मेरे घर आना ज़िंदगी
आत्मकथा
संतोष श्रीवास्तव
(23)
मेरी ट्रेन 5 घंटे लेट थी । दिल्ली पहुंचते ही भारत भारद्वाज से मिलना था। उनकी तबीयत ठीक नहीं थी और पिछले साल का प्रियदर्शन के नाम घोषित पुरस्कार भी देना था । भारत जी के घर पहुंचने से पहले मैंने प्रियदर्शन को फोन किया कि "आपका सम्मान मेरे पास है। आइए मिलते हैं। भारत जी के घर । "
बस फिर क्या था प्रियदर्शन जैसे घमंडी, बदमिजाज आदमी ने फेसबुक पर खबर डाल दी कि संतोष श्रीवास्तव सम्मान को सामान कह रही हैं। प्रियदर्शन समाचार चैनल में काम करता है इसलिए सोशल मीडिया में भी खबर उछली। मुंबई के जिन लेखकों को मैं अपना समझती थी उन सबने इस पोस्ट पर मेरी जमकर लानत मलामत की। बरसों से कठिन संघर्ष के बाद स्थापित हुए पुरस्कार को प्रियदर्शन जैसे बददिमाग पत्रकार ने धराशायी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। धराशायी तो वह फरवरी 2017 से ही करने की कोशिश में था । जब उसके नाम भारत जी ने विजय वर्मा कथा सम्मान घोषित किया था और जब उसने समारोह में आने से इंकार किया था क्योंकि उसे हवाई जहाज का किराया चाहिए था और होटल में स्वतंत्र कमरा जबकि हमने उसके रहने का प्रबंध विजय राय के साथ किया था। तब उसने यह भी कहा था कि आपने पुरस्कार के लिए मुझ जैसे गलत आदमी को चुना है और वह गलत था यह उसने सिद्ध कर दिया। इस घटना से ममता कालिया लोकार्पण करने से मुकर गई। वैसे भी उन्हें हमारा साथ देकर क्या मिलता। जबकि मीडिया में रहने की वजह से प्रियदर्शन ज्यादा फायदेमंद लगा उन्हें। लेकिन मैंने कभी ऐसी बातों की परवाह नहीं की क्योंकि मुझे पता है मैं ईमानदारी और सच्चाई से अपना काम डूबकर करती हूँ। समर्पित होकर करती हूँ । सफलता मिलेगी यह मानकर चलती हूँ।
विश्व पुस्तक मेले में वरिष्ठ लेखक दिविक रमेश और डॉ गंगा प्रसाद विमल जी के हाथों हमारे संयुक्त उपन्यास ख्वाबों के पैरहन का लेखक मंच से भव्य लोकार्पण हुआ । पूरा हॉल खचाखच भरा था। ऑडियो वीडियो शूट भी हुआ । प्राइवेट टीवी और यूट्यूब चैनलों ने कवरेज भी दी।
दूसरे दिन मुझे अयन प्रकाशन से प्रकाशित देवी नागरानी जी के ग़ज़ल संग्रह "सहन ए दिल" का लोकार्पण उनकी अनुपस्थिति में करना था। न्यूजर्सी से देवी दीदी ने फोन पर आग्रह किया था । लोकार्पण के बाद हम मेला घूमते रहे । किताबें खरीदते रहे और लेखकों से मिलते रहे । किसी ने न तो प्रियदर्शन के बारे में पूछा न हमसे कोई सफाई मांगी।
