सड़क पार की खिड़कियाँ
डॉ. निधि अग्रवाल
(4)
'नहीं, आऊँगा। पर सज़ा गुनाह पर ही मिलनी चाहिए न। कोई गुनाह किया है क्या?'
प्रेम सबसे बड़ा गुनाह है। भीतर तक तोड़ देता है। मैं कहना चाहती हूँ। पर नहीं कहती। उन्होंने कब कहा वह मुझसे प्रेम करते हैं। मैं ही कब उनसे प्रेम करती हूँ। दो टूटे हुए साज़ है जो साथ होने पर एक दूजे के अधूरेपन की तसल्ली बन जाते हैं।
'यकीन करो। मैं कभी तुम्हें दुख नहीं पहुँचा सकता। जब पुकारोगी आ जाऊँगा। जब उकता जाओगी चला जाऊँगा।'
'और उकताहट आपकी तरफ से हुई तब?'
'कभी भी आज़मा लेना। मैं यहीं हूँ सदा तुम्हारे पास। खुश रहो।'
आशीष दुखों को साध लिया करते हैं। कितने दिनों बाद मैं बिना गोली खाए भी सो सकी।
आजकल दिन खुद को दोहराने लगे हैं। दोहराव प्रतिक्रिया को कुंद कर देता है। अवसन्नता अब निस्पृहता में बदल रही है। ज़िंदगी हाथ पकड़ जिधर ले जा रही है उधर बढ़ जाती हूँ। जहाँ बिठा देती है बैठ जाती हूँ। मैं तर्क करते थक गई हूँ।
ऑफिस में जो उकताहट बढ़ जाती है। खिड़की पर आकर झर जाती है। खिड़की के फूलों की महक दिन भर मन महकाती है। मैंने ऑफिस से रास्ता तलाश लिया है। अब शलभ, सुरुचि और अमन के साथ होते हुए भी मन कहीं और अटका रहता है। वह कोई प्लान बनाते भी हैं तो मैं गौरी का बहाना बना मना कर देती हूँ। उनके अपने भरे-पूरे परिवार हैं। उनकी पूर्णता मुझे मेरी अपूर्णता का अहसास कराती है। मैं सड़क पर भी और कहीं नहीं निकलती। मेरी दुनिया ऑफिस और खिड़की तक ही सीमित हो गई है। इस जड़ता को तोड़ते कभी-कभी फोन की घंटी ज़रूर बज जाती है। जिसकी आवृत्ति बढ़ती जा रही है और अवधि भी।
गौरी का सातवाँ जन्मदिन है। सात फेरे और सात वचनों के पश्चात भी प्रसून नहीं आया है और न ही कोई सन्देश। मैंने गौरी की सभी सहेलियों को 'कैफे पामेरा' में बुलाया। गौरी ने 'ऐलजा' के जैसा नीला गाऊन पहना। लगता है परियाँ आज धरा पर उतर आई हैं। मैं नहीं चाहती गौरी को प्रसून की ज़रा भी कमी महसूस हो। उसने जो भी चाहा मैंने वह सब किया। फ़ोटो खींचते हुए सुरुचि कह रही है कि मुझे अब अपने बारे में भी सोचना चाहिए। जन्मदिन की तस्वीरें देखते मैं सोच रही हूँ कि इतनी भीड़ में एक जन की अनुपस्थिति से तस्वीरें कैसे अपूर्ण दिखने लगती हैं। मैंने उन तस्वीरों को अलग कर दिया जिनमें मैं भी हूँ। माँ की उपस्थिति में पिता की अनुपस्थिति बड़ा प्रश्न बन सकती है। केवल बच्चों वाली तस्वीरें ही अपरिचितों से साझा करना उचित है। साझा करना क्या ज़रूरी है? पर और कौन है मेरे पास मेरे सुख-दुख बाँटने। ज़रा-सी खुशी मिलती है तो सम्भाल नहीं पाती। छलक जाती है उसी सड़क पर। मैं जानती हूँ जन्मदिन यहाँ बड़ा उत्सव हैं। सब खिड़कियों पर आ गए हैं। वे सब खुशी से चिल्ला रहे हैं-
'Happy birthday Gauri!'
