नरोत्तमदास पाण्डेय ‘‘मधु’’ की प्रबंध कृतियां
‘‘मधु’’ की प्रबंध कृतियाँ काव्य रूपों की दृष्टि से दो प्रकार की हैं। कुछ कृतियाँ खण्डकाव्य की कोटि की हैं और शेष रचनाएँ लघु आख्यान काव्य के अन्तर्गत आती हैं। आख्यान कृतियों का विषय भी खण्ड काव्यों की तरह पौराणिक और ऐतिहासिक है। इन कथाश्रित कृतियों में बन्ध-निर्वाह भी है। परन्तु इनमें कवि का उद्देश्य किसी आदर्श का निरूपण है। ‘मधु’ की प्रबंध कृतियों की समीक्षा इन्हीं दो रूपों में की गयी है।
खण्डकाव्य शकुन्तला
कालक्रम की दृष्टि से यह कवि का प्रथम खण्ड काव्य है। ‘शकुन्तला’ की रचना जुलाई-अगस्त सन् 1940 ई. में हुई। इसके 14 दोहों और 31 कवित्तों में कण्व के आश्रम से शकुन्तला की विदा तक की कथा है। 23 जुलाई 40 से 27 जुलाई 40 के बीच कवि ने ‘विदा’ शीर्षक से 14 कवित्तों की रचना की है। इन छन्दों में प्रिय-विश्लेषण के क्षणों में प्रेमिका द्वारा अनुभूत पीड़ा का मार्मिक चित्रण है। ‘विदा’ लिखते-लिखते कवि को शकुन्लता की कथा पर खण्ड काव्य लिखने का विचार आया होगा। ‘विदा’ के दो छन्द ‘शकुन्तला’ में भी आये हैं।
कवि ने ‘शकुन्तला’ के प्रथम 24 छन्दों में रचना तिथि अंकित की है। इससे ज्ञात होता है कि कवि ने कभी एक दिन में 3-4 छन्द लिखे हैं और कभी कई दिनों तक एक भी छन्द नहीं लिखा।
‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्ं- के प्रारम्भ से चौथे अंक तक की कथा को संक्षिप्त रूप से ‘शकुन्तला’ में लिया गया है। दुष्यन्त और शकुन्तला की कथा महाभारत के आदि पर्व के अध्याय 67 से 74 में भी प्राप्त होती है परन्तु इसमें कथा का नीरस वर्णन है। कालिदास ने शकुन्तला की कथा की मधुर और करुण भावपूर्ण व्यंजना की है। इसी प्रकार ‘मधु’ की ‘शकुन्तला’ में भी इतिवृत्त के स्थान पर भाव प्रधानता है। कण्व द्वारा एक वृक्ष के नीचे शकुन्तला की प्राप्ति, मुनि के आश्रम में शकुन्तला और दुष्यन्त का मिलन, उनका प्रणव तथा परिणय, दुष्यन्त का वहाँ कुछ दिन रहकर हस्तिनापुर लौटने तथा दुर्वासा के शाप और कण्व के लौटने पर शकुन्तला की विदा की कथा का संक्षेप में वर्णन किया गया है। कथा को इसके आगे बढ़ाना कवि का ध्येय नहीं था इसीलिए उसने कण्व के आश्रम में दुष्यन्त द्वारा शकुन्तला को दी जाने वाली अँगूठी का उल्लेख नहीं किया जिसको देखकर दुष्यन्त को विस्मृत शकुन्तला का अभिज्ञान होता है। इस काव्य की भाषा खड़ी बोली है।
कथानक
‘शकुन्तला’ का कथानक कण्व के आश्रम से शकुन्तला की विदा तक के वृत पर आधारित है। मार्मिकता और भाव-सम्पन्नता की दृष्टि से शकुन्तला की कथा का इतना अंश ही प्रभावपूर्ण है। कवि ने वर्णनों की विशदता के द्वारा कथानक को अनावश्यक विस्तार नहीं दिया है।
कण्व ऋषि एक पेड़ के नीचे त्यक्त सद्यःजन्मा बालिका को देखकर दयावश उठा लेते हैं और अपने आश्रम में उसका पुत्रीवत् पालन करते हैं। पेड़ पर बैठे पक्षी समूह (शकुन) के नीचे पाने के कारण ऋषि बालिका का नाम शकुन्तला रख देते हैं। शकुन्तला कण्व के आश्रम में प्रमोदपूर्वक बढ़ती हुई षोडषी हो गई। एक दिन मृगयारत दुष्यन्त आश्रम में शकुन्तला के सौन्दर्य पर मुग्ध हो जाते हैं। वह शकुन्तला से गन्धर्व विवाह कर कुछ दिनों तक आश्रम में रहकर हस्तिनापुर लौट आते हैं। प्रिय के ध्यान में मग्न शकुन्तला को दुर्वासा के आगमन का अवधान नहीं रहता। दुर्वासा शकुन्लता को प्रिय की ओर से विस्मृति का शाप देते हैं। कण्व ऋषि आश्रम में वापिस आकर योग बल से सारा घटनाक्रम जान लेते हैं। वह शकुन्तला के जन्म का रहस्य उद्घाटित करते हुए बताते हैं कि वह विश्वामित्र और मेनका की पुत्री हैं। ऋषि शकुन्तला को प्रिय को स्मरण दिलाने के लिये हस्तिनापुर भेजते हैं।
मूलकथा में परिवर्तन-
शकुन्तला की मूल कथा का वर्णन महाभारत में मिलता है। कालिदास ने अपने नाटक ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में मूलकथा में अनेक परिवर्तन किये हैं। ‘महाभारत’ और ‘शाकुन्तलम्’ दोनों ही ‘शकुन्तला’ काव्य के उपजीव्य ग्रन्थ हैं, परन्तु कवि ने कुछ घटनाओं की दोनों से भिन्न कल्पना की है।
महाभारत में कण्व के आश्रम में दुष्यन्त सेना सहित आते हैं। कालिदास ने उन्हें एक हिरन का पीछा करते हुए अकेले ही आश्रम में आया दिखाया है। ‘शकुन्तला’ में मृगयारत दुष्यन्त आतप संतप्त होकर आश्रम में आते हैं।
महाभारत में कण्व ऋषि पुष्प-चयन के लिये आश्रम से बाहर गये हैं। कालिदास ने कण्व ऋषि को आश्रम में ही उपस्थित दिखाया है। ‘शकुन्तला’ में कण्व को किसी विशेष कार्य से अनुपस्थित बताया गया है। शकुन्तला और दुष्यन्त के प्रणय तथा परिणयोपरान्त केलि के लिये ऋषि की दीर्घकालीन अनुपस्थिति अधिक स्वाभाविक स्थिति है।
महाभारत में शकुन्तला दुष्यन्त का विवाह-प्रस्ताव यह वचन लेकर स्वीकार करती है कि उसका पुत्र दुष्यन्त का उत्तराधिकारी होगा। ‘मधु’ ने कालिदास की भाँति विवाह को सहसा उत्पन्न प्रेम की परिणति के रूप में दिखाया है। प्रतिबन्ध प्रेम की महत्ता को कलंकित करता है।
‘शकुन्तला’ में दुष्यन्त के प्रस्थान के समय शकुन्तला को दुष्यन्त के द्वारा अँगूठी दिये जाने का उल्लेख नहीं है। इसका कारण यह है कि कवि का लक्ष्य शकुन्तला की विदा तक की कथा कहना है। उसके बाद की घटनाएँ इस काव्य का वर्ण्य विषय नहीं हैं।
कवि ने दुष्यन्त के हस्तिनापुर-प्रस्थान और शकुन्तला को वहीं छोड़ जाने के प्रतीतिकारक हेतु की कल्पना की है। ऋषि बहुत दिनों से अनुपस्थित हैं। दुष्यन्त उनके आगमन पर शकुन्तला से विधिवत् विवाह करना चाहते हैं, क्योंकि अभी तो उनका गन्धर्व विवाह हुआ है। तब तक दुष्यन्त हस्तिनापुर जाकर राज्य कार्य देख आना चाहते हैं। इससे दुष्यन्त का राज्य के प्रति कर्त्तव्य-भाव प्रकट होता है। शकुन्तला से प्रणय-संयोग दुष्यन्त के जीवन का वैयक्तिक पक्ष है, परन्तु राजा के रूप में दुष्यन्त का सामाजिक कर्त्तव्य भी है। इस कर्त्तव्य-भावना से दुष्यन्त के चरित्र को उत्कर्ष प्राप्त होता है। महाभारत में दुष्यन्त शकुन्तला को यह विश्वास देकर चले जाते हैं कि वह शकुन्तला को लेने के लिये शीघ्र ही सेना भेजेंगे किन्तु ऋषि के रोष के भय से वह सेना नहीं भेजते हैं। इस स्थिति से पाठक के मन में प्रत्यय उत्पन्न नहीं होता है। इससे दुष्यन्त का शकुन्तला के साथ प्रणय साधारण मनुष्य की रचना-वृत्ति प्रतीत होती है।
‘मधु’ ने ‘शकुन्तला’ काव्य के कथानक को स्वाभाविकता और घटनाओं को क्रम तथा संयोजन प्रदान किया है। प्रासंगिक अथवा अवान्तर घटनाओं के न होने के कारण कथानक में प्रवाह और अन्विति है।
भाव-विवेचन
दुष्यन्त और शकुन्तला की इस प्रणय-गाथा में श्रृंगार प्रमुख प्रतिपाद्य है। कवि ने श्रृंगार के अन्तर्गत बाह्य रूप-चित्रण अथवा स्थूल कामचेष्टाओं का वर्णन न करके मादन भाव की आन्तरिकता का चित्रण किया है।
दुष्यन्त शकुन्तला के निसर्गजात अपूर्व सौन्दर्य पर प्रथम दृष्टि में ही आसक्त हो जाते हैं। कुसुमकोमला शकुन्तला की मानव-दुर्लभ सुषमा को देकर दुष्यन्त का मन प्रेमातुर हो उठता है। सौन्दर्य वही है जो दृष्टा के मन को अभिभूत कर दे-
संध्या हो उषा हो ‘मधु’ श्री हो माधवी हो,
रति रम्या हो नरी हो किन्नरी हो देव कन्या हो।1
प्रेमी मन प्रभुत्व और वैभव से उत्पन्न अहंता को भूलकर प्रिय की अनुकूलता पाने के लिये याचक बन जाता है। प्रेमी केवल प्रेमी होता है। उसकी समस्त जागतिक उपाधियाँ इस मादन भाव में तिरोहित हो जाती हैं। प्रणय-भावना संसार के किसी भी साम्राज्य से अधिक मोहक होती है। प्रेयसी के चरणों पर विश्व के अनेक प्रणयी राजमुकुट झुकते रहे हैं। दुष्यन्त का प्रेमी मन अपने राजत्व का गर्व भूलकर वन कन्या शकुन्तला से कातर स्वर में प्रणय-याचना करता है-
मरु के समान मेरी अरस उरस्थली में,
आओ तुम सरस सुधा विकासिका बनो।
शासना ही आज तक सीखी जिसने है उस,
मेरे उर प्रान्तर की तुम शासिका बनो।।2
हृदय के अन्तस्तल से निकला दुष्यन्त का निश्छल प्रणय-निवेदन शकुन्तला के मन में प्रेम के स्पन्दन जगा देता है। प्रेमी का प्रणय-निवेदन प्रिया की रमणीयता का स्तवन होने के कारण उसे आत्मगौरव की प्रतीति के आनन्द से पुलकित कर देता है। दुष्यन्त जैसे सुन्दर और प्रतापी नरेश की याचना से शकुन्तला के स्पन्दित मन में प्रेम का अदम्य आवेग उमड़ता है। गद्गद् कण्ठ और विवश वाणी से उसके आन्तरिक ज्वार का अनुभावन होता है। ऐसी प्रतीतिपरक स्थिति में भी शकुन्तला के मन में द्वन्द्व सचेत है। एक ओर दुष्यन्त के प्रति उसका अनुराग-रंजित हृदय आतुर है, दूसरी ओर दुष्यन्त के राजवैभव से अपनी स्थिति की असमानता के कारण उसके मन में प्रणय की सुखद परिणति के प्रति आशंका का भाव है-
वन्या हम जैसी वन हेतु हैं बनाई गईं,
राज सदनों में राज कन्या रत्न चाहिये।3
देवों को साक्षी बनाकर दुष्यन्त शकुन्तला का वरण करते हैं। उनकी इस निष्ठा और अनन्य भावना से शकुन्तला के द्वन्द्व का निरसन हो जाता है।
प्रेमोद्वेग के क्षण चैतन्य की विस्मृति के क्षण होते हैं। संयोग के क्षणों में सचेष्टता तिरोहित हो जाती है। अनायास जो कुछ घटित होता है उसका अवधान नहीं रह जाता है। कवि ने शकुन्तला की ‘न ययौ न तस्थौ’ दशा का भावपूर्ण चित्रण किया है-
