Ek Samundar mere andar - 15 in Hindi Moral Stories by Madhu Arora books and stories PDF | इक समंदर मेरे अंदर - 15

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इक समंदर मेरे अंदर - 15

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(15)

वसई का यह घर बीच बाज़ार में था। खासी चहल पहल रहती थी रात के ग्‍यारह बजे तक। ज़रूरत की सभी चीज़ें आसपास मिल जाती थीं। एक क्लिनिक भी था...यानी अम्‍मां को इंजेक्‍शन लगवाने में कोई परेशानी नहीं थी।

सामने पार्वती थियेटर था। शाम को पानी पूरी, सेव पूरी, भेल आदि के ठेले और साथ ही कुल्‍फी के ठेले खड़े रहते थे। उसे बड़ी तसल्‍ली हुई उसकी और अम्मां की मनपसंद खाने की वस्तुएं वहां उपलब्‍ध थीं।

जब मन होगा वह खुद भी खा सकेगी और अम्‍मां को भी खिला सकेगी। दूसरे दिन वह डॉक्‍टर के पास गई थी और कहा था – ‘डॉक्‍टर साहब, वैसे तो अम्‍मां खुद आ जाया करेंगी इंजेक्‍शन लगवाने, पर यदि कभी वे नहीं आ पायीं तो आप या कंपाउन्‍डर इंजेक्‍शन लगाने घर आ जायें।

इस पर वे सहर्ष तैयार हो गये थे। उन्‍हें पता चल गया था कि कामना सुबह कॉलेज जाती थी और शाम को ही घर आ पाती थी। चूंकि अब पिताजी के हाथ का पैसा करीब करीब ख़त्‍म हो रहा था।

भाई पढ़ने के साथ साथ छोटी मोटी नौकरी कर रहे थे, उससे होने वाली आय से घर की मूलभूत ज़रूरतें मुश्‍किल से पूरी हो रही थीं। कामना की सेकेन्ड टर्म की फ़ीस का समय नज़दीक आ रहा था। वह घर की हालत देख रही थी। पिताजी से कहने में संकोच हो रहा था।

वह सोम से जब जब रुपये मांगती थी, उसे बहुत शर्मिंदगी लगती थी। पिताजी हमेशा उसे हर महीने की एक तारीख़ को चालीस रुपये देते थे, जिसमें सीजन टिकट, पेंसिल, पैन, रबड़, जैसी फुटकर चीज़ें खरीदना शामिल था।

वे चाहते तो ज्‍य़ादा जेब खर्च देकर बच्‍चों की आदतें बिगाड़ भी सकते थे। उनका मानना था कि बच्‍चोंको कम पैसे में अपने काम पूरे करने आने चाहिये। हमेशा वक्‍त़ एक सा नहीं रहता। वह कुछ कहे, इसके पहले ही पिताजी ने एक दिन कहा –

‘बेटा अब हम तुम्‍हारी फीस नहीं दे सकेंगे। तुमको पढ़ाई छोड़ना होगा। यह सुनकर तो वह सकते में आ गई थी। महज चंद सौ रुपयों के लिये ढाई साल की मेहनत पर पानी फिर जाने दे? ऐसा कैसे होने दे सकती है वह?’

वह तो खुद को मानसिक रूप से तैयार कर रही थी कि बीए करते ही वह कोई नौकरी कर लेगी। उन दिनों छोटी मोटी नौकरी मिल जाया करती थी। आगे की पढ़ाई करने के लिये उसका नौकरी करना ज़रूरी ही नहीं, बहुत ज्‍़यादा ज़रूरी था।

पिताजी की बात सुनकर तो वह सन्नाटा खा गई थी। उसने पापा से तो कुछ नहीं कहा और तैयार होकर कॉलेज चली गई थी। कॉलेज पहुंची तो चपरासी अंबालाल ने कहा – ‘कामना, आपको प्रिंसिपल मैडम ने अर्जेंट बुलाया है।‘

उसे कारण तो पता था, पर अनजान सी बनकर वह उनके केबिन में गई। प्रिंसिपल ने उसे बैठने के लिये कहा और बोलीं – ‘तुमने अभी तक टर्म फीस जमा नहीं करायी है.... तारीख कब की निकल चुकी है। यदि एक सप्ताह के अंदर फीस जमा नहीं करायी तो परीक्षा नहीं दे पाओगी। यह तुम्‍हारा अंतिम साल है

