बागी आत्मा 3
तीन
रात के लगभग साढ़े बारह बज चुके थे। रात का सन्नाटा छाया हुआ था। तारों की रोशनी में रास्ता चलने में परेशानी नहीं हो रही थी। तभी लोगों की भाग-दौड़ की आवाज सुनाई पड़ने लगी। माधव सोचने लगा-कहीं डकैत तो नहीं हैं तभी रात में ये हलचल, ये संकेत की आवाजें सुनाई पड़ रहीं हैं। इस कस्बे में ऐसयी बारदातों का यह चौथा पाँचवा नम्बर है। माधव सारी स्थिति समझ गया। उसके मस्तिष्क में आया, क्या राव वीरेन्द्रसिंह खण्हर वाली गोशाला में इसी बात की मीटिंग हो रही थी। अब सब बातें जो उसने सुनी थीं, समझ में आ गईं-‘ तुम इधर से जाना, जब तक यह वहाँ नहीं पहुँचे तुम्हें वहाँ से हटना नहीं है।’
इसका मतलब इन सब बातों में राव वीरेन्द्रसिंह का हाथ। बहुत अदुष्ट है यह । इस पर गुस्सा तो बहुत आता है पर जब आदमी विवश होता है अपना मुँह भी नहीं खोल सकता है। इतना ही सोच पाया था कि उसे लगा कुछ लोग इधर ही आ रहे हैं तो वह वहाँ से हटकर पास की गली में घुस गया और ऐसे स्थान पर आकर खड़ा हो गया जहाँ, किसी की निगाह न पड़े।
उसी समय माधव को फुसफुसाहट सुनाई पड़ी-‘ गली में डाकू! मधव समझ गया रात के अंध्ेरे में मुझे डाकू समझ लिया गया है। मैं डाकुओं से बचने जान बचाने गली में आया। इन लोगों ने मुझे डाकू समझ लिया। माधव वहाँ से भागा। वह भग भी न पाया था कि किसी ने ऊपर की मुड़ेर से पत्थर पटक दिया। यदि वह भागकर गली से न निकला होता तो पत्थर उसके सिर पर ही आकर गिरता और उस की चपेट में आने से उसका कचूमर निकल जाता।
माधव समझ गया कि ये शिलाखण्ड मेरे ऊपर ही गिराया गया था। मैं पहले सोचा करता था - ये घनी लोग अपने मकानों की मुडेरों पर इतने बड़े बड़े पत्थर क्यों रखते हैं। आज उनका उपयोग समझ पाया हूँ। अब वह तेज कदमों से घर की ओर चला जा रहा था।
उसका घर थोड़ी ही दूरी पर था। उसे घर पहुँचने के लिये एक चौराहा पार कर रहा था तभी उसके कानों में कुछ षब्द सुनाई पड़े-‘वह एक मकान की आड़ लेकर खड़ा हो गया। जिससे वह लोगों की निगाहों से बच सके। अब वो आवाजें स्पष्ट सुनाई देने लगीं-‘ कोई किसी के पीछे अपनी जान मत दे देना। कोई किसी के पीछे अपनी जान मत दे देना।’ यह आवाज पास आती चली गई। यह निश्चित हो गया कि डाकू लोग यहीं से निकलकर जायेंगे।
माधव हतप्रभ सा खड़ा रह गया। उसके सोचने में आया- लोग कहते हैं, कभी कभी डाकू लोग बड़ी दया दिखलाते हैं। सुना है गरीबों पर तो बडे दयाबन्त होते हैं। इनके दुश्मन होते हैं तो ये पूजीपति लोग। मैं क्यों न अपने पिताजी के इलाज के लिये इनसे ही माँगकर देखता हूँ। अरे! बहुत होगा मार ही तो देंगे। अभी भी तो मरा मराया ही हूँ। यह सोचकर वह थोड़ा आगे बढ़कर उनके रास्ते में जाकर खड़ा हो गया जिससे वह उनके सामने पड़ जाये।
जैसे ही डाकू लोग वहाँ से निकले, दस बारह लोग रहे होंगे। उसका दिल घड़कने लगा। यदि वह एक भी मिनिट वहाँ और खड़ा रहता तो यातो मारा जाता, या उसका उदेश्य ही पूरा नहीं हो पाता।। उन्हें आते देख माधव बोला-‘अरे! सारे कस्बे को छानमारा पर इस कस्बे में कोई गरीबा परें, दीन दुखियें पर, दया दिखाने वाला कोई नहीं दिखा।’
उनमें से एक बोला-‘ क्या बकता है? साफ साफ कह।’
माधव ने साहस करके कहा-‘ मेरे पिताजी बीमार पड़े हैं। मैं उनकी देखभाल के चक्कर में कोई काम भी नहीं कर पाया। सारे कस्बे में उनके इलाज के लिये पैसे माँगता फिरा हूँ जिससे अपने पिताजी का डाक्अर से इलाज करा सकूँ। इस कस्बे में कोई दयावान नहीं निकला जो मेरी सहायता कर देता।’
उसके कानों में आवाज सुनाई पड़ी-‘ अबे साले क्या बकता है, तुझे मरनास तो नहीं हैं। तभी उनमें से एक आगे बढ़ा और बोला-‘ क्यों रे बातों में उलझाकर धोखा तो नहीं दे रहा है?’