ऐसा कह भूप की पुजाएँ जो बढ़ीं तो ‘मधु’,
आप ही से सहसा घटी यों घटना नईं।
नूतन संकोच सा शकुन्तला में आ समाया,
बाहुओं में नृप के शकुन्तला समा गई।।4
‘‘शकुन्तला’’ में संयोग श्रृंगार के ऐन्द्रिय चित्रण के स्थान पर मानसिकता की भावात्मक अभिव्यक्ति है। रूप-चित्रण में और दुष्यन्त तथा शकुन्तला के केलि वर्णन में कवि को श्रृंगार के मुक्त और स्थल चित्रण का अवसर मिल सकता था, परन्तु कवि को श्रृंगार-भावना की आंतरिकता ही अभीष्ट है। इसीलिये उसके रूप-चित्रण में परम्परा-निर्वाह के लिये क्रमागत अप्रस्तुतों के सादृश्य में अंगों के सौन्दर्य का परिगणन नहीं है बल्कि सौन्दर्य के संश्लिष्ट स्वरूप की प्रभावपरक व्यंजना है। सौन्दर्य से अभिभूत विषयी का मन सौन्दर्य के सविस्तर निर्वचन में रत न होकर उससे मानसिक रूप से आह्लादित होता है।
शकुन्तला की विरह-व्यथा का चित्रण प्रवत्स्यत्पतिका और प्रोषितपतिका के रूप में हुआ है। प्रिय-वियोग की कल्पनामात्र से शकुन्तला का हृदय व्याकुल हो उठता है। सच्चा प्रेम वही है जो वियोगावस्था में और अधिक तीव्र हो। प्रिय के विदा होते समय प्रेमिका का यह विश्वास कि वह प्रिय के आगमन तक उसी के प्रेम के सहारे जीवित रहेगी प्रिय को असीम आनन्द प्रदान करता है। प्रिय जब पास नहीं होगा तब शकुन्तला को उसकी स्मृति उसका और अधिक ध्यान करायेगी-
जो रही तुम्हारी मनोमंदिर में मूर्ति उसे,
जाग्रत करूँगी दग्ध प्राणों की पुकार से।5
इन पक्तियों में शकुन्तला की विरह-वेदना की मार्मिक व्यंजना है। आग से जलता हुआ कोई व्यक्ति दहन-वेदना से छटपटा कर आर्त स्वर में चिल्लाता है। उसके चीत्कार से आसपास सोये हुए व्यक्ति जाग उठते हैं। शकुन्तला के विरह-दग्ध प्राणों के क्रन्दन से उसके मन में बसी हुई प्रिय की स्मृति जाग्रत बनी रहेगी।
अनुभावों से भाव-तीव्रता का परिचय तो मिलता है परन्तु अनुभावों को भी सप्रयोजन दिखाने से भाव में चारूत्व और उत्कर्ष आ जाता है। आँसू विरहिणी के अनुभाव हैं लेकिन शकुन्तला के आँसुओं का प्रयोजन प्रिय की स्मृति को निरन्तर धोते रहना है जिससे वह मलिन न हो सके-
मलिन न होने पावे सुस्मृति तुम्हारी अस्तु,
नित्य उसे धोऊँगी दृगों की अश्रुधार से।6
स्मृतिमग्न शकुन्तला आँखें बन्द किये प्रिय का ध्यान करती रहती है। खुली आँखों का बन्धन तो भूप को बाँध नहीं सका, इसलिये वह आँखें बन्द करके प्रिय को भीतर ही बन्द कर लेना चाहती है। अनुभावों की ऐसी व्यंजना से भावों में सजीवता और विदग्धता आ गयी है। ध्यानमग्न शकुन्तला का आँखें बन्द किये रहना एक ओर विरहिणी की स्वाभाविक स्थिति है, दूसरी ओर दुर्वासा की उपस्थिति के प्रति शकुन्तला के अनवधान के लिये वह सहज हेतु भी प्रस्तुत करता है।
संवाद-कौशल
‘शकुन्तला’ की कथा प्रायः संवादों के माध्यम से विकसित हुई है। इनमें से अधिकांश संवाद दुष्यन्त और शकुन्तला के मध्य हैं। संवाद योजना से इस काव्य में नाटकीयता के प्रभाव की सृष्टि हुई है। शकुन्तला के संवादों में आश्रम-कन्या का शील और शिष्टाचार व्यक्त हुआ है। शकुन्तला के सौन्दर्य पर सहसा विमुग्ध दुष्यन्त अधीरतापूर्वक उसका परिचय पूछते हैं। शकुन्तला अपना परिचय देने के पूर्व शान्त और संयत स्वर में आश्रम के संस्कारानुसार अतिथि का स्वागत करती है, उसके बाद वह अपना परिचय देती है-
अतिथि पधारो दीन हीन वन्य जीव हम,
नागरों के स्वागत की जानते नहीं कला।
देवें उपहार में क्या हम वनवासियों के,
पास बस सम्पति है तरुपंक्ति सफला।।
पूछा परिचय आपने है जो हमारा ‘मधु’,
इससे अधिक सो बताऊँ और क्या भला।
सींचना इसी आराम का है काम मेरा कण्व,
धामधाम मेरा नाम मेरा है शकुन्तला।।7
शकुन्तला के परिचय में निर मिमान, सरलता और अकिंचनता है। जिज्ञासा वृत्ति के लिये पहले शकुन्तला का कार्य, फिर निवास और अन्त में नाम उद्घाटित किया गया है।
अतिथि का परिचय पूछना भी सभ्यता और शिष्टाचार के अन्तर्गत आता है। शकुन्तला दुष्यन्त को कोई राजपुरुष समझकर उनकी विशिष्टता के अनुसार ही मर्यादा और विनम्रता के साथ प्रश्न करती है। शकुन्तला के प्रश्न में राज-दरबारों के शिष्ट संलाप की झलक मिलती है-
कारण क्या कानन जो आये गेह त्याग कैसा,
संग पािण पंकजों ने किया शरचाप का।
आनन में भासमान सा विलोक के प्रकाश,
भास होता आप से ही आपके प्रताप का।।
रतन उजागर है पाया तुम जैसा वह,
कौन वंश हुआ महासागर के माप का।
कौन नगरी है धन्य, धाम है तुम्हारा जहाँ,
कौन शुभ-नाम, शुभ नाम है जो आपका।।8
दुष्यन्त के उत्तर में भी संवाद-कौशल का परिचय मिलता है। शकुन्तला ने दुष्यन्त से बन आने का और धनुष-वाण धारण करने का कारण, उनका वंश, नगर तथा नाम पूछा है। दुष्यन्त के उत्तर में इन सभी प्रश्नों का समाधान है-
करता पुरों में शत्रुओं की मृगया हूँ और,
हरता बनों में हिंसकों का नाम शेष हूँ।
धरता इसी से कर में हूँ शरचाप सदा,
डरता न काल विकराल से भी लेश हूँ।।
क्षत्रधारी छितिपाल क्षत्रियों का अंशज हूँ,
ख्यात दूर दूर तक वंशज दिनेश हूँ।
नाम है दुष्यन्त देश देश मुझे जानता है,
कहूँ क्या विशेष हस्तिपुर का नरेश हूँ।।9
दुष्यन्त क्षितिपाल क्षत्रिय हैं। इसलिये वह प्रजा के सुख और कल्याण के लिये ही मृगया करते हैं। वह नगर में शत्रुओं का संहार और वन में हिंसक जीवों का आखेट करते हैं।
दुष्यन्त के प्रणय-निवेदन और शकुन्तला के संकोच-प्रदर्शन में भी इसी प्रकार की मर्यादा और शील-भावना का परिचय दिया गया है। सूर्यचन्द्र और वृक्षों को साक्षी बनाकर जब दुष्यन्त शकुन्तला से वरण-प्रस्ताव करते हैं और उसे आलिंगन में बाँधने के लिये अपनी भुजाएँ बढ़ाते हैं तो नाटकीय दृश्य घटित होता है-
नूतन सकोच सा शकुन्तला में आ समाया,
बाहुओं में नृप के शकुन्तला समा गई।10
इस प्रकार ‘शकुन्तला’ काव्य में कोमल और मार्मिक भावों की व्यंजना हुई है। नाटकीय तत्त्व से उसके वर्णन प्रभावशाली बन गये हैं। इस काव्य में कवि ने खण्डकाव्य की स्थूल आवश्यकताओं को महत्त्व नहीं दिया है।
उत्तर रामचरित
‘मधु’ ने जनवरी 1941 में ‘उत्तररामचरित’ की रचना आरम्भ की। कवि वाल्मीकि की ‘रामायण’ तथा भवभूति के ‘उत्तररामचरित’ की परम्परा में करुण रस-प्रधान काव्य का प्रणयन करना चाहता था पर किसी कारणवश यह उपक्रम पूर्ण नहीं हो पाया। इसमें 2 दोहे, एक सवैया और 17 कवित्त ही लिखे जा सके। ‘मधु’ का ‘उत्तररामचरित’ ‘शकुन्तला’ के 5-6 माह बाद की रचना है। इसीलिए कवि की उसी भावदशा के सातत्य में इस काव्य में भी करुणा का प्रसार हुआ है। इस काव्य की भाषा भी खड़ी बोली है।
‘उत्तररामचरित’ में ‘मधु’ ने कथा का आरम्भ लंका-विजय के पश्चात् राम के राजा होने और उनके सुशासन के उल्लेख से किया है। रामराज्य में कोई किसी को सताता तो नहीं है इसका पता लगाने के लिये नियुक्त गुप्तचर घूमते रहते थे। एक दिन एक चर छिपकर धोबी और उसकी पत्नी के बीच चल रही बातचीत सुन लेता है। धोबी अपनी पत्नी पर, जो गृह-कलह के कारण रूठकर कहीं चली गयी थी, अन्यत्र रमण का आरोप लगाकर कहता है कि मैं राम नहीं जो कलंकिनी स्त्री को स्वीकार कर लँू। चर भारी हृदय से किसी प्रकार राम को यह संदेश देता है। रजक की पत्नी भी राम और सीता पर कलंक लगाने वाले नीच पति के साथ नहीं रहना चाहती है। ‘मधु’ ने इतनी ही कथा वर्णन किया है।
कथा के सरल प्रवाह, उक्ति-सौन्दर्य और भावों के सुन्दर चित्रण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पूर्ण होने पर यह ‘मधु’ का उत्कृष्ट काव्य होता।
काव्य के शीर्षक से यह अनुमान किया जा सकता है कि कवि इसमें सीता के निष्कासन, उनके वनवास, लवकुश-जन्म, राम के अश्वमेघ यज्ञ और सीता के पुनः अयोध्या आने की कथा को वर्ण्य विषय बनाना चाहता होगा। इस दृष्टि से प्रस्तुत काव्य में कथा का केवल प्रारम्भ ही हो पाया है। पूरी कथा के कारुणिक प्रसंगों में कवि को मार्मिक चित्रण का अवसर मिलता परन्तु उपक्रम अपूर्ण रह जाने के कारण घटनाओं, भावों तथा चरित्रों की पूर्ण विवृत्ति नहीं हो पायी।
कथानक
चौदह वर्ष का वनवास बिताकर राम अयोध्या का राज्य करने लगे। राम के राज्य में किसी को कोई कष्ट नहीं था। प्रजा की आवश्यकताओं और इच्छाओं का पता लगाने के लिये राज्य में गुप्तचरों की व्यवस्था थी। एक दिन एक गुप्तचर अप्रकट रूप से एक रजक के घर से किसी स्त्री का क्रन्दन सुनता है। रजक अपनी पत्नी को, जो दाम्पत्य कलह के कारण गत दिवस रूठकर कहीं अन्यत्र चली गई थी, कलंकिनी कह कर घर से निकल जाने का आदेश देता है। पत्नी अपनी निष्कलंकता के प्रमाणस्वरूप शपथ लेती है, रोती है, परन्तु रजक द्रवित नहीं होता। तब पत्नी राजरानी सीता को अपनी प्रार्थना सुनाकर अवधनरेश राम से न्याय कराना चाहती है। पति इस पर क्रुद्ध होकर राम की निन्दा करता हुआ कहता है कि मैं राम की तरह काम का दास नहीं हूँ जिन्होंने रावण द्वारा अपहृत सीता को पुनः अपना लिया। चर क्रोध से उत्तेजित होकर रजक का वध करना चाहता है, परन्तु उसकी पत्नी यह कहकर रोक देती है कि नीच नारकीय व्यक्ति को मार डालना तो उसे लोक-निन्दा और परिताप से मुक्ति दे देना है। चर विषादपूर्ण हृदय से राम के पास लौटता है। रजक की पत्नी भी राम-सीता पर कलंक लगाने वाले अपने पति को छोड़कर चल देती है।