....पढ़ने में तुम इतनी तेज़ हो। मैं नहीं चाहती कि तुम्‍हारा नुक़सान हो।‘ अब कामना के सामने कोई चारा नहीं था। यदि वह अभी अपनी आर्थिक हालत नहीं बताती तो कैरियर शुरू होने के पहले ही खत्‍म हो जायेगा।

वह सिर झुकाये बैठी रही। प्राचार्या ने उसके इस एक्‍शन को भांप लिया। उनकी नज़रें बहुत तेज़ थीं इस मामले में और पूछ ही बैठीं वह सवाल, जिससे वह बच रही थी - तुम्‍हारे पिताजी तो मनी ब्रोकर हैं। तुम्‍हें पैसे की क्‍या कमी है?’

इतना सुनते ही कामना की आंखें डबडबा आई थीं, पर खुद को जज्‍ब़ करते हुए बोली - मैडम, बस आप इतना समझ लें कि सब कुछ ख़त्‍म हो चुका है। पहले वाले दिन नहीं रहे। और न जाने क्‍यों और कैसे वह प्राचार्या के सामने अपने मन की बातों की परतें खोलती चली गई और आंखों से टपटप आंसू बरसते रहे। प्राचार्या उसकी कांपती उंगलियों को देख पा रही थीं।

जिस कामना की उंगलियां प्राचार्या के लेक्‍चर को तेजी से नोट करती थीं, वही कांप रही थीं। जब कामना अपनी बात कह चुकी तो उन्‍होंने कहा - अपनी बात कह चुकीं? अब मेरी बात सुनो। मैं मैनेजमेंट से बात करके तुम्‍हारी फीस माफ़ करवा दूंगी...थोड़ा मुश्‍किल तो है,

पर नामुमकिन नहीं है। परीक्षा शुल्‍क मैं भर दूंगी, पर एक ही शर्त है कि तुम्‍हें बीए प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण करना होगा। तुम यह कर सकती हो, यह मैं अच्‍छी तरह जानती हूं। अब चिंता मत करो और मन लगाकर पढ़ाई करो।‘

यह सुनकर कामना के सिर और मन से एक भारी बोझ उतर गया था। अचानक वह टेंशन फ्री हो गई थी और उसके चेहरे पर अश्रु मिश्रित मुस्कान तैर गई थी पल भर को। उसने मैडम का आभार माना और केबिन से बाहर निकल आयी थी।

उसका ईश्‍वर में विश्‍वास और मज़बूत हो गया था। किस्‍मत एक रास्‍ता बंद करती है तो दूसरा खोल भी देती है, बस वह रास्‍ता दिखना भर चाहिये। शाम को जब वह घर आई और कुछ देर आराम करने के बाद पिताजी से कहा –

‘पापा, अब तुम मेरी पढ़ाई की चिंता मत करो। बीए पूरा कर लूंगी और अच्‍छे नंबर भी लाऊंगी, तुम देख लेना।‘ इस पर पिताजी ने उसके सिर पर हाथ फेरा था, मानो आशीर्वाद दिया हो। न उन्‍होंने कुछ पूछा और न उसने कुछ बताया।

इसके बाद वह अपने लक्ष्य की ओर मुड़ गई थी। वह सुबह खाना बनाकर जाती थी, ताकि अम्‍मां को परेशानी न हो। घर छोटा होने से बाई की ज़रूरत नहीं थी। पूरे घर में सामान सैट कर दिया गया था। झाड़ू पोंछा करने की जगह ही कहां बची थी।

परिवार के हर सदस्य को अपने काम खुद करने और अपने अपने कपड़े खुद धोने की आदत थी जो अब काम आ रही थी। पिताजी अम्‍मां के कपड़े धो देते थे। अम्मां से अब ये सब काम नहीं होते थे। शायद इंजेक्‍शन का असर हो।