उसकी यह बात ध्यान से सुनते हुए हाथ में माउजर लिये पास आकर बोला‘-‘मैंने इसकी बातें सुन लीं हैं, मुझे तो इसके कहन में इसकी चीख सुनाई पड़ रही है। रे! तेरी बातें सुनकर मुझे अपनी माँ और बापू की याद आ गई। काश! तुम्हारी तरह मै ंअपने माँ बाप की सेबा कर पाता। बोल-‘ इलाज के लिये कितने रुपये चाहिए, बोल?’
‘ जितने आप सहजता से दे सकें। मगर मैं भीख नहीं माँग रहा हूँ। उधार चाहता हूँ।’
‘ उधार चुूका सकोगे?’
‘ जी, पर यह नहीं कह सकता कि कब चुका पाउंगा। पर चुकर अवश्य दूंगा।’
‘ उधार मुझे क्या चुकाओगे! ऐसे ही किसी बेवश को दे देना।’ यह कह कर उसने एक सौ का नोट उसके हाथ में थमा दिया और चलने लगा। माधव ने पूछज्ञ-‘ आपका परिचय?’
वह जाते हुए बोला-‘ रें हम बागियों का भी कोई परिचय होता है! यह कहते हुए वह चला गया। माधव मूर्तिवत् वहीं खड़ा रहा। जब डाकू चले गये तो वह सोचते हुये दबे पाँव आगे बढ़ा-लोग इन डाकुओं को बुरा क्यों कहते हैं। सच्चे डाकू तो ये पूंजीपति लोग होते हैं पर इन्हें कोई डाकू नहीं कहता। गरीब और अमीर दोनों ही इन्हें बागी कहते हैं। क्या नीति की इस मनोवृति पर पूंजीपतियों का ही अधिकार है। इसी कारण यह व्यवस्था आज तक स्वीकारी जा रही है। यही सोचने में उसका घर आ गया।
माधव ने घर में प्रवेश किया। उसके पिताजी की हालत बैसी की बैसी ही थी। रोज तो करवटे बदल बदलकर नींद भी आ जाती थी आज नींद भी गायब थी। कमजोरी के कारण जी घवरा रहा था। माधव को लगा कि डाक्टर को बुलाना अनिवार्य है,यह सोचकर घर से निकल पड़ा।
सुबह का संकेत देने वाले जमीदार साहब के घन्टों की आवाज रोज की तरह सुनाई पड़ी। सुबह के चार बज चुके थे। वह डरा सहमा सा डाक्टर के पास पहुँचा। आवाज दी।वह अभी अभी ही सोया था। माधव के आवाज देने पर कोई उत्तर नहीं आया तो उसने पुनः आवाज लगाई-‘ अरे! डाक्टर साहब.....।’
डाक्टर ने आवाज पहचान ली। बोला-‘क्या है माधव, क्या डाकुओं से मरवाना चाहता है?
