Google Boy - 9 in Hindi Moral Stories by Madhukant books and stories PDF | गूगल बॉय - 9

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गूगल बॉय - 9

गूगल बॉय

(रक्तदान जागृति का किशोर उपन्यास)

मधुकांत

खण्ड - 9

अपनी दिनचर्या पूरी करने के बाद गूगल एक बार बाँके बिहारी के मन्दिर में गया और गिन्नियों की थैली को सँभाल आया। थैली को सुरक्षित पाकर गूगल निश्चिंत हो गया और अपने बिस्तर पर लौट आया।

दुकान का काम अब बड़ा भी हो गया था और आसान भी। पापा को तब ग्राहक के अनुसार शहर जाकर एक-एक सामान लाना पड़ता था परन्तु अब तो बहुत-सा तैयार माल भी उसकी दुकान में मिलने लगा। काम सीखने के लिये उसके मामा का लड़का भी उनके पास आ गया था, जिससे गूगल को बहुत आराम हो गया था।

माँ घर का सब काम निपटा कर कमरे में आ गयी। मामा का लड़का प्रवीण दुकान में सोता था, इसलिये माँ के साथ खुलकर बात की जा सकती थी।

‘माँ, कॉलेज में तो अब मुझे जाना नहीं है। समझो, कोर्स पूरा हो गया।’

‘तू कह रहा था, अभ्यास कार्य के लिये जाना पड़ेगा।’

‘उसके लिये प्राचार्य जी ने मुझे छूट दे दी है। बस एक दिन कॉलेज का फ़र्नीचर ठीक करने के लिये जाना पड़ेगा। समझो गुरु-दक्षिणा।’

‘गुरु दक्षिणा..? मैं कुछ समझी नहीं,’ माँ ने आश्चर्य प्रकट किया।

‘माँ, हमारे प्राचार्य ने कॉलेज के कुछ बेंच-डेस्क ठीक करने के लिये कहा है, जिसे मैंने ख़ुशी से स्वीकार कर लिया। देखो माँ, दो साल तक हम अपने कॉलेज में पढ़े हैं तो हमारा भी कुछ फ़र्ज़ बनता है कि गुरु-दक्षिणा में कुछ देकर जाएँ।’

‘बहुत अच्छी बात है बेटे। भीलपुत्र एकलव्य ने तो गुरु-दक्षिणा में अपना अंगूठा ही दे दिया था। इससे अधिक गुरु के प्रति एक शिष्य का क्या समर्पण हो सकता है।’

‘यह बात तो सही है माँ, परन्तु यदि गुरु द्रोण के पक्ष से सोचें तो उन्होंने कुछ ठीक नहीं किया। पहले तो भीलपुत्र को शिक्षा देने से इंकार कर दिया और जब वह संसार का सबसे श्रेष्ठ धनुर्धारी बन गया तो अपने प्रिय अर्जुन के लिये उन्होंने गुरु-दक्षिणा में एकलव्य का अंगूठा माँग लिया ताकि वह कभी धनुष न चला सके और उनका प्रिय शिष्य अर्जुन ही श्रेष्ठ कहलाये।’ बोलते-बोलते गूगल कुछ उत्तेजित हो गया था।

‘देखो बेटे गूगल, ज्ञान तो हमारे अन्दर बैठा है, गुरु तो केवल एक माध्यम बनता है। गुरु के प्रति हमारी श्रद्धा, निष्ठा हमारे उद्देश्य को दृढ़ बनाती है। गुरु द्रोण ने तो एकलव्य को कुछ शिक्षा नहीं दी। शिक्षा तो एकलव्य के अन्दर विद्यमान थी। गुरु की प्रतिमा केवल माध्यम बनी और उसके कठोर एवं निरन्तर अभ्यास ने उसको धनुर्विद्या में पारंगत कर दिया। परन्तु आजकल एकलव्य जैसे शिष्य कहाँ हैं, सब बदल गया बेटे,’ कहते हुए माँ भी अपने बिस्तर पर बैठ गयी।

‘माँ, अब यह बताओ, बाँके बिहारी ने जो प्रसाद हमें छप्पर फाड़कर दिया है, उसका क्या करना है?’ गूगल दबे स्वर में बोला।

‘देख बेटा, एक बात तो साफ़ है कि यह धन हमारा नहीं है। जिसके लिये हमने कोई परिश्रम नहीं किया, उसपर हमारा अधिकार नहीं हो सकता।’

‘तो माँ, इसका करें क्या?’