तीसरे दिन मैं आगरा चली गई। मेरे आगरा पहुंचते ही मेरी सखियाँ मुझसे मिलने गेस्ट हाउस आईं। मिठाइयां, गिफ्ट आदि से लदी फदी....... इनके इसी प्रेम के हाथों तो मैं बिक चुकी हूं । सुषमा सिंह इंडोनेशिया गई थीं लेकिन मेरे सम्मान में जनवादी लेखक संघ में एक गोष्ठी का कार्यक्रम तय कर गई थीं जिसके संचालक अध्यक्ष थे रमेश पंडित। रमा वर्मा जी के संग मैं गोष्ठी में आई । छोटी सी महफिल। लेकिन सभी प्रबुद्धजन। स्वागत सत्कार के बाद मेरा कहानी पाठ हुआ। मैंने "अजुध्या की लपटें" कहानी पढ़कर सुनाई और उस पर लगभग 2 घंटे जमकर विमर्श हुआ। कहानी सभी को बहुत पसंद आई । बाद में रमेश पंडित ने वह कहानी अपने जनवादी समूह में लगाने के लिए मांगी।
सम्मेलन के पहले दिन द्वितीय सत्र में मेरी मुख्य भूमिका थी । हालांकि प्रदीप श्रीधर जी का सम्मेलन के दूसरे दिन भी रुकने का आग्रह था पर मेरे पास वक्त नहीं था । मुझे पुरस्कार समारोह की तैयारी भी तो करनी थी । जो जनवरी में मुंबई में होना था। इस दो दिवसीय प्रवासी साहित्य सम्मेलन के दौरान मेरी मुलाकात नीदरलैंड से आई पुष्पिता अवस्थी से हुई। उनकी पुस्तक नीदरलैंड की डायरी का लोकार्पण भी प्रवासी साहित्य पुस्तक के साथ हुआ जिसमें मेरा लेख था।
सम्मेलन से गेस्ट हाउस लौटकर मैं भोपाल वापसी की तैयारी कर रही थी कि डोर बेल बजी । सामने तेजेंद्र शर्मा। हम दोनों चकित। उसी फ्लोर पर तेजेंद्र को भी रूम अलॉट हुआ था। मात्र 3 घंटे थे मेरे पास और ढेरों बातें ।
"यार तुम्हारा जलवा काबिले तारीफ है। राजेश श्रीवास्तव ने उर्वशी संस्था द्वारा भोपाल में प्रवासी लेखक जकिया जुबेरी को दिया जाने वाला सम्मान समारोह तुम्हारे कारण स्थगित कर दिया। "
तेजेंद्र चमकती आँखों से मेरी ओर देख रहे थे।
" अरे मुझे तो जानकारी ही नहीं इस बात की। इतना भर पता है कि हमारे कार्यक्रमों की तारीखें क्लेश हो रही थीं। "
इतने में प्रदीप श्रीधर आ गए । तेजेंद्र उनसे भी मेरी तारीफ करने लगे।
"अंतरराष्ट्रीय लेखिका है जी। "
"मैडम दूसरी बार आई हैं हमारे सम्मेलन में । आज इन्हें जाना है। आप लोग डिनर ले लो वरना मैडम को लेट हो जाएगा। "
डिनर के लिए निकलते निकलते एक घंटा और लग गया। तेजेंद्र कितना कुछ बताए जा रहे थे मुझे और मेरा ध्यान घड़ी के कांटों की ओर था। होटल पहुंचने में 15 मिनट लग गए। मैंने अपने लिए सूप, सलाद और फिंगर चिप्स का ऑर्डर दिया क्योंकि यही चीजें जल्दी उपलब्ध हो सकती थीं। गेस्ट हाउस लौटी तो आगरा शहर के जाने-माने लेखक राजगोपाल वर्मा को इंतजार करते पाया। सामान पैक ही था मेरा । उन्होंने ही मुझे आगरा कैंट पहुंचा दिया।
