।
अजर अमर वह वीर बोस की,
बालक सेना बलिदानी।।
ये बालक अपने सीने से बम और सुरंगें बाँधकर छिपकर लेट जाते थे। जब शत्रु के टैंक उन पर से निकलते थे तो सुरंगों के फटने से वे टैंक नष्ट हो जाते थे-
अरि के टैंक नष्ट करने को,
युक्ति बीज वे बोते थे।
बाँध सुरंगें छाती पर पथ,
पड़े कृतारथ होते थे।।
जो कल तक होकर माता से,
अलग धैर्य तज रोते थे।
हँसते हँसते वे ही बालक,
साथ मौत के सोते थे।।
उनके प्रति श्रद्धा और शोक व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है-
शोक हमारे लिये मरें जो,
उनको हम न जान पावें।
उनने शोणित धार बहाई,
हम आँसू भी पी जावें।।
‘पन्द्रह अगस्त 1947’ गीति में देश-विभाजन के कारण हुए साम्प्रदायिक दंगों पर कवि का हृदय शोकातुर है। जहाँ साम्प्रदायिक विद्वेष की ज्वाला में असंख्य लोगों का जीवन भस्म हो रहा हो और अबलाओं का शील लुट रहा हो वहाँ स्वतंत्रता-प्राप्ति का हर्ष कैसे मनाया जाये-
खतरे में जहाँ साफ दिखती,
लाखों माँ बहिनों की अस्मत।
उस आजादी की क्या कीमत,
उस स्वतंत्रता की क्या कीमत।।
भूखे बाघों पर निर्भर है,
दो कोटि बन्धुओं का जीवन।
जग जन कहते आनन्द मना,
मम मन कहता विद्रोही बन।।
इन शोक गीतियों में महान पुरुषों के निधन पर भी शोक व्यक्त किया गया है और शोक का हेतु नैतिक और सामाजिक जीवन का अवमूल्यन भी है।
पत्र गीति
पत्र-गीति गीति का वह रूप है जिसमें किसी दूरस्थ व्यक्ति को सम्बोधित करके पत्र की भाँति कवि अपनी अनुभूतियों को प्रकट करता है। पत्र व्यक्ति विशेष को सम्बोधित रहता है।
‘सैनिक का पत्र’ मधु की पत्र-गीति है। उसमें एक सैनिक ने द्वितीय महायुद्ध के समय लीबिया की युद्ध भूमि से अपनी पत्नी को पत्र लिखा है। वर्ण्य विषय के रूप में सैनिक के उन अनुभवों का वर्णन किया गया है जो उसने द्वितीय विश्व-युद्ध के समय अंग्रेजों की ओर से युद्ध करते हुए प्राप्त किये हैं। इसी के साथ अपने परिवार, ग्राम और देश से विछुड़ कर सुदूर देश में स्मृतियों के बीच सैनिक की मार्मिक अनुभूतियों का भी चित्रण किया गया है।
पत्र के स्वरूप मंें निजी पत्र की स्वाभाविकता है और गीति-काव्योचित वैयक्तिकता तथा मार्मिकता है। सैनिक युद्ध-भूमि से यह पत्र लिख रहा है। पत्नी का पत्र पाकर क्षण भर के लिये वह युद्ध की भीषणता के बीच भी अपने व्यक्तिगत संसार में खो जाता है। युद्ध-भूमि पर नियुक्त सैनिक का जीवन आकस्मिकता का जीवन रहता है। ऐसे समय में उसे अपने प्रिय जन और अधिक याद आने लगते हैं। उनका पत्र उसे प्रत्यक्ष मिलन के समान सुख देने वाला प्रतीत होता है। पत्र की प्रारम्भिक पंक्तियों में पत्नी का पत्र प्राप्त करने पर सैनिक का हर्ष व्यक्त किया गया है-
हे प्रिये तुम्हारा पत्र मिला क्षण भर को अपनापन भूला।
दुश्मन के वायुयान भूले लिबिया का समरांगन भूला।।
युद्ध में वह अभी तक परिवार को भी भूला हुआ था, परन्तु अब उसे अपनी पत्नी और पुत्री से विदा होने के क्षण याद आ जाते हैं। युद्ध भूमि पर जाते हुए सैनिक के परिवार की मनोदशा अत्यन्त करुण होती है क्योंकि युद्ध में प्राणों की सुरक्षा अनिश्चित रहती है। ऐसे ही मार्मिक क्षण सैनिक की स्मृति में सजीव हो उठते हैं-
आ गई याद वह रात विदा जब मैंने तुमसे माँगी थी।
प्रत्युत्तर में तुम रो दी थीं जिसको सुन बिटिया जागी थी।।
तुमको जो यों रोते देखा कृष्णा भी रोई अनमन हो।
झरझर झर बहने लगे अश्रु मानो आँखों में सावन हो।।
छाती पर पत्थर रखे बन्द कर रुदन पौंछ चख जल धारा।
मेरे कहने से किसी तरह तुमने बिटिया को चुमकारा।।
इस तरह आह वह रात बिताई थी तुमने बस रो रो कर।
मैं ऊपर से था शांत हूक हिय में रह रह उठती थी पर।।
इसके पश्चात् सैनिक विस्तार के साथ भारत से चलने के बाद की सभी घटनाओं का वर्णन करता है। अपने प्रिय व्यक्ति को विस्तार के साथ अपने विषय में सब कुछ बता देने की लालसा स्वाभाविक है। फिर सैनिक को तो प्रत्यक्ष सम्भाषण का अवसर सुलभ है नहीं, इसलिये उसकी समस्त आतुरता पत्र में ही व्यक्त हुई है। इसीलिये सैनिक ने अपनी प्रिया को युद्ध की प्रत्येक घटना का वृत्तान्त भेजा है।
पत्र किसी को सम्बोधित रचना होती है। उसमें लेखक को सम्बोध्य के सतत प्रत्यक्ष होने का आभास बना रहता है। इसलिये बीच-बीच में सैनिक अपनी प्रिया को सम्बोधित करता रहता है। इससे वर्णन भी भावाक्षिप्त हुए हैं और पत्र गीति में वैयक्तिकता का प्रभाव-भी उत्पन्न हुआ है-
रण सामग्री सेना भरकर उद्धृत विशाल जलपोत चले।
मैं भी था इसमें प्राण प्रिये जाने मैंने निज भाग्य भले।।
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बिसरेगा पर न एक दुःख भीषण सारे जीवन बिसराये।
है प्रिये हमारे प्राणों से प्यारे वे घोड़े मन भाये।।
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केरन प्रदेश में प्राण प्रिये इस समय हो रहा निपटारा।।
पत्र में युद्ध की भीषणता का इतना विस्तृत वर्णन है कि इससे सैनिक की पत्नी का घबरा जाना स्वाभाविक है। अपने पति के प्राणों की चिन्ता उसे सन्तप्त कर देगी, इस अनुमान से सैनिक उसे सान्त्वना देना भी नहीं भूलता-
धीरज धर कर के दिन काटो पढ़कर के पत्र न अकुलाना।
बिटिया को कष्ट न हो कोई मम कथन ये न भूल जाना।।