इतना वृत्त कथावस्तु की पीठिका या प्रस्थान-बिन्दु ही माना जा सकता है, फिर भी ख्यात वृत्त के प्रयुक्तांश में कुछ रोचक और स्वाभाविक परिवर्तन करके कवि ने अच्छे उपक्रम की संभावनाएँ प्रकट की हैं। लंका-विजय के बाद की राम-कथा ‘वाल्मीकि- रामायण’ और भवभूति के ‘उत्तररामचरित’ नाटक में वर्णित है। भवभूति के नाटक का आधार भी ‘रामायण’ ही है, परन्तु नाटक के अनुरोधवश भवभूति ने कथानक में कुछ परिवर्तन किये हैं। ‘मधु’ के ‘उत्तररामचरित’ का कथानक वाल्मीकि की अपेक्षा भवभूति पर अधिक आश्रित है, लेकिन उसमें भी कुछ अन्तर है। यह भिन्नता मुख्य घटना अथवा तथ्यों की न होकर स्थितियों की अधिक स्वाभाविक कल्पना के रूप में है।
‘रामायण’ के अनुसार राम सभासदों से पूछते हैं कि और जानपदों की हमारे प्रति क्या धारणा है। भद्र नामक सभासद बताता है कि वे रावण का संहार करने के कारण आपकी प्रशंसा करते हैं लेकिन रावण द्वारा बलाद्धृता सीता को पुनः अपना लेने के कारण आपकी लोक-निन्दा भी हो रही है।11 भवभूति के नाटक में लोकापवाद की सूचना दुर्मुख नामक गुप्तचर राम को स्वयं देता है।12 यह सूचना उस समय दी जाती है जब राम गर्भिणी सीता के दोहद-वनभूमि का दर्शन-को पूरा करने का लक्ष्मण को निर्देश देते हैं। गर्भ-श्रान्ति से श्लथ सीता राम की बाहु के उपघटन पर निश्चिन्तता से सोयी हुई हैं। आनन्द के इन क्षणों में ही लोक-निन्दा का कटु समाचार अत्यन्त करुणाजनक है।
‘मधु’ ने गुप्तचर द्वारा लोकापवाद के समाचार की प्राप्ति को सूक्ष्य अथवा अनुमेय न मानकर घटना के रूप में दिखाया है। गुप्तचर अप्रकट रूप से उस दृश्य को देखता है जिसमें रजक अपनी पत्नी को कलंकिनी कहकर निष्कासित कर रहा है। इस घटना में राम का संदर्भ भी स्वाभाविक रूप से दिखाया गया है। रजक की पत्नी जब राम से न्याय कराने की बात कहती है तभी रजक राम के प्रति अपनी कटु प्रतिक्रिया व्यक्त करता है।
रजक द्वारा राम और सीता पर लगाये गये कलंक को सुनकर गुप्तचर का क्रोध से उत्तेजित होना स्थिति की स्वाभाविकता है। चर का रजक को उत्तेजनावश मार डालने को उद्यत हो जाना औत्सुक्य उत्पन्न करता है। यदि रजक का वध हो जाता तो मूल कथा की प्रामाणिकता समाप्त हो जाती और राम के आदर्श पर भी आँच आती। इस स्थिति का परिहार भी आश्वस्तिपूर्ण है। रजक की पत्नी का तर्क चर को संयत कर देता है। रजक की पत्नी के निष्क्रमण में भी भिन्न स्थिति की कल्पना है। जब रजक उस पर कलंक का आरोप लगाता है तो वह अपनी निष्कलंकता की शपथ लेती हुई पति से विनय करती है परन्तु जब वह सीता को कलंकिनी और राम को कामी कहता है तब पत्नी अपने सब प्रकार से पूजनीय पति को भी छोड़कर चल देती है। इन परिवर्तनों से कथावस्तु में सजीवता, दृश्यात्मकता तथा स्वाभाविकता का प्रभाव उत्पन्न हुआ है।
आधुनिकता
इस काव्य में आधुनिक युग की बौद्धिक चेतना तथा विगतार्थ मान्यताओं के प्रति नवीन दृष्टिकोण की झलक मिलती है। मनुष्य की उच्चता का निर्धारण उसके वर्ण से नहीं बल्कि उसके कर्मों से होता है। वर्ण तो दैवायत्त है परन्तु मनुष्य के कर्म स्वायत्त होते हैं। इसलिये कर्म ही उसका महता के मापदण्ड होने चाहिये। धर्म का अर्थ पूजा या उपासना का ऐसा कर्मकाण्ड नहीं है, जिसका अधिकार केवल उच्च वर्ण वालों को मिला हो। धर्माचरण का जाति अथवा वर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं, क्योंकि सच्चा धर्म अपना कर्तव्य-पालन है। भिन्न जाति का व्यक्ति भी अच्छे कर्म करके और अपना कर्तव्य पूरा करके धर्मरत माना जा सकता है। रजक कहता है कि वर्णगणना में भले ही वह नीच माना जाता हो, किन्तु नीच कर्म करके वह अधर्म नहीं कमाना चाहता है।
शासक द्वारा आदर्शों के पूर्ण परिपालन की आवश्यकता भी रजक के विचारों में व्यक्त होती है। शासक और प्रजा के लिये अलग-अलग आचार-संहिता नहीं हो सकती। प्रजा शासक का अनुसरण करती है। यदि शासक स्वयं उच्च प्रतिमानों का निर्वाह नहीं करेगा तो प्रजा भी आदर्शच्युत हो जायेगी। रजक को प्रत्यय है कि जहाँ की राजरानियाँ जिस मार्ग पर चलेंगी वहाँ की सामान्य नारियाँ भी उसी मार्ग का अनुसरण करेंगी।
सुलोचना सौरम
‘सुलोचना-सौरम’ की रचना अक्षय तृतीया सं. 1999 (1942 ई0) को हुई। इस खण्डकाव्य में एक दोहा और 44 कवित्त हैं। काव्य की भाषा ब्रज है। इसमें लक्ष्मण के द्वारा मेघनाद की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी सुलोचना के सती होने की कथा है। सुलोचना का यह प्रसंग वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण तथा तुलसीकृत रामचरितमानस में नहीं मिलता। इसका उल्लेख ‘आनन्द रामायण’ में हुआ है।13 रामचरितमानस में क्षेपक के रूप में यह कथा सन्निविष्ट है। रसिक बिहारीकृत ‘राम रसायन’ में भी यह प्रसंग वर्णित है।14 राधेश्याम रामायण की प्रभावपूर्ण सुगेयता के माध्यम से भी सुलोचना की कथा लोक-प्रचलित है।
विभिन्न ग्रन्थों में वर्णित इस कथा में कोई प्रमुख अन्तर नहीं है। मेघनाद की मृत्यु के पश्चात् उसकी एक विच्छिन्न भुजा सुलोचना के पास गिरती है। वह लिख देती है कि लक्ष्मण द्वारा हत मेघनाद का सिर राम के पास है। सुलोचना राम के पास जाकर विनयपूर्वक पति का सिर प्राप्त करती है और उसे लेकर सती हो जाती है।
कथावस्तु
युद्ध में मेघनाद की मृत्यु होती है। उसकी एक भुजा विच्छिन्न होकर सुलोचना के पास गिरती है। विस्मित और दुःखाभिभूत सुलोचना को विच्छिन्न भुजा द्वारा लिखी रणगाथा से ज्ञात होता है कि उसके पति की मृत्यु लक्ष्मण के हाथों से हुई है और उसका सिर राम के पास है। पति-शोक में आँसू बहाती सुलोचना पति के साथ सती हो जाने का निश्चय करके मन्दोदरी से पति का सिर मँगा देने की विनय करती है। पुत्र के बाद अब पुत्रवधू को भी खो देने के त्रासद विचार से मन्दोदरी अधीर हो उठती हैं।
समाचार सुनकर रावण आता है। वह पुत्र के सिर के बदले में राम और लक्ष्मण दोनों के सिर सुलोचना के पैरों में डाल देने का आश्वासन देता है परन्तु सुलोचना की समस्या भिन्न है। प्रतिशोध उसका हल नहीं है। वह रावण से कहती है कि महान् पुलस्त्य की प्रपोत्रवधू और नागवंश की दुहिता अपना सौभाग्य खोकर कैसे जीवित रह सकती है। रावण राम से याचना करना अपना अपमान मानता है। तब सुलोचना स्वयं पति का सिर प्राप्त करने के लिये राम के पास जाती हैं।
मार्ग में एक वटवृक्ष के नीचे उसे विभीषण मिलते हैं। उसका प्रयोजन जानकर विभीषण मेघनाद का सिर ले आने का आश्वासन देते हैं और सुलोचना से लौट जाने का आग्रह करते हैं। सुलोचना पति के सिर के बिना लौटना अनुचित समझती है। पति का सिर प्राप्त करने के साथ ही उसे राम के दर्शन-लाभ का भी लोभ है।
दूर से आते हुए सुलोचना के दल का आभास पाकर राम का अनुमान है कि रावण दल बल सहित युद्ध के लिये आ रहा है। सुलोचना की शिविका देखकर सुग्रीव सोचते हैं कि रावण ने पराजय स्वीकार करके सीता को वापिस भेज दिया है। तब तक सुलोचना का दल निकट आ जाता है। विभीषण राम को सुलोचना के प्रयोजन की सूचना देते हैं। राम शोकसंतप्त सुलोचना की हीनदशा पर करुणातुर हो उठते हैं और सुलोचना को आश्वासन देते हैं कि तुम चाहो तो मैं मेघनाद को पुनर्जीवित कर दूँ। सुलोचना शेषावतार लक्ष्मण के हाथों से मिली पति की सद्गति को पुनर्जीवन के द्वारा विफल नहीं करना चाहती है। वह राम से पति का सिर माँगती है जिसके साथ वह सती हो सके। राम उसके बार-बार वर माँगने का अनुरोध करते हैं।
सुग्रीव की आशंका है कि कहीं राम दयालुतावश मेघनाद को जीवित न कर दें। इसलिये वह प्रस्ताव रखते हैं कि प्राणदान का निर्णय मेघनाद का विच्छिन्न सिर ही करे। यदि कटी हुई भुजा लिख सकती है तो विच्छिन्न सिर बोल भी सकता है। वह आश्वस्त हैं कि न तो विच्छिन्न सिर बोलेगा न मेघनाद को पुनः जीवन मिलेगा।
सुलोचना की शपथ पर मेघनाद का सिर बोल उठता है कि अवध निवासी लक्ष्मण भले ही किसी लंकावासी के लिये हुए प्राण धारण कर लें लेकिन मैं किसी अवध निवासी का दिया हुआ प्राणदान स्वीकार नहीं करूँगा।
राम सुलोचना को पति का सिर देकर आशीष देते हैं कि सतियों में श्रेष्ठ सुलोचना का नाम ऊपर रहेगा।
‘सुलोचना-सौरभ’ का कथानक भी ‘शकुन्तला’ काव्य की ही तरह आरम्भ से ही गतिशील और प्रवाहपूर्ण है। उसमें पृष्ठभूमि के रूप में दृश्य चित्रण अथवा अन्य कोई वर्णन नहीं है। प्रारम्भ के दोहे में यह कह दिया गया है कि सुलोचना ने पति की छिन्न भुजा को सारा व ृत्तान्त लिखने के लिये पातिव्रत की शपथ ली। इस पर कटा हुआ हाथ रणगाथा लिखने लगा।
कथावस्तु में आनुषंगिक घटनाएँ भी नहीं हैं। इसलिये इस काव्य के प्रबन्धत्व में अनवरुद्ध प्रवाह और सुश्रृंखलता है। पति की मृत्यु की सूचना से लेकर राम से सिर प्राप्त करने तक की कथा में क्षिप्रता और सहज विकास है।