कहीं न कहीं एक ग्लानि मुझे घेर रही है। उनके बच्चों के जन्मदिन पर पता नहीं मैंने आशीष दिया था कि नहीं! अन्यमनस्कता आजकल हावी हुई रहती है।
गौरी अपने उपहारों से खुश है। हम दोनों ने डॉल हाउस बनाया। बार्बी के साथ आईं नई ड्रेसेस पुरानी बॉर्बी को भी पहनाई गईं। खेलते-खेलते ही गौरी वहीं सोफे पर ही सो गई। उसे पलंग पर लिटा मैं सड़क निहारने लगी। हैप्पी बर्थडे का शोर अभी थमा नहीं है। कई नई आवाज़ें मेरी खिड़की पर दस्तक दे रहीं है पर मैं खिड़की नहीं खोलती। जिसकी दस्तक का मुझे इंतजार है वह जाने क्यों आज अनुपस्थित है। दिन का अधूरापन कुछ और बढ़ गया। सोते हुए आँखे गीली हैं।
सुबह देखा आशीषों से झोली भरी है। सोती हुई गौरी को चूम लिया। उसे जगाया स्कूल के लिए तैयार किया। खिड़की पर दस्तक हो रही है। मन खिड़की पर अटका है। आँखें सड़क के ट्रैफिक पर।
ऑफिस पहुँच कर सबसे पहले खिड़की ही खोली। छोड़ी गई चिट पढ़ी-
'सदा कैमरे के पीछे ही रहना ज़रूरी है क्या? कभी आगे भी आना चाहिए। फ्रंट कैमरा भी इस्तेमाल किया जा सकता है।'
एक गुलाबी मुस्कान चली आई। दिन को कहा आज पाँव ज़रा तेज़ बढ़ाओ। बॉस ने किसी न किसी बहाने चार बार अपने चैम्बर में बुलाया लेकिन अब जाते हुए मेरा मन नहीं काँपता। मैं उसकी आँख में आँख डालकर बात करती हूँ तो वह अपनी नज़र झुका लेता है।
दिन जितनी आहिस्ता से रात की ओर बढ़ा मेरा मन उतनी ही तेज़ी से खिड़की की ओर। आज गौरी की बातें और खेल बचकाने लग रहे हैं। उसके साथ होते हुए भी मन दूर निकल जाता है। खिड़की पर पहली दस्तक के साथ ही मैं गौरी को कहती हूँ कि वह कुछ देर कार्टून देख सकती है। वह रिमोट उठाती है और मैं खिड़की खोलती हूँ।
'कैसी हो?'
मैं बस मुस्करा भर दी।
'मुझे मिस किया?'
मैं चुप। कुछ सच चाह कर भी कहे नहीं जा सकते।
'तुम न भी करो मेरा इंतज़ार। मैं करता रहूँगा… उम्र भर।'
'मैं किसी वादे पर विश्वास नहीं कर पाती।'
कुछ सच कैसे दयनीय होते हैं।
'न न आँसू नहीं। मुस्कराओ।'
यहाँ अनुभूतियाँ पोस्टरों में सिमटी हैं। मैं मुस्कान का पोस्टर उन्हें पकड़ा देती हूँ। वह प्रत्युत्तर में आशीर्वाद का।
'अपनी कोई मुस्कराती हुई तस्वीर देना।'
'मुस्कान जीवन से ही रूठी है। तस्वीर में कैसे उतरेगी?'
'आज एक सेल्फी लेना।मुस्कराना। इतना कर सकती हो न मेरे लिए?'