‘बेटे, पहली बात तो यह है कि हमें इसके मालिक का पता लगाना चाहिए और वह भी बहुत समझदारी से, क्योंकि आज लोग बहुत लालची हो गये हैं। जिसको भी असली बात का पता चल गया, वही अधिकार जमाने आ जायेगा।’

‘काम तो कठिन लगता है, क्योंकि यह सोफ़ा-कुर्सी लगभग सौ वर्ष पुरानी है, फिर भी मैं कोशिश करूँगा।’

‘दूसरी बात यह है कि यदि हमें इसके मालिक का पता नहीं लगता तो हम इसे बाँके बिहारी को ही अर्पित कर देंगे। उन्हीं की सेवा में लगा देंगे। यह धन हमारा नहीं है, इसलिये हम एक पैसा भी अपने ऊपर खर्च नहीं करेंगे’, माँ ने अपना निर्णय सुना दिया।

‘मैं भी यही सोचता था। बाँके बिहारी ने हमारे परिश्रम को सम्मानित किया है। फिर क्यों हम पराये धन के लिये लालची बनें, परन्तु माँ, मेरे मन में एक और भी ख़्याल आता है। पापा खून की कमी से स्वर्ग सिधारे। खून मिल जाता तो शायद वे बच जाते। मरते हुए भी कह रहे थे....गूगल खून...गूगल खून। आज तक मैं उनकी बात को समझ नहीं पाया, परन्तु अब मैंने निर्णय लिया है कि पापा की बरसी पर एक बहुत बड़ा रक्तदान कैम्प लगाऊँगा... माँ, एक बात बताओ, क्या मैं इस धन को उसमें खर्च कर सकता हूँ?’

‘अवश्य कर सकते हो, क्योंकि भगवान द्वारा बनाये जीवों की सेवा में किया गया खर्च हमेशा उसी की सेवा के निमित्त होता है, लेकिन उसमें तो तेरी एक गिन्नी ही खर्च हो पायेगी’, माँ ने पलटकर उससे एक सवाल पूछा - ‘तुझे पता है, इन सौ गिन्नियों की क़ीमत क्या होगी?’

‘नहीं माँ, मुझे क्या मालूम! मैं तो ठीक से यह भी नहीं जानता था कि ये सोने की हैं।’

‘बेटे, इनकी क़ीमत तीस-चालीस लाख से कम न होगी।’

‘तीस-चालीस लाख रुपये..हे भगवान’, गूगल का मुँह खुला का खुला रह गया। ‘फिर तो माँ, हम रक्त देने वालों को सुन्दर उपहार देंगे।’

‘कुछ भी दे देना, परन्तु गूगल बेटे, यह ध्यान रखना कि किसी को कानों-कान भी ख़बर न हो कि यह धन हमारे पास कैसे और कहाँ से आया। यह केवल बाँके बिहारी का धन है, उसी का समझकर खर्च करना। परन्तु सबसे पहले तो इसके मालिक को खोजने की कोशिश कर।’

‘ठीक है माँ, सबसे पहले तो उस कबाड़ी से बात करता हूँ। शायद कुछ पता लग जाये।’

‘उससे पहले एक काम कर। इसमें से एक गिन्नी मुझे दे दे, बाँके बिहारी के नाम की निकाल दें। जब तू परिक्रमा करने जाये तो उनके चरणों में चढ़ा देना।’

‘हाँ, यह ठीक है माँ’, गूगल जल्दी से उठकर कोने में बने मन्दिर से थैली निकाल लाया। उसमें से एक गिन्नी निकाल कर श्रद्धापूर्वक माँ को दे दी। थैली में हाथ डालकर उसने मुट्ठी भरकर गिन्नियाँ निकाली और उनको ध्यान से देखने लगा। इतना धन पाकर वह बहुत खुश और उत्साहित था।

‘बेटे, हमें इनको बेचना भी सावधानीपूर्वक पड़ेगा। यहाँ तो हम किसी को दिखा भी नहीं सकते। लोग दस सवाल करेंगे। कहीं चुपचाप थोड़ी-थोड़ी करके शहर में बेचना पड़ेगा।’

‘माँ, हमारे लाला की लकड़ी की दुकान के पास एक सुनार की दुकान है, जिससे एक बार पापा आपके लिये पाजेब ख़रीद कर लाये थे। वह पापा का दोस्त है। मैं जब भी शहर जाता हूँ, उनसे मिलकर आता हूँ।’

‘अरे, वो राम चरण! हाँ, वो तो तुम्हारे पापा का अच्छा दोस्त है। एक बार घर भी आया था, परन्तु ये गिन्नियाँ कैसे, कहाँ से आयीं, यह उसको भी नहीं बताना..समझे!’ माँ ने ज़ोर देकर कहा।

‘समझ गया माँ। तू तो अब भी मुझे बच्चा ही समझती है’, कहते हुए गूगल ने गिन्नी की थैली को बंद कर दिया और वापस बाँके बिहारी की गुप्त हुंडी में रख आया।

गूगल तो वापस बिस्तर पर आकर सो गया, परन्तु नारायणी की आँखों से नींद उड़ गयी। ‘इतना छोटा-सा बालक और इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी! आज वे ज़िन्दा होते तो यह सब देखकर कितने खुश होते! थोड़ा-सा भी सुख देखना उनकी क़िस्मत में नहीं था’, नारायणी की आँख से ढुलक कर दो आंसू तकिये में समा गये।