हां, किचन में बने सिंक में वे बर्तन मांज लेती थीं। बर्तन होते ही कितने थे? अब परिवार एक बार फिर अर्श से फ़र्श और फ़र्श से अर्श पर आ गया था। बावजूद इसके किसी को इस बात का रंज नहीं था....जितना सबके नसीब में था, उनको उनका हिस्‍सा मिल रहा था।

अम्‍मां और पिताजी लगातार अतीत की बातें किया करते थे। वह उन दोनों की बातें सुनते सुनते कभी कभी पक जाती थी और कह बैठती थी – ‘तुम दोनों को और कोई काम नहीं है क्‍या? दिन-रात एक ही तरह की बातें .....पलट-पलटकर अतीत को दोहराते रहते हो’।

इस पर पिताजी कहते – ‘तुम का जानौ बिटिया। तुमाई अम्‍मां कौ तौ पूरौ परिवार है। हमाए पिताजी तौ तबई मर गये थे, जब हम चार साल के थे और तुमाई नानी तब मर गई थीं, जब तुमाई अम्‍मां नौ साल की थीं।

....तुमाई नानी तुमाई अम्‍मां कौ गौना देखके गई थीं। हमाई बहन सेवता भी जल्‍दी मर गई थीं। हम अकेले ही तौ हैं, सो अपनी अपनी बातें करकैं एक दूसरे का मन बहलाते रहते हैं।‘

वे दोनों किसी के प्रपंच में पड़ते ही नहीं थे। उन्‍हीं बातों में नोंक-झोंक, कहा-सुनी, छोटा मोटा झगड़ा भी हो जाता था। इस पर वह हंसकर अपनी पढ़ाई का काम करने लगती थी। उसे और पिताजी को पढ़ने की लत थी। वह बिना पढ़े सो ही नहीं पाती थी।

यदि पिताजी के हाथों में किताब आ जाये तो वे रात भर जागकर लालटेन की रोशनी में भी पढ़ते थे और पूरी पढ़ने के बाद ही सोते थे। उन्‍होंने मुंशी प्रेमचंद की कहानियां और डिस्कवरी ऑफ इंडिया को न जाने कितनी बार पढ़ा था

माली हालत ख़राब तो थी, पर इतनी ख़राब नहीं थी कि बच्‍चों की ज़रूरतें पूरी न कर सकें। पिताजी को घर बैठे खाते बनाने का का काम मिल गया था। वे घर से ही रजिस्‍टर में बैलेन्‍स शीट बनाकर दिया करते थे।

कामना की परीक्षाएं नज़दीक आती जा रही थीं। अब तो उसे दिन-रात एक कर देना था। उसकी आंखों की नींद मानो ग़ायब हो गई थी। किचन में बैठकर पढ़ा करती थी। अम्मां तबीयत ठीक न होने के बावजूद उसे रात को दूध गरम करके देतीं थीं। चाय बनाकर थर्मस में रख देती थीं।

तब कहीं जाकर प्रश्नों के उत्तर और सेमिनार पेपर तैयार कर पाती थी। वह इस बात को डंके की चोट पर कह सकती है कि उसके सेमिनार पेपर सर्वश्रेष्ठ पेपरों की श्रेणी में आते थे और प्राचार्या तक कोई कमी नहीं निकाल पाती थीं।

अब कामना बीए फाइनल ईयर के पेपर दे चुकी थी। उसने टाइपिंग क्‍लास जॉइन कर ली थी। वह खाली तो बैठ ही नहीं सकती थी। जब बीए का परीक्षा फल आया तो उसे 59.4 प्रतिशत मिले थे। वह प्रथम श्रेणी के बार्डर पर थी, मात्र पॉइंट .6 प्रतिशत से मात खा गई थी।

वह प्राचार्या के पास गई थी और उनकी कसौटी पर खरा न उतर पाने के लिये माफी मांगी थी। इस पर वे बोलीं – ‘यदि उस समय तुमसे वचन न लेती तो तुम इतने नंबर भी न लातीं।‘ वह उनका मुंह देखती रह गई थी...कुछ भी तो नहीं कह पाई थी।

इस तरह उसने पढ़ाई का एक बैरियर तो पार कर लिया था। अब आगे पढ़ने का यक्ष प्रश्न मुंह बाये खड़ा था। ज़िंदगी इतनी आसान किताब तो नहीं थी कि एक दिन में पढ़ ली जाये और गुन ली जाये...पन्ना दर पन्ना पढ़ना होता है।

