samay ka daur - 2 in Hindi Poems by बेदराम प्रजापति "मनमस्त" books and stories PDF | समय का दौर - 2

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समय का दौर - 2

काव्य संकलन -

समय का दौर

वेदराम प्रजापति मनमस्त

सम्पर्क सूत्र. गायत्री शक्ति

पीठ रोड़ गुप्ता पुरा डबरा

भवभूति नगर जिला ग्वालियर 475110

मो0. 99812 84867

समय का दौर

वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त जी’ ने समय का जो दौर चल रहा है, उसी के माध्यम से अपनी इन सभी रचनाओं में अपने हृदय में उमड़ी वेदना को मूर्त रूप देने का प्रयास किया है। लोग कहते हैं देश में चहुमुखी विकाश हो रहा है किन्तु हमारा कवि व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है जिसके परिणाम स्वरूप इन रचनाओं का प्रस्फुटन हुआ है। उसे आशा है मेरे विचारों पर लोगों की दृष्टि पड़ेगी और उचित परिवर्तन हो सकेगा। इसी विश्वास के साथ।

रामगोपाल भावुक

समय का दौर

काव्य संकलन

4 युद्ध नहीं होऐगा भाई

युद्ध क्यों टल रहे अब तक, विचारा क्या कभी भाई।

दोनों ओर की धरती, रही आपस में घबराई।।

शान्ति माहौल क्यों अब तक, आणविक सभी की फसलें।

नहीं सदभाव, सच मानो, भय के भाव में नस्लें।

अहंकार के तोते, चौचें आईने पर मारत-

लगता है, खड़ा बोही, कुंठित भय भरीं अक्लें।

वैश्विक मंदिता गहरी, फहरा यहाँ रही परिचम,

भूँख और प्यास ने यहाँ पर, अपनी व्यथा गाई।।1।।

बोल रही महंगाई सिर चढ़, जमाना फैशनी हो चला।

बात मोबाइल मत पूँछो, किस कदर रिश्ता यहाँ गला।

गायब पगड़ियाँ हो गईं, नई औकात जूतों की-

इस तरह युद्ध कई एक है इनमें कौन सा है भला।

न सोचो बात युद्धों की, सभी हैं भयंकर भारी,

आपसी संबंध बिगड़े हैं, लड़ते भाई से भाई।।2।।

फिल्में, सभी कुछ लगता, सच्चाई नाम नहीं कोई।

चले यदि बम्ब, क्या होगा, जानते इसे सब कोई।

धरती खूँ सनी होगी, आणविक कहानी कहती-

बढ़ेगी दानबी शक्ति, यहाँ तब मानवी रोई,

भबकीं सिर्फ हैं ये सब, युद्ध को जानते सब ही,

रहो मनमस्त हो कर के, युद्ध नहीं होयेगा भाई।।3।।

5 प्रतिशोध

राजनीति का नया दौर यह, अंगद पद ले आज अड़ा है।

न्याय, नीति तकिया के नीचे, प्रतिशोधों के यान चढ़ा है।

पिछले इतिहासों को लेकर, खोद दयीं हैं, नई खाइयाँ।

आसमान तक मडराती हैं, उनकी गहरी-सी परिछाइयाँ।

राजनीति के इस जंगल में, भटक गया मानव का चिंतन-

दिशा हीन हो चला जा रहा, उचित राह नहीं कहीं पाइयाँ।

गर्वीला है और हठीला, परामर्श, संवाद नहीं है-

करता कुछ, हो जाता कुछ है, अनहोनी के द्वार, बढ़ा है।।1।।

कहाँ गया मानव का चिंतन जिस पर, गर्वित थी भू-माता।

