Ek Samundar mere andar - 13 in Hindi Moral Stories by Madhu Arora books and stories PDF | इक समंदर मेरे अंदर - 13

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इक समंदर मेरे अंदर - 13

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(13)

बादल एक दूसरे को धकियाते हुए तैरते से लगते थे और उनसे जब पानी बरसता था, तो लगता था मानो वे मोती की लड़ियां थीं। कामना उन पानी की लड़ियों को पकड़ने की असफल कोशिश करती थी।

बादल खूब बरसते थे। पेड़ खुश होकर, खूब झूमते थे। ऐसा लगता था, मानो वे एक दूसरे के गले मिल रहे हों। अम्‍मां और पापा बहुत खुश होते थे और बाल्‍कनी में खड़े होकर उस सीन को निहारते हुए अपने गांव और खेतों को याद करते थे।

रमेश का कॉलेज बांद्रा में था। वह सुबह का कॉलेज अटैंड करके वहीं से चर्चगेट अपने काम पर चला जाने वाला था। वह वहां एक मारवाड़ी की पेढ़ी पर अकाउंटेंट का काम करता था। वह सुबह चार बजे उठता था और घर में भगदड़ मचा देता था।

वह स्‍टोव जलाता और जस्‍ते का बड़ा भगौना पानी गर्म करने रख देता था। जब तक पानी गरम होता, वह अपनी कॉपी, किताबें ठीक करके कोने में रख देता था। वह नहा-धोकर सुबह पांच बजे घर से निकल जाता था। पूरा परिवार एक बार फिर नयी जगह पर एडजस्ट करने का प्रयास कर रहा था।

नरेश बीकॉम कर रहा था। विरार में और तो सब ठीक था, पर घर काम के लिये बाई नहीं मिलती थी। लड़कियां फैक्ट्री जाती थीं। वहां उन्‍हें ओवरटाइम भी मिल जाता था। जि़ंदगी यूं ही चल रही थी।

विरार की लोकल ट्रेनों में यह परंपरा थी कि सीटों पर नंबर लगता था। जो महिलाएं खड़ी होती थीं, वे सीट मिलने पर चौथी सीट पर बैठेंगी। पहले से बैठी महिलाएं आगे सरकते सरकते और अलग अलग स्‍टेशनों पर उतरते उतरते खिड़की वाली सीट पर पहुंच जाती थीं।

खिड़की वाली सीट यानी बंबई की भाषा में प्राइम सीट। जनरल डिब्‍बे के अंतिम डिब्‍बे में भजन मंडली के कुछ लोग सुबह और शाम को होते थे। वे अपने साथ मंजीरे, छोटी खड़तालें रखते थे। वे चलती ट्रेनों में खूब ज़ोर से संत नामदेव के भजन, अभंग गाते थे। उनकी तय सीटों पर कोई और नहीं बैठ सकता था।

भीड़ की तो पूछो ही मत। महिलाएं नायगांव से रिटर्न आती थीं ताकि विरार स्‍टेशन पर वे विंडो सीट पा सकें। सुबह के समय और शाम के समय महिलाओं को ट्रेन के बाहर सुरक्षित रहते हुए लटकते हुए यात्रा करते देखा जा सकता था।

कामना ट्रेन आने से पहले विरार स्‍टेशन पर खड़ी रहती थी। ट्रेन के धीरे धीरे रुकते ही वह भागकर विंडो सीट पकड़ लेती थी और सामने की सीट पर और अपने बगल की सीट पर रूमाल, बैग, चुन्नी रखकर अपनी सहेलियों के लिये सीट रोक लेती थी।

सुबह की आठ बजकर चालीस मिनट की ट्रेन कामना की तय ट्रेन थी और उस ट्रेन में बंजारा महिलाएं और लड़कियां चढ़ती थीं। वे औरतें शक्‍ल़ से ही उन लड़कियों की दलाल लगती थीं। बड़ी अस्‍तव्‍यस्‍त होती थीं वे उस समय। बिना धुला चेहरा और उलझे उलझे बाल।

