Google Boy - 10 in Hindi Moral Stories by Madhukant books and stories PDF | गूगल बॉय - 10

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गूगल बॉय - 10

गूगल बॉय

(रक्तदान जागृति का किशोर उपन्यास)

मधुकांत

खण्ड - 10

मशीन ख़रीदने के लिये गया तो गूगल अपने साथ एक गिन्नी भी ले गया। दुकान का सामान ख़रीदकर वह सुनार की दुकान पर आ गया। उसका साथी बलवन्त दुकान पर ही बैठा था। बलवन्त से पहली मुलाक़ात गोवर्धन परिक्रमा के दौरान ही हुई थी। फिर तो बाँके बिहारी ने उनको दोस्त बना दिया। जब कभी आवश्यकता पड़ती तो वह बलवन्त से रुपये भी ले लेता और अधिक होते तो उसके पास जमा भी करवा देता। अपनी माँ के गले की चेन भी उसने बलवन्त से ही बनवायी थी। तब से दोनों के बीच गहरे सम्बन्ध बन गये थे।

‘बलवन्त, आज मैं तेरे पास एक विशेष काम से आया हूँ..।’

‘बोल गूगल, मुझसे भूमिका बनाने की क्या आवश्यकता है...फटाफट काम बता’, बलवन्त ने उत्सुकता से कहा। वह सोने की एक अंगूठी तैयार कर रहा था, सो उसने उसको वहीं रख दिया।

गूगल ने अपनी जेब से गिन्नी निकालकर उसकी हथेली पर रख दी - ‘इसको बेचना है। देखकर बता, इसकी क़ीमत कितनी है?’

बलवन्त ने उसको उलट-पलट कर देखा। पूछा - ‘किसकी है यह?’

‘बाँके बिहारी जी की..।’

‘फिर तो सही-सही क़ीमत लगानी पड़ेगी’, बलवन्त ने काँटे पर रखकर उसका वजन किया। फिर से उसको जाँचा-परखा। अख़बार में आज का भाव देखा और बोला - ‘गूगल, आज के दिन तो यह चालीस हज़ार पाँच सौ की है, बोल क्या करना है?’

‘इसको बेच दे और रक़म मेरे खाते में जमा कर दे। अगली बार आऊँगा तो मुझे इस रक़म से हेलमेट ख़रीदने हैं, लगभग दो सौ..।’

‘अरे भाई, लकड़ी का काम छोड़कर क्या तूने हेलमेट की दुकान खोल ली है?’ हंसते हुए बलवन्त ने कहा, ‘वैसे एक बात बता दूँ, मेरे मामा का लड़का हेलमेट बनाता है। देख, यह हेलमेट उसी की दुकान से आया है दो सौ रुपये में’, बलवन्त ने तिजोरी पर रखा हेलमेट उठाकर उसे दिखाया।

‘अच्छा है यह। आई.एस.आई. मार्का भी लगा है। उसको दो सौ हेलमेट के लिये बोल दे।’

‘परन्तु यह तो बता, इतने हेलमेटों का तू करेगा क्या?’

‘रक्तदान करने वालों को उपहार दूँगा।’

‘परन्तु हेलमेट ही क्यों?’

‘क्योंकि यह इंसान के खून की रक्षा करता है। हमारे देश में अनेक मौतें हेलमेट न पहनने से होती हैं। इसलिये रक्तदान कैम्प में हेलमेट देना ही सर्वश्रेष्ठ उपहार रहेगा।’

‘बात तो तुम्हारी अच्छी है। एक पंथ, दो काज। खून लेकर दूसरे की जान बचाओ और हेलमेट पहना कर उसकी जान बचाओ। परन्तु भाई गूगल, इतना पैसा खर्च कौन करेगा?’

‘तुझे बताया ना, बाँके बिहारी जी...।’

‘जय हो बाँके बिहारी की, जय हो रक्तदाता की।’ दोनों हाथ ऊपर उठाकर उसने जोड़ दिये।

‘ठीक है, अब मैं चलता हूँ।’

‘आज चाय नहीं पीयेगा क्या?’

