जय हिन्द की सेना
महेन्द्र भीष्म
पन्द्रह
प्रातः आठ बजे के समाचारों में भारतीय सैनिक पुरस्कारों को प्राप्त करने वाले सैनिकों की सूची प्रसारित हो रही थी जिसे आँगन में धूप व नाश्ते का आनंद उठा रहे सभी कान लगाकर बड़े ध्यान से सुन रहे थे और तब सभी प्रसन्नता से झूम उठे जब शहीद लेफ़्िटनेंट भानु प्रताप को मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किए जाने की घोषणा प्रसारित हुई।
बलवीर भागकर अपनी माँ को यह शुभ समाचार देने जा ही रहा था कि उसके पैर ठिठके।
अगला नाम उसी का लिया जा रहा था .....‘जाट रेजीमेंट के लेफ़्िटनेंट बलवीर सिंह ने अपनी कंपनी के साथ पश्चिमी पाकिस्तानियों की एक बहुत बड़ी टुकड़ी को परास्त करने में, लेफ़्िटनेंट भानु प्रताप को सहयोग कर महत्वपूर्ण योगदान किया जिसके लिए उन्हें भी महावीर चक्र से सम्मानित किया जायेगा।'
बलवीर अंदर माँ के पास जा न सका। अटल, तौसीफ, हम्माद तीनों ने मिलकर उसे बधाई देते हुए अपने कंधों पर उठा लिया ।
नाश्ता करा रही मोना भी सब सुन चुकी थी। वह अंदर से माँ को ले आयी। बलवीर ने अपने आप को मुक्त कर माँ को दोनों हाथों पर उठा लिया और पूरे आँगन की एक परिक्रमा लगा डाली।
सच एक सैनिक द्वारा अपनी जान जोखिम में डालकर अपने कर्तव्यों का पालन करके शत्रु पक्ष के छक्के छुड़ा देना कोई मामूली बात नहीं है, फिर
ऐसे सम्मान ही कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से उस सैनिक के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होती है।
‘सभी सैनिकों को ये सम्मान गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर महामहिम राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किए जाएँगे। शहीद सैनिकों के परिवार के निकटस्थ सदस्य को राष्ट्रपति महोदय द्वारा सम्मान प्राप्त होगा।'
इसी के साथ हिन्दी में समाचार समाप्त हुए और एक बार पुनः अंग्रेजी में सभी ने समाचार सुने।
छब्बीस जनवरी उन्नीस सौ बहत्तर; सारा राष्ट्र आज तेइसवाँ गणतंत्र दिवस मना रहा था। भारत की राजधानी नयी दिल्ली आज के दिन दुल्हन की तरह सजाई गयी थी।
आज ही के दिन छब्बीस जनवरी उन्नीस सौ पचास को भारत की जनता के लिये भारतीय जनप्रतिनिधियों द्वारा निर्मित संविधान लागू किया गया था।
भारतीय इतिहास में आज का दिन गौरवशाली है जिसे राष्ट्रीय त्यौहार के रूप में प्रत्येक वर्ष हषोर्ंल्लास के साथ मनाया जाता है।
राष्ट्रपति महोदय एवं गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि पधार चुके थे।
बलवीर एवं भानु की माँ राष्ट्रपति महोदय के स्टेज के पास सम्मान प्राप्त करने आये अन्य सैनिक एवं शहीद प्रियजनों के मध्य बैठे थे।
पीछे तौसीफ, हम्माद एवं अटल पुरुषों की पंक्ति में बैठे थे जबकि उमा और मोना महिलाओं की अग्रिम पंक्ति में बैठी एक—एक पल को अपने सामने से ध्यानपूर्वक गुजरते देख रही थीं।
मुख्य अतिथि के सम्मान में इक्कीस तोपों की सलामी हुई। तभी आकाश में तीन सैनिक विमान क्रमशः केसरिया, श्वेत, हरा धुआँ छोड़ते हुए निकले जिनसे तिरंगे की आकृति आकाश में दूर तक फैल गयी।
अब उद्घोषक ने विगत माह हुए युद्ध में अपने जौहर दिखाने वाले बहादुर सैनिकों को, जो कि युद्धकाल में सेना के सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र के लिए चयनित हुए थे, मंच पर उनकी बहादुरी के कारनामों का बखान करते हुए बुलाया।