मेरा स्वयं से कभी औपचारिक परिचय कराया नहीं गया है। मैं मेरे लिए नितांत अजनबी हूँ। क्या कर सकती हूँ क्या नहीं, कब जानती हूँ! पर हाँ, उनके जाने के बाद खिड़की बन्द करके सबसे पहले मैंने सेल्फी कैमरा ही खोला। मुस्करा नहीं पाई, उदासी एक क्लिक के साथ कैद हो गई। मैं मुस्कान तलाशने सड़क पर निकली हूँ। यहाँ कभी सन्नाटा नहीं होता। कुछ तो रात्रिचर ही हैं, दिन में कभी नहीं दिखते। कई नई खिड़कियों को निहारती मैं आगे बढ़ी हूँ। कवि ने अपनी एक खिड़की भूलवश खुली छोड़ी है। इस जगमगाते जग की यही खासियत है। आप जब चाहें भीड़ चुन लें, जब चाहें अकेले हो जाएँ, जब चाहें भीड़ में से किसी एक या कुछ को चुन लें। जीवन चयन की यह सहूलियत कब देता है? उन्होंने बेध्यानी में कॉलेज गर्ल के संवाद में मुझे भी चुन लिया। वह लड़की से कह रहे हैं- मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ। उन्होंने उसे भी आशीर्वाद दिया है और उसकी भी आँखें छलछला उठी हैं। दुख कब उम्र के मोहताज़ है! मैं इस लड़की को गले लगाना चाहती हूँ पर अनामंत्रित मेहमान अपनी उपस्थिति कैसे उजागर करे? मैं उस लड़की के जाने की अपनी खिड़की पर प्रतीक्षा करती हूँ। खिड़की पर हुई असमय दस्तक से कवि हैरान हैं।
'आपने कहा था कभी भी पुकार सकती हूँ', मैं कहती हूँ।
उन्हें सयंत होने का समय मिल गया।
'क्यों नहीं, कभी भी। एक आवाज़ पर सदा पास पाओगी।'
'क्यों?', मैं अवरुद्ध कंठ से बमुश्किल कह पाती हूँ।
एक दम घोंटू चुप्पी।
' कुछ रिश्ते आत्मिक होते हैं। आत्माओं के कोटरों में हमारे स्थायी पते लिखे हैं। वहीं लौटते हैं… ठहरते हैं।
मैं स्वयं भी नहीं जानता
किस जन्म तुम्हारे
मन वृक्ष के कोटर में,
मैंने बनाया था अपना नीड़
सुधियों की पगडंडिया तलाशता
हर जन्म....
मैं तुम तक पहुँचता हूँ
अवचेतन की स्मृतियों में
गहरे लिखे हैं हम सब के
स्थायी आवासों के पते'
'और भी कोई है जिससे यह आत्मिक लगाव आप महसूस करते हैं?', सच की भयावहता मुझे डरा रही है। भ्रम का सुंदर किला सीलन से चरमरा गया है।
'और कौन हो सकता है। बस तुम!'
'Hurt me with the Truth, but Never comfort me with a Lie.' मैं चाह कर भी नहीं कह पाई। बस चली आई।
एक आस थी कि वे पुकारेंगे पर नहीं, कोई पुकार नहीं। खिड़की पर भी कोई दस्तक नहीं।
तारीख़े बदलती गईं पर ज़िंदगी एक पुकार के इंतज़ार में थमी रही। कभी लगता सपना सुखद हो तो क्या अनवरत नहीं चल सकता? आज चुपचाप काँपते कदमों से सड़क पर निकली। देखा, कवि कोई नई कविता सुना रहे हैं। नीली आँखों वाली, कॉलेज गर्ल, गुलाब के फूलों वाली महिला सभी तो मोहित हो सुन रही हैं। कवि ने सबको गुलाब बाँटे पर जाने कैसे दूर खड़े ही काँटे मेरे हाथ में चुभे हैं। सबके जाने के बाद मैं उनके सामने जा खड़ी हुई।
'एक फूल मेरे लिए भी बचा लेते', स्वर की विकलता पर मैं स्वयं लज्जित हूँ।
'तुम्हें फूल देने वाले बहुत हैं', वे तल्ख़ी से कह पलट चले।
अपमान और क्षोभ से छलनी मन आँखों के रास्ते छलक उठा।
हम रात भर जागकर अपना विद्रोह दर्ज करा सकते है पर सूरज को जाने से नहीं रोक सकते और मुझमें तो नियति के निर्णयों से विद्रोह की ताकत भी अब शेष नहीं। मैंने सिरहाने रखी शीशी उठाई उसका ढक्कन खोल पूरा मुँह में उड़ेल लिया। आँधी का तेज झोंका आया। सारी खिड़कियाँ आपस में टकराईं और किरचनें फैल गईं। काँच के महीन टुकड़े मेरे पूरे शरीर में धँसने लगे। जानलेवा दर्द रगों में दौड़ने लगा और फिर सब शांत हो गया। हमारी चीत्कार कोई नहीं सुनता लेकिन चुप होने का निर्णय खबर बन जाती है। मेरी देह भी अब एक खबर थी और मन अतृप्त आत्मा!
