आखा तीज का ब्याह
(12)
वासंती के तलाक के बाद से ही उसके परिवार का कोई भी सदस्य उससे बात ही नहीं कर रहा था| यहाँ तक की उसने जब अपनी माँ को फ़ोन लगाया तो उन्होंने भी बिना बात किये ही फ़ोन काट दिया| जिस वासंती को अखबारों व सामाजिक संस्थाओं ने एक आदर्श की तरह पेश किया था, जो कन्या शिक्षा और समाज में फैली बाल विवाह जैसी कुरीती के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष के चलते अखबारों की सुर्ख़ियों में छाई रहती थी उसी वासंती से उसके घर वालों ने रिश्ता ही तोड़ दिया था| वह अपने घरवालों की यह बेरुखी बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी और भीतर ही भीतर टूटने लगी थी| तब प्रतीक ने उसे सहारा दिया, उसे संभाला और फिर जल्द ही उन दोनों ने शादी करने का फैसला कर लिया|
यद्यपि प्रतीक की एम.एस. और वासंती की एम.बी.बी एस. अभी पूरी ही हुई थी| वह वासंती की पढाई पूरी होने के बाद ही विवाह करना चाहता था क्योंकि वह जानता था विवाह एक बड़ी ज़िम्मेदारी है और इसका असर उसकी पढाई पर पड़ना तय है पर वासंती के हालात ही कुछ ऐसे थे की उसे मजबूरी में यह फैसला लेना ही पड़ा|
दोनों ने ही इस बारे में अपने-अपने घरवालों से बात की, वासंती के बापूजी का जवाब तो सबको मालूम था पर आश्चर्य, प्रतीक भी अपने माता-पिता को मनाने में सफ़ल नहीं हो पाया| वे अपने इकलौते बेटे की शादी एक तलाकशुदा लडकी से करने को कत्तई राज़ी नहीं थे| उनका कहना था कि उनके बेटे को लड़कियों की कोई कमी तो नहीं है, जब एक से एक बढ़कर सर्वगुणसंपन्न लड़की उनके काबिल बेटे से विवाह को तैयार हैं तो फिर वह क्यों एक तलाकशुदा से विवाह करने की भूल कर रहा है| वे प्रतीक पर वासंती का साथ छोड़ने का दबाव बना रहे थे क्योंकि उन्हें भय था कि जो लड़की एक शादी नहीं निभा पाई तो वह दूसरी भी नहीं निभा पायेगी| अब तो वासंती को प्रतीक के साथ अपने रिश्ते का हश्र भी श्वेता और रजत की तरह होता दिखाई दे रहा था|
यदि ऐसा कुछ हो जाता तो शायद वासंती के लिए परिस्थितियां और भी विकट हो जाती पर प्रतीक ने उसका साथ नहीं छोड़ा| उसने वासंती से कोर्ट मेरिज करने का निश्चय किया| एक बार फिर वासंती अदालत की चौखट पर थी| बस फर्क सिर्फ़ इतना था कि इस बार वह अनचाहा रिश्ता तोड़ने नहीं अपितु प्रतीक के साथ प्यार का रिश्ता जोड़ने आई थी| वासंती और प्रतीक दोनों ने ही अपने अपने घरवालों को विवाह की सूचना दी थी और उनसे विवाह में शामिल होने का आग्रह भी किया था पर दोनों तरफ़ से ही कोई नहीं आया| वासंती लाल जोड़े में सजी अपने घरवालों का इंतज़ार करती रही पर उसका इंतज़ार व्यर्थ गया| उसने कभी सोचा भी नहीं था उसका विवाह इस तरह होगा आँखों में आंसू लिए जब उसने दस्तख्त किये तो प्रतीक का मन भर आया| गवाह के रूप में श्वेता और नवीन ने साइन किये और विवाह सम्पन्न हो गया |