उनकी आंखों की कोरों में रात का कीचड़ चिपका होता था। ट्रेन में वे दरवाज़े के पास के किनारे घेर लेती थीं और वहां बैठकर वे अपने सामान की पिटारी खोलने लगती थीं। वह समय मिल्‍टन की पानी की बॉटल का था और ट्रेन की हर महिला के पास पानी की बॉटल होती ही थी।

सवा घंटे का सफर ठहरा। दूर की यात्रा होती थी। महिलाएं घर से चकली और बेसन के लड्डू लेकर आती। इन बंजारा औरतों के पास दो-दो लीटर पानी की केन होती थी। जैसे ही ट्रेन शुरू होती थी इन लड़कियों का मेकअप शुरू हो जाता था।

वे चलती ट्रेन के बाहर झांकती हुई पानी से मुंह धोती थीं और साथ ही उनके पास वज्रदंती लाल मंजन की छोटी सी शीशी होती थी और उसे हथेली पर उंगली से दांत घिसने लगती थीं।

ट्रेन का लेडीज डिब्‍बा वाशरूम मे तब्‍दील हो जाता था। वे लड़कियां अपने घेरदार स्कर्ट उतारने लगती थीं और आसपास खड़ी औरतें हिक़ारत से भरी नज़रों से देखती थीं और बुदबुदाकर कहती थीं - अग बाई, यानां लाज वाटत नाहीं। काही तरी करतात ट्रेनमधे।

इन बातों का उन बंजारा लड़कियों पर कोई असर नहीं होता था। जब वे स्कर्ट उतारतीं तो उसके नीचे पुरानी जींस होती और जब ऊपर का टॉप उतारतीं तो डीप गले का स्लीवलेस टॉप दिखता था। उनकी तथाकथित अम्‍मां उन्‍हें अपने बड़े से झोले से एक एक स्कार्फ देती थीं।

उसे वे लड़कियां गले में टाई की तरह बांध लेती थीं। वे अपने पर्स में से काजल निकालतीं और आंखों में लगाने लगती थीं। इन सब कामों के लिये उन्‍हें शीशे की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। अपनी इस कला में वे पारंगत थीं। फिर वे कंघा निकालतीं व एक दूसरे की चोटी बनाने लगती थीं।

वे बालों को ऊंचा करके खजूर की चोटी बनाती थीं। कोई बालों को ऊंचा करके चिमटियों से फिट कर लेती थीं। देखते देखते उन लड़कियों का हुलिया ही बदल जाता था और वे सांवले खूबसूरत चेहरे गुलाबी पाउडर और रूज से गुलाबी लगने लगते थे।

वे हाथ में चमकते छोटे छोटे पर्स लटका लेती थीं और एक दूसरे को खुशी भरी नज़रों से देखने लगती थीं। वे दलालनुमा औरतें उनके उतारे कपड़ों को अपने कपड़े के झोले में ठूंस लेती थीं। ये आपस में कौन सी भाषा बोलती थीं, कामना को कभी पता नहीं चलता पाया था।

वे लड़कियां चर्चगेट उतरती थीं और पता नहीं कहां तितर-बितर हो जाती थीं। एक दिन कामना सुबह उनके साथ ही दरवाज़े पर बैठ गई थी। अपना पर्स उसने अपनी सहेली को दे दिया था, ताकि उसकी सीट न चली जाये।

कुछ देर तो वह उन लड़कियों को देखती रही थी और फिर पूछा था – ‘तुम लोग ट्रेन में ही कपड़े क्‍यों बदलती हो?’ इस पर एक लड़की ने हंसते हुए अच्‍छी हिंदी में कहा था – ‘हम लोग धंधा करती हैं, जैसे आप लोग नौकरी करती हैं। अग़र ये ट्रेन छूटी तो हमारा ग्राहक लोग हमसे छूट जायेगा। ...उनके लिये मॉडर्न बनना पड़ता है।‘