खुद को मुसाफिरी में ढाल लिया है मैंने इसलिए हड़बड़ी नहीं रहती। बरसों बरस स्टेशन, एयरपोर्ट अकेले जाना, अकेले लौटना मेरी आदत में रच बस गया है । मैंने इस अकेलेपन को कुछ में खोजा है और मेरा खुद ही मेरा आख्यान है ।
भोपाल लौटने के हफ्ते भर बाद मुंबई रवाना । यह पहला पुरस्कार समारोह था जो मैंने फोन पर ही प्लान किया था, चॉक आउट किया था। अंधाधुंध काम, बैनर और मोमेंटो टाइप करके भेजना, फिर प्रूफ पढ़ना, ई कार्ड बनाना। मुंबई के साहित्यकारों को निमंत्रित करना। इसमें प्रमिला भी हाथ बंटाती, कार्यक्रम के बाद की न्यूज़ बनाना भी उसी का काम था। कार्यक्रम के दिन के डिनर का मीनू हम डिसाइड करते। हर एक काम की प्रारंभिक जवाबदेही मेरी। कुछ कोर कसर न रहे यही कोशिश।
हम सब मुंबई में अंधेरी के गेस्ट हाउस में रुके। प्रमिला, अशोक मिश्र वर्धा से, भोपाल से विजय कांत वर्मा और ग्वालियर से राकेश पाठक। कार्यक्रमों में साहित्यकारों की कम उपस्थिति की आशंका थी । एक तो मुंबई में मेरा लंबे अरसे से नहीं होना दूसरे फेसबुक पर प्रियदर्शन कांड । फिर भी उपस्थिति तो थी मगर हर बार की तरह नहीं। देवमणि पांडे जल्दी-जल्दी अधूरे संचालन से ही चल दिए । बाद में मुझे ही संभालना पड़ा। आलोक भट्टाचार्य को बहुत मिस किया।
लेकिन जनवरी से बुरे ग्रह पीछे लग गए थे । विनोद टीबड़ेवाला ने अपने वक्तव्य में मुसलमानों के खिलाफ कुछ कह दिया । नतीजा फिरोज खान, सूरज प्रकाश और सुधा अरोड़ा ने सारा मामला हमारे सिर मढ़ कर फेसबुक पर भी लिख दिया। दो-तीन दिन इसी की चर्चा फेसबुक पर रही। फिरोज खान और सूरज प्रकाश समारोह में उपस्थित थे पर सुधा अरोड़ा !!! बाद में पता चला कि समारोह के बाद ये सब सुधा अरोड़ा के पास गए और सुधा अरोड़ा ने ही उन्हें फेसबुक पर लिखने को उकसाया । मगर इससे मुझे क्या फर्क पड़ा। सुधा अरोड़ा ने मेरे जैसी उन्हें प्यार करने, मान सम्मान देने वाली दोस्त को खो दिया और मेरे दिल से अपनी छवि धूमिल कर ली। मुझे शिकायत है तो फिरोज खान और सूरज प्रकाश से। क्यों नहीं उसी समय इस बात का विरोध किया । क्या हिम्मत नहीं पड़ी ? या ? बाद में फिरोज़ खान ने फेसबुक से अपनी पोस्ट डीलिट करते हुए माफी माँगी पर ....... सच है वक्त का पता नहीं चलता अपनों के साथ लेकिन अपनों का पता लग जाता है वक्त के साथ......