फिर भी अबूझ रह जाते हैं कुछ प्रश्न कि ऐसा क्‍यों हुआ और कब हुआ..... पता नहीं कब उसकी आंखों से आंसू बरसने लगते थे और उसे गीतकार जय देव की ये पंक्तियां बरबस याद आ जाती थीं - ये नीर कहां से बरसे है, ये बदरी कहां से आई है।

बीए तो जैसे तैसे पास कर लिया था। गर्मी की छुट्टियों में अंग्रेज़ी टाइपिंग भी चल रही थी। आगे पढ़ना भी था। इतनी सारी समस्याएं? ग़नीमत थी कि वह पागल नहीं हुई थी। पता नहीं, वह कौन सी अदृश्य शक्ति थी जो उसे रास्‍ता दिखा रही थी।

उसे अचानक जीवदानी देवी अम्‍मां याद आ गई थीं। वही थीं जो उसका मनोबल नहीं गिरने दे रही थीं। उसने उनको मन से याद किया था। उसी रात वे सपने में दिखाई दी थीं। एक अकथनीय सुख और हौसला मिला था उसे।

गायत्री के विवाहित जीवन में कुछ समस्याएं आ गई थीं। अब चूंकि वह इटारसी रहती थी तो वहां की बातें पता नहीं चल पाती थीं और न वह बताती थी। ये सारी समस्याएं ससुराल वालों की ओर से थीं। गायत्री और उसके पति के बीच संबंध में खटास ननद की वजह से आ रही थी।

गायत्री का अरेंज्‍ड विवाह था और अपनी ही जाति का परिवार था। कारण यह था कि जीजाजी के माता-पिता काफी पहले इस दुनिया से नाता तोड़ चुके थे। बड़ी बहन के संरक्षण में छोटे भाई बहन पले बढ़े थे। जीजाजी बहुत अच्‍छे फोटोग्राफर थे। वे बताते थे –

‘हम लोग अनाथ बच्‍चों जैसा जीवन बिता रहे थे। कोई ज़िंदगी जीने का सलीका सिखाने वाला नहीं था। मेरे पास कैमरा खरीदने के लिये पैसा नहीं था। इसलिये माचिस की डिब्बी से कैमरा बनाकर काल्पनिक फोटो खींचा करता था।

यह एक बहुत बड़े व्यावसायिक ने देख लिया था और तय कर लिया था कि वे मुझे अपने यहां नौकरी भी देंगे और रहने के लिये फ्लैट भी देंगे। हर बिजनेसमैन और प्रतिष्ठान के मैनेजमेंट को इंसान की यह कमज़ोरी पता होती है कि यदि सुपात्र कर्मचारी को नौकरी और कैंपस में घर दे दिया जाये तो वह अपनी ओर से जल्‍दी नौकरी नहीं छोड़ता था।

यही हाल जीजाजी के साथ हुआ था। नौकरी और घर मिल जाने से उनका जीवन स्थिर हो चला था। उनकी बड़ी बहन उनके साथ ही रहती थी। उन्‍होंने पिताजी से अपने भाई के लिये गायत्री का हाथ मांगा और साथ ही दूर की रिश्तेदारी भी निकल आई थी।

वे लोग गायत्री को देखने के लिये आये थे और एक ही नज़र में उन्‍होंने गायत्री को पसंद कर लिया था। भाई बहन एक दूसरे को छोड़ने के लिये तैयार नहीं थे और इन सब बातों से तंग आकर गायत्री मुंबई वापिस आ गई थी। तब तक वह एक बेटे की मां बन चुकी थी।

पहली बार उसने अम्‍मां के सामने मुंह खोला था – ‘मैं तो मां बनना ही नहीं चाहती थी...लेकिन इनका कहना था कि एक बच्‍चा घर में आ जायेगा तो वह सेतु का काम करेगा।‘इस तरह वह एक बेटे की अम्‍मां बन चुकी थी।