विवाह के बाद प्रतीक सबसे पहले वासंती को लेकर उसके गाँव गया, उसे विश्वास था कि माता-पिता अपने बच्चों से ज्यादा दिन नाराज़ नहीं रह सकते, आखिर बच्चों की ख़ुशी माँ बाप को अपनी जिद छोड़ने पर मजबूर कर ही देती है| जब वे वासंती का ख़ुशी से दमकता चेहरा देखेंगे तो खुदको उसे फिर से अपनाने से नहीं रोक सकेंगे| पर प्रतीक की सोच गलत साबित हुई उन लोगों ने वासंती और प्रतीक से मिलने तक से इंकार कर दिया| वो दोनों काफी देर तक घर का दरवाज़ा खुलने का इंतज़ार करते रहे पर उन लोगों ने तो घर के ही नहीं दिल के दरवाज़े भी वासंती के लिए बंद कर लिए। आखिर दोनों हार कर वापस चले आये|
प्रतीक वासंती को लेकर अपने मम्मा-पापा के पास अपने घर आ गया| वासंती को प्रतीक के घर जाने में डर लग रहा था, उसे लग रहा था कि जैसा व्यवहार व्यवहार उसके माँ-बापूजी ने किया वैसा ही प्रतीक के मम्मा-पापा भी करेंगे| डर तो प्रतीक को भी लग रहा था पर इस परिस्थिति का सामना तो उसे एक ना एक दिन करना ही था, उसे अपने घर तो जाना ही था| आखिर कब तक वह अपने मम्मा पापा से दूर रह सकता था|
जब वे लोग प्रतीक के घर पहुंचे तो वासंती का दिल बहुत ज़ोर से धड़कने लगा उसने प्रतीक का हाथ कस कर पकड़ लिया| डर तो प्रतीक को भी लग रहा था, वासंती का हाथ थामे धडकते दिल से उसने डोर बेल बजायी| प्रतीक के पापा ने दरवाज़ा खोला, मम्मा भी पीछे पीछे ही चली आई| प्रतीक और वासंती ने उनके पैर छुए, दोनों ने उन्हें आशीर्वाद दिया, वो दोनों शांत ही रहे कुछ नहीं बोले, वासंती उनकी चुप्पी के पीछे छुपी उनकी नाराज़गी को तो समझ रही थी पर यह नहीं समझ पा रही थी कि ये लोग इतने शांत क्यों हैं उसके माँ बापूजी की तरह गुस्से में चीख चिल्ला क्यों नहीं रहे| उसे लग रहा था यह शांति तूफान से पहले की शांति है, थोड़ी ही देर में एक बवंडर उठेगा और उसकी सारी खुशियाँ बहा कर ले जायेगा|
वासंती की यह आशंका निर्मूल साबित हुई ऐसा कुछ नहीं हुआ जैसा वह सोच रही थी| यहाँ बेटे के प्रति माता-पिता का प्यार भारी पड़ गया प्रतीक के मम्मा पापा ने उनसे कुछ नहीं कहा| प्रतीक के घर मामला कुछ अलग था, यहाँ वासंती का निरादर तो नहीं हुआ, पर उसके मम्मा-पापा ने वासंती को ख़ुशी से अपनाया भी नहीं| प्रतीक के सामने तो फिर भी ठीक पर अकेले में तो प्रतीक के माता-पिता खास कर उसकी मम्मा का व्यवहार वासंती के साथ काफ़ी रूखा था| वासंती को आश्चर्य होता था मम्मा पहले भी उससे मिल चुकी थी और तब उनका व्यवहार वासंती के साथ बहुत अच्छा था|
क्या फर्क था तब में और अब में बस इतना ही तो कि पहले वह उनके बेटे की दोस्त थी और अब उसकी पत्नी, उनकी बहू| कहने को तो लोग बहू को बेटी ही कहते हैं पर मन से मान तो नहीं पाते| ससुराल की देहरी लांघते ही एक लड़की में सारी दुनिया की कमियां आ जाती हैं और उसमें तो माँ बाप के घर में ही थीं फिर अब तो शिकायत ही क्या| बस उसे तसल्ली सिर्फ़ इस बात की थी कि प्रतीक हर हाल में उसके साथ था और इसी दम पर वह हर मुश्किल से लड़ सकती थी|