माँ का कंकाल हिचकी ले लेकर रो रहा है। रोने से हाथ मे लगी ड्रिप निकल गई, खून बह रहा है। प्रसून कह रहा है कि गौरी को किसी बोर्डिंग में भेजना होगा। वह अपने साथ नहीं रख सकता। बॉस व्यथित हो, सबको बता रहा है कि मैं उसका साथ चाहती थी किन्तु वह अपनी पत्नी से दगा नहीं कर सकता था। कवि ने अपनी एक खिड़की पर मेरी तस्वीर लगाई है। लिखा है कि कोई दुख साझा करने वाला होता तो मैं बच सकती थी।
ओहो! दुख से नहीं मरता कोई, दुख की नुमाइश कर मर जाता है। मैं चिल्लाना चाहती हूँ। शायद चिल्ला ही पड़ती हूँ-
'एक क़त्ल है हुआ इधर पर क़ातिल कोई नहीं
ख़ंजर है सबके हाथ में पर शामिल कोई नहीं'
गौरी, मम्मी! मम्मी! पुकारती, रुआंसी हो मेरा हाथ खींच रही है। अकबका कर मैं उठ बैठी। सिरहाने रखी दवाई की शीशी वैसी ही भरी है। मैं पसीने से भीगी हूँ। पानी पीते हुए मैं गौरी को गले लगा लेती हूँ। मैंने गौरी को एक बार ही जन्म दिया है पर वह जाने मुझे कितने जन्म दे चुकी है।
गौरी मेरी गोदी में मुझे कस कर पकड़े सो रही है। चिंता की कुछ रेखाएँ उसके चेहरे पर बनी हैं। कहीं दूर कोई गा रहा है-
ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है
हद-ए-निगाह तक जहाँ गुबार ही गुबार है।
दूर नहीं मेरे बेहद क़रीब मेरा अंतर्मन ही गा रहा है। मैंने अपनी अँगुलियों से गौरी के माथे की सलवटों को सहलाया। स्पर्श की सुखद अनुभूति स्मित बन झलकी। मैंने आहिस्ता से मोबाइल उठाया और हर उस खिड़की को सदा के लिए बंद कर दिया जिनसे इस स्मित के खो जाने का ज़रा सा भी अंदेशा हो।
मेरे विषय में:
गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) में जन्म. वर्तमान में चिकित्सक के रूप में झांसी (उत्तर प्रदेश) कार्यरत
'वीणा', 'कथाक्रम' 'दोआबा', 'ककसाड़', 'अहा जिंदगी', 'पाखी', 'लमही', 'देस हरियाणा', 'मुक्तांचल', अभिनव इमरोज़, कला वसुधा, 'परिकथा' आदि साहित्यिक पत्रिकाओं में कहानियों/कविताओं का प्रकाशन. स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं तथा डिजिटल मीडिया में रचनाओं का नियमित प्रकाशन.
कविताएँ, कहनियाँ और सामाजिक विषयों पर ब्लॉग आदि का लेखन.
आकाशवाणी के छतरपुर (मध्य प्रदेश) केंद्र से रचनाओं का नियमित पाठ
संपर्क :
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