तदुपरांत आठ महावीर चक्र प्राप्त सैनिकों के नाम उच्चारित किए गए जिनमें लेफ़्िटनेंट बलवीर व शहीद लेफ़्िटनेंट भानु के संयुक्त जौहर का डाला।
थोड़ी देर में ही इस अप्रत्याशित घटना की सूचना हवेली, फिर गाँव भर उद्घोषक ने इस तरह बखान किया कि सुनने वाले रोमांचित हो उठे। क्रमशः लेफ़्िटनेंट बलवीर ने महावीर चक्र राष्ट्रपति महोदय से ग्रहण किया और एक तेज सेल्यूट के साथ वह वापस अपने स्थान पर आ गया।
फिर आयीं स्वर्गीय भानु की माँ जिन्होंने श्वेत साड़ी पहन रखी थी। फौजी उद्घोषक से इस परमवीर चक्र प्राप्त सैनिक की पत्नी और महावीर चक्र प्राप्त सैनिक की माँ के रूप में भानु की माँ का परिचय पाकर सुनने वाले श्रद्धा से भर उठे और रेडियो से चिपके लाखों लाख भारतीय यह दृश्य सुनकर रोमांचित हो उठे।
तीन दिन दिल्ली घूमने के बाद सभी सूरजगढ़ वापस आ गये। इन तीन दिनों मे अटल ने उमा को करीब से परखा—देखा ।
सूरजगढ़ में ठाकुर माधो प्रताप सिंह की हवेली के पीछे बागीचे में एकांत में घूमते बलवीर को अटल ने अपने मन की बात बता दी कि वह उमा से विवाह करने का निर्णय ले चुका है।
अपने स्वर्गीय मित्र को दिए गये वचन के बारे में ही इस समय बलवीर सोच रहा था। उसे मन माँगी मुराद मिल गयी। उमा के लिए अटल सर्वथा
योग्य वर था। वह अपने दोस्त को दिए गए वचन को पूरा होते देख रहा था।
उसने अटल को अपने सीने से भींच लिया।
कंधे के पास अटल की शर्ट बलवीर के आँसुओं से भीग गयी। यह आँसू
स्वर्गीय मित्र की याद के साथ प्रेम एवं प्रसन्नता के आँसू थे।
जितनी आसान कल्पना बलवीर उमा के पुनर्विवाह की कर रहा था, वास्तव में वह उतनी आसान नहीं थी। जब बलवीर ने ठाकुर साहब से उमा का विवाह अटल के साथ कर देने का आग्रह किया तब बुरी तरह भड़क उठे ठाकुर माधो प्रताप सिंह और गुस्से में उन्होंने गाँव के कुछ लोगों के सामने एक जोरदार
झापड़ बलवीर के गाल पर जड़ दिया और बलवीर को अनाप—शनाप सुना में फैल गई।
ठाकुर साहब ने अपनी पुत्रवधू के समान शांति देवी को भी नहीं छोड़ा और जब शांति देवी ने बलवीर का पक्ष लिया तो ठाकुर साहब ने उन्हें भी उनके परिवार के विरुद्ध रचे गये षड्यंत्र में सम्मिलित बताया और चिल्लाते हुए कहा कि वे सब उनके खानदान की मिट्टी पलीद करना चाहते हैं, उनके परिवार की सामाजिक मृत्यु पर तुले हैं।
ठाकुर माधो प्रताप सिंह के सामने कोई भी बोलने का साहस नहीं जुटा पाया। गाँव वाले शांत यह सब देख सुन रहे थे। ठाकुर साहब ने शांति व बलवीर को गुस्से में अपमानित करते हुए तत्काल सूरजगढ़ छोड़कर चले जाने के लिए कहा।
उमा अपने भाग्य पर सिसक उठी। आँगन में घट रही घटना उसके कमरे से साफ दिखाई दे रही थी। उसकी माँ ने उमा को अपनी छाती से लगा लिया।
उमा ने सभी के बीच सिर झुकाए अटल को आँगन से बाहर जाते देखा। ड्योढ़ी से मुड़कर बलवीर ने ठाकुर साहब की ओर देखकर लगभग
चीखते हुए कहा, ‘‘बब्बाजू! देखना एक दिन उमा की डोली उठेगी....अवश्य
उठेगी। मेरे स्वर्गीय दोस्त का सपना साकार होगा।''
कहते—कहते बलवीर की दृष्टि सामने खिड़की के अंदर कमरे में खड़ी उदास उमा पर पड़ी।
बलवीर को शांति देवी ने लगभग चीखते हुए बाहर की ओर ढकेला।
मोना, शांति देवी, भाई जैसे बलवीर एवं पिछले दिनों से स्नेहिल वातावरण में तौसीफ़, हम्माद व अटल को हवेली की महिलाएं तो क्या पुरुष वर्ग भी नहीं रोक पाया। ठाकुर माधो प्रताप सिंह के सामने किसी को आने का साहस नहीं हुआ।
सूरजगढ़ बस स्टॉप पर बलवीर से उमा की जुड़वाँ भतीजियाँ चुन्नी—मुन्नी मिलीं जो उमा का पत्र बलवीर के लिए लायी थीं।
