Sabse bada paap kya hai ? in Hindi Short Stories by Manoj Sharma books and stories PDF | सबसे बड़ा पाप क्या है ?

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सबसे बड़ा पाप क्या है ?

प्रश्न : क्या कभी मैं, भारत की आजादी को, पूरी तरह से जी पाया हूँ ??

उस दिन 14 अगस्त था, और मैंने अंग्रेजी में स्कूल में सबके सामने बोलने के लिए एक स्पीच लिखी थी, बहुत खुश था क्योंकि अगले ही दिन यानी 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के मौके पे मुझे कई लोगों के सामने वो स्पीच देनी थी..
मेरा घर उन दिनों एक ऐसे कस्बे में था जहाँ से कुछ दूरी पे रेलवे स्टेशन था और उसे पार करके शहर का पूरा बाजार था..मतलब बीच में रेलवे स्टेशन, एक तरफ मेरा घर और दूसरी तरफ पूरे कस्बे का बाजार..सो सुकून रहता था बहुत..

मैं रोज रेलवे स्टेशन को पार करके ही गणित की ट्यूशन पढ़ने के लिए त्रिपाठी सर के पास जाता था, फिर वहाँ से महेंद्र सिंह राणा अंकल के पास जाता था, वे रिटायर्ड मेजर थे, उनकी तीन पीढ़ियों से उनके लोग फौज में थे, उनके दादाजी सन् 1857 के समय में ब्रिटिश फौज में थे, सच कहूँ तो, Genius🙎🏻‍♀️, आप को छोड़ दूँ और काजल को, तो अपनी अब तक जिंदगी में मैंने उनसे अच्छा इतिहास और युद्धों का अच्छा जानकार ना देखा है और ना पढ़ा है, वे किसी भी बात को ऐसे बताते थे, जैसे सब उनके सामने ही हो रहा है, सो मैं उन्हें 'उस्ताद' कहता था, गणित की ट्यूशन के बाद सीधा मैं उस्ताद के पास ही पहुँचता था, वे उस समय लगभग 65 से 70 की उम्र के रहें होंगे..लंबे चौड़े थे, सर पे साफा बाँधते थे, कुछ कुछ सिक्खों के दसवें गुरु गोविंदसिंह दिख जाते थे उनमें मुझे, दबंगी और ज्ञान का अजीब ही मिश्रण थे वो..

उनसे क्रांतिकारियों, आजादी, अंग्रेजों और युद्धों की कहानियाँ सुनना मुझे पसंद था, एक 1857 में उस समय के उत्तरप्रदेश में कहीं की एक घटना मेरी फ़ेवरेट थी, जो उनके दादाजी की थी, सुनाते थे कि, किसी एक जगह अंग्रेजों ने एक ब्राह्मण को, जो क्रांतिकारी नेता था, फाँसी दी थी, सो जब वो फंदे पे झूलकर काफी देर तड़पने के बाद मरा, तो पता नहीं मेरी सैनिक टुकड़ी के एक सैनिक को क्या सूझा कि मंच पे जाकर जोर से चिल्लाया कि अब भी नहीं जागे तो ये अंग्रेज सब कुछ खत्म कर देंगे, मन और दिल से भरे हुए तो सभी थे ही, सो अचानक ही सभी सैनिकों ने बंदूकें उठा लीं, वो सैनिक टुकड़ी अंग्रेजों की एक बहुत भरोसेमंद सैनिक टुकड़ी थी, सो उससे विद्रोह की उन्हें तनिक भी आशा नहीं थी, सैनिक टुकड़ी ने सभी अंग्रेज अधिकारियों से कह दिया कि, भाग जाओ, अपने बच्चों को लेकर, वरना सब मार दिए जाओगे..