फहराती थीं धर्म ध्वजाऐं, जिसका देवलोक यश गाता।

विशदायी पौधे उग आए, उसी धरा पर आज कहाँ से-

परिभाषा-कितनीं, क्या बदली, जान न पाया जिसे विधाता।

चिंताओं के बाग लगाता, चिंतन का अनमोल धरातल-

क्या भविष्य होगा ? कुछ सोचा ? समय-सिंधु तो बहुत बड़ा है।।2।।

कितनी गंदी राजनीति भई, बिकी यहाँ की न्याय व्यवस्था।

ढूँढ-ढूँढ कैं जलें भरदईं, बहीं देखते, कोई अबस्था।

लालू, मुलायम, करूणानिधि संग प्रफुल्ल, ममता, बीरभद्र भी-

बादल, देवी, राजठाकरे, बंशी, भजनलाल की क्या दशा।

नरेन्द्र मोदी, अमितशाह संग राहुल, सोनियाँ क्या-क्या पाए-

चिदम्बरम और कमलनाथ भी, बोरा, हुड्डा परवान चढ़े हैं।।3।।

राजनीति के इस अंधड़ में, गाँधी, नेहरू, जिन्ना रोऐ।

अटल और अडवानी, बल्लभ, माधव भी माला में पोऐ।

सबकीं अपनी-अपनी चालें, यूपीए, या एनडीए हो-

सत्ता का यह महा समर है, सबने हाथ-शक्ति से धोऐ।

प्रतिशोधी, सुध, सबने, चाखा, शिवकुमार या होवें बंशी-

प्रान्तों से दिल्ली तक हल्ला, चोटाला भी द्वार पड़ा है।।4।।

नहीं किसी ने कहा आज तक, किसने पत्थर प्रथम उछाला।

कौन कहे, इस द्वेश नीति को, अर्थहीन, सब झालम-झाला ।

बादल-अमरिंदर को देखो, जयललिता-करूणानिधि न्योर-

बहीं मुलायम-मायाबती हैं, बंशी-भजनलाल का प्याला।

अब भी समय ‘‘सोच ओ मानव‘‘ कब तक ये खिलवाड़ करोगे-

कब मनमस्त मानवी होगी, संभल चलो! यह माट घड़ा है।।5।।

6 महादानी-बापू (गाँधी जी)

भाग्यशाली है, बड़ा, गाँधी हमारा, वतन पर तन-मन किया न्यौछावर सारा।

भारत-भू रक्षाकारी, खा कर के गोली, राष्ट्रपितु, तब बन गया बापू हमारा।

नहीं मिली चरखे को धरती, यहाँ बापू, अधर में लटका हुआ है रेलगाड़ी

टॉय लेटों पर, तेरे चश्में की रौनक, हाँकने जनता तेरी लाठी अगाड़ी

वह सुरारी नाँक भी, तेरी खटकती, श्रवण की क्षमता यहाँ अनसुन बनी है।

बाबले बनकर खड़े तेरे ही बंदर, चाम तेरी पर, लड़ाई यहाँ ठनी है।

वे सुलम्बे हाथ भी तेरे अनूठे, जब उठे तब देश में बदलाव आया।

आज के परिवेश में, उनको भी बापू मात देने का यहाँ पर मन बनाया।

सोचते हैं चप्पलें कहाँ पर चलैंगी, मूँछ की भी पूँछ, अब कहाँ पर रहेगी

होयगे धोती के टुकड़े, कहाँ-कितने, नग्न देही पर प्रकृति कितनी हँसेगी।

रिश्वतों के दौर को भी, देखता हो कर खड़ा तूँ, सत्यमेव जयते, लिखा है रंगी तख्ती

किस तरह की हो गई तेरी विरासत, सोच में डूबा यहाँ, मनमस्त कमबख्ती।

सरजरी सो हो रही तेरे ही तन की, लैब में चल रहा मंथन आज तेरा

इस समय तेरे ही तन को, काटने हित, सोच में ही रोज होता सवेरा।।

यदि रहा, खिलवाड़ ऐसा जो कहीं, तेरे तन-बतन से।

हो रहा निश्चय है, बापू एक दिन, मिट जाऐगा भारत भुवन से।।