‘तुझे तो मालूम है, मैं चाय नहीं पीता।’

‘भाई गूगल, प्रत्येक इंसान में कोई-न-कोई कमजोरी, बुराई होती है, परन्तु मुझे तुम्हारे अन्दर एक भी दिखायी नहीं देती।’

‘बलवन्त भाई, लोग जिनको प्यार करते हैं, उन्हें उनमें बुराई दिखायी नहीं देती। वैसे तो इंसान ग़लतियों का पुतला है।’ कहता हुआ गूगल उठ खड़ा हुआ।

‘ठीक है, मैं तेरी इस रक़म को अपने पास जमा कर लेता हूँ और दो सौ हेलमेट का ऑर्डर दे देता हूँ। और कुछ?’

‘बस भाई जी, धन्यवाद’, कहते हुए गूगल दुकान से बाहर आ गया।

‘चालीस हज़ार पाँच सौ...एक गिन्नी की क़ीमत...माँ सच ही कहती थी कि सभी गिन्नियों का मूल्य चालीस-पचास लाख से कम न होगा....।’ अत्यधिक उत्साह से उसके कदमों में तेज़ी आ गयी। वह जल्दी से यह समाचार माँ को सुनाना चाहता था, इसलिये बस अड्डे का फ़ासला लम्बे-लम्बे कदमों से नापने लगा।

बस में बैठते ही वह रक्तदान शिविर की कल्पना करने लगा। पन्द्रह दिन बाद पापा की बरसी है...रविवार भी है....हाँ, उसी दिन अपने घर के बराबर वाले बाँके बिहारी जी के मन्दिर में...।

घर पहुँचते ही सबसे पहले उसने माँ को एक गिन्नी की क़ीमत बतायी। फिर हेलमेट की....रक्तदान शिविर लगाने की। मशीन ख़रीदने की.....सब बातें जल्दी-जल्दी बता दीं।

‘सब बातें अच्छी हैं बेटे, अब मुझे विश्वास हो गया है कि तू कुछ भी ग़लत नहीं करेगा।’

‘ग़लत-ठीक कुछ भी हो, परन्तु अपनी माँ की स्वीकृति लेना तो आवश्यक है। तुम्हारे अतिरिक्त मेरा भला चाहने वाला कौन है इस दुनिया में..।’

‘बाँके बिहारी हैं बेटा, जो हम सब का कल्याण करते हैं।’ माँ ने भरपूर स्नेह से उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया।

‘माँ, कल मेरी मशीन भी आ जायेगी। मैं सोचता हूँ कि सबसे पहले अपने कॉलेज का काम कर दूँ’, गूगल ने माँ के सामने अपना विचार रखा।

‘बहुत नेक विचार है बेटा तुम्हारा। हमें अपनी मशीन का उद्घाटन श्रेष्ठ काम से ही करना चाहिए’, माँ ने भी अपनी सहमति प्रकट की।

सुबह-सुबह अपनी मशीन और आवश्यक सामान रिक्शा में रखकर गूगल अपने कॉलेज पहुँच गया। उसे देखते ही कारपेंटर ट्रेड के अधिकांश छात्र व अध्यापक भी वर्कशॉप में आ गये। सारे कॉलेज से टूटे-फूटे बेंच लाये जाने लगे। वर्कशॉप में औज़ारों की कमी तो थी नहीं, इसलिये सभी छात्र बेंचों को ठीक करने में लग गये।

काम करते हुए गूगल ने उनको बताया कि अगले रविवार को गाँव के हनुमान मन्दिर में एक रक्तदान शिविर लगाया जायेगा, जिसमें प्रत्येक रक्तदाता को हेलमेट उपहार में दिया जायेगा।

यह ख़बर तो आग की भाँति सारे संस्थान में फैल गयी। सभी शिक्षकों की सहायता से रक्तदान में सेवा करने वालों की टीम बनाकर काम का बँटवारा कर दिया गया। गूगल खुश था कि अब रक्तदान शिविर लगाने का काम सबने अपने सिर ले लिया है। छात्रों के माध्यम से कैम्प की ख़बर पूरे गाँव में फैल गयी।

मशीन के साथ उसी टेम्पू में दो सौ हेलमेट भी आये थे। हनुमान मन्दिर के पुजारी की सहायता से सारे हेलमेट गिनकर स्टोर में रखवा दिये गये। मन्दिर में इतने हेलमेट उतरते देखकर वहाँ भी भीड़ लग गयी। जब पुजारी ने बताया कि ये हेलमेट रक्तदाताओं को उपहार में दिये जायेंगे तो अनेक लोगों का रक्तदान करने के लिये मन मचलने लगा।