सो रातों रात शहर अंग्रेजों से खाली हो गया, और देर रात एक साथ सभी सैनिकों ने बंदूकें चलाकर विद्रोह का आवाहन किया, उस जमाने में बंदूकों की गोली से बहुत जोर से आवाज आती थी, तकनीक उतनी विकसित नहीं थी, सो आवाज से पूरा आसमान हिल गया..
धड़ धड़ धड़ धड़ धड़ड़ड़ड़...वो बोल बोलके सीन को ऐसे सुनाते थे, जैसे उनके दादाजी नहीं, वही उस समय वहाँ थे, सो एक दिन मैंने उनसे पूछ ही लिया, उस्ताद घटनाएँ तो आप कई सुनाते हो पर ये घटना आप इतनी शिद्दत से कैसे सुनाते हो, तो उन्होंने एक बार, एक कमरे में मुझे ले जाकर एक संदूक खोला, उसमें से कुछ डायरी, कुछ तमगे ( मैडल ), कुछ पुराने सिक्के और कुछ पुराने कपड़े आदि रखे हुए थे, सो बोले ये उनके पिता और उनके दादाजी की कुछ निशानियाँ हैं, जिन्हें उन्होंने संभाल और सहेज रखा था..

उन्होंने मुझे बताया कि उनके दादाजी डायरी लिखा करते थे, उसमें इस घटना का जिक्र उन्होंने किया है और ये भी लिखा था कि मरने से पहले उस ब्राह्मण की आँखों में जो बेखौफी दादाजी ने देखी थी, वो उनके पूरे युद्ध से भरे जीवन में उन्होंने किसी योद्धा की आँखों में भी नहीं देखी थी..बस इसीलिए मुझे उस घटना विशेष से मोहब्बत कुछ ज्यादा है, फिर मुझसे बोले कि आँखें तुम्हारी भी बहुत बेखौफ सी हैं, कुछ पाने और समझने की एक अजीब खोज सी देखी है मैंने इनमें..पंडितजी..
जी हाँ वो मेरा नाम नहीं लेते थे, मुझे पंडित जी कहते थे और मैं उन्हें उस्ताद कहता है, वे एक आला दर्जे के इंसान थे, घर इतिहास और धर्म शास्त्रों की किताबों से भरा रहता था, शादी की नहीं थी, कहते थे, फौजी पत्नी को एक दिन हमेशा के लिए दुःख दे जाता है, और एक लड़की के साथ मैं, ऐसा कभी नहीं कर पाया सो शादी कर ही नहीं सका..उनके पिताजी और दादाजी भी युद्ध में ही शहीद हुए थे..कोई था नहीं घर में अकेले रहते थे, समाज सेवा में दिन भर लगे रहते थे और शाम को अपना एक बगीचा लगा रखा था सो उसमें बागवानी में व्यस्त रहते थे, मैं जब भी समय मिलता उनके पास पहुँच जाता था, और फिर कोई किस्सा वो सुना ही देते थे, कई बार शाम का खाना भी मेरा उनकी जबरदस्ती से वहीं होता था, फ्री की पुस्तकों को पढ़ना या यूँ कहूँ पुस्तकों से मोहब्बत और उन्हें पढ़ने का एक विशिष्ट तरीका मैंने उस्ताद से ही सीखा था..वो सच में मेरी खोजी जिंदगी के पहले उस्ताद थे..

इतिहास, गणित और साहित्य मेरे हमेशा से ही प्रिय विषय रहे हैं, और उस्ताद तो पूरे उस्ताद ही थे, सो जब भी मैं दोस्तों और क्रिकेट से फ्री होता, जेहन में एक ही नाम आता था---
'उस्ताद' ..चलो उनके पास..

मैं भी उनका उत्तम श्रोता था, सो मेरा भी उन्हें बेसब्री से इंतजार रहता था, एक बार हम बैठे हुए थे, सो चर्चा चल पड़ी कि,

दुनिया में सबसे बड़ा पाप क्या है ??

