जिंदगी मेरे घर आना
भाग – 13
नए सिरे से किताब में मन लगाने की कोशिश कर ही रही थी कि बुआ आती दीखीं। हाथ में उनके एक फोटो था। देखते ही बिफर पड़ी।
‘बुआ! मैंने कह दिया है न‘
‘तूने जो कहा है, मैंने सुन लिया और अब मेरी भी सुन‘ - शांत स्वर में बोलीं वह।
‘मुझे कुछ नहीं सुनना...‘ और किताब नजरों के सामने कर जोर-जोर से पढ़ने लगी।
‘ठीक है, फोटो रखती जा रही हूँ.... कल सुबह मुझे अपने विचार बता देना... कुछ हल निकालना होगा या नहीं। तुम अपनी बात पर अड़ी रहो... भैया-भाभी अपनी बात पर... और बाकी लोग मुफ्त में तमाशा देखें।‘
‘मेरे विचार सबको अच्छी तरह मालूम है... और ये भी अपने साथ लेती जाओ-‘ कह हाथ मार कर फोटो गिरा दिया, पर इस क्रम में तस्वीर पर जो नजर गई तो फ्रीज हो गई वह। आश्चर्यचकित जाने कब तक वैसे ही खड़ी रह गई। हे ईश्वर! आँखें सही-सलामत तो है न, क्या देख रही है यह - जमीन पर शरद पड़ा मुस्करा रहा था। धीरे से, काँपते हाथों से तस्वीर उठा ली और एक सिहरन रोम-रोम में दौड़ती चली गई...‘शऽरऽद‘ - उसे तो इस रूप में कभी देखने की कल्पना ही नहीं की। देर तक उसके चेहरे पर देखते रहने की ताब नहीं थी। धीरे से टेबल पर तस्वीर सरका दी और खिड़की पर चली आई। अजीब गुमसुम सा लग रहा था, सबकुछ। किसी बिंदु पर विचार टिक ही नहीं रहे; क्यों अचानक इतना हल्का हो आया मन, सारा तनाव जाने कहां विलीन हो गया। मुस्काराहट खेल आई, चेहरे पर... ‘यू इडियट‘ उसे भी अंधेरे में रखा... किस कदर परेशान किया।
खिड़की के बाहर चटकीली चांदनी फैली थी। और अनायास उसे टेरेस पर वाली चांदनी रात याद हो आई... क्या शरद भी अभी अपने छत पर खड़ा निरख रहा होगा, चांदनी में नहायी इस सृष्टि को? क्या याद आई होगी, उसे भी... उस दिन की।
लिविंग रूम से आते बातचीत के स्वर में बार-बार उसका नाम उछल रहा था। ध्यान दिया.. मम्मी थीं।
‘सुन लिया न, फिर न कहिएगा, पहले क्यों नहीं बताया।‘
डैडी हूँ... हाँ करते न्यूजपेपर में डूबे थे।
पूरा एडिटोरियल खत्म कर, पेपर रखते हुए पूछा... ‘हां, वो जेमिनी ज्वेलर्स को आर्डर दे दिया।‘
‘कैसा आर्डर?'