कथावस्तु की सजीवता और रोचकता के लिये कवि ने औत्सुक्य तत्त्व का प्रयोग किया है। सुग्रीव का अनुमान है कि रावण ने सीता को वापस भेज दिया है। राम कहते हैं कि यह रावण ने बहुत अच्छा किया। लक्ष्मण समस्या प्रस्तुत करते हैं कि युद्ध में रावण की मृत्यु के बिना विभीषण को लंका का राज्य देने का वचन कैसे पूरा होगा। तब राम कहते हैं कि हम सब भाई मिलकर वन में रहेंगे और विभीषण को अयोध्या का राज्य दे देंगे। विभीषण को दिये गये वचन का उल्लेख कथावस्तु में नहीं है। कवि ने इसे सुविज्ञात तथ्य मानकर पहले इसका उल्लेख नहीं किया है।
दूसरी स्थिति तब आती है जब राम मेघनाद को पुनर्जीवित करने के लिये तत्पर हैं। सुग्रीव विच्छिन्न सिर से ही पूछने का प्रस्ताव रखते हैं क्योंकि मेघनाद का पुनर्जीवन उन्हें उचित नहीं प्रतीत होता है। मेघनाद के विच्छिन्न सिर से ही प्राणदान की अस्वीकृति दिखाकर कवि ने इस समस्या का परिहार किया है।
इन दोनों स्थितियों का औत्सुक्य कथा से पूर्व परिचित पाठक के लिये भले ही न हो परन्तु कथानक के शिल्प की दृष्टि से तो उसका महत्त्व है ही।
भाव-विवेचन
शोक और भक्ति इस काव्य के प्रमुख भाव हैं। पति की मृत्यु से सुलोचना की निराश्रयता का कवि ने करुण चित्रण किया है-
जीवन अधार बिना जीवन वृथा है बिन
जीवन सौ जीवन न अब अभिलाखिहौं।
सुखद संयोग बहु भोग रस भोग यह,
विषम वियोग सौ न विष रस चाखिहों।।15
पति के साथ ही सुलोचना की सभी आकांक्षाएँ, अभिलाषाएँ और सुखैषणाएँ समाप्त हो जाती हैं। सती होकर सुलोचना पति से पुनः मिलने के विचार से सुखी है-
जौन वर संग वर आई हुती आज फिर,
ताही वर संग वरिबे को वर वर दै।16
सुलोचना के आगमन और उसकी करुण दशा को सुनकर राम का हृदय करुणा पूरित हो जाता है-
विनै पूर वचन विभीषण के कान कर,
आप जगदीश धाये दुखिया लौ दुख में।
मन में अपार करुणा को नद ईश लैकंे,
शीश लैकंे हाथ में अशीष लैकें मुख में।।17
सुलोचना की सौक सन्तप्त और भक्ति विल्हल अवस्था का चित्रण कवि ने केवल उसके आँसुओं के द्वारा कर दिया है-
दृग गागरी में अश्रु वारि ढारि ढारि लंक,
नाथ सुत नारि पाँव धोवै दयागार के।18
पूरा काव्य सुलोचना के आँसुओं से सिक्त है। ‘सुलोचना’ शब्द के अर्थ से कवि को सुलोचना के नेत्रों और अविरल बहते अश्रुजल का प्रसंगानुकूल वर्णन करने का अवसर मिला है-
मीन मद मोचन सुलोचन उभै तैं लगी,
सलिल विमोचन सुलोचन सुलोचना।।19
= = = =
काव्य का पर्यवसान निर्वेद में हुआ है। राम उसे आशीष देते हैं कि उसकी कथा अमर रहेगी।
झाँसी का विभीषण
इस काव्य का आरम्भ 19 फरवरी 1943 को हुआ और समाप्ति 2 जुलाई 1943 को हुई। यह अगस्त 1942 की ऐतिहासिक क्रान्ति का समय था। अंग्रेजो भारत छोड़ो के नारे के तुमुल घोष के साथ आये इस संघर्ष-ज्वार ने ब्रिटिश सरकार को डगमगा दिया। उसके लिए अब भारत को अधिक समय तक उपनिवेश बनाये रखना असम्भव होता जा रहा था। परन्तु देश के दुर्भाग्य से इसी समय कुछ राजनेता अलग पाकिस्तान के निर्माण की स्वार्थपूर्ण और विवेकहीन जिद पर अड़े हुए थे। उनकी क्षुद्र और संकीर्ण लिप्सा ने ही एक अखण्ड राष्ट्र को चाट लिया।
ऐसी परिस्थितियों में ‘मधु’ ने भारत के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम की वीरांगना लक्ष्मीबाई का वलिदान और अंग्रेजों के लोभ में आकर झाँसी की रानी से विश्वासघात करने वाले दूलह के वृत्तान्त को लेकर इस काव्य की रचना की। विभीषण को अपनी भक्ति, सात्विक वृत्ति और मर्यादा पुरुषोत्तम राम के पक्ष का समर्थन करने के बाद भी लोक में जातिद्रोह का प्रतीक माना जाता है। विभीषण के चरित्र में इसी अवगुण का सादृश्य दूलह में दिखाकर कवि ने इस काव्य का नाम ‘झाँसी का विभीषण’ रखा है।
इसके पहले घनश्यामदास पाण्डेय ने भी इसी विषय पर एक प्रबन्ध-काव्य लिखा था। इस काव्य के प्रारम्भिक छन्दों में भारत के पूर्ववर्ती देशद्रोहियों का उल्लेख है। इन देशद्रोहियों का स्मरण करके ह्यूरोज कूटनीति के द्वारा झाँसी को जीतने का विचार करता है-
रण करते ह्यूरोज को बीत गये दिन सात।
लगा सोचने हृदय में अब जाती है बात।।
बात सब जाती अब झाँसी हाथ आती नहीं,
सैन्य घबराती लक्ष्मीबाई की हुंकार से।
भूली मम युद्ध मध्य चातुरी चलाकी इस,
गजब बला की अबला की तलवार से।।
विप्र घनश्याम जो हमारा है अचूक अस्त्र,
उसका प्रहार करूँ ऐसे ही प्रकार से।
फूट जाय झाँसी का अटूटबल बाँध टूट,
फूट कूटनीति के अचूक हथियार से।।
इसके बाद के कुछ छन्दों में मीरजाफर, सेठ अमीचन्द, लालसिंह, राघोबा, नागपुर के भौंसला आदि देशद्रोहियों के कुकृत्यों का वर्णन है।
‘मधु’ ने भी झाँसी का विभीक्षण में इसी प्रकार की कथानक योजना रखी है तथा प्रसंगवश मीरजाफर और राघोबा के द्रोह का उल्लेख किया है।
दूलह बुन्देला क्षत्रिय और वीर योद्धा था। वह झाँसी की रानी के विश्वासपात्र सैनिकों में से था तथा किले की रक्षा के कार्य में नियुक्त था। ह्यूरोज ने उसके एक जातिबंधु के द्वारा उसे झाँसी के राज्य का लोभ देकर फुसला लिया और दूलह ने अंग्रेज सैनिकों को किले के भीतर प्रविष्ट करा दिया।
सन् 1857 के युद्ध में झाँसी के एक गढ़रक्षक दूलह के विश्वासघात पर आधारित इस काव्य का छान्दिक स्वरूप गीतात्मक है। यह कलुष कलंक कहानी जनश्रुति में भी प्रचलित है और उसका ऐतिहासिक आधार भी है।
कथानक
जनरल ह्यूरोज ने झाँसी में सात दिन तक असफल युद्ध करने के पश्चात् छल और कूटनीति का सहारा लिया। उसने भारतीय सिपाहियों से कहा कि जो झाँसी के वीर गढ़ रक्षक दूलह बुन्देला को लालच देकर अपनी तरफ मिला ले उसे मनचाहा पुरस्कार मिलेगा। दूलह के एक बांधव ने यह कार्य करना स्वीकार कर लिया। उसने दूलह को अनेक तर्क देकर फुसला लिया। दूलह उसके साथ रात में अंग्रेज जनरल के पास आया और गढ़ का द्वार खोल देने का वचन दे गया। अंग्रेजों की विजय के बाद जब उसने संधि के अनुसार झाँसी का राज्य माँगा तो ह्यूरोज ने उसको अपमानित किया और गोरों की समता करने वाले उस काले भारतीय को अपने कुचक्र की योजना बता दी। जैसे ही दूलह को ज्ञात हुआ कि उसके बांधव ने पुरस्कार के लोभ में उसके साथ छल किया है उसने तलवार निकाल कर उसका वध कर दिया और फिर देशद्रोह के प्रायश्चित स्वरूप आत्मघात कर लिया।
वृन्दावन लाल वर्मा के झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई उपन्यास में दूलह बुन्देला का प्रसंग वर्णित है। वह झाँसी के युद्ध के समय ओरछा दरवाजे पर गोलंदाज के रूप में नियुक्त था। वह बहादुर और कुशल तोपची था। रानी की एक योद्धा सखी से अमर्यादित बातचीत के कारण दूलह को रानी ने प्रताड़ित किया। अपनी सेवाओं के लिये दूसरों की तुलना में पर्याप्त सराहना और पुरस्कार न पाने के कारण उसके मन में असन्तोष पैदा हो गया। वह पीरअली नामक एक अन्य द्रोही के साथ अंग्रेजों से मिल गया। वर्मा जी ने दूलह द्वारा फाटक खोले जाने का वर्णन अपने उपन्यास में किया है।22
‘मधु’ के काव्य में इस प्रसंग से थोडी सी भिन्नता है। दूलह को उसके एक बांधव ने फुसलाया है जो अंग्रेज सेना में था। कवि ने दूलह को मूल रूप से वीर, स्वामिभक्त और अपनी आन पर दृढ़ दिखाया है किन्तु अंग्रेज जनरल ह्यूरोज के दूत के तर्कों से धीरे-धीरे उसका मन बदल जाता है। कवि ने प्रायश्चित स्वरूप उसका आत्मघात दिखाया है जबकि वर्मा जी के उपन्यास में उसे अंग्रेजों का साथ देने के लिये दो गाँव जागीर में दिये जाने का उल्लेख है। कवि ने दूलह के चरित्र को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रस्तुत किया है। इसलिये स्थितियों में कुछ अनुकूल परिवर्तन किये गये हैं।
पात्र
दूलह इस काव्य का प्रमुख पात्र है। लोक-धारणा में दूलह खल पात्र है। विश्वासघात का उसका अपराध अक्षम्य है। ‘झाँसी का विभीषण’ में दूलह के चरित्र की मानवोचित और मनोवैज्ञानिक व्याख्या है। कवि ने उसके प्रति निर्मित निन्दापरक धारणा के प्रतिकूल तो कुछ नहीं कहा है, परन्तु उसके चरित्र में मानव-सुलभ शक्तियों और दुर्बलताओं की प्रतीतिपूर्ण अभिव्यक्ति की है। इस काव्य में उसके सत् और असत् दोनों पक्षों का उद्घाटन हुआ है।
दूलह मूल रूप से स्वार्थलोलुप और विश्वासघाती नहीं है। दूत जब कहता है कि अंग्रेजों से लड़ना पहाड़ से टकराना है तो उसका क्षत्रियत्व जाग उठता है और वह क्रोध में तलवार निकाल लेता है परन्तु जब दूत उसे मानव सुलभ कमजोरी के आधार पर फुसलाता है तो कैकेयी के समान दूलह भी अनर्थ करने पर उद्यत हो जाता है।
दूत तर्क देता है कि झाँसी का दुर्ग बुन्देला राजा वीरसिंह देव का बनवाया हुआ है। कुछ समय तक यह छत्रसाल के पास रहा और फिर वह मरहठों के अधिकार में चला गया। अपने पूर्वजों के राज्य को पुनः प्राप्त करने का यह अच्छा अवसर है। यह सुनकर दूलह के मन में रागद्वेष उत्पन्न तो हो गया, परन्तु वह अभी पूरी तरह बदल नहीं पाया। अंग्रेजों की विजय होने पर भी उसे झाँसी का राज्य मिल जायेगा उसे सहसा यह विश्वास नहीं होता है। वह जानता है कि अंग्रेजों ने धोखे को मूलमंत्र बनाकर ही अपना साम्राज्य बढ़ाया है। तब दूत कहता है कि वैसे तो ह्यूरोज ने वचन दिया है। यदि वह बदल भी जाता है तो हम अपनी तलवार के बल पर उसे प्राप्त कर लेंगे। कम्पनी की सरकार तो अब समाप्त प्राय ही है। इस प्रकार दूलह के मन में व्यक्तिगत स्वार्थ उतना नहीं है जितना स्वजाति उत्थान का प्रेम है।