कुछ और लोग भी उस्ताद के पास शाम को आ जाया करते थे, उन्हें सुनने के लिए, सो अपने-अपने अनुसार सबने सबसे बड़े पाप को समझाया, अंत में बारी उस्ताद की आयी, सो बड़े गंभीर होके बोले, सबसे बड़ा पाप है, किसी जगह अगर कुछ गलत हो रहा हो तो, मौन रह जाना, तो किसी ने पूछा कि कैसे ?? तो बोले कि जब महाभारत में द्रौपदी का अपमान हो रहा था, तो विदुर जी बोले थे, चूंकि वे योद्धा नहीं थे सो शक्ति से विरोध ना कर सके, जिसे प्रभु ने समझा और वे पापमुक्त माने गए, केवल अपने बोलने मात्र से..
जबकि पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य, कुलगुरु कृपाचार्य आदि वरिष्ठों ने बोला तो परंतु शक्ति होते हुए भी उसका उपयोग नहीं किया, सो वे सभी पाप के भागी बने..

( तो बोलना और अपने सामर्थ्य से उस विषय पर अपना सर्वश्रेष्ठ कर्म करना ही पुण्य है, और जो ऐसा कहीं नहीं होता तो वही सबसे बड़ा पाप है..)

तब मैंने सोचा कि भारत जब गुलाम था तो लोग बहुत समय तक नहीं बोले जिसके कारण वर्षों भारत गुलाम रहा, उसके पीछे यही तो लॉजिक था, मैंने उस दिन उस्ताद को इतने सम्मान की दृष्टि से देखा कि लिख कर नहीं बता सकता, लगा कि कोई अपने विषय से जिंदगी को कैसे समझ सकता है, ये उस्ताद ने मुझे सिखा दिया, आप वाकई में उस्ताद हो, उस दिन मुझे याद है जब मैं रात को वहाँ से लौटा तो उनके चरण छूके आया था..

( उस दिन जिंदगी में सीखा कि सही समय पर ना बोलना ही सबसे बड़ा पाप है, क्योंकि सही समय पर ना बोलना ही बीज का काम करता है, और उसी से आगे के सारे पाप जन्म लेते हैं, तो मूल जड़ वही है..)

14 अगस्त के दिन मैं अपनी स्पीच याद करके उस्ताद के पास जाने के लिए घर से निकला, पहुँचा उन्हें सुनाई, उन्होंने कुछ सुधार करवाये, उनकी इंग्लिश भी बहुत अच्छी थी, सच कहूँ तो मास्टर आदमी थे वो, मैं वापस लौटा घर की तरफ, सो रेलवे स्टेशन बीच में पड़ा, मेरी उस स्टेशन के, स्टेशन मास्टर से दोस्ती सी हो गई थी, उनके कमरे में एक फ्रिज होता था ठंडे पानी का सो मैं ठंडा पानी पीके ही घर जाता था, उन दिनों हमारे यहाँ घर पे फ्रिज नहीं था..स्टेशन मास्टर अंकल, अच्छे इंसान थे, मैं उन्हें इतिहास के उस्ताद वाले किस्से सुना देता था सो वो मुझसे भारी इम्प्रेस रहते थे और कहते थे कि कम उम्र में बहुत ज्ञान है तुम्हें..सो उस दिन भी मैं थोड़ी देर स्टेशन मास्टर अंकल वाले कमरे में घुस गया, अंकल थे नहीं, पर मुझे पानी लेने की परमिशन उन्होंने दे रखी थी सो सब मुझे जानते थे..सो मैंने पानी पिया और घर के लिए बाहर निकला..

तभी मैंने देखा एक अंग्रेज जिसकी उम्र लगभग 40 वर्ष रही होगी, एक बेंच पे बैठा था, अमूमन छोटे शहरों में अंग्रेजों का आना या देखे जाना मतलब एलियन्स का 'कोई मिल गया' मूवी के जादू टाइप धरती पे उतरना....
मतलब उनपे ध्यान चला ही जाता है, सो मेरा भी ध्यान उस अंग्रेज पे चला गया.. मैंने देखा कि वो बहुत परेशान लग रहा है, कभी खड़ा हो जाता है, कभी बैठ जाता है, कभी सर से हाथ लगाता है, मतलब नार्मल तो नहीं था वो पक्का..सो मैं ये काफी देर तक देखता रहा, फिर वो उठकर चलने लगा, कुछ दूर गया और वापस आकर बैठ गया..