‘क्यों‘...चौंके ' डैडी।
खीझ गईं मम्मी -‘क्या कह रही हूँ, तब से, बिटिया रानी तैय्यार नहीं है शादी को।‘
‘ये... ये सब क्या तमाशा है-‘ डैडी जोर से बिगड़े।
‘पूछिए अपनी लाड़ली से... जो बात थी मैंने कह दी।‘
‘अऽऽ नेहा... कहां है? नेहा ऽऽ‘ डैडी ने गुस्सैल आवाज में पुकारा तो उसने धीरे से लाइट आफ कर दी। पर स्विच आॅफ करते-करते ही शरद की मुँह चिढ़ा दिया -‘ बाज नहीं आए, दूर रहकर भी डाँट सुनवाने से।‘
बुआ ने कह दिया - ‘सो गई है।‘
पर नींद कहाँ आ रही थी? कुछ सोच भी नहीं पा रही थी पर जाने क्यों फूल सा हल्का हो उठा था उसका तन-बदन। लगा जैसे बड़ी मुश्किल से किसी चक्रव्यूह से निकल आई हो... सीने पर रखा कोई पत्थर सरका है, जिसके तले उसका दम घुट रहा था... अब खुलकर सांस ले सकती है। बहुत बड़ी समस्या सुलझ गई है, हालाँकि समस्या तो अपनी जगह है -‘क्यों शादी तो नहीं करनी ना, उसे? छोड़ो भी... बाद में सोचेगी यह सब। लेकिन ये शरद भी खूब निकला... एकदम छुपा रूस्तम, उसकी कारस्तानी है यह, कभी सोच भी नही सकती थी। या शायद परमानेंट डाँटने का जुगाड़ बैठा रहा है। और... सचमुच समस्या तो अपनी जगह है, शादी नहीं करनी न... पर क्यों पहले वह इतनी उद्विग्न हो रही थी और अब सहज, शांत है... कहीं सच्चाई तो नहीं थी स्वस्ति की बातों में। हालाँकि, उस दिन तो वह बहुत बुरा मान गई थी जब फूल की बात हो रही थी और स्वस्ति कह उठी थी -
‘अपनी नेहा, फूल तो है ही, पर शरद ऋतु में खिलने वाली।‘
नहीं समझी तो स्वस्ति ने बड़ी अदा से हँस कर दुहराया था -‘हाँऽऽ, शरद ऋतु‘
और उसने बड़ी जोर से डाँट दिया था - ’स्वस्ति! होश संभाल कर बातें किया करो।’
कहीं उसकी आँखों नें कुछ कह तो नहीं दिया... ऊँह! छोड़ो! होगा कुछ बाद में सोचेगी अभी तो नींद आ रही है, उसे। और सचमुच उन पंडित जी के दर्शन के बाद पहली बार पूरी पुरसुखद नींद ली उसने और किसी दुःस्वप्न ने नहीं डराया।
डर था... डैडी बुलाकर क्राॅस एग्जामिनेशन न शुरू कर दें - लेकिन किसी ने नहीं पूछा कुछ। बुआ ने भी नहीं - शायद उसके खिले-खिले चेहरे ने ही कोई सूत्र थमा दिया उन्हें।
***
अपनी किताबों में डूबी थी कि अचानक फोन की घंटी बज उठी. इंतज़ार करती रही. कोई तो उठाएगा
पर मम्मी हमेशा की तरह बाज़ार गयी हुईं थीं.'रघु'....'रघु' ऊँचे स्वर में पुकारा. पर रघु शायद घर में नहीं था.
भुनभुनाती हुई अपने कमरे से निकली. जरूर मम्मी की किसी सहेली का होगा.'मेरी बेटी तो डायटिंग के चक्कर में कुछ खाती ही नहीं'...'बेटा बिलकुल नहीं पढता'...पति को तो जैसे घर से कोई मतलब ही नहीं बस काम और काम'..यही सब होगा..या फिर महरी गाथा. इनलोगों को दूसरा कोई काम ही नहीं. जरा खाली हुईं और फोन लेकर बैठ गयीं.यही सब सोचते, रिसीवर उठा जरा, गुस्से में ही बोला, 'हेल्लो'
'नेहा'...उधर से थोडा आश्चर्यमिश्रित स्वर आया.और वह फ्रीज़ हो गयी. ये तो शरद की आवाज़ थी.
‘नेहा...'
'.......'
"नेहा...यू देयर "
"हूँ"..गले से फंसी हुई सी आवाज़ निकली और इस 'हूँ' ने ही शायद शरद को उसके मन की हलचलों की खबर दे दी. थोड़ी देर को वह भी चुप हो गया. शायद बस एक दूसरे की साँसे ही सुन पा रहे थे. पर शरद ही पहले संभला.
'हम्म तो इसका मतलब है.....मैं रिजेक्ट नहीं हुआ'
'मुझे क्या पता'...धीरे से बोली वह.