यह कहकर वह पुराना गाना गाने लगी थी - चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरेवाली मुनिया....साथ ही अपने पर्स से लाल रंग की लिपस्‍टिक निकालकर छोटे से शीशे में देखती हुई होठों पर फिराने लगी थी।

उस ट्रेन में दहाणु से आने वाली एक लड़की चढ़ती थी। वह हड़बड़ी में जैसे तैसे साड़ी लपेटकर आती थी। यदि वह ट्रेन छूट जाये तो वह अपने ऑफिस बहुत देर से पहुंचती। ट्रेन में आकर वह सबसे पहले अपनी साड़ी ठीक करती थी। उसके बाद अपनी सहेलियों को साड़ी का पल्ला ठीक करना सिखाती थी।

वह साड़ी के पल्‍ले में चार पटलियां डालकर सलीके से सैट करके पिन अप करती थी। कामना ने उसी से साड़ी का पल्‍लू बनाना सीखा था। बाद में कामना से उसकी कई सहेलियों ने साड़ी पहनने का सलीका सीखा था।

उसकी एक विदेशी मित्र ने भी उससे साड़ी पहनना सीखने की इच्‍छा व्‍यक्‍त़ की थी। वह सिखा भी देती, पर उन्‍होंने कामना को अपनी हरक़तों से नाराज़ कर दिया था।

कामना की एक महिला मित्र उम्र में बड़ी थीं और वे उसके द्वारा सीट रोकने पर बहुत खुश होती थीं। उसका वज़न ज्‍यादा नहीं था। खड़ी होने वाली महिलाओं को वह अपनी सीट देती थी और वे उसे अपनी गोद में बिठा लेती थीं और कहती थीं –

‘तू मांडीवर (गोद) बसली, तर खूप बर वाटल। माझे पाय दुखत होते ग।‘ ट्रेन के चलते ही सब अपने अपने ऑफिस की बातें करने लगती थीं। कामना उनके मुंह से ऑफिस में होनेवाले कारनामे सुनती रहती थी।

हर स्‍टेशन से महिलाओं व लड़कियों का एक रेला एक दूसरे को धकियाता हुआ चढ़ता था और पता नहीं कैसे कंपार्टमेंट में समा जाता था। आखिर मुंबई समुद्र का शहर है। यहां हर आने वाला समा जाता है, बशर्ते वह मुंबई की इज्‍ज़त करे।

बातों बातों कब चर्चगेट आ जाता था, पता ही नहीं चलता था। ट्रेन के रुकते ही सब अपने अपने बैग संभालती हुई अलग अलग दिशाओं की ओर लटपटाती भागती थीं। मस्‍टर साइन करना होता था। महीने में तीन बार देर होने पर एक छुट्टी काट ली जाती थी।

कामना ने विरार में अपनी बिल्‍डिंग के सामने के खुले मैदान में बने टैंटों को देखा था, जहां सुबह तो सन्नाटा रहता था, पर रात को उन टैंटों में धीमी रोशनी और बाहर जलते अलावों के सामने बैठे शोहदे टाइप के लड़कों के सामने उन लड़कियों को काले झिलमिलाते कपड़ों में लड़कियों को नाचते देखा था।

कामना देर रात तक पढ़ती थी और देखती थी कि रात को बारह बजे के बाद खाली धधकते अलाव अकेले रह जाते थे और मैदानों में बैठे वे लड़के उन टैंटों के अंदर घुस जाते थे और टैंटों के बाहर लटके पर्देनुमा कपड़े खींच दिये जाते थे जो दरवाज़े का काम करते थे और अंदर की लालटेनें बुझने लगती थीं।

उसे जैसलमेर का वह रेगिस्तान याद आ गया था जहां वह सोम के साथ ऊंट पर बैठकर भारत पाकिस्‍तान के बार्डर तक गई थी। ऊंट वाले ने दूर से एक विभाजन रेखा को दिखाते हुए कहा था – ‘इसके आगे हम नहीं जा सकते। पकड़ लिये जायेंगे। वैसे भी शाम घिरने को है।‘

