Jindagi mere ghar aana - 11 in Hindi Moral Stories by Rashmi Ravija books and stories PDF | जिंदगी मेरे घर आना - 11

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जिंदगी मेरे घर आना - 11

जिंदगी मेरे घर आना

भाग – ११

सर ने क्या पढ़ाया कुछ भी नहीं गया दिमाग तक... बेल लगते ही... डेस्क फलांगती पहुँच गई, अपनी पसंदीदा जगह पर।

केमिस्ट्री लैब के पीछे, कामिनी के झाड़ की घनी छाया ही प्रिय स्थल था उनका। वह स्वस्ति, छवि और जूही.... बैग एक तरफ पटक आराम से बैठ गई और उसने सवाल दागा - ‘हाँ! अब बोलो, इससे मेरा क्या संबंध।‘

छूटते ही बोली छवि... ‘तुझसे नही तो और किससे है? इतनी तेजी से किसमें परिवर्तन आता जा रहा है?‘

‘परिवर्तन आ रहा है? क्यूँ भला, चेहरा वही, हाईट वही, रंग वही... फिर? ‘

‘रंग-रूप में नहीं मैडम, व्यवहार में... तुझे खुद नहीं महसूस होता?‘

‘कोई बात होगी, तब तो महसूस होगा... दिमाग मत चाटो मेरा... साफ-साफ बोलो-सचमुच खीझ गई वह।‘

‘अच्छा बोल‘- जूही ने समझाया - ‘एक यही बात गौर कर, उस अजीत के ग्रुप से कितने दिन हो गए झड़प हुए ‘ (अजीत के ग्रुप के लड़कों से बिल्कुल नहीं बनती थी इन लोगों की और वह ग्रुप भी इन्हें तंग करने का कोई मौका नहीं छोड़ता।

‘अब सब के सब सुधर गए हैं।‘

‘हाँ, आज देख ली न बानगी।‘

‘अरे! वो ऐसे ही किसी ने लिख दिया होगा... तुम लोग ख्वाहमखाह टची हुई जा रही हो।‘

‘नहीं मैडम, तेरे आने से पहले अजीत कह रहा था -‘आजकल अंगारे पर राख पड़ती जा रही है।‘‘ - हमलोग तो कुछ समझ नहीं पाए पर उनका ग्रुप जोर-जोर से हँसने लगा और रमेश ने कहा -‘ठीक कहते हो यार, आजकल क्लास में भी बार-बार ‘सर... मैम...आई हैव अ डाउट‘ सुनने को नहीं मिलता। सारा पीरियड उन लोगों के उबाऊ लेक्चर में ही बीत जाता है तब हमलोगों की समझ में आया, तेरा नाम उन लोगों ने आपस में अंगारा रख छोड़ा है।‘ छवि बोली और आगे स्वस्ति ने जोड़ा -‘तभी फिरोज ने एक शेर जैसा कुछ कहा कि...‘अंगारा अब फूल बनता जा रहा है।‘ और तभी अजीत ने लिख दिया बोर्ड पर।‘

‘और तुमलोग चुपचाप बैठी देखती रही, कितनी बार मैंने झगड़ा मोल लिया है, तुमलोगों की खातिर।‘

‘अरे! जबतक हमलोगों की समझ में पूरी बात आती कि तू आ गई और पीछे-पीछे सर।‘

‘खैर छोड़, इन सबको तो मैं देख लूँगी... पर तुमलोग भी मान बैठी हो कि मैं बदल गई हूँ।‘

‘अरे, मानना-वानना क्या... ये तो जग-जाहिर है। -’ मुस्करा कर बोली छवि - ‘खुद ही सोच आज ये सब देख तू, यूँ चुपचाप रह जाती। याद है जब हमलोग नए-नए आए थे और नारंगी के छिलके लापरवाही से उनकी डेस्क पर छोड़ दिए थे - और इसी अजीत ने ब्लैकबोर्ड पर लिख दिया था कि ‘छिलके फेंकनेवालियों दिल फेंक कर देखो‘ तो कितना हंगामा हुआ था.... एप्लीकेशन ले आप ही गई थीं, हेड के पास। और उस दिन के बाद आज ये वारदात हुई और तू...‘