मधाव झट से उत्तर दिया-‘ डाक्टर साहब डाकू तो चले गये। अब तो चलकर मेरे पिताजी को देख लो। आपकी जो फीस होगी नगद दे दुंगा।’
फीस की बात सुनकर वह बोला-‘ तुम्हें पता है रात्री के समय मैं किसी के घर जाने की दस रुपये फीस लेता हूँ।
‘ डाक्टर साहब आप चिन्ता नहीं करें, आप तो चलें।’
डाक्टर माधव के साथ चल दिया। थोड़े ही आगे बढ़े होंगे कि माधव बोला-‘डाक्टर साहब आप तो मेरा एक काम कर दो।’
‘ क्या काम?’
माधव ने झट से कहा-‘ आप तो मेरे पिताजी को ठीक करने का ठेका सौ रुपये में ले लो।’
सौ रुपये की बात सुनकर डाक्टर बोला-‘ सौ रुपये में उनके ठीक होने का इलाज! पक्का रहा वायदा। तुम्हें रोज रोज की पैसे की झंझट नहीं रहेगी। पर इतनी रात गये तुम्हारे पास इतने रुपये कहाँ से टपक पड़े?’
डाक्टर की यह बात सुनकर वह घबड़ा गया। सोचा क्या बहाना बनाऊँ? बात खुल न जाये इसलिये झट से बोला-‘ इन बातों से आपको क्या? आप तो पिताजी के इलाज की बात करो।’
डाक्टर के मन में प्रश्न खड़ा होकर बैठ गया। वह घन्धे की बात छोड़ना नहीं चाहता था। यह सोचकर वह बोला-‘ ठीक है मुझे क्या?
यह सुनकर माधव ने देर नहीं की, जेब से सौ का नोट निकाला और डाक्टर की ओर बढ़ा दिया। डाक्टर ने उसे जेब के हवाले करते हुए कहा-‘ माधव आप अब अपने पिताजी के इलाज की चिन्ता नहीं करें। वे जल्दी ही ठीक हो जायेंगे। उनका इलाज करना मेरा जुम्मा रहा, समझे।’
मधव म नही मन इस सब के लिये डाकुओं को दुआयें दे रहा था।
सुबह होते ही गांव की चहल-पहल देखने के लायक थी। सभी डरे हुए से जान पड़ते थे। कस्बे में सभी जान गये थे कि माधव रात डाकुओं से मिला है। पूंजी के नुमायन्दों ने जाल फैलाना शुरू कर दिया। एक गरीब पूंजी के चंगुल में फंस गया। फड़फड़ाने लगा। अपने को कोसने लगा रात क्यों डाकुओं से मुलाकात हो गई ? आह ! काश ं ं ं‘
माधव को तो इन बातों का उस वक्त पता चला जब उसके दरवाजे पर पुलिस आ गई। उसे गिरफ्तार कर लिया गया। उसकी कुछ भी समझ में नहीं आया कि वह क्या करे ? लेकिन इतना उसे स्पश्ट हो गया कि डकैती का अपराध उस पर लगा दिया गया है।
कोई भी आदमी बागी कब बनता है। जब उस पर झूठे अभियोग लगा दिये जाते हैं। आदमी उनसे बचने को छटपटाता है, पर बच नहीं पाता। विवश हो जाता है। उसकी आत्मा बागी बन जाती है।
जब पुलिस माधव को ले जाने लगी। उसने स्थिति को समझकर धीरज से काम लिया और चलते-चलते अपनी पड़ोसिन चाची से कह गया। ‘‘चाची मुझे जैसा समझा जा रहा है, मैं वैसा नहीं हूँ। चाची यह बात बिल्कुल गलत है। अब आप ही पिताजी की देखभाल करना। उन्हें सांत्वना देती रहना।
पुलिस माधव को लेकर जागीरदार के घर पहुंची। माधव चारों ओर से निराश हो चुका था। मुंह पर हवाइयां उड़ने लगीं। उसे लगने लगा यह सब उसी ने करवाया है। वह अपने मुख की मुद्रा में परिवर्तन लाने की कोशिश करने लगा। लेकिन ं ं ं ।