उसने मन ही मन सोचा था कि किसे जाना है उस तार की बाड़ के पार और वहीं से वे लोग वापिस हो लिये थे। वापसी उन्‍होंने पैदल की थी...रेत पर फिसलते हुए और ऊंट वाला लड़का दूसरे यात्रियों की ओर चला गया था। एक ही वक्‍त़ में दो सवारियों को सेवाएं।

उस समय ऊंट की सवारी करानेवालों की फुर्ती देखते ही बनती थी। रात को जब वे लोग रेगिस्तान के सामने वाले शामियाने में पहुंचे थे तो वहां राजस्‍थानी वेश-भूषा में सजी-धजी लड़कियां और साफे बांधे हुए लड़के घूम रहे थे।

वहां पर्यटकों के स्‍वागत और मनोरंजन का इंतज़ाम था। नीचे दरियां, गद्दे और गाव तकिये लगे थे। एक ओर साज़िंदे बैठे थे अपने वाद्यों के साथ और ठीक सात बजे कार्यक्रम शुरू हो गया था। राजस्‍थानी लोकगीतों पर वे लड़कियां थिरकने लगी थीं।

सलमे-सितारे से झिलमिलाते वे काले काले घाघरे और उन पर पहने थी चमकते हुए जंपर और चमकती ओढ़नियां। कार्यक्रम ख़त्‍म होने के बाद एक छोटी सी नर्तकी ने कामना का हाथ पकड़ लिया था और कहा था – ‘आंटी, ये घड़ी मुझे दे दो।‘

इस पर उसने हाथ छुड़ाते हुए कहा था - यह मुझे किसी ने दी है। तुम्‍हें बिल्‍कुल नहीं दूंगी। अगली बार आऊंगी तो दे दूंगी। इस पर उसने अनुभवी हंसी हंसते हुए कहा था – ‘हमारी ज़िंदगी में ‘अगली बार’ होता ही नहीं है। अगले साल दूसरी जगह भेज दी जाऊंगी।‘

वह सब देखकर उसे विरार की बंजारा लड़कियां बरबस याद आ गई थीं। कामना चुपचाप हट गई थी और पर्यटकों के लिये तैयार किये गये डिनर के काउंटरों पर चली गई थी। ठेठ राजस्‍थानी खाना और मीठे के नाम पर चूरमा और बाजरे की रोटी का मलीदा और देशी घी से तरबतर।

वहां उसे अपने पिताजी याद आ गये थे, उन्‍हें मलीदा और चूरमा बहुत पसंद था। अम्‍मां बनाती थीं और उन पराठों के छोटे छोटे टुकड़े करके इमामदस्ते में कूटा करती थीं। उसमें गुड़़ मिलाया करती थीं।

कामना को इन लड़कियों से कभी वितृष्णा नहीं होती थी। उसने तय कर लिया था कि वह मुंबई के देह-व्‍यापार बाज़ार में एक बार तो उनका जीवन नज़दीक से देखने ज़रूर जायेगी। पहली बार में वह ऑब्जर्व करेगी और दूसरी बार अपने साथ अच्‍छी क्‍वालिटी की लिपस्‍टिक और नेल पॉलिश ले जायेगी। ये चीज़ें उनकी प्राथमिकता में होती हैं।

उसे याद आ गई अपनी विदेशी महिला मित्र की दी हुई लिपस्‍टिक और उन्‍होंने बताया था कि वे गिफ्ट में देने के लिये एक पाउंड में चार लिपस्‍टिक खरीद लेती थीं। उन्‍होंने उसे दो लिपस्‍टिक दी थीं। कामना ने अपनी सहेली को एक दे दी थी।

बाद में पता चला था कि वे लिपस्‍टिक एक्‍सपायरी डेट की थीं और उसकी सहेली के होंठ सूज गये थे। कामना को बेहद शर्मिंदगी महसूस हुई थी। अचानक वह गाना गुनगुनाने लगी थी.....इस रंग बदलती दुनिया में, मंज़िल का पता मालूम नहीं।