‘वो तो मैं समझी नही ना... इसलिए।‘

‘समझने-वमझने की बात नहीं... कल बस में सब शर्मिला को ‘ओ मेरी... ओ मेरी शर्मीली’’गाकर छेड़ रहे थे... मैंने तेरी तरफ देखा भी पर तू खिड़की पार देखती जाने कहाँ गुम थी। शर्मिला बिल्कुल रोने-रोने को हो रही थी... जी में आया कुछ बोलूँ पर मेरी हिम्मत तो पड़ती नहीं... और जब हमारी माउथपीस ही चुप बैठी हो‘ - स्वस्ति ने प्यार से उसका कंधा थाम लिया -‘जाने आजकल कैसी गुमसुम हुई जा रही है, बिल्कुल खोई-खोई सी।‘

‘अच्छा-अच्छा, अब कल देखना, इस अंगारे की चमक... झुलस कर न रह गए सभी, तब कहना... फूल भी हुई जा रही हूं तो कोई गुलाब का नहीं, कैक्टस का ही।‘ - और इस बात पर चारों जन इतनी जोर से हंसे कि पतली सी डाल पर झूलती बुलबुल हड़बड़ा कर उड़ गई।

***

लेकिन दिखा कहाँ पाई अंगारे की चमक. दूसरी ही उलझन सामने आ गई। कालेज से लौटी तो देख पंडित जी बैठे हैं। अभी कल तक इन्हें कितना तंग किया करती थी। देखते ही दूर से चिल्लाती थी -‘प्रणाऽऽऽम पंडित जी।‘ और वे इससे बहुत चिढ़ते थे... लाठीमार प्रणाम कहते इसे । उनका कहना था - ‘दोनों हथेलियाँ पूरी तरह जोड़, थोड़ा सा सर झुका तब प्रणाम शब्द उच्चारित करना चाहिए। देखते ही शब्द होठों पर तो आ गए पर चिल्ला न सकी। छिः इतनी बड़ी हो गई है, यही सब शोभा देता है... अनजाने ही उन्हीं के अंदाज में सर झुका अंदर चली गई।‘

लेकिन ये पंडित जी तशरीफ लाए किसलिए हैं? इधर कोई व्रत-अनुष्ठान तो है नहीं। और जो उनके आने का रहस्य समझ में आया तो ऐसा लगा, जैसे काटो तो खून नहीं। इधर एक महीने से घर में कुछ सरगर्मी देख तो रही है... मम्मी के बाजार का चक्कर भी खूब लग रहा है। अक्सर बुआ आ जाती हैं और दोनों घुल-मिल कर जाने क्या योजनाएँ बनाती रहती हैं। लेकिन वह अपने एग्जाम की तैयारियों में ही उलझी थीं। बस कालेज, किताबें और अपने कमरे की ही होकर रह गई थी... ध्यान ही नहीं दिया।

किंतु अब गौर कर रही है... मम्मी और बुआ के बाजार का चक्कर यों ही नहीं लग रहा। लेकिन... लेकिन... आँखों में आँसू छलक आए... उसके। वह तो एक बार नहीं हजार बार कह चुकी है..’उसे. शादी नहीं करनी है... नहीं करनी है।’ सब जानते हैं... फिर क्यों बड़े आराम से जाल फैला रहे हैं, सब। ये गुपचुप तैय्यारियाँ बींध कर रख दे रही है, मन को। ओह! कोई कुछ पूछता-कहता भी तो नहीं। कैसे खुद जाकर कह दे कि ’नहीं करनी.हैं;शादी;उसे और अगर जबाब मिले ’कौन करवा रहा है तुम्हारी शादी?...तो?? बेबसी से आँखें डबडबा कर रह जाती है।

अजीब त्रासदी है, भारतीय बाला होना भी । कितनी बड़ी विडम्बना है... उसकी जिंदगी के अहम् फैसले लिए जा रहे हैं और वह दर्शक बनी मूक देखती रहे पर आज के दर्शक तो रिएक्ट करते हैं, रिमार्क कसते हैं या कुर्सी छोड़ ही चले जाते हैं। पर यहाँ तो...

बस आँख, कान बंद किए अपने जीवन के बलि चढ़ने की मूक वेदना महसूस करती रहे।