सामान्य शिक्षित पत्र-लेखक पारम्परिक रूप से पत्र के अन्त में लिख देता है। ज्यादा क्या लिखूँ। थोड़ा लिखा बहुत समझना। यह उस मनः स्थिति का सूचक है कि लेखक सम्बोधित व्यक्ति को सब कुछ बता देना चाहता है। परन्तु सब कुछ कह देने पर भी उसे लगता है कि उसके हृदय की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हो सकी। पत्र जब प्रिया जैसे व्यक्ति को सम्बोधित हो तब तो भावनाओं का अन्त होता ही नहीं है। इसीलिये सैनिक को ‘क्या अधिक लिखूँ’ लिखना पड़ता है।
पत्र की समाप्ति में भी निजी पत्र के स्वरूप की स्वाभाविकता है। पत्रान्त में संबोधित व्यक्ति के प्रति शुभकामनाएँ तथा परिवार के अन्य लोगों के प्रति स्नेह और अभिवादन प्रकट किया जाता है। गाँवों में सामाजिकता और परस्परजीविता का भाव नगरों की अपेक्षा अधिक होता है। इसलिये पत्र के अन्त में पुरवासी जनों को अभिवादन व्यक्त किया गया है-
क्या अधिक लिखूँ सब ही प्रकार से सुखी रखे जगदीश तुम्हें।
पुरवासी जन को राम-रामकृष्णा को प्यार अशीष तुम्हें।।
वस्तु-वर्णन में द्वितीय विश्व-युद्ध के समय जर्मनी और इटली तथा इंग्लैण्ड की सेनाओं के बीच की लड़ाइयों की इतनी तथ्यपूर्ण घटनाओं के वर्णन से एक ओर तो सैनिक की मनोदशा प्रकट होती है, दूसरी ओर कवि का विशद तथ्य ज्ञान तथा राजनीतिक घटनाओं में उसकी रुचि प्रकट होती है। वस्तु-वर्णन की दृष्टि से पत्र के तथ्य द्वितीय विश्व युद्ध का ऐतिहासिक और भौगोलिक परिचय देते हैं।
बम्बई बन्दरगाह से जहाज में बैठकर सैनिक अन्य सैनिकों के साथ स्वेज नहर में आया जिसके एक ओर अरब भूमि और दूूसरी ओर अफ्रीका का किनारा दिखायी दे रहा था। भू मध्यसागर को पार करके जहाज जिब्राल्टर और इंग्लिश चैनल से होता हुआ इंग्लैण्ड के तट पर आ गया। भारतीय सैनिकों का स्वागत करने के लिये अंग्रेजों के साथ पौलेण्डवासी भी आये जो हिटलर के अत्याचार के शिकार हुए थे। इसी समय समाचार मिला कि हिटलर ने डेनमार्क को जीतकर नार्वे पर आक्रमण कर दिया है। भारतीय सैनिकों को नार्वे के मोर्चे पर भेज दिया गया। वहाँ अधिकांश स्थानों पर जर्मन फौजों का अधिकार था। अतः नार्विक बन्दरगाह पर कुछ समय तक रुक कर तथा हिटलर की सेना को कुछ हानि पहुँचाकर यह सेना वापिस हो गयी। नार्वे को जीतकर हिटलर की सेना हालैण्ड और बेलजियम पर उमड़ पड़़ी। पुनः लोगों के अधीन भारतीय सैनिकों को फ्रांस-बेलजियम सीमा पर मोर्चा बनाने का आदेश मिला। युद्ध चल ही रहा था कि बेलजियम का सम्राट लियोपोल्ड हिटलर से मिल गया। इस सहसा परिवर्तन से शत्रु को निर्बाध पथ मिल गया। विश्व विख्यात ‘फ्रेंच मेगनेट लाइन’ धूल में मिल गयी। हिटलर की सेना पेरिस तक बढ़ आयी। इस समय इटली भी जर्मनी से मिलकर युद्ध में कूद पड़ा। अंग्रेजी सेना जर्मनी और इटली की सेनाओं की चपेट में आ गयी। उसे डंकर्क हार्बर तक हटना पड़ा। वहाँ से वह इंग्लैण्ड लौट गयी।
विजित फ्रांस ने जर्मनी से संधि कर ली। इसके परिणाम स्वरूप जर्मनी को फ्रांस का आधा भाग मिल गया। फ्रांस को जीतकर जर्मनी ने इंग्लैण्ड पर वायुयानों से आक्रमण कर दिया। इंग्लैण्ड की विषम स्थिति को देखकर इटली की अफ्रीकी फौजों ने ब्रिटिश सोमालीलैण्ड पर अधिकार कर लिया। मुसोलिनी का आदेश पाकर लीबिया से जनरल ग्रिजयानी मिश्र की तरह बढ़ता आया और उसने सिद्दी बैरानी पर भी अधिकार कर लिया। भारतीय सैनिकों को इटली से लड़ने मिश्र भेज दिया गया। उन्होंने कुछ ही घण्टों में सिद्दी बैरानी वापिस ले लिया और आगे बढ़कर बार्डिया को घेर लिया। उसे भी जीतकर उन्होंने बैगाजी डेर्बा बन्दरगाह पर भी छापा मारा। ‘केरन’ प्रदेश के युद्ध की घटनाओं का वर्णन पत्र में लिया गया है।
यह वर्णन इस प्रकार किया गया है जैसे कोई व्यक्ति किसी को कोई रोचक वृत्तान्त सुना रहा हो। उसमें वृत्तान्त कथन भी है और इन घटनाओं की भीषणता में प्रिया से वियुक्त सैनिक के हृदय का विषाद भी है। सैनिक के प्रेम की करुणा, मधुरता और सिक्तता तथा युद्ध क्षेत्र में उसकी अनुभूतियों की मार्मिकता से यह पत्र-गीति अत्यन्त सजीव है। जलयान में चढ़ते समय सैनिक को अपने परिवार और देश से बिछुड़ने की भीषण व्यथा होती है-
पहले कृष्णा की सुधि आई उफ जिसको सोते छोड़ा था।
फिर देखी एक क्षीण छाया सी जिसको रोते छोड़ा था।।
आ गया दृगों के सम्मुख अपना टूटा फूटा छोटा घर।
क्षण भर में ग्राम सामने था फिर ग्राम निवासी नारी नर।।
फिर अपने खेत याद आये खेती से हरे-भरे प्यारे।
छवि भरे सामने पेड़ और पौधे देखे न्यारे न्यारे।।
अन्तर में उमड़ी व्यथा जिसे कहने की शक्ति न वाणी में।
दो आँखों से दो बूँदें झरकर मिलीं सिन्धु के पानी में।।
युद्ध-भूमि में भारतीय सैनिक के आस्तिक संस्कार प्रबल हो जाते हैं। पत्र के बीच में अनेक बार ईश्वर का स्मरण किया गया है-
लख विषम परिस्थिति हम सबने छोड़ी निज जीवन की आशा।
फिर लगे मनाने मन ही मन प्रभु से यों अन्तिम अभिलाषा।।
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बह दीनबन्धु वह दया सिन्धु हम तुमको पुनः मिलायेगा।।
वस्तु-वर्णन को चित्रण के द्वारा सजीवता प्राप्त हुई है। जलयान के चलने के चित्रण में ध्वनि-बिम्ब का आधार लिया गया है-