ह्यूरोज से मिलने जाते समय भी दूलह का मन द्वन्द्वयुक्त नहीं है। उसे ग्लानि होती है कि अभी तक उसने बुन्देली और मरहठी ध्वजों की सत्ता को स्वीकार किया था। आज उसे अंग्रेजी झण्डे के नीचे झुकना पड़ा। वह वापस चला जाना चाहता है परन्तु उसे अपने दिये हुए वचनों का ध्यान है। दूलह विश्वासघात तो करता है परन्तु उसके चरित्र की उत्कृष्टता पूरी तरह समाप्त नहीं होती है। जब उसका मोह भंग होता है और उसे अपने साथ हुए धोखे का ज्ञान होता है तो उसका स्वाभिमान दूत के बध और आत्मघात के रूप में प्रायश्चित द्वारा व्यक्त होता है। दूलह के इस कृत्य को देखकर ह्यूरोज भी धन्य कह उठा।
प्रेरणा और उद्देश्य
राष्ट्र-प्रेम की भावना इस कृति की प्रमुख प्रेरणा है। कवि ने यह निरूपित किया है कि हमारी वीरता और स्वतंत्रता हमारे ही देशद्रोह के कारण पराजित और अपहृत होती रही है। जयचन्द, राघोबा मीरजाफर और दूलह जैसे विश्वासघातियों ने अपने क्षुद्रस्वार्थ के लिये देश की स्वतंत्रता विदेशियों के हाथों बेच दी।
विभीषण देशद्रोह का प्रतीक माना जाता है। ‘घर का भेदी लंका ढावे’ लोकोक्ति इसी निहितार्थ को व्यंजित करती है। विभीषण की सात्विक वृत्तियों के होते हुए भी शत्रु-पक्ष में मिल जाने और बंधु-पक्ष के विनाश में सहायक होने के कारण उसका नाम द्रोह का अपराधी है। कवि ने विभीषण की प्रतीकात्मकता को विश्वासघात और द्रोह की सीमा तक ही रखा है। वह इस विवेचन में नहीं उलझता है कि रावण अनाचारी शासक था। शत्रुपक्ष में मिल जाना ही विभीषण और दूलह का साम्य है।
देशद्रोह के कारण स्वातंत्र्य-संघर्ष के असफल अंत से कवि को जो व्यथा है वह प्रारम्भिक पंक्तियों में ही व्यक्त हो गई है-
लिखने में फटता हृदय और आँखों से झरता पानी है।
झाँसी के एक विभीषण की यह कलुष कलंक कहानी है।।23
दूत के साथ दूलह की सहमति के वर्णन में प्रवंचना के भाव का चित्रण कवि ने इस प्रकार किया है-
उस राहु कुचक्री ने वक्री
गति से दिनकर अपंग फाँसा।
आतप आखेटक ने मिथ्या,
मृगजल दिखला कुरंग फाँसा।।
वंचक ने मधु में माहुर दे,
सीधा साधा सुढंग फाँसा।
यों महाकूप में उस मोहक,
मायावी ने मतंग फाँसा।24
नैदाघ स्वार्थ की अग्नि में स्वतंत्रता की लता झुलस गयी। रात के अन्धकार में दूलह नैतिक साहस का प्रकाश खोकर जा रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि अमावस्या की रात ने उनके मुख पर यह बताने के लिये कालिमा पोत दी है कि छल से कभी मनचाहा नहीं हो पाता।
यह काव्य कवित्त-सवैया शैली में न होकर गीति-शैली में लिखा गया है, जिसकी टेक है-
लिखने में फटता हृदय और,
आँखों से झरता पानी है।
झाँसी के एक विभीषण की,
यह कलुष कलंक कहानी है।।
खड़ी बोली में प्रणीत इस काव्य में 66 छन्द हैं और अन्त में एक दोहा है। इस खण्ड काव्य में कवि का उद्देश्य सरल लोक-ग्राह्य भाषा शैली में एक सुविख्यात विषय को व्यक्त करना था। सुभद्राकुमारी चौहान की प्रसिद्ध कविता बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी की शैली की तरह इस काव्य में भी गेयता और प्रवाह है।
रानी गणेश कुँअर
इस कृति का प्रणयन सन् 1944 ई. में हुआ। प्रथम पाण्डुलिपि में कवि ने इसका नाम ‘देवी गणेश कुँअरि’ रखा तथा उसकी रचना तिथि 6 जून 1944 अंकित की। इस प्रति में 91 कवित्त हैं। दूसरी स्वच्छ प्रति में वन्दना के अतिरिक्त 95 कवित्त हैं। इसमें रचना-तिथि सावन सुदी तीज सं. 2001 दी गयी है। इस तिथि तक कवि ने शेष 4 छन्द और जोड़कर उसे स्वच्छ प्रति का रूप दिया होगा। ब्रजभाषा में रचित इस काव्य में अन्य प्रबन्ध कृतियों की अपेक्षा परिमाण की विशदता है। कालक्रम की दृष्टि से यह कवि का अन्तिम खण्डकाव्य है।
यह काव्य ओरछा के राजा मधुकर शाह और उनकी रानी गणेश कुँअर की भगवद्भक्ति और रानी द्वारा भगवान राम को अयोध्या से ओरछा लाये जाने की लोक-विश्रुत कथा पर आधारित है। वीर और धर्मनिष्ठ राजा मधुकरशाह ओरछा को राजधानी के रूप में बसाने वाले बुन्देल राजा रुद्रप्रताप के पुत्र थे। राजनीतिक अशांति के उस समय में शासन कार्य से अधिक उनकी प्रवृत्ति धर्म में थी।25 मधुकर शाह की भगवद्भक्ति का उल्लेख ‘भक्तमाल’ में हुआ है।
‘राजा ओरछे भगवद्भक्ति में भी राजा हुये। साधुवेष में अत्यन्त प्रेम व विश्वास था। सच करके जैसा मधुकर नाम था वैसी ही रीति भी रही। अर्थात् भ्रमर सारग्राही होता है वैसे ही सारग्राही थे। उनकी रीति थी कि जो कोई कण्ठी तिलक मालाधारी हो उसका चरणामृत लेते और परिक्रमा करते।26
मधुकर शाह की अविचल धर्म परायणता के सम्बन्ध में एक घटना बहुत प्रसिद्ध है। बुन्देलखण्ड के अनेक कवियों की कविताओं में इसका उल्लेख मिलता है। एक बार सम्राट अकबर ने आदेश दिया कि दरबार में उपस्थित होने वाला कोई भी नरेश तिलक लगाकर न आये अन्यथा उसके माथे को गर्म लोहे से दाग दिया जायेगा। अन्य वैष्णव राजा या तो दरबार में नहीं गये अथवा बिना स्नान किये ही गए ताकि तिलक न लगाना पड़े, परन्तु राजा मधुकरशाह उस दिन और भी बड़ा टीका लगाकर गये। अकबर उनकी धर्मवीरता से प्रभावित हुआ। तभी से मधुकरशाह ‘टिकैत मधुकरशाह’ के नाम से सुविख्यात हुए। ‘मधु’ ने ‘रानी कुँअर गणेश’ के आरम्भ में ही इस प्रसंग का संकेत दिया है-
अमरपुरी हू जाहि लख कें सकानी ऐसी,
जाहिर जहान ओरछा की राजधानी है।
हुए तहीं मानी महाभूप मधुसाह जाके,
टीकन की टेक कौं दिलीस हू ने जानी है।।27
वीरसिंह देव द्वितीय के एक अन्य राजकीय रामाधीन खरे ने ‘टिकैत मधुकर शाह’ शीर्षक कविता में सन्देह पुष्ट उपमा के द्वारा मधुकर शाह के तिलक का इस प्रकार वर्णन किया है-
बैठे हैं सभा में बादशाह की महीप सब,
देखो परै भूपन को खिन्न हियो हारौ सौ।
किन्तु निज इष्ट पै प्रपुष्टता देखावत से,
बैठे मधुशाह वीरकरत उजारौ सौ।।
त्याग भवभीत को अजीत धर्मपक्ष लीननै,
जवन अनीत ते न नेक मन मारौ सौ।
नागन के बीच मणियारो सो दिखावत कैधो,
गज मुकतान में मतंग है दतारौ सौ।।28
मुंशी अजमेरी ने भी ‘मधुकर शाह’ काव्य में रानी गणेश कुँअर का अयोध्या से रामराजा को लाने और मधुकर शाह का अकबर के दरबार में टीका लगाकर जाने का वर्णन किया है।
मधुकरशाह की रानी गणेश कुँअर के मन में भी भगवद्भक्ति की अविचल प्रवृत्ति थी। ‘भक्तमाल’ में उनकी इस निष्ठा के सम्बन्ध में लिखा है-
‘रानी गणेश देई मधुकर शाह राजा ओड़छे की धर्मपत्नी भगवद्भक्ति में अद्वैत रही। राज्य से जो मिले साधु सेवा में लगाती। एक साधु ने धन के ठिकाने की जगह रानी से पूछी। रानी ने कहा साधु सेवा धन्य है। तिस पर रानी की जाँध में छुरी मारकर वह साधु भाग गया। कितने दिनों रानी बहाना रजोधर्म व बैचेनी शरीर की करके राजा की सेज पर न गई इस हेतु कि यह घाव देखकर राजा सब साधु से यह भाव घटा देगा। नितांत राजा के पास गई। देखकर राजा ने पूछा तब वृत्तान्त कहा। राजा अति प्रसन्न हुए। अपना भाग्य सराहा।29
मधुकरशाह कृष्णोपासक थे और रानी रामोपासिका थीं। रानी गणेशकुँअर रामराजा को ओरछा लाने के लिए अयोध्या गयी। वहाँ सरयू में स्नान करते समय भगवान राम की मूर्ति पुत्रवत् उनकी गोद में आ गयी। कहा जाता है कि राम ने ओरछा जाना स्वीकार तो कर लिया पर उन्होंने शर्त रखी कि वह केवल पुष्प नक्षत्र में यात्रा करेंगे और ओरछा का राज्य उनके नाम से चलेगा। रानी तद्नुसार पुष्य नक्षत्र में ही यात्रा करके ओरछा आयी और ओरछा राज्य तभी से राम-राज्य कहा जाता है।30
स्वप्न में भगवान राम का आदेश पाकर रानी का सरयू में मूर्ति को प्राप्त करना बुन्देलखण्ड के गजेटियर्स में भी उल्लिखित है।31 इस सम्बन्ध में एक दोहा इस अंचल में प्रसिद्ध है-
राजा मधुकरशाह की रानी कुँअर गणेश।
अवधपुरी से ओरछा ल्याई अवध नरेश।।
कवि ने कथावस्तु में इतिहास और जनश्रुति दोनों का आधार लिया है। मधुकरशाह की अविचल कृष्णभक्ति और निर्भीक धर्मपरायणता का ऐतिहासिक प्रमाण है।32
कथावस्तु
राजा मधुकरशाह और रानी गणेशकुँअर भगवद्भक्त हैं। उनमें दाम्पत्य प्रेम इतना प्रगाढ़ है कि वे एक ही मन्दिर में एक ही मूर्ति की पूजा साथ-साथ करते हैं। कृष्णभक्त राजा मूर्ति के आधे भाग का श्रृंगार कृष्ण के रूप में करते हैं और रामोपासिका रानी शेष अर्द्धांग को राम के रूप में प्रसाधित करती हैं।
एक दिन रानी अर्द्धरात्रि में ही प्रभातकाल समझकर अकेली मन्दिर पहुँच जाती हैं और भक्ति के आवेग में सम्पूर्ण मूर्ति का श्रृंगार राम के रूप में करती हैं। इधर राजा को स्वप्न में भगवान कृष्ण बताते हैं कि रानी ने राम की पूजा पूरी कर ली है और हम उपेक्षित ही रह गये। राजा ग्लानिपूर्ण हृदय से मन्दिर जाकर देखते हैं कि मुरली और मोरपंख धरती पर पड़े हैं और पूरी मूर्ति मुकुट और धनुष वाण से शोभित है।
राजा रानी के इस अधिकार-अतिक्रमण से क्षुब्ध होकर कहते हैं कि अब मेरी इस मूर्ति में तुम्हारा भाग नहीं है। यदि तुम्हें राम से इतनी ही प्रीति है तो अयोध्या जाकर उन्हें वहाँ से क्यों नहीं ले आतीं। रानी के मन में कोई दुर्भाव नहीं है। उन्होंने मन्दिर जाते समय राजा को इसलिये नहीं जगाया कि उनकी नींद में बाधा न पड़े। उनके हृदय में राम और कृण का भेदभाव नहीं है। वह पति की प्रतीति के लिये और अपनी निश्छलता के प्रमाण के लिये राम से कृष्ण रूप में दिखायी देने की प्रार्थना करती हैं। राजा को यह देखकर आश्चर्य होता है कि मूर्ति के माथे पर मुकुट के स्थान पर मोर पंख लगे हैं और हाथों में धनुष बाण की जगह मुरली है। उन्हें अपनी भूल पर अनुताप होता है। वह रानी से क्षमा माँगते हैं और उनसे अयोध्या न जाने का बार-बार अनुरोध करते हैं।
