संभाले नहीं संभलता है दिल,
इश्क तलबगार है तेरा चला आ,
मुझ में लगता है कि मुझ से ज्यादा है वो,
खुद से बढ़ कर मुझे रहती है जरुरत उसकी।
माँगा तो सिसकियों की भी हद से गुजर गये।
संभाले नहीं संभलता है दिल,
इश्क तलबगार है तेरा चला आ,
रूबरू मिलने का मौका मिलता नहीं है रोज,
इसलिए लफ्ज़ों से तुमको छू लिया मैंने।
जन्नत-ए-इश्क में हर बात अजीब होती है,
रोज साहिल से समंदर का नजारा न करो,
अपनी सूरत को शबो-रोज निहारा न करो,
आओ देखो मेरी नजरों में उतर कर खुद को,
आइना हूँ मैं तेरा मुझसे किनारा न करो।
इजहार-ए-मोहब्बत पे अजब हाल है उनका,
आँखें तो रज़ामंद हैं लब सोच रहे हैं।
एक अजीब सी बेताबी है तेरे बिना,
मेरी आँखों में यही हद से ज्यादा बेशुमार है,
तेरा ही इश्क़, तेरा ही दर्द, तेरा ही इंतज़ार है।
रह भी लेते है और रहा भी नहीं जाता।
वो चांदनी का बदन ख़ुशबुओं का साया है,
उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से,
कुछ ऐसा भी हो जाये,
मेरा महताब उसकी रात के,
आगोश में पिघले,
मैं उसकी नींद में जागूं,
वो मुझमें घुल के सो जाये।
कुछ वो भी था नादान बहुत,
कुछ हम भी पागल थे लेकिन,