इतने में घें घें बजी बिगुल जलयान चला डगमग होकर।
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फिर जल जहाज झकझक कर चलता महा सिन्धु की छाती पर।
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चौबीसों घण्टे सिर पर घर्घर वायुयान लहराते हैं।
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फौलाादी टैंक बढ़े जाते हैं धरती पर घड़ घड़ करते।
सारांशतः इस पत्र गीति में भावों की कोमल व्यंजना, वस्तु का औत्सुक्यपूर्ण चित्रात्मक वर्णन और पत्र का स्वाभाविक स्वरूपांकन हुआ है। सम्पूर्ण पत्र प्रदीर्घ होते हुए भी प्रवाहपूर्ण तथा भाव की दृष्टि से एक इकाई प्रतीत होता है।
मधु सूक्ति संग्रह
‘मधु सूक्ति संग्रह’ के अन्तर्गत व्यंग्य और हास्यपरक 70 दोहे संकलित हैं। ये दोहे नवम्बर 1944 में लिखे गये। कवि ने पहले इसका नामकरण ‘रस भरे दोहे’ और ‘रसीले दोहे’ किया था। बाद में विभिन्न विषयों पर भावपूर्ण सूक्तियों का समावेश करके कवि ने इसे ‘मधु सूक्ति संग्रह’ नाम दिया। इस प्रकार जैसा नाम से स्पष्ट है इस कृति में सूक्तियों के रूप में ही विभिन्न भावों की अभिव्यक्ति हुई है। अधिकतर दोहों में तत्कालीन घटनाओं, राजनीति, पश्चिमी सभ्यता तथा जीवन की विसंगतियों पर हास्य-व्यंग्य का विधान हुआ है। कुछ दोहों का विषय श्रृंगार है और कुछ दोहों में सामाजिक कुरीतियों से उत्पन्न पीड़ा पर करुणा की अभिव्यक्ति है।
‘मधु’ के व्यंग्य में तीव्र आक्रोश अथवा मतवाद का दुराग्रह नहीं है। इसलिये उसमें प्रहारात्मकता और परपीड़़न न होकर विसंगतियों और विरूपताओं पर निश्छल व्यंग्य और हास्य ही प्रधान लक्ष्य है। इन दोहों में मूर्ति-भंजन का आवेश नहीं है। कवि के व्यंग्य में सर्वत्र शालीनता और संयम है क्योंकि वे किसी व्यवस्था अथवा व्यक्ति की उपहसनीय विरूपता पर ली गयी चुटकियाँ हैं।
बीमा-योजना की जीवन-सुरक्षा भावना को भूलकर लोगों ने उसे मानवीयता और निजी सम्बन्धों के मूल्य पर किस तरह धन-प्राप्ति का साधन समझ लिया है इस आशय की अनेक घटनाएँ घटित हुई हैं। पति के रुग्ण होने पर पत्नी को बार-बार यही दुःख सता रहा है कि वह बिना बीमा कराये ही बीमार हो गये। ‘बीमा’ शब्द में ही क्रीड़ा करते हुए बीमा के इस पक्ष पर व्यंग्य किया गया है। ‘बी’ का तात्पर्य है बीबी का तुरंत बीमा करा देना और मा का अर्थ है उसे तुरन्त मारकर महानिधि प्राप्त कर लेना-
बी तें बीबी को तुरत बीमा करवा देहु।
मा तें तुरतई मार कें महानिधी लै लेहु।।
कहीं स्थानीय प्रसंगों को भी व्यंग्य का लक्ष्य बनाया गया है। उस समय नगर पालिकाओं के चुनाव हुआ करते थे। उसमें किसी व्यक्ति के चुनाव हार जाने पर ‘मधु’ ने श्लेषाश्रित व्यंग्य रचना की है। मेम्बर बनने का उपाय चुनाव में सफल होने के अतिरिक्त एक और भी है-
हारे पिया चुनाव जो, तो जनि करौ विलाप।
मोहें मैंम बनाय कें, बनो मैम वर आप।।
बिहारी के दोहों का कुछ अंश लेकर उनके मूल भाव को सामयिक सन्दर्भ से जोड़ा गया है। अंग्रेजों के शासन में साहब और मैम की वरदायिनी कृपा बहुत फलवती थी-
मेरी भव बाधा हरौ साहब मैम सु दोय।
जा तन झाईं ते अपढ़ नर चपरासी होय।।
पाश्चात्य सभ्यता को अपना कर भारतीयता छोड़ते जाने वाले लोगों पर उस समय प्रायः व्यंग्यात्मक कविताएँ लिखी जाती थीं। ज्ञान-प्राप्ति से मनुष्य के त्रिताप उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार अंग्रेजी पढ़ने से चोटी, दाड़ी और मूँछ साफ हो जाती है।
यून सूक्तियों में कवि ने प्रायः ऐसी स्थितियों का उपयोग किया है जिनमें व्यंग्य की अम्लता से अधिक हास्य की मधुरता है-
इन इन नायन कों दई आँख आँख बरकाय।
उत नाऊ को उस्तरा परो नाक पै आय।।
अब यह पाठकों के विचार की बात है कि उस्तरे से नाक कट जाना विचलन मात्र है अथवा नाई ने बदला लिया है।
तत्कालीन राजनीतिक घटनाओं पर व्यंग्य करते हुए कवि ने अपनी राजनीतिक सुविज्ञता का परिचय दिया है। ऐसे दोहों में श्रेष्ठ भाव निरूपण नहीं है परन्तु तथ्यों का कलात्मक प्रस्तुतीकरण है। गाँधी और जिन्ना के बार-बार मिलने और बातचीत में किसी परस्पर मान्य बिन्दु तक न पहुँचने पर ‘मधु’ ने लिखा है कि गांधी और जिन्ना का मिलन पतंगों के मिलने के समान है। इसलिये अन्त में उनकी डोर कटना निश्चित है। गांधी और जिन्ना की बातचीत निष्कर्षहीन होकर समाप्त हो जाती थी। इस मिलने को कवि ने दीपक और पतंग का खेल कहा है। स्वातंत्र्य-आन्दोलन के समय अनेक लोगों ने बकालत का समृद्ध व्यवसाय छोड़कर देश-सेवा का व्रत लिया था, परन्तु कुछ ऐसे लोग भी हो सकते हैं जिनका व्यवसाय नहीं चलता था, इसलिये वे नेता हो गये-
भगे मुवक्किल तो लगे खुद ही भरने जेल।
फैल प्लीडरी जो हुई रचे लीडरी खेल।।
‘मधुसूक्ति संग्रह’ में हास्य-व्यंग्य के अतिरिक्त जीवन की गम्भीर और मार्मिक अनुभूतियाँ भी हैं। सूक्ति रूप में अभिव्यक्त इन अनुभूतियों में करुणा है, माधुर्य है, परमार्थिक चिन्तन है और अनुभव-जन्य निष्कर्ष है। ऐसी सूक्तियों की विशेषता उनकी व्यंजना शक्ति है-
कितौ सुगम परलोक पथ जितै दिवस अरु रात।
बाल युवा बूढ़े सबै आँख मींच के जात।।