ख्वाबों के पैरहन मातृभारती डॉट कॉम अहमदाबाद ने पहले धारावाहिक छापा था और विश्व पुस्तक मेले में किताब रूप में आते ही उसकी ई बुक भी छाप दी। खूब लोकप्रिय हो रहा है यह उपन्यास । क्योंकि एक इंच मुस्कान के बाद लेखक द्वय प्रयोग का यह दूसरा उपन्यास है। यूँ संयुक्त उपन्यास काफी छपे हैं । पर दो लेखकों द्वारा केवल राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी के बाद हमारा (मेरा, प्रमिला वर्मा )यह उपन्यास ।
समीक्षा की मैंने कभी परवाह नहीं की। मेरे समीक्षक मेरे पाठक हैं । उन्हीं का प्रतिसाद मेरी धरोहर है। एक बार मैंने अपने प्रकाशक से पूछा था कि क्या समीक्षा छपने से बिक्री में फर्क पड़ता है तो उन्होंने खिसियाकर कहा था
"कुछ खास नहीं, इसीलिए हमारी मंशा पुस्तकालयों में पुस्तकें पहुंचाने की रहती है। "
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अब यूं है कि हमारे सन्नाटे में नरगिस चटखती है । उसके फूलों का शबाब चैन नहीं लेने देता। सो जुट गए विश्व मैत्री मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन की तैयारी में और इस बार भोपाल से ही 23 से 25 मार्च तक इस सम्मेलन की योजना बना डाली। तय हुआ कि हेमंत स्मृति विशिष्ट हिंदी सेवी सम्मान भी इस वर्ष से शुरू करेंगे....... चर्चा का विषय "पत्र-पत्रिकाओं में संपादक की भूमिका। " विश्व मैत्री मंच के भारत भर के सदस्यों को सूचना दे दी गई । आगरा, ग्वालियर, झांसी, नासिक, रायपुर, जांजगीर और विदिशा से 28 सदस्यों ने सम्मिलित होने की सूचना दी। सबके रहने की व्यवस्था भी करनी थी । अंजना छलोत्रे और पूर्णिमा ढिल्लन के साथ 6, 7 होटल देखने के बाद होटल पलाश पसंद आया । 14 कमरे बुक कराने थे। होटल सरकारी था। सो मेल से रिक्वेस्ट लेटर भेजना पड़ा। हम तो सम्मेलन की तैयारी में आकंठ निमग्न। होश कहां और होश रहे भी क्यों, यही बेहोशी तो चाही है हमने । जिंदगी हमने इस बेहोशी को समर्पित कर दी है।
मुंबई में 38 साल तक हर तीसरे चौथे महीने आकाशवाणी विविध भारती पर चर्चा कहानी कविता के लिए बुलाई जाती । सो ये रूटीन आदत में शुमार हो गया था । यहाँ वह सब मिस कर रही थी कि आकाशवाणी भोपाल से शुभम जी का फोन आया कि महिला दिवस के लिए आपका लेख चाहिए । लेख मेरे पास पहले से तैयार था तो पहुंच गई रिकॉर्डिंग के लिए। शुभम अपनी ड्यूटी निभाते रहे। यानी की रिकॉर्डिंग के समय की एहतियात को अमल में लाएं। रिकॉर्डिंग के बाद शुभम ने कहा "कमाल है संतोष जी, ऐसी दोष रहित रिकॉर्डिंग तो मैंने पहले कभी नहीं की। आपको तो जल्दी-जल्दी बुलाएंगे हम। "
अब मैं क्या कहती 38 साल का तजुर्बा जो था।
रिकॉर्डिंग के बाद मैं आकाशवाणी से पैदल ही हिन्दी भवन की ओर निकल गई । अक्षरा ऑफिस पहुंचते पहुंचते मुंबई से सुशीला गुप्ता जी का फोन आ गया ।
"कहां हो संतोष । "
"भोपाल में हूं दीदी। बताएं। "
" एक लेख चाहिए तुमसे" पुस्तक संस्कृति पर गहराता संकट "इस विषय पर किताब संपादित कर रही हूँ जो तुम्हारे लेख के बिना अधूरी होगी। 10 दिन में लिखकर भेजो और तुम्हारा समय शुरु होता है अब । "
मैं जी कहती उसके पहले ही फोन कट गया । सुशीला जी मुझे बहुत चाहती हैं और शायद इसी का नतीजा है कि वह मुझसे पूछे बिना मेरा नाम हर जगह लिस्टेड कर लेती हैं और यह तो तय है कि मैं उनका यह अधिकार उनसे कभी नहीं छीन सकती।