रानी को इस बहाने भगवान् राम की जन्मभूमि के दर्शन करने का और अपने आराध्य को ओरछा लाने का सौभाग्य मिला है। वह निष्कपट मन से पति की आज्ञा लेकर अयोध्या के लिये प्रस्थान करती हैं। वहाँ सरयू में खड़ी होकर वह भगवान के बालरूप का ध्यान करती हैं। भगवान विष्णु चतुर्भुज रूप धारण कर उनके सामने प्रकट होते हैं। बाद में वह रानी की विनय पर राम के स्वरूप में पाषाणमूर्ति बन जाते हैं।
इस कथा के लोक प्रचलित स्वरूप में कवि ने कल्पना के आश्रय से कुछ परिवर्तन किया है। इन परिवर्तनों से कथावस्तु अधिक स्वाभाविक और रोचक बन गयी है।
(1) कथावस्तु के लोक प्रचलित स्वरूप में रानी के अयोध्या जाने का प्रेरक हेतु मधुरकशाह का यह विनोदपूर्ण कथन है कि ऐसा लगता है कि तुम साक्षात् राम से लाड़ लड़ाती हो।33 रानी को यह बात चुभ गयी और वह अवध-यात्रा पर चल दीं। ‘मधु’ ने रानी के अयोध्या जाने के भिन्न हेतु की कल्पना की है। एक दिन रानी पूरी मूर्ति को राम के रूप में प्रसाधित करके पूजा करती हैं। राजा इस पर रुष्ट होकर कहते हैं कि यदि तुम्हें राम से इतना ही प्रेम है तो उन्हें अयोध्या जाकर ले आओ। इसी के साथ कवि ने दिव्य प्रेरणा का भी उल्लेख किया है। ध्यान में लीन रानी को राम माता कहकर पुकारते हैं और कहते हैं कि मैं सरयू में तो बहुत दिनों तक स्नान कर चुका, अब मुझे बेतवा में स्नान करा दो। प्रस्तुत घटना का यह लौकिक और अलौकिक हेतु कथावस्तु को रोचक बनाने के साथ ही रानी के चारित्रिक उत्कर्ष की भी रक्षा करता है। पति के रोषपूर्ण आदेश से रानी के अवधयात्रा पर जाने से उनके दाम्पत्य भाव में कटुता और केवल स्वाभिमान की रक्षा का आभास मिलता। इसलिये ‘मधु’ ने पति की आज्ञा और दैवी प्रेरणा का साथ-साथ विधान किया है।
(2) अवध-यात्रा पर रानी का पति के रोषपूर्ण आदेश से नहीं बल्कि प्रसन्नतापूर्ण स्वीकृति से जाना पति-पत्नी के सौमनस्य का परिचायक है। इसके लिये ‘मधु’ ने रानी के मन में राम और कृष्ण के प्रति एकत्व भाव दिखाया है। राम की मूर्ति के कृष्णत्व प्राप्त कर लेने से राजा को अपनी भूल पर दुःख होता है और रानी के प्रति उनके मन में फिर वही प्रेम और गर्व का भाव जाग उठता है। वह अपना आदेश वापस ले लेते हैं परन्तु रानी उनके मन की ग्लानि दूर करके देवी प्रेरणा का आधार लेकर अवध-यात्रा पर जाती हैं। राजा के भी साथ चलने के अनुरोध को इस अनुरागपूर्ण तर्क से टाल देती हैं कि जिस मन्दिर में हम दोनों ही पूजा करते रहे आपके चलने से वह सूना हो जायेगा।
(3) जनश्रुति के अनुसार सरयू में खड़ी रानी की गोद में राम की बालमूर्ति आ जाती है। ‘मधु’ ने यहाँ भी कल्पना शीलता का परिचय दिया है। पहले रानी के सामने विष्णु चतुर्भुज रूप में प्रकट होते हैं। रानी भक्ति विव्हल होकर कहती हैं कि ऐसा लगता है कि मेरे रघुनाथ बड़े हो गये हैं। इसलिये दो के स्थान पर चार हाथ और धनुषबाण की जगह शंख, चक्र, गदा और पद्मधारण कर लिये हैं। इस कथन में रानी के मातृभाव की झलक मिलती है। उनकी प्रार्थना पर भगवान राम सदेह बाहसप में प्रकट हो जाते हैं और रानी की उँगली पकड़कर ओरछा चलने का आग्रह करते हैं।
राम के सदेह ओरछा चलने की स्थिति उत्पन्न करके कवि ने औत्सक्य की योजना की है। भगवान का सदेह ओरछा में रहना ऐसी अकल्पित घटना हो जाती जो लोक प्रतीति और कथा के तथ्य की दृष्टि से असम्भव और असंगत लगने लगती। इसलिये कवि ने नवीन स्थिति की कल्पना करके औत्सुक्य का आश्वस्तिकारक शमन किया है। रानी सोचती है कि यदि भगवान राम सदेह ओरछा जायेंगे तो अयोध्या और ब्रज की ही तरह ओरछा में भी कुछ ही समय लीला करके अपने लोक को चले जायेंगे। रानी चाहती हैं कि भगवान का निवास ओरछा में सदैव रहे। इसलिये राम पाषाण मूर्ति के रूप में परिवर्तित हो गये। इस कल्पना से इस लोक विश्वास की रक्षा हो जाती है कि ओरछा भगवान का जीवित धाम है।
(4) कथा के लोक प्रचलित स्वरूप में राम अयोध्या चलने के पहले तीन शर्तें रखते हैं-रानी के साथ ही निवास, ओरछा में मेरा ही राज्य और पुष्य नक्षत्र में यात्रा। इसमें से दूसरी शर्त भगवान की ओर से गरिमापूर्ण नहीं प्रतीत होती है। परन्तु ओरछा में राम के चिर निवास का तथ्य लोकमान्य है। इसलिये कवि ने रानी की ओर से ही यह प्रस्ताव रखवाया है कि हम रहें या न रहें लेकिन ओरछा में आपका सदैव निवास रहे। कवि ने भगवान की ओर से किसी प्रतिबंध का उल्लेख नहीं किया है।
अलौकिकता
भारतीय मानस में भागवत सत्ता और अलौकिकता के प्रति गहरी आस्था रही है। आध्यात्मिकता की सुदीर्घ परम्परा में अलौकिकता की तर्कातीत बातें भारतीय धारणा में विश्वास का विषय रही हैं।
प्रस्तुत काव्य का विषय आध्यात्मिक है। इसलिये उसमें अनेक अलौकिक घटनाओं की योजना हुई है। भगवान कृष्ण का स्वप्न में राजा मधुकरशाह को दर्शन देना और जगाना, ध्यानलीन रानी का राम को बालरूप में देखना और उनसे ‘माँ’ का सम्बोधन सुनना, सरयू में राम की प्रार्थना करती हुई रानी के सामने विष्णु का प्रकट होना, रानी से उनकी बातचीत, विष्णु का अदृश्य हो जाना और राम का बालरूप में प्रकट होना, फिर उनका पाषाणपूर्ति बन जाना इस कथा की अलौकिक घटनाएँ हैं। ये घटनाएँ कथा के साथ तो सम्बद्ध हैं ही, उनकी योजना वस्तु के संयोजन और विकास में भी सहायक हैं।
भाव-विवेचन
इस काव्य का प्रमुख भाव भगवद्भक्ति है। भक्ति में आलम्बन के प्रति श्रद्धा युक्त प्रेम का भाव रहता है। भक्ति अलौकिक आलम्बन के प्रति ऐसी परम अनुरक्ति है जिसमें भक्त अपने मन का सम्पूर्ण समर्पण कर देता है। इसका हृदय लौकिक राग-विराग से विरत होकर निर्मल, निश्छल और उदार हो जाता है।
भक्त को आलम्बन का स्वरूप अनन्त सौन्दर्य से मंडित प्रतीत होता है। रानी गणेश कुँअर के हृदय में राम के श्रृंगार को देखकर आनन्द का अमृत प्रवाहित होे लगता है। भक्ति-विहव्ल रानी आत्मज्ञान भूलकर भगवान के रूप को इस तरह देखती रहती है जैसे चकोर चन्द्रमा को एकटक देखता है।
भाव की सर्वोच्च अवस्था वह होती है जहाँ आश्रय का पृथक् अस्तित्व न रह जाये बल्कि वह भाव का ही मूर्तिमान स्वरूप प्रतीत होने लगे। रानी भक्ति की साधना में स्वयं भक्ति का साकार रूप दिखायी देती हैं-
पायजे सुचित चाय हरि के लिबायवे कों,
तप तेज मई भक्ति रूपा चली जात है।34
रानी की भाव-विव्हलता की अभिव्यक्ति उन वर्णनों में मिलती है जो अवध-भूमि के वन से सम्बधित है। वहाँ के वृक्ष, पुष्प, शूल, पशु, पक्षी, पहाड़, सरिता सभी में भगवान राम का सम्पूर्ण अनुभव कर वह प्रेम से पुलकित हो उठती है। उसे सभी वस्तुओं में अपने आराध्य का प्रसार दिखायी देता है। वहाँ की धूल रानी के लिये उन्हीं के समान पवित्र है। वह कभी उस धूल को माथे पर लगाती हैं, कभी बालों में बिखराती हैं और कभी पलकों पर चढ़ाती हैं।
रानी को वे सभी वस्तुएँ धन्य प्रतीत होती हैं जिन्हें अवध-भूमि में होने का सौभाग्य मिला है। यह अनुभव एक ओर तो रानी के भक्त हृदय की उच्च भावभूमि का परिचायक है, दूसरी ओर जड़ और चेतन सृष्टि को उसी लीला प्रभू की अभिव्यक्ति मानने का विचार भी है। रानी को सर्वत्र श्याम रंग ही दिखायी देता है-
देखत जहाँई तहाँ देखै एक श्याम रंग,
आन रंग एकौ नहीं लेखत हैं लेखे तें।35
अवध-भूमि के पक्षियों के उल्लास के हेतु राम ही हैं। वहाँ राम बाल्यावस्था में नाचते रहे वहाँ मयूरों का प्रसन्न होकर नृत्य करना स्वाभाविक है। कोयल उनकी वचन-माधुरी लेकर कूजन करती है, पपीहा उन्हें देखकर प्रिय प्रिय पुकारता है और चकोर उनके चन्द्रमुख के दर्शन से विभोर हो उठता है।
कल्पना
कल्पना वह विधायिनी शक्ति है जिससे काव्य में रूप-सृष्टि होती है। कवि की कल्पना-शक्ति जितनी प्रखर होगी सकी अनुभूति में उतनी ही सजीवता और रमणीयता, उसके वर्णनों में उतनी ही रूपात्मकता और उसकी अभिव्यक्ति में उतनी ही चारुता होगी। ‘मधु’ ने कल्पना-शक्ति का परिचय कथा में सार्थक स्थितियाँ उत्पन्न करने में, पात्रों के चरित्र-निरूपण में, भाव को तीव्र और प्रभावशाली ढंग से रूपायित करने में और अभिव्यक्ति को सशक्त बनाने में दिया है।
कवि ने अवध-भूमि के वन प्रान्त की कष्टदायक वस्तुओं को भगवान का आसंग देकर प्रीतिकर रूप में चित्रित किया है। रानी के पैरों में काँटे चुभ गये हैं, परन्तु रानी कष्ट का अनुभव न कर आल्हादित होती है क्योंकि इन्हीं काँटों ने भगवान राम का सदैव साथ दिया-
कानन सिधाये जब राम तब एही एक,
लखन सिया की तुलना में तुल पाये ते।
प्रेम परिपूर पद पंकजन टूटि टूटि,
प्रमु संग बन गये प्रभु संग आये ते।।
रानी राम को पुकारती है और कृष्ण मीरा से कहते हैं कि एक और कौशल्या मुझे बुला रही हैं। कवि ने कल्पना के संयोग से यह स्थिति उत्पन्न करके राम और कृष्ण में मौलिक अभेद निरूपित किया है।