मृत्यु की अनिवार्यता और निरन्तरता के भाव को अनूठेपन के साथ व्यक्त किया गया है। परलोक-पथ के प्रति साधारणरतया भय और आशंका का भाव रहता है, परन्तु यहाँ उसे अत्यन्त सुगम कहा गया है, क्योंकि वहाँ चाहे दिन का प्रकाश हो अथवा रात का अंधेरा, बच्चे, युवा और बूढ़े आँख बन्द कर अभ्यस्त रूप से चले जाते हैं। ऐसे पथ को दुर्गम कैसे कहा जा सकता है? दाह-संस्कार के समय मृत व्यक्ति को नये और स्वच्छ वस्त्र से ढंका जाता है। कवि ने इसी सामान्यता से भावसृष्टि की है कि क्या परलोक में कोई विशेष पर्व मनाया जा रहा है जो लोग वहाँ इस प्रकार नवीन और स्वच्छ वस्त्र पहन कर जाते हैं। परलोक के समानार्थी उर्दू शब्द ‘मुल्के अदम’ में ‘अदम’ शब्द का शिलष्टार्थ देकर कहा गया है कि उस देश का यह उर्दू नाम बहुत उपयुक्त है, क्योंकि वहाँ जाने में दम की तनिक भी आवश्यकता नहीं पड़ती, बल्कि दम न रह जाने पर ही वहाँ जाया जा सकता है।
सूक्ति में यदि नीरस नीति-कथन अपना किसी जीवनानुभव का स्थूल सामान्यीकरण हो तो उसमें नीति-काव्य का महत्त्व तो हो सकता है परन्तु भावात्मकता के बिना उसे काव्यत्व प्राप्त नहीं हो पाता। ‘मधु’ की सूक्तियों में भावपूर्णता और कलात्मकता दोनों हैं। रीति युग के सिद्ध कवि बिहारी दोहे जैसे छोटे छन्द में बड़े-बड़े भाव भर देने के लिये विख्यात हैं। ऐसा करते समय किसी भी कवि के सामने यह कठिनाई होती है कि थोड़े से शब्दों में अधिक से अधिक कह देने के लोभ में संक्षेपीकरण इतना अधिक न हो जाये कि भावाभिव्यक्ति में स्पष्टता और जटिलता आ जाये। ‘मधु’ के दोहों में भी समाहार-शक्ति की विशेषता है। उनमें गम्भीर भाव भी अत्यन्त सरलता और स्पष्टता से व्यक्त हुए हैं-
बरत विवस ह्वै वृद्ध कों बाला करत विचार।
देखें कै दिन कर चुरीं कर राखत करतार।।
वृद्ध के साथ विवाह करने के लिये विवश किसी तरुणी की अभिशप्त नियति की यह अत्यन्त करुण व्यंजना है। भारतीय पत्नी के आदर्श का एक पूर्ण चित्र दृष्टव्य है-
ऐसी काँच चुरी हमें पहिरा औ मनिहार।
जिन्हें उतारें चिता में आँच देत भरतार।।
काँच की चूड़ियाँ स्त्री के सौभाग्य का प्रतीक हैं। स्त्री का सौभाग्य पति है। भारतीय संस्कारों के अनुसार स्त्री की मृत्यु के बाद दाह संस्कार से पहले पति उसके हाथों की चूड़ियों उतार देता है जिसका तात्पर्य यह है कि पति का प्रतीक स्त्री के साथ नहीं जलाया जा सकता। कोई स्त्री इसीलिये ऐसी चूड़ियाँ पहिनना चाहती है जो उसके जीवन-काल में कभी न टूटें अर्थात् वह विधवा न हो। पति ही उन्हें उतारे।
कुछ दोहों में आध्यात्मिकता का भाव भी वर्णित है। इनमें भगवान की कृपाशीलता और उनके स्मरण की आवश्यकता का वर्णन है। परमात्मा में दृढ़ आस्था हो तो जीवन का उद्धार निश्चित है क्योंकि मनुष्य के पाप-बिन्दु तो थोड़े से ही हैं और परमात्मा दया का सागर है। श्वेत केश यह सूचना देते हैं जीवन की रात बीत गयी है और प्रभात आ गया है। प्रभातकाल में ईश्वर की वन्दना की जाती है। उसी प्रकार मनुष्य को भी अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में तो भगवान का भजन कर ही लेना चाहिए।
सैर काव्य
सैर काव्य के अन्तर्गत ‘मधु’ ने सैकड़ों सैरों की रचना की है। इस अंचल में उस समय झाँसी के नाथूराम ‘माहौर’ मऊरानीपुर के घनश्यामदास पाण्डेय और छतरपुर के गंगाधर व्यास के प्रसिद्ध सैर मण्डल थे। तुलसी जयन्ती, शरद तथा जलबिहार जैसे अवसरों पर इन दलों के सम्मेलन हुआ करते थे। इन प्रतियोगिताओं में विभिन्न विषयों पर सैरें गायी जाती थीं। काव्य का यह अंग भी उससे प्रभावित हुआ। इस फड़-साहित्य की सुदीर्घ परम्परा रही है। इन प्रतियोगिताओं में कुछ विषय तो पूर्व निर्धारित होते थे और कुछ सामान्य तथा साहित्यिक विषयों पर स्वतंत्र रूप से सैरें लिखी जाती थीं। ‘मधु’ की सैरों के मुख्य विषय हैं-वर्षा, शरद और होली की राष्ट्रीयता परक व्याख्या, गांधी, नेहरू, सुभाष, सरदार पटैल, भगतसिंह आदि स्वातन्त्र्य और क्रान्तिवीरों की प्रशस्तियाँ, जलियावाला बाग, गुरू गोविन्द सिंह आदि के प्रसंग, नायिका भेद, होली पर श्रृंगारिक रचनाएँ, राष्ट्रभाषा हिन्दी, भारत की नारियाँ, फूल की कामना, किसानों की करुण दशा आदि।
सैर काव्य का गायन विभिन्न गायक दलों के बीच प्रतियोगिता के रूप में होता था। प्रत्येक दल के अपने कवि होते थे जो पहले से ही विभिन्न विषयों पर सैरें लिखे रहते थे। कभी-कभी प्रतियोगिता में उत्तर देने के लिए तत्काल सैरों की रचना की जाती थी। एक दल एक बार में चार सैरें गाता था। फिर दूसरा दल उसका उत्तर चार सैरे गाकर देता था। पूरी रात और मध्यान्ह पूर्व तक चलने वाले ये दंगल बड़े रोचक होते थे। बाद्य के रूप में खंजड़ी से काफी बड़े आकार का तालवाद्य होता था जिसे दायरा या चंग कहते थे।
राष्ट्रीय चेतना
‘मधु’ के अन्य काव्य की तरह सैर-काव्य का प्रमुख स्वर भी राष्ट्रीय चेतना है। यह राष्ट्रीय भावना विभिन्न रूपों में व्यक्त हुई है। उसमें स्वतन्त्रता के लिए जन-मन को उद््बोधन दिया गया है, सत्य-अहिंसा, स्वदेशी स्वीकार, चरखा आदि के महत्त्व और उनकी शक्ति का निरूपण किया गया है, विदेशी शासन में व्याप्त शोषण पर करुणा और आक्रोश प्रकट किया गया है, स्वातंत्र्य-आन्दोलन की प्रमुख घटनाओं का वर्णन हुआ और प्रमुख नेताओं तथा क्रान्तिवीरों का श्रद्धायुक्त स्मरण किया गया है। इससे एक ओर कवि का तत्कालीन राजनीतिक वातावरण का सम्यूक् ज्ञान प्रमाणित होता है दूसरी ओर उनकी राष्ट्रीय भावना का भी परिचय मिलता है।