पिताजी ने हालात को देखते हुए उसे घर में आश्रय दिया और साथ ही यह भी कहा – ‘बेटा, हम बच्‍चे की केयर करेंगे...इससे हमें कोई इनकार नहीं है, लेकिन तुम्‍हें नौकरी करनी होगी। गायत्री इस बात के लिये सहज मान गई थी। वह बीए पास थी और स्‍टैनोग्राफी जानती थी।

जो हुनर उसने महज शौक़ के लिये सीखा था, वह आज ज़रूरत के समय काम आ रहा था। उसे एक प्राइवेट फर्म में सेक्रेटरी की नौकरी मिल गई। जीजाजी को लगा था कि गायत्री एकाध महीने में वापिस लौट आयेगी...जैसाकि आमतौर पर होता रहा है।

बेटी को मायके की इज्‍ज़त का वास्‍ता देकर अक्‍सर ससुराल वापिस भेज दिया जाता था। पिताजी की सोच इस मामले में थोड़ी अलग थी। उनका कहना था कि जब तक दामाद उनको चिट्ठी नहीं लिखेंगे गायत्री को वापिस भेजने के लिये...वे गायत्री को नहीं भेजेंगे।

उनका कहना था – ‘दामाद के माता-पिता नहीं हैं, गायत्री के माता-पिता ज़िंदा हैं। मेरी बेटी की बेवजह बेइज्जती हो, मुझे मंजूर नहीं है। बेटी की शादी की है, बेची नहीं है।‘

गायत्री को जब आठ महीने हो गये, तब जीजाजी ने इस आशय का पत्र लिखा - पापा, आप गायत्री को उसकी शादी के बाद उसे अपने घर में रख रहे हैं, यह ठीक नहीं है। गायत्री को फैसला करना होगा कि उसे मेरे साथ रहना है या नहीं...वरना तलाक़ के पेपर तैयार करवा लिये जायें।

इस पर पिताजी ने मात्र पांच लाइनों का पत्र लिखा था – मिस्‍टर, इस प्रकार की वाहियात बातें लिखने की ज़रूरत नहीं है। तुमने बात बिगाड़ी है, तो बात करने मुंबई आना होगा। पढ़ी लिखी बेटी दी है। तुम्‍हारी और तुम्‍हारे घरवालों की हिम्‍मत कैसे हुई उसके साथ दुर्व्यवहार करने की? हमें तो पहली बार बताया है गायत्री ने।‘

ख़त पाने के दस दिन बाद जीजाजी मुंबई आये थे। कामना उन दिनों एक चलताऊ सी नौकरी कर रही थी। वह घर की बातों में इतनी दिलचस्पी नहीं लेती थी। अम्‍मां पिताजी थे न। वह घरेलू राजनीति से बहुत दूर रहती थी और वैसी बातों से हमेशा बचती रही थी।

गायत्री की शादी के बाद उसने उसे जिस तरह संघर्ष और सच पर अडिग रहते देखा था, उससे वह और भी मज़बूत होती गई थी। साथ ही खुद को अकेला करती गई थी। जब इंसान खुद को सबके साथ रहकर भी अकेला करता है, तभी आगे बढ़ता है।

वह शुरू से ही ‘न ऊधौ का लेना और न माधव का देना’ कहावत में विश्‍वास रखती थी और ये संस्‍कार आज तक उसमें विराजमान हैं। वही संस्‍कार उसके बेटों में भी विराजमान थे। यदि बच्‍चों की सही बात के खिलाफ़ जाती तो वे कहते – ‘नो पॉलिटिक्स प्‍लीज। हम घर छोड़ देंगे’।

तो समझौता इस बात पर हुआ था कि उनकी बहन का अपना घर-परिवार था, वे अपने घर रहें। यह जीजा की जिम्मेदारी होगी कि उनकी बहन पति-पत्‍नी के बीच में नहीं बोलेंगी और हर शाम उनका घर आना या उनके घर जाना कोई ज़रूरी नहीं था। इसके बाद ही गायत्री जीजाजी के साथ इटारसी वापिस गई थी।

यह सब देखकर कामना का शादी से दिल उचाट हो गया था। शादी के बाद यदि यह सब होना था तो शादी का मतलब ही क्‍या था? पति के माता-पिता की सेवा करने से बेहतर था कि अपने जन्मदाता की ही सेवा क्‍यों न की जाये।