राम के बालरूप में प्रकट होने के दृश्य की सीता के जन्म के सादृश्य से वर्णित करके कवि ने अनूठी कल्पना की है-
वह प्रकटीं जो थल तल में जगत जानें,
यह जल तल तें निहाल रूप निकसे।
जनक को पक्ष पालिवे कों प्रकटीं वे यह,
जननि प्रत्यक्ष पक्ष पाल रूप निकसे।।
उन्हें मिथिला की पुण्य पुहमी जो भाई यह,
फिर औध भू ही में उताल रूप निकसे।
रानी प्रेम फाल की बिसाल नोंक लागत ही,
तीन लोक पाल प्रभु बाल रूप निकसे।।37
दुर्गा
इस अपूर्ण खण्डकाव्य की रचना 14 फरवरी 1942 को आरम्भ हुई। ‘दुर्गा’ शीर्षक से ‘मधु’ का उद्देश्य ऐसे काव्य का सृजन करना था जिसमें प्रतीकात्मकता के द्वारा पौराणिक आख्यान की वर्तमान परिस्थितियों में व्याख्या हो। ‘मधु’ के काव्य में राष्ट्रीय भावना की पुष्कल अभिव्यक्ति हुई है। ‘दुर्गा’ खण्डकाव्य में भी राष्ट्रीयता का भाव प्रमुख है। कवि ने प्रारम्भ में ही वाग्देवी से अभियाचना करते हुए लिखा है-
यों कृपा भाव होवे तेरा,
सब विधि कृतार्थ हो पदचेरा।
भारत के घर घर में गूँजे,
राष्ट्रीय काव्य ‘दुर्गा’ मेरा।।
यह सरस्वती से कवि की यश-प्राप्ति के लिये याचना नहीं है, बल्कि भारत के जन-मानस में राष्ट्र-प्रेम भरने की लालसा है।
‘अभियाचना’ तथा ‘विषय निर्देश’ शीर्षकों से प्रतीत होता है कि कवि ने इस खण्ड काव्य में सर्गों तथा उनके नामकरण की योजना बनाई थी।
राजनीतिक दृष्टि से यह भारत के स्वाधीनता-आन्दोलन की तीव्रता, उग्रता और व्यापक आक्रोश का समय था। यह आन्दोलन धनीभूत होकर निर्णायक स्थिति की ओर उन्मुख हो रहा था। द्वितीय विश्वयुद्ध में कांग्रेस कार्य समिति ने लोकतन्त्र तथा स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए ब्रिटिश सरकार को सशर्त सहायता देने का प्रस्ताव पारित किया। ब्रिटिश सरकार का रुख कठोर रहा। इसी समय आठों प्रान्तों में कांग्रेसी मंत्रि मण्डलों ने इस्तीफा दे दिया। इस पर अंग्रेजों का दमनचक्र बहुत कठोरता के साथ शुरू हुआ। भारत को जबरन युद्ध में धकेल दिया गया। अक्टूबर, 1940 में देशव्यापी व्यक्तिगत सत्याग्रह प्रारम्भ हुआ जिसमें देश के लगभग सभी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए। सारा देश अत्याचारों से पीड़ित था। लोग अंग्रेजों की आसुरी शक्ति से मुक्ति के लिए छटपटा रहे थे। ऐसे समय में असुरों के विनाश के लिए देवताओं की प्रार्थना के परिणामस्वरूप उद्भूत दुर्गा के पौराणिक आख्यान की समासौक्ति कवि की आन्तरिक विवशता बन गयी।
‘मधु’ के पिता आचार्य घनश्यामदास पाण्डेय ने दुर्गा सप्तशती का कवित्त सवैयों में बहुत सुन्दर अनुवाद किया था। ‘दुर्गा’ की रचना के पीछे ‘मधु’ के मन में यह भी एक प्रेरणा रही होगी। यह काव्य भी खड़ी बोली में प्रणीत है।
‘दुर्गा’ कवि का अपूर्ण रूपक-काव्य है। इसमें भारत में अंग्रेजी शासन की स्थापना और भारतीयों पर होने वाले अत्याचार का रूपकाश्रित वर्णन किया गया है। इसके लिये कवि ने ‘देवी भागवत’ का वह प्रसंग लिया है जिसमें महिषासुर का संहार करने के लिये विभिन्न देवताओं के तेज से समन्वित दुुर्गा का उद्भव होता है।
कवि इस काव्य की रचना खण्डकाव्य के स्वीकृत लक्षणों के अनुसार करना चाहता था। कवि ने मुख पृष्ठ पर स्वयं खण्डकाव्य शब्द अंकित किये हैं। इस योजना के प्रारम्भ में ‘अभियाचना’ शीर्षक से सरस्वती-वन्दना की गयी है और कृति के घर-घर में ख्यात होने का वरदान माँगा गया है। इसके पश्चात् ‘विषय निर्देश’ शीर्षक के अन्तर्गत विषयवस्तु की प्रस्तावना दी गयी है। उपक्रम पूर्ण होने पर निश्चित रूप से यह सफल खण्डकाव्य होता। उपलब्ध अंश में केवल विशद विषय निर्देश ही हो सका है।
विषय-वस्तु
जब इन्द्र सहित सभी देवता विलासमग्न और निर्बल हो गये तो अमरावती पर महिषासुर ने अधिकार कर लिया। असुरों के अत्याचार से स्वर्ग में हाहाकार मच गया। देवता, गन्धर्व, कुबेर, वरुण, बृहस्पति सभी प्राणरक्षा के लिये भागने लगे। क्षण भर में ही नन्दन-वन क्षार हो गया। महिषासुर अपने अनीतिमूलक कामों से नित्य नये अत्याचार करने लगा।
इन्द्रलोक का सारा व्यापार असुरों के हाथ में चला गया। स्वर्ण और रजत की मुद्रा के बदले तुच्छ धातुओं के सिक्कों और कागजी नोटों का प्रचलन हो गया। स्वर्गपुरी के निवासियों पर अनेक प्रकार के कर आरोपित कर दिये गये। उन्हें भोजन और वस्त्र भी दुर्लभ हो गये। इस प्रकार स्वर्गपुरी की सम्पत्ति के शोषण से पातालपुरी सम्पन्न होने लगी।
वाक्-स्वातंत्र्य छीन लिया गया जो विरोध करता था उसे फाँसी के तख्ते पर लटका दिया जाता था।
शासन में सभी प्रकार का भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया। उत्कोच के द्वारा न्याय खरीदा जाने लगा।
अत्यन्त त्रस्त और आर्त होकर देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास पहुँचे। इन्द्र तो अपने स्वत्व-अपहरण से इतने दुःखाभिभूत थे कि वह इस विपत्ति का वर्णन ही नहीं कर पाये। तब कुबेर ने त्रिदेव के समक्ष विस्तार से देवताओं की करुण गाथा सुनायी और प्रार्थना की कि या तो अमरों को मर्त्य बना दिया जाये जिससे वे मृत्यु के रूप में इस दुःख से त्राण पा सकें या उन्हें इस अत्याचारी शासन से स्वतंत्रता मिल जाये।
रूपकात्मकता
रूपक-योजना का निर्वाह विषयवस्तु के प्रत्येक तथ्य अथवा उसकी सभी घटनाओं में न होकर प्रमुख रूप से वर्ण्य भाव में हुआ है। अमरावती को भारत, महिषासुर को अंग्रेज प्रभु और असुरों को राज्य की अंग्रेजों का शासन माना गया है। जिस प्रकार देवताओं के विलास-जर्जर हो जाने पर महिषासुर ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया उसी तरह भारतीयों की निर्बलता और आत्म गौरव के विस्मरण के कारण भारत में अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो गया। अंग्रेजों ने असुरों की तरह भारतीय जनता पर मनमाने अत्याचार किये। वाक्-स्वातंत्र्य निरुद्ध हो गया। लोगों की वाणी पर धारा एक सौ चवालीस का ताला लगा दिया गया।
जिस देश में स्वर्ग के समान अपार सम्पत्ति थी वही दीन हो गया। पातालपुरी रूपी इंग्लैण्ड सम्पन्न होता गया। जो देवता रूपी भारतीय दूसरों को सहायता देकर उनके कष्ट दूर करते थे वे स्वयं विपन्न हो गये। सूर्य, चन्द्र, यम, अग्नि, वरुण आदि देवताओं की तरह प्रमुख भारतीय नेता कारागार में डाल दिये गये-
वह असुरों की पातालपुरी, हो रही कलित कंचन नगरी।
सुरपुर की सम्पति जहाँ विविध रूपों में जाती आज भरी।।38
भारत के आर्थिक शोषण से इंग्लैण्ड सम्पत्तिशाली होता गया और यहाँ की अधिकांश जनता भूखों मरने लगी-
व्यापार मिटा अमराई का, चमका पताल वह पाई का।
मरता है भूखों एक बड़ा सा भाग देव समुदाई का।।39
अत्याचारी शासन में भ्रष्टाचार भी व्याप्त हो जाता है-
अधिकारी घूसें खाते थे, निर्धन निर्बल दुख पाते थे।
सोने चाँदी के टुकड़ों के बल न्याय खरीदे जाते थे।।
देवताओं के समान ही भारतीय भी परतंत्रता की दशा में मृतकवत् जीवन बिता रहे थे-
है भार गुलामी का जीवन, उससे तो सुन्दर महा मरण।
अतएव अमर मर हो जावे या हो स्वतंत्रता का साधन।।
इस कृति में कवि का उद्देश्य राष्ट्रीय भावना का निरूपण करना है। कवि ने स्वयं उसे राष्ट्रीय काव्य कहा है और सरस्वती से याचना की है कि वह घर घर में गूँज उठे जिससे भारतीय नव प्रेरणा लेकर स्वतंत्रता-प्राप्ति का उद्योग करें।
भारत के घर-घर में गूँजे राष्ट्रीय काव्य ‘दुर्गा’ मेरा।
गुप्त जी ने भी इसी तरह ‘भारत भारती’ में कामना की थी-
‘भगवान भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती’
सन् 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के पूर्व लिखे गये ‘दुर्गा’ काव्य के अपूर्ण रह जाने से वह कृति के रूप में भले ही घर-घर में न गूँज पाया हो, परन्तु कवि की करुणा जिस आन्तरिक आवेग के साथ व्यक्त हुई है वह बाद के घनीभूत और एकजुट निर्णायक आन्दोलन के परिणामस्वरूप स्वतंत्रता-प्राप्ति के रूप में अवश्य फलीभूत हुई।
लघु आख्यान काव्य
होलिका दहन
‘होलिका दहन’ प्रहलाद के जीवन के प्रसिद्ध प्रसंग पर आधारित एक लघु आख्यान काव्य है। इसकी रचना खड़ी बोली में हुई है। यह फाल्गुन पूर्णिमा सं. 1994 वि. तदनुसार सन् 1937 होली की ही तिथि की रचना है। इसमें 7 दोहे और 7 कवित्त हैं। इस काव्य की मूल प्रेरणा राष्ट्रीय भावना है। कवि ने अन्तिम कवित्त में अपना उद्देश्य व्यक्त किया है-
कुटिल कुचक्री हिरनाकुश कुशासन ने,
भारत प्रह्लाद का मिटाना मन ठाना है।
साथ देने आई दुष्ट दासता की होलिका है,
आग लगी पेटों में न जिसका ठिकाना है।।
विमति विदेशी चकचौंध कर रहि जावे,
लीलानिधे बस वही लीला दिखलाना है।
भारत प्रह्लाद को बचाना भगवान होवे,
सफल हमारा होली चरित बखाना है।।40
‘मधु’ ने इस प्रकार के पौराणिक, ऐतिहासिक आख्यानों पर लघु प्रबन्धों की रचना की है। इनमें कथा-वर्णन या पात्रों का सर्वांगीण शील-निरूपण कवि का अभिप्रेत नहीं है। सम्बन्धित प्रसंग का अन्तर्निहित आदर्श या उसकी प्रतीकात्मकता ही कवि का इष्ट है।