स्वदेश-प्रेम की भावना मातृभूमि की वन्दना के रूप में व्यक्त हुई है। मातृभूमि माता के समान अपने पुत्रों का पोषण करती है। जिस मातृभूमि के जल और वायु से हमने जीवन का संवर्द्धन पाया उसकी ममता और उपकार भावना का स्मरण करके मातृभूमि को प्रणाम अर्पित किया गया है। आस्तिक संस्कारों वाले कवि-मानस में मातृभूमि की प्रतिष्ठा जगदम्बा के समान है। कवि ने मातृभूमि का चित्रण दुर्गा के ही रूप में किया है।
धौवत है पाँय सिन्धु खोल दृग निहारिये।
गल गंगधार पै विमुक्त हार वारिये।।
सिर के मुकुट हिमंचल पै हेम हारिये।
भगवती भारती की आरती उतारिये।।
मातृभूमि को दुर्गा के समान दिखाया गया है तो स्वदेश को शंकर के समान कहा गया है-
द्युति धौत धरें हिमगिरि हिम नव निशेष कों।
कुल कुन्द इन्दु वर्ण विशद वलित वेश कों।।
हिय थली जिनकी भाई मोहन रमेश कों।
प्रथमहिं प्रणाम करिये शंकर स्वदेश कों।।
राष्ट्र के प्रति बलिदान भाव तभी जाग्रत होता है जब हृदय में अदम्य राष्ट्र-प्रेम समाहित हो-
दीपक स्वदेश उसके परवाने हम हैं।
राष्ट्र-प्रेम के निर्वचन में कवि के आध्यात्मिक संस्कार भी संयुक्त हैं। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिये पौरुष और लौकिक प्रयत्नों की आवश्यकता के साथ ही अपौरुषेय शक्ति की भी अभियाचना की गई है-
अवतार लेहु अब तो जगदम्ब भवानी।
अंग्रेजों ने स्वातंत्र्य-चेतना के दमन-स्वरूप भारतीयों पर बर्बर अत्याचार किये। जलियाँबाला बाग और बारदोली के नर-संहार के द्वारा अंग्रेजों ने स्वतंत्रता-आन्दोलन को कुचलने का निष्फल प्रयास किया। कवि ने जलियाँबाला बाग और बारदोली में वीरों के उत्सर्ग का कीर्तिगान किया है।
कवि ने स्वतन्त्रता-प्राप्ति के लिये शान्ति और क्रान्ति दोनों मार्गों के महत्त्व को स्वीकार किया है। शान्तिपूर्ण आन्दोलन के रूप में मालवीय, गांधी, जवाहर आदि नेताओं का यश गान किया गया है तथा सत्याग्रह, स्वदेशीव्रत और चरखा आदि का उल्लेख हुआ है। सत्याग्रह में गांधी और जवाहरलाल नेहरू का अविस्मरणीय नेतृत्व और सहयोग रहा है। इन दोनों युग-पुरुषों की वन्दना में कवि ने अनेक सैरें लिखी हैं-
जीता है कौम खातिर लेता सवाब है।
ला रहा मुल्क भारत में इन्कलाब है।।
भूले हुओं का रहबर क्या लाजबाब है।
हिन्दोस्ताँ चमन का गांधी गुलाब है।।
गांधीजी की लोकातीत शक्ति और सारे देश पर उनके प्रभाव के कारण उनके प्रति लोगों में देवोपम श्रद्धा जाग्रत हो गयी। कवि ने भी गांधी को स्वतंत्रता-संग्राम का उसी प्रकार संचालन माना है जैसे भगवान कृष्ण महाभारत के नेता थे-
शुचि सत्य नीति सेता गांधी महारथी।
नहिं अस्त्र हाथ लेता गांधी महारथी।।
उपदेश ज्ञान देता गांधी महारथी।
भारत समर का नेता गांधी महारथी।।
गांधीजी को ब्रह्म के समान स्वतंत्रता की भावना पैदा करने वाला, विष्णु की तरह उसका रक्षण और पालन करने वाला और शंकर के समान परतंत्रता का संहार करने वाला कहकर उन्हें त्रिदेव के अवतार के रूप में श्रद्धा व्यक्त की गयी है। महान शक्ति के सम्पर्क में आयी हुई वस्तुओं का भी महत्त्व हो जाता है। गांधी की लंगोटी अपरिग्रह और त्याग का तथा गांधी टोपी राष्ट्रीयता का प्रतीक बन गयी-
दुख अम्बुधि में है जहाज गांधी टोपी।
लावेगी हिन्द में स्वराज गांधी टोपी।।
सुख शांति के सजेगी साज गांधी टोपी।
भारत स्वतंत्रता की ताज गांधी टोपी।।
जवाहरलाल नेहरू के तप और त्याग के प्रति भी कवि के हृदय में अमित श्रद्धा है। जवाहरलाल भारत के उपवन का फूल है। वह भारत वसंुधरा का सिरताज है। यह बरतानिया रूपी बिल्ली के लिए नाहर के समान है-
वैरी के सिर सवार बना शूल जवाहर।
जन जन के हिये देखो रहा झूल जवाहर।।
सुन्दर स्वतंत्रता तरु का मूल जवाहर।
है भारत के उपवन का फूल जवाहर।।
स्वतंत्रता-संग्राम में सशस्त्र क्रान्ति का भी ऐतिहासिक योगदान रहा है। जहाँ उससे विदेशी शासन आक्रान्त हुआ वहीं इन वीरों के बलिदान ने राष्ट्र में स्वतन्त्रता के लिए आत्मोत्सर्ग की व्यापक भावना भी उत्पन्न की। ‘मधु’ के काव्य में पौरुष और ओज का स्वर विशेष रूप से मुखरित है। भगत सिंह और सुभाषचन्द्र बोस तथा मध्ययुग के स्वातंत्र्य-वीरों में छत्रसाल, गुरू गोविन्दसिंह और दुर्गावती की वीरता का कवि ने विशेष रूप से अभिनन्दन किया है।
सरदार भगत सिंह के बलिदान पर कवि ने अनेक सेरें लिखी हैं। इनमें प्रायः उर्दू-फारसी के शब्दों का प्रयोग हुआ है-
टेढ़ी हुई निगाहें भौहों में बल पड़े।
चश्मों से लाल खून के चश्मे उछल पड़े।।
लरजी जमीन आसमाँ दुश्मन दहल पड़े।
सरदार जी सरदार पै देने मचल पड़े।
भगत सिंह का बलिदान व्यर्थ नहीं गया, उसने भारतवासियों के मन में और अधिक उत्साह पैदा किया-
नजरों में रखा अब लौ अब दिल में रखेंगे।
अभूतपूर्व क्रान्तिवीर और अद्वितीय संगठन-कर्ता सुभाषचन्द्र बोस के प्रति भी कवि के मन में असीम आभास है।