पापा की बरसी का सब सामान गूगल ने पहले ही तैयार करवा दिया था। माँ ने कहा - ‘गूगल, तेरे पापा की बरसी का काम मैं सँभाल लूँगी। पंडित भोजन करें, तब तू एक बार खड़े हो जाना। बाक़ी समय में तुम अपने रक्तदान का काम सँभालना।’

माँ की बात सुनकर वह और भी अधिक उत्साहित हो गया। अब तो उसको पूरा विश्वास हो गया था कि सच्चे मन से कोई भी उपकार का काम करो तो ईश्वर स्वयं खड़ा होकर सारे काम को सम्पन्न करवाता है।

रक्तदान शिविर में उस क्षेत्र के एस.डी.एम., तहसीलदार, कॉलेज के प्राचार्य, समाजसेवी अनेक गणमान्य व्यक्ति पधारे। सबने गूगल को आशीर्वाद दिया।

दो सौ यूनिट एकत्रित होने के बाद भी लोग रक्तदान करने के लिये लाइन में खड़े थे। रक्तदाता को मिलने वाले उपहार समाप्त हो गये। गूगल के अध्यापक ने सुझाव दिया - ‘अपने कॉलेज के छात्रों को हेलमेट न दिये जाएँ, बल्कि उनका नाम लिख लिया जाये...बाद में हेलमेट ख़रीद कर उनको कॉलेज में बाँट दिया जायेगा।’

गूगल को यह बात भी ठीक लगी। उसने घोषणा करवा दी कि उपहार प्रत्येक रक्तदाता को दिया जायेगा, चार-पाँच दिन बाद आई.टी.आई. में दिया जायेगा। जिसकी सूचना आप सबको भिजवा दी जायेगी।

हेलमेट और मँगवाने के लिये गूगल ने अपने साथी बलवन्त को फ़ोन कर दिया। सुनकर बलवन्त तो बहुत ख़ुश हुआ और एक घंटे में ही फ़ैक्ट्री से हेलमेट उठाकर अपनी गाड़ी में रखकर ले आया। हेलमेट उतरते देख लोगों में फिर से उत्साह भर गया।

कुल दो सौ अस्सी यूनिट रक्त एकत्रित हुआ। रेडक्रास का ज़िला सचिव तो बहुत ही खुश था। उसने गूगल से पूछा - ‘गूगल, यह तो बताओ कि ये हेलमेट किसकी ओर से बाँटे जा रहे हैं?’

‘बाँके बिहारी जी की ओर से सर।’

‘कौन बाँके बिहारी?’

‘गोवर्धन वाले बाँके बिहारी जी ..बोलो, बाँके बिहारी जी की जय।’ बाँके बिहारी का जय-जयकार होने लगा तो सचिव महोदय का सवाल उसमें खो गया।

यह संदेह तो अनेक व्यक्तियों के ज़हन में उत्पन्न हो रहा था कि इस कैम्प में लाखों रुपये का खर्च कौन उठा रहा है। कुछ व्यक्ति अलग से बतियाते तो कोई गूगल से पूछ भी लेता। परन्तु बाँके बिहारी का नाम आते ही सबकी बोलती बंद हो जाती थी।

स्वैच्छिक रक्तदान का काम गूगल के मन में बस गया तो उत्साह के साथ उसने घोषणा करवा दी कि पापा के जन्मदिन पर अर्थात् चार जुलाई को प्रत्येक वर्ष वह रक्तदान शिविर का आयोजन किया करेगा। लोगों ने भरपूर तालियाँ बजाकर उसकी घोषणा का स्वागत किया।

घर पहुँचा तो ख़ुशी-ख़ुशी माँ को सब समाचार सुनाया। उसके उत्साह और उमंग को देखकर वह भी बहुत खुश हुई। गूगल के मोबाइल में आज बधाइयों का ताँता लग गया। ‘जय रक्तदाता’ लिखकर वह सबका धन्यवाद करता रहा। किसी का फ़ोन आता तो वह ‘हैलो’ के स्थान पर ‘जय रक्तदाता’ कहकर संबोधित करता।

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