Jindagi mere ghar aana - 14 in Hindi Moral Stories by Rashmi Ravija books and stories PDF | जिंदगी मेरे घर आना - 14

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जिंदगी मेरे घर आना - 14

जिंदगी मेरे घर आना

भाग- १४

नेहा में वही पुरानी चपलता लौट आई थी बस बीच-बीच में रोष की लालिमा की जगह सिंदूरी आभा छिटक आती, चेहरे पर। सहेलियों के बहुत कुरेदने पर भी सच्चाई नहीं आ सकी होठों पर। लेकिन जब एंगेज्मेंट का दिन करीब आने लगा तो स्वस्ति को राजदार बना ही लिया। सुन कर किलक उठी स्वस्ति... नाराज भी हुई। -

-‘हाय! सच नेहा, जा मैं नहीं बोलती तुझसे...इतना गैर समझा मुझे... बिल्कुल भी बात नहीं करनी तुझसे।‘ - लेकिन छलकती खुशी ने ज्यादा देर तक नाराजगी टिकने नहीं दी।

दूसरे ही पल उसका कंधा थाम बोली-

‘अच्छा बाूेल! मेरा गेस ठीक था या नहीं‘ वह भी मुस्कराहट दबाते धीमे से बोली - ‘लेकिन तेरा गेस तो उल्टा था... यहां मेरी तरफ से कुछ नहीं है।‘

‘अयऽ हय... अब झूठ मत बोल... दूध की धुली हो न तुम... खूब पता है हमें, तुम्हारे मन की।‘ - फिर कुछ सोचती सी बोली थी - ‘असल में नेहा, तू इतनी भोली है, इतना निष्पाप मन है तेरा कि तुझे अपने ही मन की खबर नहीं थी... सोच कर हँसी आती है। उन दिनों तेरी बातचीत का एक ही विषय हुआ करता था -‘शरद‘। तू बीसीयों बार नाम लेती, उसका लेकिन जहाँ हम कुछ कहते कि बिगड़ पड़ती‘ - और रहस्य भरी मुस्कराहट के साथ बोली - ‘मुझे तो लगता है, शरद से ज्यादा तू ही... बीच में ही बात काट दी उसने -‘बाबा, तुझे पढ़ाई करनी है य कहीं बाहर जाना है तो सीधे से बोल ना, मुझे क्यों बना रही है, सच्ची मैं चुपचाप चली जाऊँगी, बिल्कुल बुरा नहीं मानूँगी-‘

हँस पड़ी स्वस्ति - ‘अरे, नहीं, अब तो तेरे साथ का एक-एक पल कीमती है - सोचकर सिहर जाती हूँ, चली जाएगी तू तो कैसे बीतेंगे दिन, अपनी-तेरी दोस्ती पर हमेशा आश्चर्य होता है, मुझे... लेकिन तू अपनी अगंभीरता के विषय में इतनी गंभीर है कि मजे से पट गई मुझसे पता है विकी चाचा क्या कहते थे -‘

‘ये तेरे विकी चाचा क्या कर रहे हैं आजकल?‘

‘वही ‘रोड-इंस्पेक्टरी‘ और मुट्ठी में बारूद लिए घूमते हैं कि वश चले तो सारी दुनिया को आग लगा दें - खैर छोड़, पता है वो हमेशा कहते है कि ये ‘आग‘ और ‘बर्फ‘ का संगम कैसे हो गया? तू इतनी बातूनी, इतनी चंचल... सब से झट से दोस्ती कर लेती है और मेरे दोस्त ऊँगलियों पर गिने जाने वाले - पर अब तो नहीं कहेंगे‘ - भेद भरी मुस्कराहट के साथ बोली - ‘क्योंकि अब तो ये ‘फूल‘ और ‘बर्फ‘ का संगम है और इस मिलन से तो बस याद आता है, ‘गुलमर्ग‘! क्यों वहीं की बर्फ लदी चोटियाँ और डैफोडिल्स से भरी घाटियाँ साक्षी रहेंगी न...‘

‘तूने आज पूरी बनाने की कसम ही खा रखी है... अब चली मैं‘ - और वह सचमुच उठ खड़ी हुई।

स्वस्ति भी उठ आई -‘हाँ भई! शरद साहब की पसंद का ख्याल तो रखना है न... कहीं बातों-बातों में सात बज गए तो-‘ उसने गुस्से से आंखें तरेरीं तो स्वस्ति ने नाटकीय मुद्रा में आँखें बंद कर हाथ जोड़ लिए।

सुबह काफी देर से आँखें खुली। नींद जो रात भर नहीं आती....पहले तो पता ही नहीं था कि नींद क्यूँ रात भर नहीं आती और आज जब पता है तब भी दगा दे जाती है.

फ्रेश हो, लिविंग रूम में आकर न्यूजपेपर खोला और जो हेडलाईन पर नजर पड़ी तो चौंक गई। पेपर हाथ में लिए ही लॉन की ओर दौड़ी... डैडी को बताने। बचपन की आदत है उसकी कोई भी नई खबर पढ़ी और डैडी को बताने दौड़ पड़ी।

‘डैडी... डैडी... न्यूजपेपर देखा आपने... लड़ाई शुरू हो गई है...‘ और फिर पेपर उनके सामने कर दिया...