स्वतन्त्रता-संग्राम में जूझते भारत को प्रेरणा देने के लिए अतीत के वीरों के शौर्य का भी वर्णन किया गयाहै। प्रताप, छत्रसाल और गुरू गोविन्दसिंह ऐसे ही वीर हुए हैं जो आजीवन मुगलों से संघर्ष करते रहे-
हो गये अति अधीर जान जान कें अखीर।
जब चीर चले अरिदल गोविन्द गुरू के तीर।।
स्वतंत्रता-संग्राम के साथ कवि की मानसिक संलग्नता और क्रान्ति भावना के प्रति उसकी भावात्मक सहमति इस सैर में व्यक्त हुई है-
है गात नायिकाओं का बहुत सजाया।
अब देश समर हेतु जाय बिगुल बजाया।।
झूले पै झूल झूल बहुत वक्त गमाया।
अब आओ सर फाँसी मैं जाय झुलाया।।
राष्ट्र-प्रेम की भावना कवि के सैर-काव्य में इतनी प्रमुख है कि होली, जलविहार, शरद, रामनवमी आदि पर्वों के वर्णन में भी उसी का आसंग है। कवि होली के अवसर पर शंकर के तीसरे नेत्र की ज्वाला जगाना चाहता है जिसमें परतंत्र भारत के सारे क्लेश भस्म हो जायें-
दुष्टों का देश भर में बिछा जाला होली।
गैसों का वतन में है बोलवाला होली।।
किस तौर लिखें मुल्क का कसाला होली।
जल शंकर की तृतीय नेत्र ज्वाला होली।।
कवि अपनी लेखिनी की पिचकारी से देशभक्ति और प्रसन्नता का रंग बरसाना चाहता है-
रंग लाल देश भक्तन के अंग गिरा री।
कृषकन कों हरौ कर दै दिखा कृषि हरया री।।
मुख मेल विपक्षिन के मसि कारी कारी।
पिचकारी बन जा री ओ कलम हमारी।।
राजनीतिक दासता में किसी देश की आर्थिक और सामाजिक सम्पन्नता का भी पराभव हो जाता है। अंग्रेजों ने औपनिवेशिक क्रम में सोने की चिड़िया कहलाने वाले भारत का बहुत शोषण किया। दासता की भावना ने सामाजिक जीवन के उल्लास को भी आच्छादित कर लिया। कवि ने सैरों में आर्थिक और सामाजिक दुरवस्था का भी करुणापूर्ण चित्रण किया है। ‘जितनी करुण कहानी है कृश किसान की’, ‘पानी नहीं है आग’ किसानों के आँसू छीने न कोई भगवान किसानों की रोटियाँ आदि सैरों में किसानों की दयनीय दशा पर करुणा है और उसके लिये उत्तरदायी व्यवस्था के प्रति रोष है। किसानों के जीवन में पीड़ा की आग लगी हुई है। वे इसी आग की फाग खेलते हैं-
विधि ने लिखी है आग भाग में अभाग की।
पेटों की आग ने है देह दाग दाग की।।
किस आग की चर्चा करें दिल की दिमाग की।
दुखिया किसान खेलते हैं फाग आग की।।
राष्ट्रीय भावना के अतिरिक्त सैर-सम्मेलनों में अभिजात काव्य के विषय की प्रतियोगिता के आधार होते थे। इनमें नायिकाओं का वर्णन, बसन्त, होली, वर्षा, शरद आदि का स्वतंत्र और उद्दीपन रूप में चित्रण तथा अन्य श्रृंगारिक विषय समाविष्ट रहते थे। वट-पूजन के समय कोई बाला किसी राही के प्रति प्रेम-निवेदन करती है। इस पर वह उसे अपने पति के प्रति अनुराग की शिक्षा देता है अथवा वट वृक्ष स्वयं उस बाला को उपदेश दे रहा है-
धरमाधरम को ध्यान तोय तनकऊ नैयाँ।
करके कुकाम चाहत मन काम कढ़ैयाँ।।
आवत न लाज लेतन में मेरी वलैयाँ।
वर से विश्वासघात न कर वर की छैयाँ।।
नायिका वर्णन में कभी दूसरे दलों के लिये समस्या प्रस्तुत की जाती थी जिसका उत्तर उस दल को कुछ ही समय में अपना क्रम आने पर देना पड़ता था। ऐसा ही एक प्रश्न मधु ने प्रस्तुत किया है-
है गेह नहीं नेह नीके जीवन आधार।
बाढ्यौ वियोग अम्बुधि लख शरद शशि प्रसार।।
पूरण पतिव्रता है जानत है धर्मसार।
कहु कौन हेत नारि सजे सोलह श्रृंगार।।
पूर्ण पतिव्रता होते हुए भी नायिका ने वियोगावस्था में सोलह श्रृंगार किये हैं। अब दूसरा दल कल्पना और कवि-सिद्धि से इसका उत्तर देगा।
एक दल की ओर से प्रश्न रखा गया कि नायिका वसन्त ऋतु में गुलाब क्यों सींचती है? ‘मधु’ ने कवि सिद्धि के आधार पर बहुत ही भावपूर्ण समाधान किया-
प्रश्न करयो तुम देत हम ताकौ तुम्हें जवाब।
जौन हेत मधुमास में सींचत सुतरु गुलाब।।
कवि-सिद्धि के अनुसार वसन्त ऋतु में गुलाब को सींचने से उसमें पुष्प नहीं खिलते। रतिप्रिया नायिका को आशंका है कि गुलाब के फूलों की चटकन की ध्वनि सुनकर नायक प्रभातागम समझकर नायिका के पास से चला जायेगा। इसलिये वह वसन्त ऋतु में गुलाब को सींचकर उसमें फूल नहीं खिलने देना चाहती। न चटकन की ध्वनि होगी न प्रिय को प्रभात का आभास होगा। इसी सैर में आगे यह भी कह दिया गया-
बतला दिया है भेद दूर कर दी अड़चन।
कहिये अगर है और कोई बाकी उलझन।।
भाते नहीं नरोत्तम को छन्द पुरातन।
मधुमास में गुलाब सींचने का कारण।।
सैर विधा मुक्तक काव्य के अन्तर्गत आती है। एक सैर में एक ही भाव का पूर्वापर-निरपेक्ष वर्णन किया जाता है। परन्तु ‘मधु’ ने ‘शुकदूत’ और ‘जटायु-निधन’ शीर्षक से जो सैरें लिखीं हैं उनमें प्रबन्धत्व का अभिनिवेश है। ‘शुकदूत’ में बारह और ‘जटायु-निधन’ में छैः सैरें हैं। ‘शुकदूत’ में राधा कृष्ण के पास शुक के द्वारा सन्देश प्रेषित करती है। अपने पढ़ाये हुए गीति को पहचान कर और यह अनुभव करके कि वह राधा का सन्देश लेकर आया है कृष्ण विभोर होकर उसे हृदय से लगा लेते हैं। कुब्जा को तोते की असाधारणता पर विश्वास नहीं होता। तब कृष्ण के आग्रह पर वह राधा का सन्देश और ब्रज का हाल सुनाता है। कृष्ण उसे सोने की कटोरी में खीर खिलाते हैं। वह कृष्ण का पत्र लेकर राधा के पास लौट आता है।
