Ram Rachi Rakha - 6 - 7 in Hindi Moral Stories by Pratap Narayan Singh books and stories PDF | राम रचि राखा - 6 - 7

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राम रचि राखा - 6 - 7

राम रचि राखा

(7)

लगभग एक सप्ताह गुजर चुका था उन्हें इस गाँव में आये। एक दिन संकठा सिंह पड़ोस के गाँव से किसी पंचायत का फैसला करके अपनी साईकिल पर लौट रहे थे। दोपहर के बारह बज रहे होगें। लू और बवंडर उठ रहा था। अपने चेहरे को पूरी तरह गमझे से ढँके हुए थे, फिर भी चेहरे पर ताप लग रही थी। आँखे तक जलने लगीं थी। देखा कि मुन्नर पारिजात के नीचे चबूतरे पर लेटे हुए थे। संकठा सिंह थोड़ी दूर, पगडण्डी से गुजर रहे थे फिर भी इतना वे देख पा रहे थे कि मुन्नर चेहरे को दोनों बाहों के बीच में घुसाकर लू के थपेडों से बचने का अथक प्रयत्न कर रहे थे। घुटने और कुहनियाँ लगभग सट गयी थीं और शरीर दोहरा हो गया था।

देखकर उनका मन द्रवित हो उठा। "पता नहीं कहाँ से आया है। इस लू की चपेट में आ गया तो राम नाम सत्य हो जाएगा।"

गाँव में घुसे तो राम आधार पांडे के ओसार में ललिता पंडित भी मिल गए। कुछ और लोग भी बैठे थे। वे अपनी साईकिल रोक लिए।

"आईये, बाबूसाहब, किसके पक्ष में फैसला हुआ पंचायत का?" राम आधार पांडे ने उनका स्वागत करते हुए पूछा। तब तक वे ओसर में आ गए और एक चारपाई पर बैठ गए।“

"पंचायत की बात तो अभी बताता हूँ, पहले जो देखकर आ रहा हूँ वह सुनो।" फिर ललिता पंडित को संबोधित करके बोले, "पंडित जी, वो तुम्हारे महात्मा को देखा। वहीं पारिजात के नीचे लू में पड़पड़ा रहे हैं...अरे यार कहीं कुछ हो-हवा गया तो एक नीरीह आदमी के मरने का पाप गाँव के माथे चढ़ जाएगा।"

"अब हम क्या करें, हमने तो कहा था कि आकर मेरी मड़ई में शरण ले लो, पर वे माने ही नहीं।" ललिता पंडित अपनी जगह ठीक थे, "हम तो उस दिन सुबह से शाम तक लग कर पेड़ के नीचे चबूतरा बना दिए कि कम से कम छाँव तो रहेगा।"

"ऐसा क्यों नहीं करते कि वहीं पर एक मड़ई डलवा दो।“ संकठा सिंह ने कुछ सोचते हुए कहा।

"बाबू साहब, हमारी हैसियत कहाँ है मड़ई डलवाने की"

"एक काम करो मेरे बँसवार से दो-चार बाँस कटवा लो और ककटी वाले खेत के पास से सरपत। देखता हूँ कुछ रहेट्ठा और लकडा पड़ा होगा। टटरी बनवाकर चारो तरफ से घिरवा देना।" संकठा सिंह की बात सुनकर ललिता पंडित ऐसे खुश हुए जैसे मन की मुराद पूरी हो गयी हो। कई बार मन में यह बात उठी तो थी पर माली हालत के कारण उसे मन में ही दबा देना पड़ा था। बाबा इस सेवा से अवश्य खुश हो जायेंगे।

वे शाम से ही मड़ई बनवाने की व्यवस्था में जुट गए। दूसरे दिन शाम तक कनेर के झुरमुट के बीच साफ सफाई करके एक झोपड़ी डाल दी गयी। गाँव के बहुत से लोगों ने यथाशक्ति योगदान किया। मुख्य सामान तो संकठा सिंह के यहाँ से मिल ही गया था। बनिया ने बाँधने के लिए बाध मुफ्त में दे दिया। बेचन महतो अपने परिवार और आस पड़ोस के साथ मड़ई बनाने में पूरा श्रमदान दिए। राम आधार पांडे के यहाँ लकडी का एक बोटा पड़ा था, लोहार ने उससे एक तख्त बना दिया। दरी तो पहले से ही थी, वह तख्त पर बिछ गयी।

रोज रोज गाँव से खाना आना मुन्नर को अच्छा नहीं लगता था। इसलिए एक दिन उन्होंने ललिता पंडित से स्वयं खाना बनाने की इच्छा प्रकट की। ललिता पंडित ने अन्य लोगों की मदद से खाना पकाने के लिए आवश्यक बर्तन रखवा दिया। मुन्नर स्वयं खाना पकाने लगे। जब मन होता तो दोनों वक़्त बना लेते, नहीं तो एक वक़्त से ही गुजारा कर लेते। गाँव से जो भी मिलने आता, साथ में कुछ आटा, चावल या दाल जो भी जिसकी इच्छा और सामर्थ्य होती, ले आता।

अब मुन्नर के खाने, पहनने और रहने की समस्या का स्थायी समाधान हो चुका था। मड़ई बनने के बाद से वहाँ अधिक लोग आने भी लगे थे और ज्यादा देर तक बैठने लगे थे। मुन्नर भी अब खुश रहते थे और बहुत ही मनोयोग से तुलसी रामायण का पाठ और व्याख्या करते जो उन्होंने बाबूजी से सीखा था। यह नयी जीवन शैली उन्हें भाने लगी थी। न तो किसी से दुश्मनी थी और न ही किसी से बैर।

भक्तों की कृपा से रामायण के अलावा कुछ एक और धार्मिक ग्रन्थ भी उनकी झोपड़ी में आ चुके थे। जब भी खाली समय रहता उसमें उनका अध्ययन करते। मन का क्लेश मिटने लगा था। किन्तु अपने गाँव घर का मोह कभी-कभी उन्हें आकर घेर लेता। "घर पर लोग कैसे होंगे, उनके आने के बाद क्या हुआ होगा ?" यह विचार कभी कभी मन में फन उठाकर खड़ा हो जाता और वे थोड़े अनमने हो उठते।

बहरहाल, जिंदगी ने एक रास्ता पकड़ लिया था। एक निश्चित दिनचर्या में दिन गुजरने लगे थे। धीरे-धीरे वह स्थान "कुटी" के नाम से जाना जाने लगा था और मुन्नर "कुटी वाले बाबा" के नाम से प्रसिद्ध हो गए।

क्रमश..