‘होलिका दहन’ में ‘मधु’ ने संक्षेप में यह वर्णन किया है कि पहाड़ से गिराने, सागर में डुबाने और कालकूट विष पिलाने के बाद भी जब प्रह्लाद की मृत्यु नहीं हुई तो हिरण्यकश्यपु का मन क्रोधाग्नि में जलने लगा। तभी वहाँ होलिका आ गयी और उसने अग्नि-स्तंभन मंत्र के द्वारा प्रह्लाद को जला देने का विश्वास दिया। परन्तु प्रह्लाद को मारने का यह उपाय भी निष्फल हुआ। भक्त प्रह्लाद तो सुरक्षित रहे, किन्तु होलिका स्वयं क्षार हो गयी।
दूत हिरण्यकशिपु को सूचना देता है कि कालकूट विष भी प्रहलाद के प्राण नहीं ले सका। दैत्य हिरण्यकशिपु इस बात से अत्यन्त कुद्ध है कि स्वयं उसका पुत्र उसका प्रभुत्व स्वीकार नहीं करता है। तब उसकी बहिन होलिका उसकी समस्या का उपचार प्रस्तुत करती हुई कहती है कि मैं अपने अग्नि-स्तम्भन मंत्र के द्वारा प्रह्लाद को तो जला दूँगी और अग्नि में से स्वयं सुरक्षित निकल आऊँगी। जब एकत्र ईंधन में अग्नि का आरोप किया जाता है तो होलिका तो जल जाती है और प्रहलाद सुरक्षित निकल आते हैं।
उद्देश्य
कवि ने होलिका-दहन के आख्यान से भारत की परतंत्रता के विनाश के रूपक की कल्पना की है। अंग्रेजों का कुशासन कुटिल और कुचक्री हिरण्यकशिपु है। उसने भारत रूपी प्रहलाद को नष्ट कर डालने का निश्चय कर लिया है। परतंत्रता की होलिका इसका साथ दे रही है। प्रभु से विनय की गयी है कि वह ऐसी लीला दिखायें कि विदेशी शासक विस्मित हो जाये। भारत रूपी प्रह्लाद की रक्षा हो जाये और दासता रूपी होलिका भस्म हो जाये।
एह रूपकात्मकता कृति के अन्तिम छन्द में कवि ने स्वयं स्पष्ट कर दी है। राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति के साथ ही कवि का उद्देश्य भगवद्भक्ति के महत्त्व की प्रतिष्ठा करना भी है। कवि यह निरूपित करना चाहता है कि जिसकी भगवान् में अविचल आस्था है उसका अनिष्ट नहीं हो सकता। ईश्वर स्वयं उसकी रक्षा करता है।
भक्तवर कालीनाग-
‘भक्तवर कालीनाग’ पौराणिक प्रसंग पर आधारित ब्रजभाषा का लघु आख्यान काव्य है। ‘मधु’ ने इसमें प्राचीन कवियों की तरह अन्त में रचना-तिथि का निर्देश किया है-
संवत् वसु निधि ग्रह शशि राजे,
माघ मास सुखदाई।
असित पक्ष नवमी रवि वासर,
‘मधु’ हरि कथा बनाई।।
अंकानाम् वामतो गतिः के अनुसार यह तिथि माघ कृष्ण 9 सं. 1998 वि. होती है। कवि ने ग्रन्थ के मुखपृष्ठ पर भी रचनातिथि मकरसंक्रान्ति संवत् 1998 वि0 दी है।
कवि ने इसे ‘हरिकथा’ कहा है। जैसा नाम से व्यक्त है, इस काव्य का विषय कृष्ण-भक्ति है। यमुना जल में रहने वाले त्रासद कालीनाग के नाथने की कृष्ण की बाल-लीला लोक प्रचलित है। अन्य आख्यान काव्यों की तरह कथा में भी कवि का लक्ष्य केवल स्थूल रूप में कथा कहना नहीं है, बल्कि उसमें सन्निविष्ट विशेष अन्तर्भाव को विवृत करना है। भुजंन-भूषण शंकर ने पार्वती को रामकथा सुनाने के बाद कहा कि द्वापर में कंस का बध करने के लिये भगवान ब्रजभूमि में अवतार लेंगे। यह सुनकर कालीनाग ने, जो अपनी नागिन और बच्चों के साथ रहता था, द्वापर में कृष्ण के द्वारा अपने उद्धार का निश्चय कर लिया। भगवान के कृपापूर्ण चरण प्राप्त करने के दो ही साधन हैं या तो पुण्य कार्य करना अथवा घोर पाप करना। कालीनाग ने दूसरा उपाय सरल समझा और यमुना में रहकर उसके जल को विषाक्त करके सम्पूर्ण ब्रज को त्रास देना शुरू कर दिया। भगवान् से ब्रज-व्यथा मिटाने के साथ ही अपने भक्त कालीनाग का उद्धार करने के लिये गेंद खेलने की क्रीड़ा रची। नाग अखिल लोकनायक के चरणों को अपने सिर पर धारण कर कृतार्थ हो गया। इस सरल और प्रवहमान कथानक में ‘मधु’ ने उक्ति और कहीं-कहीं नवीन भावोद्भावना के द्वारा काव्य सौन्दर्य की सृष्टि की है।
‘भागवतपुराण’ के दशम स्कंध में कृष्ण की बाल-लीलाओं में कालीनाग के उद्धार की कथा है। कवि ने यमुना में कालीनाग के निवास को सप्रयोजन और पूर्वायोजित दिखाकर कथा की अधिक युक्तियुक्तता प्रदान की है। सूर ने कालीदह में कृष्ण के कूदने का कारण यह दिखाया है कि कंस ने नन्द को संदेश भेजा कि वह तुरन्त कालीदह में खिलने वाला कमल पुष्प भेज दे।41 इसी कालीदह में कालीनाग का निवास था। कंस का कुटिल मन्तव्य समझकर नन्द को चिन्तामुक्त करने के लिये कृष्ण कालीदह में कूद पड़े।
इस काव्य की कथा कृष्ण की बाल-लीलाओं के रूप में वर्णन-प्रधान है, परन्तु कालीनाग के फन पर कृष्ण को नर्तन रत दिखाने में कवि को चित्रण का भी अवसर मिल गया है। कृष्ण जब कालीनाग के फन पर नृत्य कर रहे हैं तो उनका अंग-प्रत्यंग तो नाच ही रहा है आसपास का वातावरण भी नर्तनरत है-
कटि में कलित काछनी नाचे कांधे पीत पटैया।
अधरन मुरली मुरली पै नचि के कर लेत बलैया।।
नूपुर करें मधुर ध्वनि होवें पग जब ता ता थैया।
लख आली काली के फन पै नचत त्रिलोक नचैया।।42
अंग प्रत्यंग, वस्त्र, नूपुर और मुरली के नर्तन के सूक्ष्म चित्रण से नर्तन-भाव का संमूर्तन हुआ है-
मन नाचत है पीता पटी पै नचत पीत पट तन पै।
सिर पै नचें लटें घुंघराली कल कुण्डल स्रवनन पै।।
उर पै माल वैजयन्ती झुक नाचत है झमकन पै।
लख आली ताली दै नाचें हरि काली के फल पै।।43
कृष्ण की नृत्य-मुद्रा वातावरण की नर्तनशीलता से और अधिक आकर्षक हो गयी है। सम्पूर्ण दृश्य भाव का साकार और गतिशील चित्र प्रतीत होता है
नाचत पौन पौन संग नाचत जमना मन मतवाली।
यमुना में जल नाचै जल में लहरें नर्तनशाली।।
नाचत लोल लहरियन के बिच लहरें लै लै काली।
काली के फन पै लख आली नचत कृष्ण दै ताली।।44
कहा है।
अर्जुन मोह भंग
‘अर्जुन मोह भंग’ पौराणिक प्रसंग पर रचित लघु आख्यान काव्य है। ब्रजभाषा में रचित इस काव्य में कवि का उद्देश्य यह बताना है कि भगवद्भक्ति में अहंकार का कोई स्थान नहीं है। ईश्वर सभी भक्तों को समान मानता है। भक्ति में कोई छोटा या बड़ा नहीं होता है।
कवि ने इस आख्यान के मूल भाव को ही व्यक्त किया है। इसीलिये उसमें कथा-विस्तार अथवा घटनाओं की बहुलता नहीं है।
‘अर्जुन मोह भंग’ भी ‘होलिका दहन’ और ‘भक्तवर कालीनाग’ की तरह कवि के प्रारम्भ काल की आख्यान कविता है। इसका कथानक महाभारत के एक प्रसंग पर आधृत है। महाभारत में विजयी होकर अर्जुन कृष्ण के साथ विजया-पूजन के लिये जाते हैं। अर्जुन को यह अभिमान है कि उनसे बड़ा कृष्ण-भक्त कोई नहीं है। अन्तर्यामी भगवान् कृष्ण युक्तिपूर्वक उनका मोह भंग करते हैं। वह अर्जुन को असहनीय तृषा लगने पर पानी पीने के लिये एक गुफा में भेजते हैं। गुफा में रहने वाली एक वृद्धा अर्जुन को पानी देती है। उसी समय उनकी दृष्टि वहाँ रखे एक चमकदार खड्ग पर पड़ती है। पानी पीने के पहले वह खड्ग का रहस्य जानना चाहते हैं। वृद्धा कहती है कि ये अर्जुन के पाप हैं। महाभारत में अर्जुन ने भगवान कृष्ण की ओट में अनेक अनर्थपूर्ण कार्य किये। यह सुनकर अर्जुन अचेत हो जाते हैं। संज्ञा आने पर वह न तो वृद्धा को देखते हैं न उस खड्ग को। वह स्वयं को भगवान कृपया की गोद में पड़ा हुआ पाते हैं।
इस वर्णन-प्रधान लघु कथानक में भी कवि ने अवसर पाकर भाव का सजीव और अलंकृत चित्रण किया है। अर्जुन खड्ग का भेद जानने को उत्सुक हैं। खड्ग की दमक को देखकर वह अपनी प्यास की तीव्रता भूल जाते हैं-
दमक दमक चकाचौंध सी दृगन देत,
चमकत चोप भरी चंचला की सानी की।
रावरी कुटी में वह द्वैज चन्द्रहास किधौं,
चन्द्रहास चोखी यह चंद्रिका भवानी की।।
ठान्यौ प्रन जौन तजिहों न ताहि कौंनो विधि,
हठि करि पूछिहों में गूढ़ता कहानी की।
तीव्र तेज सानी की कृपानी कौ निहार पानी,
साँचु कहों जननि न प्यास रही पानी की।।45
ऐसे चित्रणों से आख्यान के वर्णन में नीरस इतिवृत्त-कथन न होकर सरसता का समावेश हुआ है।
संदर्भ
1.शकुन्तला, छंद 7
2.वही छंद 13
3.वही छन्द 15
4.वही छन्द 18
5.वही छन्द 20
6.वही छन्द 20
7.वही छन्द 8
8.वही छन्द 9
9.वही छन्द 10
10.वही छन्द 18
11. वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग 43, श्लोक 17-19
12.उत्तरामचरित, भवभूति, प्रथम अंक
13.आनन्द रामायण, सारकाण्ड, सर्ग-11, श्लोक-205-218
14.राम रसायन, विधान 6, विभाग 16
15.सुलोचना-सौरभ, छन्द 2
16.वही, छन्द 3
17.वही, छन्द 27
18.वही, छन्द 28
19.वही, छन्द 1
20.वही, छन्द 15
21.वही, छन्द
22.झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, वृन्दावन लाल वर्मा, पृष्ठ 406, 7
23.झाँसी का विभीषण,
24.वही
25.ईस्टर्न स्टेट्स गजेटियर्स (बुन्देलखण्ड) भाग 6ए, 1907, पृ.-18
26.भक्तमाल, प्रताप सिंह, पृ. 135, 6
27.रानी गणेश कुँअर, 2
28.मधुकर, बुन्देलखण्ड साहित्य सम्मेलनांक, दिसम्बर-जनवरी, 1945, पृष्ठ 360
29.भक्तमाल-प्रताप सिंह पृ.-90
30.बुन्देलखण्ड की संस्कृति और साहित्य-रामचरण हयारण मित्र, पृ.- 90
31.ईस्टर्न स्टेट्स गजेटियर्स (बुन्देलखण्ड), भाग 6ए, पृष्ठ 18
32.बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास-गौरे लाल तिवारी, पृ. 126
33.बुन्देलखण्ड की संस्कृति और साहित्य-रामचरण हयारण मित्र, पृ. 37
34.रानी गणेश कुँअर, 45
35.वही, छन्द 58
36.वही, छन्द 60
37.वही, छन्द 86
38. दुर्गा काव्य
39. वही, छन्द
40. होलिका दहन
41. सूरसागर (पहला खण्ड)-सं. नन्ददुलारे वाजपेयी, दशमस्कन्ध, 518
42. भक्त कालीनाग, 29
43. वही, छन्द 32
44. वही, छन्द 30
45. अर्जुन मोह भंग, 6