इस प्रसंग में विरह के अन्तर्गत सन्देश-प्रेषण की परम्परा का निर्वाह किया गया है। सन्देश के माध्यम से विरहिणी की व्यथा का जो मार्मिक चित्रण हुआ है उसमें अनुभूति की तीव्रता और सहजता है। राधा की व्यथा प्रोषित प्रतिका की ही व्यथा नहीं है। कुब्जा के प्रति कृष्ण की द्रवणशीलता भी उसकी व्यथा को उद्दीप्त करती है। परन्तु राधा अनन्य प्रेमिका है। उसे प्रिय का सुख अधिक काम्य है। वह शुक को सन्देश देती है-
जब मिलें तुम्हें हरि करुणागारे सुअना।
पूछियो उनतें हमें क्यों बिसारे सुअना।।
कहियो कि जियें कब लौं मन मारे सुअना।
सोने तें मड़ों चौंच पग तिहारे सुअना।।
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कुब्जा संे कहियो हरि हैं सुकमारे सुअना।
उनको न कष्ट होय काहु क्यारे सुअना।।
कुब्जा के विश्वास के लिये कृष्ण तोते से मानव-भाषा में बोलने का आग्रह करते हैं। तब वह ब्रज की दशा का वर्णन करता है।
हरि तुम बिन सब ब्रज बिहाल बोल्यो सुअना।
रो रो यशोदा काटें काल बोल्यो सुअना।।
नँद रटत रहत लाल लाल बोल्यो सुअना।
राधा कौ कहा कहें हाल बोल्यो सुअना।।
राधा की विरह-व्यथा शब्दातीत है। उसकी अभिव्यक्ति अनूठे ढंग से की गयी है। कृष्ण तोते के लिये सोने की कटोरी में खीर प्रस्तुत करते हैं, परन्तु कई दिनों से भूखे होने पर भी वह उसे नहीं खाता है। इस प्रकार वह राधा की दशा व्यक्त कर देता है। अन्त में कृष्ण की शपथ पर वह खाने को तैयार होता है। कवि ने राधा के हृदय की व्यंजना तोते की चेष्टाओं द्वारा की है, क्योंकि शब्द तो उसकी अभिव्यक्ति में अक्षम है-
कहूँ कुब्जा की और दृग गड़ावै सुअना।
निज नयन हरि की ओर कहुँ उठावै सुअना।।
पी शीतल शुचि सलिल नहिं अधावै सुअना।
कंचन की कटोरी में खीर खावै सुअना।।
कुब्जा की और ‘दृग गड़ाने’ और कभी कृष्ण की ओर आँखें उठाने में पक्षियों के दाना चुगने के भाव का बहुत ही स्वाभाविक चित्रण है। पक्षी खाने के बीच-बीच में सशंक भाव से इधर-उधर देखता जाता है। तोता कुब्जा के प्रति संशंकित है और कृष्ण के प्रति आश्वस्त है। कुब्जा की ओर दृष्टि गड़ाने में तोते का क्षोभ भी व्यक्त होता है। अपनी दृष्टि से वह कुब्जा को यह बोध कराता है कि राधा की व्यथा का कारण वही है। कृष्ण की ओर देखते हुये उसकी आँखों में प्रेम, करुणा और याचना का भाव है।
कभी वह रूठकर खीर खाना बन्द कर देता है-
चुप साधि कबहुँ रूठ बैठ जावै सुअना।
हरि जब मनायँ भोजन तब पावै सुअना।।
शुक की यह चेष्टा भी राधा की ही भावाभिव्यक्ति है। संयोग काल के राधा के मान को वहाँ मूर्त किया गया है।
कृष्ण का पत्र लेकर शुक लौट आता है। धरती के निकट आकर वह पुनः उड़ जाता है। इस प्रकार से राधा की अधीरता को व्यक्त किया गया है-
भू तलक आय ऊँचे उड़ जावत सुअना।
राधिका स्वामिनी को तरसावत सुअना।।
प्रिय का पत्र पाकर राधा शुक के युग युग तक जीवित रहने की कामना करती है।
‘जटायु-निधन’ में सीता की रक्षार्थ रावण से जटायु के युद्ध का वर्णन है। राम, लक्ष्मण और सीता का वन-आगमन ज्ञात करके जटायु उनके दर्शनों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उसी समय उन्हें आकाश-मार्ग से क्रन्दन सुनायी देता है। रावण सीता को अपहृत करके लिये जा रहा है। जटायु अपनी शक्ति भर रावण से लडते हैं और सीता के प्रति अपनी भक्ति-भावना निवेदित करते हैं-
हे जनिनि जिय न शंक करौ कहत जटायू।
हौं जौ लौ तौ लौ न डरौ कहत जटायू।।
जन जान अपनी कृपा ढरौ कहत जटायू।
माता न डरौ धीर धरौ कहत जटायू।।
काव्यतत्त्व
सैर में प्रायः एक दोहा और बिहारी छन्द के 16 चरण होते हैं। कभी कभी एक दोहा, एक सोरठा, एक छन्द तथा बिहारी छन्द के 16 चरण भी रखे जाते हैं। सैर के सभी चरणों में अंत्यानुप्रास की योजना की जाती है। सोलह बार एक ही अंत्यानुप्रास योजना से आयासपूर्णता, शिथिलता और भावहीनता की संभावना प्रबल हो जाती है। इसका निरसन भावुक कवि अपनी कल्पनाशीलता तथा भाषा पर असाधारण अधिकार के द्वारा ही कर सकता है। ‘मधु’ की कल्पना-शक्ति और शब्द-सम्पदा दोनों ही विशिष्ट हैं। इसलिए उनकी सैरों में भावपूर्णता है। सैर काव्य का प्रयोग मुख्य रूप से प्रतियोगितात्मक गोष्ठियों में हुआ है। उसके लिए कभी तो विषय पूर्व निर्धारित हुआ करते थे और कभी एक दल के द्वारा प्रस्तुत किसी भी विषय की सैरों के उत्तर में दूसरे दल को उसी विषय के सम्बन्ध में ही सैरैं गानी पड़ती थीं। ऐसी स्थिति में श्रेष्ठता के लिए कल्पना और उक्ति-कौशल का आश्रय लिया जाता था। यह स्वतः सिद्ध है कि ‘मधु’ ने अपनी काव्य-प्रतिमा का परिचय सैरों जैसे लोकार्पित काव्य में भी दिया है।
शरण-वर्णन में राष्ट्रीय भावना का आरोप करके राष्ट्रीय नेताओं का तदनुकूल वर्णन करना और पूरी सैर में उसका सफल निर्वाह करना कल्पना के बिना नहीं हो सकता। ‘मधु’ पे गांधी और सुभाष का ऐसा ही चित्रण किया है-
शरद चन्द्र के सरिस हैं श्री सुभाष मन मस्त।
शत्रु सिन्धु के सोखवे गांधी भयो अगस्त।
डोलत फिरै सुभाष शरदचन्द्र मस्त सौ।
भो चन्द्र अनाचार मारतंड अस्त सौ।।
यश शारदा स्वराज में भू में प्रशस्त सौ।
भऔ शत्रु सिन्धु सोखवे गांधी अगस्त सौ।।
छत्रसाल की तलवार का वर्णन करते हुए कवि ने अनेक नायिकाओं के लक्षणों का आरोप किया है। कुलटा नायिका के समान वह शत्रुओं के गले से लिपटती है और गणिका के समान वह दूसरों के वैभव का हरण करती है। एक सैर में तो कवि ने छत्रसाल की तलवार में नौ नायिकाओं के लक्षण दिखाये हैं। इसी प्रकार उस पर छै शास्त्रों के विषय का भी आरोप किया गया है।