नौ वर्षीय दोनों बच्चियों को बीती घटना का अहसास था, दोनों उदास आँसुओं से भरी आँखें लिए वापस लौटीं।
बलवीर ने उमा का पत्र पढ़ा, फिर सभी को सुनाया — भैया एवं माँजी,
आप लोगों के साथ बब्बाजू द्वारा किये गये दुर्व्यवहार से मुझे अत्यंत दःुख हुआ है। आप सब अब मेरी चिंता न करें। मेरी नियति ही अब शेष जीवन अपमानजनक वैधव्य को काटने के लिए हैं। स्वर्ग में बैठे भानु भैया से मैं विनती करूंगी कि वे अपने दोस्त से माँगे वचन को भूल जाएँ, जो गलतियाँ हों उन्हें
क्षमा करें।
आपकी अभागिन बहन/पुत्री उमा।
बलवीर की आँखों में आँसू आ गए।
वर्षों से चले आ रहे मधुर संबंध क्षणिक आवेश में आकर पलभर में टूट जाते हैं।
संबंधों का बिखराव तब होने लगता है जब एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष के अहम् को ठेस पहुँचायी जाती है भले ही वह दूसरे पक्ष के हित में क्यों न हो। व्यक्ति की चली आ रही पारम्परिक विचारधारा को एकाएक मोड़ पाना
असंभव तो नहीं पर कठिन अवश्य है।
बलवीर और स्वर्गीय भानु के परिवार के मध्य प्रेम, आत्मीयता, परस्पर विश्वास के संबंध थे, जिसकी शपथ लोग लेते थे। उन्हीं चिर दृढ़ संबंधों वाले दो परिवारों स्वर्गीय बलदेव सिंह और स्वर्गीय भगत सिंह के समय से चली आ रही दोस्ती को ठाकुर माधो प्रताप सिंह की हठधर्मिता ने बलवीर के प्रस्ताव को अपनी सामाजिक हत्या का प्रयास मान लिया और अपना आपा खोते हुए हमेशा—हमेशा के लिए संबंध तोड़ लिए।
तौसीफ़, हम्माद व अटल को बांग्लादेश से यहाँ आए पूरा एक पखवारा बीत चुका था।
अपने परिवार के पास तौसीफ व हम्माद बांग्लादेश इस विश्वास के साथ चले गए कि वे शीघ्र मिलेंगे भले ही मिलनस्थल भारत में हो या बांग्लादेश में।
अपने जाने से पूर्व दोनों ने आग्रहपूर्वक बलवीर को प्रणय सूत्र मे बंधना स्वीकार करा लिया, परन्तु बलवीर ने एक कठोर प्रण भी ठीक मण्डप के नीचे लिया कि वह मोना की माँग में सिन्दूर भरने की रस्म उसी दिन पूरी करेगा जब उमा की माँग सिन्दूर से भर चुकी होगी।
बलवीर की प्रतिज्ञा सभी को माननी पड़ी। मौन स्वीकृति के अलावा किसी के पास कोई उपाय नहीं था।
मोना व बलवीर को प्रणय सूत्र में बाँधकर तौसीफ व हम्माद तो चले गये परन्तु अटल को बलवीर के आग्रह पर अपने साथ नहीं ले जा सके।
मिलन की पहली रात को ही बलवीर ने बाँहों में समाई मोना को अपने ऊपर से उठाते हुए स्पष्ट शब्दों मेें कह दिया कि वह अभी उसका पूर्णतः ब्याहता पति नहीं है, जब वह उसकी सूनी माँग में सिन्दूर भरेगा तभी अपने पति धर्म का पूरी तरह से पालन करने में सक्षम होगा।
फूलों से भरी खुशबू वाली सेज पर दोनों प्रायः प्रत्येक रात्रि को इकट्ठे होते परन्तु वह कुछ भी नहीं होत,ा जिसकी चाह प्रत्येक स्त्री को अपने पति से रहती है।
मोना संतुष्ट थी कि बलवीर अपने आप को संयत किए हुए उसके प्रति होने वाले अधिकाँश कर्तव्यों को भली भाँति निभा रहा है।
जब बलवीर उदास थका हुआ उसे प्रतीत होता तब वह मुस्कराते हुए अपने पति का माथा चूम कर उसे अपनी बाँहों के घेरे में ले लेती।
अपने स्वर्गवासी मित्र को दिए गए वचन के पालन में हो रहा अनावश्यक विलम्ब, बलवीर को भारी पड़ रहा था। एक ओर विधवा उमा के पुनर्विवाह के विरुद्ध ठाकुर माधो प्रताप सिंह के साथ समाज के अधिकांश रूढ़िवादी लोग थे, जबकि बलवीर जैसे परिवर्तनशील नवीन विचारों के लोगों की संख्या नगण्य थी, उनमें भी अधिकांश खुलकर सामने आने से हिचकिचाते थे।
******