चूंकि मैं छोटे से कस्बे से था तो उस वक्त मेरी अंग्रेजी अच्छी नहीं थी, सो दिल ने कहा भी जाकर बात कर, कुछ पूछ उससे कि इतना परेशान क्यों है वो ? क्या रास्ता भूल गया है ? यहाँ इस स्टेशन पे कैसे आ गया है, पर मन ने कहा, उसे फ़्लूएंट अंग्रेजी आती है, और तू कम बोल पाता है, क्यों अपनी हँसी उड़वाना चाहता है, सो मैं उसके पास जाते जाते रुक गया, पर उस अंग्रेज का विचित्र व्यवहार और मेरा कौतूहल मुझे घर जाने से भी रोक रहा था, उन दिनों स्टेशन पे ज्यादा भीड़ भी नहीं होती थी, सो ज्यादा लोग भी नहीं थे, छोटा कस्बा था, गिनती के 8 या 10 लोग, सो सब अपने कामों में व्यस्त थे, उस अंग्रेज पे किसी का ध्यान ही नहीं गया, या ऐसा भी कह सकता हूँ, मेरी ही तरह वे भी भाषा या किसी दूसरे संकोच में हों..
लगभग 1 घण्टे बाद मुझे लगा कि अब मुझे चलना चाहिए क्योंकि मेरे खड़े रहने से भी कुछ नहीं होने वाला, सो मैं घर वापस चल दिया कुछ दूर चलकर अचानक से उस्ताद की वो बात मेरे जेहन में आई कि सबसे बड़ा पाप है सही समय पर ना बोलना, पता नहीं क्यों मेरे दिल ने कहा कि अगर उसे कहीं कुछ हो जाये हमारे देश में, तो उसके माँ बाप का क्या होगा, उसकी पत्नी और बच्चों का क्या होगा, क्या, मैं सबसे बड़ा पाप कर रहा हूँ ??

सो मैंने आव देखा ना ताव, कदम वापस मोड़े और सोचा टूटी फूटी अंग्रेजी से ही उससे बात करूँगा कि प्रॉब्लम क्या है, पर जब उस बेंच पे वापस पहुँचा, तो वो वहाँ से जा चुका था, मैंने उसे इधर उधर ढूंढा भी पर वो मुझे नहीं दिखा, सो मैं वापस अपने घर की तरफ चल दिया, घर पहुँचकर वापस स्पीच पे ध्यान डाला और सब भूल गया..थोड़ी देर बाद खाना खाने बैठा ही था और पहला निवाला तोड़ ही रहा था कि मेरा एक दोस्त आया और बोला जल्दी चल, रेलवे की पटरियों पे एक अंग्रेज ट्रेन से कट के मर गया है, सब देखने जा रहे हैं, चल अपन भी चलते हैं, सो मैंने तोड़ा हुआ निवाला थाली में ही छोड़कर अपने उस दोस्त के साथ दौड़ी लगा दी, माँ पीछे से आवाज देतीं रही, खाना तो खा लो, ठीक से जाना, पर मैं और मेरा दोस्त तो बस भागे जा रहे थे, उस दृश्य को देखने, जब घटनास्थल पे पहुँचे तो रेलवे स्टेशन से 2 किलोमीटर दूर पटरियों पर वही अंग्रेज कटा हुआ था, मैं सन्न सा रह गया..

जब तब उसे उठाके लोग ले नहीं गए, मैं घण्टों वहीं खड़ा रहा, कोई कुछ कह रहा था, कोई कुछ, कोई कह रहा था कि अभी कुछ देर पहले इसे स्टेशन पे देखा था, मेरा दिमाग फटने को था, सो मैं बस दौड़ा, मेरा दोस्त मेरे पीछे दौड़ा, कि क्या हुआ, मैंने दौड़ते हुए ही उससे कहा कि मैं घर जा रहा हूँ, सीधा घर आके रुका, मेरी साँस फूल गयी थी..जब नार्मल हुआ तो अपने कमरे में जाकर खूब रोया और पता नहीं अपने को कितना कोसा.. खाना भी नहीं खाया और अपने कमरे का दरवाजा बंद करके सो गया..सुबह उठा तो 15 अगस्त थी, मुझे स्कूल में स्पीच देनी थी, मन तो नहीं था, पर मैं स्पीच देने के लिए अपना नाम दे चुका था, सो बेमन से तैयार हुआ और स्पीच के लिए स्कूल के प्रोग्राम में पहुँच गया..मेरा नाम लिया गया, मैं स्टेज पे पहुँचा..