नारायणी को यह चिंता तो नहीं थी कि गूगल अभी नासमझ बालक है। वह घर की सब आवश्यकताओं का ध्यान रखता है। दुकान के काम को अच्छी तरह सँभालता है। आमदनी भी पहले से अधिक होने लगी है। घर के पिछवाड़े में एक बड़ा गोदाम भी बना लिया है। कभी-कभी उसको जाते हुए देखती हूँ तो कई बार वह अपने पापा जैसा लगता है। वही डील-डोल, वही चाल, वैसा ही जमा-जमा कर बात करना...हे बाँके बिहारी, इसको किसी की नज़र न लगे, सोचते-सोचते उसे भी नींद आ गयी।

आँखें तो बंद हो गयीं, परन्तु मन कहीं और डोलता रहा। ऐसे सुन्दर बगीचे में जिसको इससे पहले उसने कभी नहीं देखा था। गोपाल उसके लिये गुलाब का फूल तोड़कर लाया। उसको भेंट करने के लिये उसने जैसे ही हाथ बढ़ाया कि मारे लाज के नारायणी दोहरी हो गयी। वैसे दूर-दूर तक कोई इंसान नहीं था, फिर भी वह गोपाल से, अपने आप से ही शर्म से दबी जा रही थी। जब उससे सामना न हुआ तो वह घूम गयी और पर्वत से गिरते झरने को देखने लगी। गोपाल ने पीछे से उसके बालों में गुलाब का फूल लगा दिया - ‘तुम्हें गुलाब पसन्द है ना नारायणी!’

‘मेरा गुलाब तो घर पर सो रहा है। उससे सुन्दर गुलाब तो इस दुनिया में कोई हो ही नहीं सकता ...मेरा गूगल।’

‘सचमुच, वह बहुत प्यारा है। आख़िर बेटा किसका है!’

‘आपका’, नारायणी ने उसकी ओर घूम कर अपनी उँगली उसके सीने पर रख दी।

‘नहीं, नहीं नारायणी, हम दोनों का। शक्ल-सूरत में चाहे वह मुझ पर गया हो, लेकिन समझदारी में वह तुम पर गया है।’

गोपाल ने आगे बढ़कर उसको बाँहों में लेना चाहा, परन्तु वह झट से निकल भागी। अचानक वह ठोकर लगने से गिर पड़ी और आँख खुल गयी। कितना सुन्दर सपना था - बिस्तर पर बैठकर सोचने लगी। अब भी सुन्दर बगीचे का, गोपाल का चित्र उसकी आँखों में बसा था। अब भी वह बंद आँखों से उस दृश्य को देखे जा रही थी...मन ही नहीं हो रहा था आँखों को खोलने का।

तभी उसके कानों में गली के मन्दिर से आती भजन की आवाज़ सुनाई दी। उसने समझ लिया कि दिन निकल आया है और सुबह के पाँच बज चुके हैं।

वह उठ खड़ी हुई। लाइट जलाई। एक भरपूर नज़र से गूगल को निहारा और चद्दर के कोने को खींचकर उसके शरीर को ढक दिया।

उठने के बाद गूगल ने नित्यकर्म निपटाये तथा सब्ज़ी ख़रीदने के लिये घर से निकल लिया। रास्ते में उसे कबाड़ी की दुकान खुली दिखायी दी। वह तुरन्त साइकिल से उतर गया - ‘भाई साहब, मुझे एक बात बताओ कि दो दिन पहले जो सोफ़ा-कुर्सी मैं आपकी दुकान से ले गया था, वो आपके पास कहाँ से आयी थी?’

‘क्यों?’ कबाड़ी को चिंता हुई, या तो यह उसको वापस करना चाहता है या कहीं गड़बड़ है।

‘देखो भाई, वह कुर्सी बहुत पुराने समय की है। मैं उसपर शोधपत्र लिखना चाहता हूँ, इसलिये उसके मालिक का पता करना चाह रहा हूँ’, गूगल ने झूठ-मूठ का नाटक किया।

‘मुझे क्या मालूम, कोई मेरे पिता को यह सोफ़ा सैट बेचकर गया था। एक कुर्सी और सोफ़ा तो एकदम कंडम था। लोहा निकाल कर लकड़ी को जला लिया।दस-बारह वर्ष से यह कुर्सी दुकान पर पड़ी थी...बस मुझे तो इतनी ही जानकारी है’, लापरवाही से बताकर वह दूसरे ग्राहक से बात करने लगा।

‘कुछ हाथ न लगा..’, निराश होकर गूगल ने भी अपनी साइकिल उठा ली। अब तो सोफा-कुर्सी के मालिक का पता लगाना कठिन है...खैर, जैसी बाँके बिहारी की इच्छा - सोचता हुआ वह अपनी साइकिल पर सवार हो गया।

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