पर्वोत्सव के अनुरूप विषय भी सैर-सम्मेलनों में प्रयुक्त होते थे। जल विहार के अवसर पर वर्षा का तथा इसी प्रकार अन्य अवसरों पर शरद, वसन्त और होली का वर्णन विभिन्न रूपों में किया जाता था। प्रकृति चित्रण में आलम्बन और उद्दीपन-रूप प्रमुखता व्यवहृत हुए हैं। वर्षा विरहिणी के हृदय में प्रिय-संयोग की कामना जगाती है-
प्रिय पत्र नये निरखे प्रिय पत्र न पाये।
देखे हरे सुदृश्य पै न हरे दिखाये।।
वन मोर नचे दुखिया मन मोर दुखाये।
घनश्याम आये आली घनश्याम न आये।।
प्रिय के अभाव में वर्षा विरहिणी के हृदय में भीति उत्पन्न करती है-
चपला की चयंकन में ना धीर उर धरै।
शीतल समीर कारज तरवार कौ करै।।
झनकारत है झिल्ली सुन सुन कें जी डरै।
घनश्याम घिरे आये घनश्याम ना घरै।।
प्रकृति के अलंकृत वर्णन में ऋतुराज वसन्त का सम्राट के रूपक से चित्रण किया गया है-
माथे पै मुकुट आम्र मंजरी कौ सम्हारें।
मुकुलित प्रसून मंजुमाल उर में धारें।।
कवि कोकिल मुदमान सुयश गान गुंजारें।
बागन में बादशा वसंत डेरा डारें।।
अधिकतर सैरों में एक दोहा और सोलह चरणों का प्रयोग है, परन्तु कहीं-कहीं झुमका के रूप में क्रमशः एक दोहा, एक सोरठा, एक चार चरणों का छन्द, पुनः एक दोहा और फिर सोलह चरण रखे गये हैं। सैर की कलात्मक संरचना के लिये एक चरण के अन्त्यानुप्रास के शब्द से ही अगला चरण प्रारम्भ किया गया है-
छाये कमोद कुसुम शरद सजत बधाये।
धाये पिया विदेश समय अस न सुहाये।।
हा एक वियोगिन पै वार बहुत जताये।
ताये हमें शरद नंे यह जाल बिछाये।।
चार चरणों की एक इकाई में प्रथम चरण जिस शब्द से प्रारम्भ हुआ है चतुर्थ चरण की समाप्ति उसी शब्द से हुई है। इसी योजना में कुछ अधिक चमत्कार करके कवि ने कुछ सैरों में प्रत्येक चरण के आदि और अन्त में एक ही शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार जहाँ प्रथम प्रकार की सैरों के चरणों में अनुप्रास की लहर बनती चलती है वहाँ दूसरे प्रकार की सैरों का प्रत्येक चरण सम्पुटित है-
चावत हैं मुण्डमाल शीस अपनो नचावत।
खावत हैं मास मज्जा इक दूजें दिखावत।।
नावत हैं शीस मन में भूत प्रेम मनावत।
दावत मिली अनूठी भई भली अदावत।।
इस प्रकार ‘मधु’ के सैर-काव्य में लोक-काव्य की प्रतियोगितात्मक आवश्यकता के अनुसार विषय और कला का वैशिष्ट्य तो है ही उसे भाव और अभिव्यक्ति के स्तर पर साहित्यिक गौरव भी प्रदान किया गया है। विषय के रूप में उसे युगीन चेतना से जोड़कर उसमें नव्यता का विधान किया गया है और मनोरम भाव-सृष्टि के द्वारा उसे अन्य लोक काव्य-विधाओं से ऊपर उठाकर साहित्यिकता प्रदान की गयी है।
संदर्भ
1. अग्निपुराण, अध्याय 337, श्लोक 36
2. ध्वन्यालोक, आनन्दवर्द्धन, उद्योत 3 श्लोक 63 श्री कारिका
3. साहित्य दर्पण, विश्वनाथ, षष्ठ परिच्छेद, श्लोक 314
4. हिन्दी साहित्य का इतिहास-रामचन्द्र शुक्ल, पृ. 239
5. ध्वन्यालोक, आनन्दवर्द्धन, उद्योत 3
6. हिन्दी साहित्य का इतिहास-रामचन्द्र शुक्ल, पृ. 239
7. शशि शतक, 1
8. वही, 6
9. वही, 52
10. वही, 62
11. वही, 25
12. वही, 27
13. वही, 46
14. वही, 47
15. वही, 56
16. वही, 42
17. वही, 42
18. वही, 20
19. वही, 61
20. बुन्देलखण्ड वागीश सं. रावत रामपाल सिंह चन्देल प्रचण्डं पृ.-17
21. मुरली माधुरी, 5
22. वही, 9
23. वही, 15
24. वही, 11
25. वही, 25
26. होली माला, 2
27. वही,
28. वही, 4
29. वही, 31
30. वही, 24
31. वही, 33
32. देव और उनकी कविता-डॉ. नगेन्द्र, पृ. 105
33. होली माला, 47
34. वही, 26
35. देव ग्रंथावली, (प्रथम खण्ड)-सं. लक्ष्मीधर मालवीय, पृ. 105
36. भिखारीदास, ग्रंथावली (प्रथम खण्ड)-सं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, पृ. 14
37. कवि तोष और सुधानिधि सं. डॉ. सुरेन्द्र माथुर, पृ. 126
38. देव ग्रंथावली (प्रथम खण्ड)-सं. लक्ष्मीधर मालवीय, पृ. 108
39. भिखारीदास ग्रंथावली (प्रथम खण्ड)-सं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, पृ. 16
40. कवित तोष और सुधानिधि, सं. डॉ. सुरेन्द्र माथुर, पृ. 132
41. भिखारीदास ग्रंथावली (प्रथमखण्ड)-सं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, पृ. 13
42. देवग्रंथावली (प्रथमखण्ड)-सं. लक्ष्मीधर मालवीय, पृ. 111
43. बेतवा बावनी, 2
44. रुबाइयात उमर खैयाम-श्री मैथिलीशरण गुप्त, पृ. 24
45. हिन्दी साहित्य के प्रमुख वाद और उनके प्रवर्तक-विश्वम्भरनाथ उपाध्याय, पृ. 277
46. आधुनिक हिन्दी कविता की मुख्य प्रवृत्तियाँ-डॉ. नगेन्द्र, पृ. 90
47. साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबन्ध-महादेवी पृ. 120
48. आधुनिक काव्य.-नन्ददुलारे वाजपेयी, पृ. 25
49. काव्यशास्त्र-डॉ. भागीरथ मिश्र, पृ. 25
50. काव्य रूपों के मूल स्रोत और उनका विकास-डॉ. शकुन्तला दूबे, पृ. 300
51. वही, पृ. 307
52. कुम्हलाये कुसुम से (गीत)
53. एन इंट्रोडक्शन टु द स्टडी ऑफ लिट्रेचर-डब्ल्यू एच. हडसन,
54. वही, पृ. 100
55. वही, पृ. 101
56. काव्य रूपों के मूल स्रोत और उनका विकास-डॉ. सकुन्तला दुबे,