जब किसी शरीफ आदमी पर कोई अभियोग लगा दिया जाता है। उसके चेहरे की रौनक चली जाती है।
उस वक्त उसके मन में यह बात घर कर जाती है कि हर कोई उसे अभियोगी समझ रहा है। यदि वह न्यायालय से मुक्त भी हो गया तो समझा जाता है ले देकर कैसे भी बच गया। वह इस चिन्ता में डूबा था कि राव वीरेन्द्र सिंह ड्योढ़ी से निकलकर बैठक में आये। माधव को देखकर चेहरे पर क्रोध लाते हुए, बोले- ‘क्यों रे मधुआ तुझे यह सब करने में शर्म नहीं आई।‘‘ माधव को भी क्रोध आ गया बोला-
‘‘क्या काम करते काक ? फिर से तो कहियो।‘‘
‘‘हां हां कह तो रहा हूँ रे मधुआ। तूने तो डाकुओं से भी दोस्ती कर ली।‘‘
‘मेरी उनसे दोस्ती काक ?‘
‘तो क्या रे मधुआ, उनसे लूट में से हिस्सा उस चौराहे पर मैंने लिया था।‘
‘लेकिन काका मैंने तो उनसे उधार लिया था।‘
‘देखा इंस्पेक्टर साहब, लिया हिस्सा और कहता है उधार लिया है। मैंने सुना है दरोगा जी ये बड़ी रात तक गांव में चक्कर लगाता रहा। रात को गांव में चक्कर लगाने का क्या काम है ?‘
‘दरोगा जी आप अभी देख लो कि मेरे पिताजी बीमार हैं या नहीं। उन्हीं के इलाज के लिए पैसे मांगता फिरा। पर कहीं नहीं मिले तब मैंने ं ं ं।‘
‘तो क्यों रे मधुआ, पैसे नहीं मिले तो क्या बदमासों से दोस्ती करते हैं। अपने बाप को बचाने मैं दूसरे का धन लुटवा दिया।‘ माधव ने सोचा कि फंस तो गया ही हूँ। अब क्यों डरूं ? यही सोचकर बोला ‘काका यह सब तुम्ही ने कराया है तभी तो आपके उस गोशालो वाले मकान में वे सब लोग छिपे हुए थे।‘
यह सुनकर राव वीरेन्द्र सिंह गुस्से का भाव प्रदर्शित करते हुये दरोगा जी की ओर इशारा करके बोला- ‘देखा इन्सपेक्टर यह बदजात उल्टे मुझे ही लांछन लगाने लगा। इसे समझाओ न।‘
यह बात सुनकर दरोगा जी ने उसकी अच्छी मरम्मत कर दी। माधव को अपना मुंह बन्द कर लेना पड़ा। वह सोचने लगा- यहां सच कहना भी पाप है। यदि कुछ कहूँगा तो फिर मार पड़ेगी।‘ इस वीरेन्द्र सिंह को मैंने ही मजा नहीं चखाया तो किसी ने न चखाया। इसने तो झूठ को सच और सच को झूठ कर दिया।‘
राव वीरेन्द्र सिंह तिरछी दृश्टि से माधव की ओर देखते हुए दरोगा जी से बोला-‘ ‘देखो दरोगी जी, मार पड़ी और बच्चू चुप। अरे मार के मारे तो यह खुद ही सच-सच बता देगा।‘
अब दरोगा महेन्द्र ंिसह बोला- ‘छोड़ो साहब, कुछ धन्धा पानी हो तो करा दो।‘
धन्धे पानी की बात सुनकर राव वीरेन्द्र सिंह सोचने लगा-
‘ दरोगा को सारी बातें पता चल ही गईं हैं। इस मधुआ को बचा दिया तो ये मेरे सिर पर सवार हो जायेगा। यही सोचकर वीरेन्द्रसिंह बोला - ‘अरे इन्सपेक्टर साहब आप धन्धे पानी में क्या चोर को छोड़ दोगे, फिर इससे धन्धा पानी। इस पर क्या रखा है ?‘ यह कहते हुए एक लिफाफा दरोगा जी की ओर बढ़ाकर बोले-
‘जरा इस बेचारे का ध्यान रखना, अपना आदमी है।‘
‘आप बिलकुल चिन्ता न करें। इसका ध्यान रखना मेरा काम है।‘ कहते हुए इन्सपेक्टर उठ खड़ा हुआ और माधव को लेकर थाने चला गया।