मैंने अपना पेपर ओपन किया, स्पीच का टाइटल था, अंग्रेजों से भारत का अंत..( The end of India from the British ) जैसे ही मेरा ध्यान ब्रिटिश शब्द पे गया, मुझे लास्ट डे का वो अंग्रेज औऱ पूरा घटनाक्रम याद आ गया, मेरा लगभग 1 घण्टे खड़े रहना और उससे बात ना करना और शाम को उसकी बॉडी देखना, मंच के सामने हजारों लोग थे, क्योंकि आसपास के गांवों से भी उनके पेरेंट्स आते थे, कस्बे में एक ही स्कूल था और फेमस भी, सो मैंने सामने देखा तो हजारों लोगों की भीड़ में मुझे, बस वही अंग्रेज यहाँ वहाँ दिखने लगा, उस्ताद की और मेरी सबसे फ़ेवरेट कहानी की वो गोलियों की आवाज धड़ धड़ धड़ धड़ धड़ड़ड़ड़ड़ड़....

अंग्रेजों की वो ड्रेसें जैसी उस्ताद बताते थे, उनकी कहानियों में, मुझे लगा जैसे कि, मैं ही उस अंग्रेज पे गोलियाँ चला रहा हूँ, और मैंने ही उसे मारा है..मेरा दिमाग सुन्न हो गया था और मेरे कानों में बस बंदूकों की आवाजें सुनाई दे रहीं थीं, सो मैं स्टेज पर माइक में ही जोर से चिल्ला गया, और स्टेज छोड़कर वहीं से भागा, सीधे अपने घर..मेरे साथ मेरे दोस्त आये थे सो वो भी मेरे पीछे भागे, घर पे तमाशा हुआ कि आखिर हुआ क्या ऐसा ? क्या बात हुई ? मैं किसको क्या और कैसे बताऊँ, समझ ही नहीं आ रहा था सो जैसे तैसे खुद को शांत किया, तो सब लोग भी शांत हुए..घरवालों ने कुछ नजर वजर उतार दी, शाम को मेरे मन में आया कि मैं उस्ताद के पास जाऊँ वे ही अब मेरे लिए कुछ कर पायेंगे, सो शाम को उनसे मिलने के लिए निकला, घरवाले मेरी हालत देखकर मुझे बाहर जाने से रोक रहे थे, पर फिर मैंने मनाया तो जाने दिया, मैं उस्ताद से मिला, उन्हें पूरी बात बताई, तो वे मेरी तरफ बहुत देर तक घूरकर देखते रहे, मुझे लगा शायद वे भी मुझसे नाराज हो गए ये सब सुनकर, फिर कुछ सोचकर बोले कि--

( तुझे कभी एक दिन दिल दिखेगा और उसे देख लिया तो हो सकता है तुझे कभी खुदा दिख जाए, फिर बोले तू ऐसा कर इस साल पेपर देके यहाँ से चला जा, और कभी यहाँ वापस मत आना..और याद रखना कि तू दो कारणों से उससे बात नहीं कर पाया..
एक तुझे भाषा की समस्या लगी औऱ दूसरा तू सही समय पर नहीं बोला..हो सके तो जिंदगी में ये दोनों बातों को ध्यान में रखकर इन्हें सुधारने की कोशिश करना, फिर बोले अब मेरे पास भी कभी मत आना..क्योंकि उस खुदा से मेरी भी कभी बनी नहीं..)

जब उस्ताद ने ये सब कहा, तो सच कहूँ तो मुझे कुछ भी समझ नहीं आया, हाँ इतना जरूर समझ गया कि आज जिंदगी में मेरे उस्ताद ने भी मुझे हमेशा में लिए छोड़ दिया..