अब प्रतीक ही उसका सब कुछ था उसकी ज़मीन, उसका आसमां, उसके मुस्कुराने की इकलौती वजह। मां कहती थी प्रतीक उसका भ्रम है। जबकि वासंती सोचती अगर यह भ्रम है तो ताउम्र बना रहे। एक रोज़ वासंती की ये भावनाएं इन शब्दों के रूप में उतर कागज़ पर भी आईं-
माना कि एक भ्रम है
धोखा है आँखों का
पर फिर भी
बहुत खूबसूरत है क्षितिज
भ्रम कि मिलते हैं
धरा और अम्बर
दूर ही सही
पर कहीं ना कहीं
थामने को हाथ धरा का
झुकता है
अम्बर भी कहीं ना कहीं
आँखें को भी
पसंद है यह भ्रम
तभी तो जीती हैं
आँखें अपने इसी भ्रम को
और ढूंढ लेती हैं
अपने लिए
एक मनचाहा क्षितिज
सुदूर गगन में कहीं ना कहीं
वासंती का वक्त हर रोज़ एक दिन बस यूँ ही कट रहा था| वह मम्मा के तानों, पापा की नाराज़गी और प्रतीक के प्यार के बीच झूल रही थी कि एक दिन उसे अपने भीतर वन्या के नन्हें कदमों की आहट सुनाई दी| और...और फिर जैसे सब बदल गया| जो मम्मा पापा तलाकशुदा वासंती को अपने बेटे की पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं कर पा रहे थे, वे ही दादा-दादी बनने की खबर सुनते ही उस पर निहाल हो गए| हालाँकि प्रतीक ने उसे कहा भी कि छोटे बच्चे के साथ उसे आगे पढाई करने में बहुत मुशिकल होगी, प्रतीक भी अपनी जगह सही ही था आखिर एम. एस की पढ़ाई आसान भी तो नहीं होती। पर वासंती से मम्मा पापा की ख़ुशी छीनी नहीं गयी|
वे ख़ुशी से झूम रहे थे, हर रोज़ एक नया सपना सजा रहे थे अपने बेटे के बच्चे के लिए नित नई तैयारी कर रहे थे| कैसे वह उनका सपना तोड़ देती| आखिर यह एक ही तो मौका था उसके पास मम्मा-पापा के दिल में अपने लिए जगह बनाने का| बहुत दिन हो गए थे उसे बेगानों सा व्यवहार सहते, अब वह भी प्रतीक के परिवार की सदस्य बनना चाहती थी| मम्मा पापा की लाडली बहू बनना चाहती थी| और उसके लिए यह तरीका भी अपनाना पड़े तो इसमें वासंती को कुछ भी गलत नहीं लग रहा था|
ना प्रतीक की आशंका गलत थी और ना वासंती का अंदाज़ा| मुश्किलें सच में बहुत आईं पर मम्मा पापा ने किसी मुश्किल को ज्यादा देर ठहरने ही नहीं दिया। उनके पास तो जैसे हर मुश्किल का हल था| सच तो यह था कि अब मम्मा-पापा ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी वासंती को अपनाने में| उसका इतने प्यार से ख्याल रखा कि वह भूल ही गयी कि कुछ दिन पहले तक इन लोगों की ज़िन्दगी में, उनके परिवार में उसकी स्थिति एक अवांछित इंसान की थी| वासंती की हर तकलीफ़ में मम्मा ने उसे बेटी की तरह संभाला| आश्चर्य हो रहा था वासंती को यह देख कर कि अब मम्मा का गुस्सा, उनकी नफ़रत जाने कहाँ तिरोहित हो गयी|
वासंती की पढाई बाधित होने की प्रतीक की आशंका भी निर्मूल साबित हुई| वन्या के आने से पहले और आने के बाद भी मम्मा पापा ने वासंती की पढाई में कोई बाधा नहीं आने दी| नन्हीं वन्या तो उनका खिलौना थी सारा दिन उन्हीं की गोद में खेलती रहती थी| वासंती की गोद में तो वह बस कुछ देर को ही आती, उसे भी दादू दादी की गोद ही भली लगती थी| वन्या को मम्मा पापा के साथ खुश देख कर वासंती को भी अपना बचपन याद आ जाता| फ़सल की बिजाई, कटाई के दिनों में वह और गोपाल भाईजी भी तो ऐसे ही पूरा पूरा दिन दादाजी और दादी के पास खेलते रहते थे जब माँ बापूजी की मदद करने खेत चली जाती थी|