डैडी ने पेपर एक ओर हटा दिया और भारी स्वर में बोल -‘मैंने सुबह ही पढ़ लिया है‘ - बिना ध्यान दिए ही अपने उत्साह में उसने जोर-जोर से पढ़ना शुरू कर दिया तो रूखे स्वर में बोले डैडी -‘अपने कमरे में जाकर पढ़ो, यहाँ शोर मत करो।‘

गुस्से से पैर पटकती चली आई, वह एकदम पहले वाले डैडी होते जा रहे हैं - अपने कमरे में पैर रखा ही था कि शेल्फ पर रखे, शरद की तस्वीर पर जो नजर गई तो एक पल में ही डैडी के रूखेपन का कारण समझ में आ गया। पेपर हाथों से चू पड़ा, आँखों के समक्ष अँधेरा छा गया - ओह! इस युद्ध का सम्बंध शरद से भी तो है - पसीने से सारा जिस्म नहा उठा। अगर लड़खड़ा कर कुर्सी न थाम लेती तो सीधी जमीन की शोभा बढ़ा रही होती। फिर भी खड़खड़ाहट की आवाज सुन बुआ दौड़ी हुई आई (तो, बुआ भी सुबह-सुबह खबर पढ़ते ही आ गई) जमीन पर पड़े अखबार और उसके पीले चेहरे ने सारा माजरा समझा दिया, उन्हें। बुआ ने उसे संभाल कर लिटा दिया और सर सहलाती देर तक समझाती रहीं -‘तू तो इतनी समझदार है, नेहा। ऐसे धीरज नहीं खोते... तुझे ऐसे देख, भैय्या-भाभी पर क्या बीतेगी...‘ - बुआ बोलती चली जा रही थीं। वह सुन तो रही थी लेकिन एक शब्द भी दिमाग तक नहीं जा रहा था। सोचने-समझने की शक्ति जाने कहांँ चली गई थी। शरीर शिथिल पड़ता जा रहा था और मस्तिष्क निस्पंद। बस ऐसा लग रहा था, जैसे बहुत थक गई है, वह। आँखें खोलने में भी कष्ट होता, जैसे मन-मन भर के बोझ रखे हो, दोनों पलकों पर।

किसी तरह खुद को समेट कर लिविंग रूम में टीवी के सामने आ बैठी। भैया ने जिस तत्परता से उठ कर सोफे पर न्यूजपेपर समेटे और कंधे पर हाथ रख पास बिठा लिया कि आँखें भर आईं उसकी। कुछ ही घंटों में क्या-क्या न बदल गया। सारा घर पास-पास बैठा टीवी पर नजरें जमाए था... पर सब एक-दूसरे से निगाहें, कतरा रहे थे। दो-चार बातें होतीं... वो भी इतनी धीरे कि विश्वास करना कठिन हो जाता कि सचमुच वे जुमले हवा में तैरे भी हैं; लगा जैसे एक झंझावात गुजर गया था और छोड़ गया था अपने पीछे छूटे अवशेष... जिनमें जीवन का कोई चिन्ह शेष नहीं बचा था।

‘एंगेज्मेंट‘ के लिए शरद एक हफ्ते की छुट्टी लेकर आया था। फोन किया कि ‘एंग्जेमेंट‘ तो नहीं होगा, छुट्टी कैंसल उसे आज ही निकलना होगा पर फ्रंट पर जाने से पहले वह मिलते हुए इधर से ही जाएगा। डैडी ने कहा भी अब आ ही रहे हो तो... ये सेरेमनी भी अब हो ही जाने दो, पर उसने सख्ती से मना कर दिया।

वादे के अनुसार, शरद आया भी लेकिन इस बार कोई दौड़कर रिसीव करने नहीं गया। सब उसे खरामा-खरामा भीतर आते देखते रहे। भैय्या ने जरूर दो कदम आगे बढ़ बाहों में भर लिया था। शरद के धूपखिले मुस्कान वाले चेहरे पर भी कुछ तैर आया था। डैडी के पैरों की ओर झुका तो उन्होंने आधे में ही रोक उसे सीने से लगा लिया था। आँखों के गीलेपन को छुपा गए थे; वह सबों से दो कदम पीछे खड़ी थी... शरद की खोजती निगाहें उस पर टिकी और आंखों मे ही मुस्करा दिया पर आंखों की उदासी उससे छुप नहीं सकी थी।

फिर भी उसने अपनी पुरानी जिंदादीली वैसे ही बरकरार रखी थी -‘अंकल देखिए तो कितना भाग्यशाली हूँ मैं? कहाँ तो लोग ट्रेनिंग ले-ले कर बरसों पड़े रहते हैं और अपने जौहर दिखाने का कोई अवसर नहीं मिलता और एक मैं हूँ, इधर ट्रेनिंग पूरी की और शौर्य-प्रदर्शन का इतना नायाब मौका मिल गया। बोलिए हूँ न, भाग्यवान।‘

और माली काका पर नजर पड़ते ही बोला - ‘हल्लो! माली काका -‘ फिर दूसरे ही क्षण - ‘अरे, अरे हिलो नहीं, मैं तुम्हें हिलने को थोड़े ही कह रहा हूं...‘ साथ ही पूरे दिल की गहराई से लगाया गया ठहाका।

ऐसे ही, नाश्ते के वक्त -‘हेलोऽऽ काकी, कैसी हो?‘ - काकी अबूझ सी मुंह देखती रही तो हँस पड़ा -‘अरे, बाबा ये थोड़े ही पूछ रहा हूँ कि ‘हलवा‘ कैसा है? पूछ रहा हूँ... तुम कैसी हो।‘