घर वापस आया, जैसे तैसे वो साल निकाला, पेपर दिए, उस्ताद कभी मिलते भी तो मुँह फेर लेते, जैसे जानते ही ना हों मुझे, ये वही उस्ताद थे, जो शाम को चूल्हे की रोटी पे घी लगाकर मुझे खिलाते थे, मैं समझ ही नहीं पाया था उन्होंने उस दिन मुझसे कहा क्या था, एक दो बार मन भी हुआ, कि जाकर पूछूँ भी, पर वे बहुत सख्त आदमी भी थे, फौजी थे, किसी को भी कुछ भी कह देते थे, सो उनसे डर के मारे और ऊपर से उनके नेचर की वजह से हिम्मत नहीं कर पाया..

शहर छोड़ा, जिंदगी कुछ आगे बढ़ी, सब भूल सा गया, पर जैसे ही 14 अगस्त आया और इस नए स्कूल में भी जब 15 अगस्त के प्रोग्राम का मुद्दा चला तो दिल बैठ गया, सभी चीजें याद आ गईं, अगले दिन मैं गया ही नहीं प्रोग्राम पे, रात में सोचा कि ये प्रॉब्लम क्या है मेरे साथ..तो उस्ताद की बातें सोचते सोचते सो गया..बस ये समस्या मेरी हर साल की बन गयी, लोग, दोस्त सभी मुझसे पूछते कि 15 अगस्त के दिन गायब कहाँ रहते हो, कभी कहीं जाते ही नहीं, तो उनसे बस मैं इतना कहता कि मेरी तबियत ठीक नहीं है, सच कहूँ तो आज भी साल के वो दो दिन मेरे लिए सबसे भारी होते हैं, जब मेरा शरीर ठंडा, और बेचैनी बढ़ने लगती है, ऐसा लगता है मानो, वो अंग्रेज मुझे किसी खिड़की, किसी दरार से झाँक के देख रहा है, मैंने साल के उन दो दिनों में कई बार पूरे पूरे दिन सोने के लिए सबसे छिपकर नींद की गोलियाँ तक खायीं हैं, पर नींद में भी कभी-कभी उस्ताद उस्ताद कहता हुआ सुना गया हूँ, सपने में भी वो अंग्रेज मुझे घूरते हुए दिखाई दे जाता है..

उस्ताद के कहने पे अपने उन दो कारणों या कमजोरियों को खत्म करने के लिए मैं मथुरा-वृंदावन के प्रसिद्ध अंग्रेज मंदिर ( इस्कॉन टेम्पल ) से जुड़ गया, हर साल होली पे वहाँ दुनिया भर देशों के अंग्रेज आते थे, सो मैं पूरे 20 दिन के लिए वहाँ रहने जाता था, मैं उन अंग्रेजों से जाके खुद ही बात करता था, उनके सुख दुःख को समझने का प्रयत्न करता था, आज भी जाता हूँ..अपनी अंग्रेजी को अच्छा किया, बल्कि थोड़ी बहुत कुछ अन्य भाषाएँ भी उनके साथ रहकर सीखीं और दूसरों से हमेशा पहले बात करने के डर को भी खत्म किया..
आज अंग्रेजी भी लाजबाब है, और दूसरों से बात करने के डर का तो ये आलम है कि लड़कियों से जाके सीधे पहली मुलाकात में उनके फ़ोन नंबर माँगने से भी नहीं डरता..मतलब हर वो बात जो मेरे अंदर खौफ पैदा करती है, मैं उसके विरूद्ध मोर्चा खोल देता हूँ..

कभी स्टेशन पे भी किसी को चिंतित बैठे देखता हूँ तो वेवजह के कुछ प्रश्न जाके पूछ लेता हूँ, कि कौन सी ट्रेन आने वाली है, आपको कहाँ जाना है, अभी टाइम कितना हो रहा है ? कुछ भी..बस उनकी मनोदशा समझने के लिए..एक बार तो मेरी ट्रेन भी मिस हो गयी थी इसी चक्कर में, स्टेशन पे कभी किसी बेंच पे नहीं बैठता क्योंकि बैठते ही मुझे मेरे बगल में वो अंग्रेज बैठा हुआ दिखता है, जो मेरी आत्मा को घूरने लगता है, बहुत से दोस्त मुझसे पूछते भी हैं, कि स्टेशन पे हमेशा खड़े ही क्यों रहते हो, जब तक ट्रेन ना आ जाये, बैठते ही नहीं, तो आज ये पढ़कर वो मुझे समझ लेंगे....