तभी सूचना मिली सुशील सिद्धार्थ नहीं रहे । दिल धक से रह गया। अभी तो मिली थी उनसे विश्व पुस्तक मेले में। फिर अक्षरा के मासिक संस्करण के लोकार्पण समारोह भोपाल में हिंदी भवन में मुलाकात हुई थी । वह मेरे बाजू वाली सीट पर बैठे थे। हमेशा उनके चेहरे पर छाई रहने वाली हँसी तब भी बरकरार थी। क्या पता था डेढ़ महीने बाद यह हँसी हमसे बिछड़ जाएगी । मैंने उनसे आग्रह किया था ।
"भोपाल शिफ्ट हो गई हूँ । घर नहीं चलेंगे मेरे । "
"इस बार माफ़ी । सुबह ही लौटना है दिल्ली। अगली बार जरूर आऊंगा । "
वादा निभा नहीं पाए सुशील सिद्धार्थ। चेहरे की हँसी दिल का दर्द छुपाए थी। दिल भी कितना सहता। दे गया दगा। और हम से बिछड़ गए व्यंग्यकार सुशील जी । अपनी व्यंग्य की किताब "हाशिए का राग "मुझे पोस्ट से भेज कर उन्होंने कहा था ।
"जब तक यह किताब आपकी नजरों से नहीं गुजरेगी मेरा लेखन अधूरा माना जाएगा । "
मैंने समीक्षा की थी किताब की। जब उन्होंने "अपने अपने शरद "किताब जो व्यंग्य श्रृषि शरद जोशी पर आलोचनात्मक पुस्तक संपादित की थी तो मुझे फोन पर बताया कि "पुस्तक का शीर्षक नेहा शरद ने दिया है (शरद जोशी की बेटी )"
मैंने कहा था "बहुत प्रतीकात्मक शीर्षक है। "
तब मैं रूस जाने की तैयारी में थी । मैंने कहा "सुशील जी आप हर बार कहते हैं चलेंगे । इस बार चलिए न। "
"ढेर सारा काम है । आप हाशिए का राग का लोकार्पण मॉस्को में करा देना। "
अब आपकी हंसी कहाँ पाऊं सुशील जी!!
और फिर केदारनाथ सिंह! एक के बाद एक जैसे तांता सा लग गया । याद आ रही है उनकी कविता दो मिनट का मौन
भाइयों और बहनों/ यह दिन डूब रहा है /इस डूबते हुए दिन पर /दो मिनट का मौन /रुके हुए जल पर /गिरती हुई रात पर /दो मिनट का मौन।
केदारनाथ सिंह की इसी कविता से उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए मैंने 23 मार्च के राष्ट्रीय सम्मेलन की शुरुआत की थी। हिन्दी भवन का महादेवी वर्मा कक्ष, लोगों के बैठने की कैपेसिटी सौ की। हाल खचाखच भरा। बाहर भी लोग खड़े थे । मेरे लिए नया शहर, जान पहचान भी उतनी नहीं पर न जाने कैसे भीड़ उमड़ी । शहर के दिग्गजों डॉ देवेंद्र दीपक, डॉ उमेश सिंह, कैलाश चंद्र पंत और माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय के संजय द्विवेदी, उर्वशी अकादमी के डॉ राजेश श्रीवास्तव से मंच जगमगा रहा था।
संजय द्विवेदी को जब फोन पर आमंत्रित किया तो उन्होंने कहा
"प्रणाम संतोष जी, हम भिलाई में मिल चुके हैं और आपको वहां जो प्रमोद वर्मा स्मृति साहित्य सम्मान मिला था उस कार्यक्रम का संचालन मैंने ही किया था और मैं आपको होटल तक पहुंचाने भी आया था। "
“हाँ मुझे याद है संजय जी”
संजय समारोह में आए। हमेशा की तरह मेरे पैर छुए।
अनजान शहर भोपाल । लेकिन हमारी फितरत अलग ही किस्म की। हमको पता ही नहीं चलता कब हम शहर के हो गए । कब शहर हमारा हो गया। कार्यक्रम हिट लिस्ट में शुमार हो गया।
दूसरे और तीसरे दिन बाहर से आए लोगों को पर्यटन कराना था। हलाली डैम, सांची, उदयगिरि गुफ़ाएं, बिरला मंदिर, शौर्य स्मारक, भोजशाला, भीमबेटका, भोजपुरी स्थित शिव मंदिर, भोज तालाब में बोटिंग, डूबते सूरज की विदा होती किरनों ने झील को सुनहला कर दिया था।
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