'नाराज़ हो मुझसे '
'नहीं'
'लग तो रहा है...सॉरी नेहा..आइ एम रियली रियली सॉरी....मुझे सामने से कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ी. पता नहीं कैसा डर था, कहीं तुम मजाक बना, हंसी में ना उड़ा दो. डर गया था, तुम्हारी 'ना' सुनने के बाद कैसे जी पाऊंगा?? इसीलिए बैकडोर से तुम्हारे मन का पता लगाना पड़ा....अरे, कुछ बोलो भी...अभी तक गुस्सा हो?
'मैं क्यूँ गुस्सा होने लगी...मुझे तो किसी ने कुछ कहा भी नहीं'
'ओह्ह!! तो ये बात है, लो अभी कह देते हैं...इसमें क्या है'....थोड़ी शरारत से बोला, शरद
'फोन पर ??...हाउ बोरिंग'....डर गयी, पता नहीं क्या बोल दे.
'अच्छा तो आपको फ्लावर, वाइन और म्युज़िक कासाथ चाहिए??'....शरद ने चिढाया.
'जी नहीं...इट्स सो प्रेडिक्टेबल'
'हे भगवान् तो क्या एफिल टावर के नीचे ले जाकर प्रपोज़ करूँ?'...जैसे खीझ गया था, शरद.
उसकी खीज देख, नेहा को भी मजा आने लगा और वो पल भर में पुरानी शरारती नेहा में बदल गयी.
'इतना ऊँचा नहीं उड़ती मैं...मेरे पैर ज़मीन पर ही हैं'
'तो तुम्ही बताओ'
'हम्म.....बीच रोड पे......बिलकुल बिजी सड़क हो...चारो तरफ से ट्रैफिक आ रहा हो...एकदम पीक आवर्स में...' उसकी कल्पना के घोड़े उडान भरने लगे थे.
'बस बस...ये नहीं होगा मुझसे'
'ठीक है' फिर मेरी तरफ से ना'
'अच्छा...थोड़ा कन्सेशन मिलेगा...सड़क तो हो...पर सूनी सी..खाली सड़क?'
'जी नहीं..एकदम बिजी रोड....सारी गाड़ियां रुक जाएँ..ट्रैफिक मैन व्हिसिल बजाना भूल जाए'...नेहा को मजा आ रहा था...और मत बोलो..सब मन में छुपा कर रखो.
'नो वे...ये तो नहीं कर सकता मैं'
'ठीक है...फिर कैंसिल'
'ओके...कैंसिल'
"क्या.... कैंसिल??'..नेहा ने जरा जोर से ही कहा, तो शरद हंस पड़ा..'अरे! मुझे आने तो दो.रोड पर शीर्षासन करके प्रपोज़ करने को बोलोगी तो वो भी कर दूंगा'
नेहा भी हंसने लगी और तभी शरद बोल पड़ा, 'ओ माई गॉड..आइ एम लेट....टाईम अप माई डियर...मुझे भागना होगा, अब"
एकदम से निराश हो गयी, नेहा...इतनी मजेदार बात चल रही थी.पर शरद ने अभी फोन रखा नहीं था.
'नेहा...'
'हम्म...'
बाय'...ओह्ह.. सिर्फ बाय कहना था उसे.
पर फोन तो अभी तक कट नहीं हुआ था. और नेहा की सारी इन्द्रियाँ कानों में सिमट आई थीं.धड़कन तेज हो गयी थी...और शरद ने कहा..'प्लीज़ टेक वेरी गुड केयर ऑफ योरसेल्फ...एन डू वेल इन योर एग्जाम'...जैसे शरद ने सारी इमोशंस उंडेल दी उन शब्दों में फिर कुछ रुक कर कहा.'आई मीन इट '.और फोन रख दिया
थोड़ी देर यूँ ही रिसीवर हाथों में लिए खड़ी रह गयी.कितना अच्छा है, घर में कोई नहीं है और वह थोड़ी देर यूँ चुपचाप, शांत खड़ी रह सकती है.फिर धीरे से रिसीवर रखा और धीमे कदमों से अपनी किताबों तक लौट आई.मन में बस चलता रहा...'प्लीज़ टेक केयर'...डू वेल'...'आई मीन इट'
***