ऐसा भी नहीं था कि अब वासंती और मम्मा के बीच कोई मतभेद नहीं होता| अक्सर कुछ ना कुछ ऐसा होता ही रहता था उन दोनों के बीच जो कभी वासंती तो कभी मम्मा को बुरा लग जाता था| शिकायतें भी थीं दोंनों को एक दूसरे से पर फिर भी अब मम्मा ने स्वीकार कर लिया था कि वासंती उनके बेटे की पत्नी थी, उनकी बहू भी थी| हर बात से बढ़ कर वासंती उनकी लाडली गुड़िया की माँ थी और इस नाते उनके परिवार का अहम हिस्सा भी बन चुकी थी|
कभी कभी वासंती को लगता था कि शायद ये मतभेद सास बहू के रिश्ते का एक अहम हिस्सा होते हैं| मनमुटाव और तानों उलाहनों के बिना यह रिश्ता पूरा ही नहीं होता| उसने अपनी माँ और दादी के बीच भी यह मनमुटाव देखा था और गाँव के अन्य घरों में भी| यही होता है हर घर में, शायद तिलक की माँ के साथ भी उसके रिश्ते ऐसे ही होते, या शायद इससे भी बुरे क्योंकि तिलक की माँ तो मम्मा से कहीं ज्यादा तेज़ तर्रार महिला है, उनसे तो बहस में कोई जीत ही नहीं सकता था, बड़ा दबदबा था उनका गाँव की महिलाओं में| जब यह रिश्ता इसी तरह चलता है तो फिर सास के रूप में मम्मा ही क्या बुरी हैं, कम से कम आधुनिक विचारों की सुलझी हुई महिला तो हैं।
अभी तो धीरे धीरे वासंती का घर बस ही रहा था कि अचानक एक नई समस्या आ गयी| प्रतीक के पापा का ट्रांसफर जोधपुर हो गया| उन्हें दिल की बीमारी थी अत: उन्हें अकेला भी नहीं छोड़ा जा सकता था| मम्मा का उनके साथ जाना जरुरी था और उनके जाने के बाद वन्या का क्या होगा? उसे कौन संभालेगा? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न था जिसका हल वासंती को निकलना था, वह अभी छोटी थी उसे घर में अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था| वासंती की एम.एस. का आखिरी साल चल रहा था और प्रतीक अपने हॉस्पिटल और मरीजों में ही इतना व्यस्त रहता था कि उससे मदद की उम्मीद ही बेकार थी|
ऐसे में प्रतीक की आँखों में वासंती के लिए एक शिकायत थी मानो कह रहा हो, ‘देखा मैंने कहा था ना! तुमने मेरी बात नहीं मानी अब भुगतो|’ वासंती असमंजस में थी क्या करे क्या ना करे कुछ सूझ ही नहीं रहा था| मम्मा पापा ने वन्या को अपने साथ जोधपुर ले जाने की पेशकश की पर उसके लिए वन्या ही तैयार नहीं हुई| जाने कैसे उस छोटी सी बच्ची को माँ से भावी दूरी का अहसास हुआ कि वह अब वासंती की गोद से भी उतरने को तैयार नहीं होती थी| और तो और दादी के साथ पूरा दिन खेलने वाली वन्या अब उनके पास जाते ही रोने लगती थी| हार कर मम्मा ने वन्या के लिये एक आया का इंतजाम किया और भारी दिल से पापा के साथ जोधपुर रवाना हो गईं| वन्या की यह आया आशा बहुत कुशल और मेहनती तो थी ही पर साथ ही सरल हृदय महिला भी थी, उसने आते ही सब संभाल लिया| वह वन्या की आया से अधिक दोस्त बन गई|