कभी लगता है कि फेसबुक पे भी कोई दोस्त दुःख वाली पोस्ट कर रहा है तो जाकर प्रतिक्रिया देता हूँ, कुछ लोगों से इन दिनों फ़ोन पे भी बात की, जो मुझसे बात करने के इच्छुक थे..

बस संक्षेप में कहूँ तो अपने हर उस डर को भगाता हूँ जो मुझे मेरे दिल की सुनने से रोकता है, एक बार Genius🙎🏻‍♀️, ने मुझसे कहा था कि याद रखना दिल में खुदा रहता है..
Love is life..तो मुझे उस्ताद की कही वो बात याद आती है कि कभी तू दिल देखेगा और फिर शायद खुदा को भी महसूस कर पाए....

जब उस हादसे के दिन घर वापस जा रहा था तो मेरे दिल के उसी खुदा ने मुझसे कहा था कि पलट और जाके जो भी टूटी फूटी अंग्रेजी आती हो, उस अंग्रेज से जाके बात कर, पर उस दिन उस दिल की बहुत देर से सुनी, पर जब Genius🙎🏻‍♀️, ने कहा कि खुदा दिल में ही रहता है, तो अब उसे महसूस करने की कोशिश करता हूँ, और केवल उसी की सुनता हूँ, कई नुकसान हुए हैं इस बात से, पर उस्ताद कहा करते थे कि--
( एक वो नाराज ना हो बस, बाकी सबकी नाराजगी भी सही..)

मैं रो देता हूँ कभी-कभी जब उस्ताद की बात याद आती है कि तू एक दिन दिल देखेगा, फिर शायद खुदा को महसूस कर सकेगा, उस हादसे वाले दिन मैंने सच में दिल में खुदा की आवाज सुनी थी, जिसने मुझसे कहा था कि, वापस जा उस अंग्रेज से बात करने, सच कहूँ तो दिल तो पहले लम्हें से ही कह रहा था कि उससे जाकर बात कर, पर घर लौटते समय शायद--
( मैंने उस दिन में पहली बार, दिल की बात भी, पूरे दिल से सुनी थी..)

उस्ताद कितने दूरदर्शी रहे होंगे जो उन्होंने मुझसे पहले ही कह दिया था कि किसी दिन तू दिल देखेगा ( जो मुझे Genius🙎🏻‍♀️, ने देखना सिखाया ) और फिर उसे महसूस कर पायेगा..

इतिहास पसंदीदा विषय है, पढ़ा है कि भारत, 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गया था, आज उस्ताद नहीं रहे, कई साल भी गुजर गए, पर आज भी 14 अगस्त आते ही मेरे दिल में बेचैनी सी होने लगती है, मुझे आज भी वो अंग्रेज दिखाई देने लगता है, उस्ताद की बातें और उनकी कहानी की गोलियों की धड़ धड़ धड़ धड़ड़ड़ड़ड़ड़ की आवाजें मेरे कानों में गूँजने लगतीं हैं, ऐसा लगता है कि मैं बहरा हो जाऊँगा उन आवाजों से, मेरा दिल मुझसे कहता कि तूने सबसे बड़ा पाप किया है, और वो अंग्रेज मेरी आँखों में आँखें डालकर मुझे घूरते हुए दिखाई देने लगता है..

भारत भले ही अंग्रेजों से 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गया था, पर मेरी आत्मा को आज भी, मैं एक अंग्रेज द्वारा साल में उन दो दिनों के लिए, शासित पाता हूँ, मेरी आत्मा से आज भी यही आवाज आती है कि मुझे बस मेरे देश के की तरह अब पूरी तरह आजाद कर दो..

----- मनोज शर्मा