अपनी यादों में खोई थी कि बाजूला व्‍हा, बाजूला व्‍हा...कहती हुई वह लड़की आई और कामना को धकियाकर ट्रेन में चढ़ गई थी। महिलाएं खेत के फल, फूल व सब्जियां स्‍टेशन के पास वाटे लगाकर बेचती थीं। विरार की कुछ महिलाएं ट्रेन में फूल बेचने आती थीं।

उनमें से पुष्पा बहुत तेज़ थी। उसकी फूल की टोकरी में किसी महिला की सोने की अंगूठी गिर गई थी। चूंकि वह टोकरी भरी हुई थी और भीड़ में अंगूठी को ढूंढ़ना मुश्‍किल था। इसलिये उसने कहा था –

‘मैडम, मैं बाद में अपनी टोकरी में देखेगी। यदि इसमें गिरी होगी तो कहीं नहीं जायेगी। इस पर उस महिला ने कहा था - तू क्‍या देगी अंगूठी वापिस। तुम लोग चोर होते हो।‘ इस पर पुष्पा ने कुछ नहीं कहा था।

दूसरे दिन पुष्पा फिर ट्रेन में थी और वह महिला भायंदर से चढ़ी थी। पुष्पा ने उस महिला बुलाकर कहा था - बाई साहेब, ये लो अपनी आंगठी। वह महिला हतप्रभ रह गई थी। उस महिला का मुंह उतर गया था।

पुष्पा ने कहा था – ‘आगे से विरारवालों को चोर नहीं बोलने का। किसी फूल वाली को चोर बोला तो भारी पड़ेगा। हम ग़रीब हैं, पर चोर नहीं है। मेहनत करके खाते हैं।‘ बड़ा जीवट था पुष्पा का। बड़ी हंसमुख थी वह।

एक बार फिर मुसीबत की तलवार उनके परिवार के सिर पर लटकने लगी थी। अनिश्चितता के बादल एक बार पुन: मंडराने लगे थे। पता चला कि तीसरी मंज़िल के तीन फ्लैट ग्राम पंचायत की अनुमति के बिना बने थे। वे घर ग़ैर कानूनी थे और कभी भी तोड़े जा सकते थे।

अभी तो यहां आये थे और आने से पहले जाने की सोचना.....भाग्‍य की ये कैसी विडंबना थी। ख़ैर...अब जो होगा, सो देखा जायेगा। एक समय के बाद पिताजी तकलीफों को सहने के आदी हो चुके थे और बाक़ायदा तकलीफों का इंतज़ार करने लगे थे।

अब वे तटस्थ रहने लगे थे और काफ़ी हद तक शान्त हो गये थे। कामना का वह बीए का अंतिम वर्ष था। वह सुबह उठती थी। अपना टिफिन बनाती थी और सबके लिये सब्जी बना लेती थी।

वह सुबह विरार से सुबह आठ बजकर चालीस मिनट पर चलने वाली बड़ा फास्‍ट ट्रेन पकड़ती थी। वह ट्रेन दहिसर के बाद सीधे मरीन ड्राइव रुकती थी। मरीन ड्राइव से वापसी वाली ट्रेन पकड़कर दो स्‍टेशन पीछे आती और ग्रांट रोड उतर जाती थी।

इसके आगे पढ़ भी पायेगी या नहीं, कुछ पता नहीं। घर के हालात कितना साथ देंगे...पता नहीं था। पिताजी के पास कोई काम नहीं था। बैंक में जो पैसा था उसमें से ही निकालकर खर्च कर रहे थे। पैसे में पैसा न मिलाया जाये और खर्च ही करते रहें तो कुबेर का खज़ाना भी खाली हो जाता है।

मुंबई का संघर्ष जिसने कर लिया और सह लिया...वह कहीं भी जी सकता था। अचानक अम्‍मां परेशान रहने लगी थीं। वह जब भी देखती, वे पीछे मुड़कर अपनी साड़ी को देखती रहती थीं। वे हल्के रंग की साड़ी पहनती थीं।

जबसे उनके सबसे छोटे भाई की कम उम्र में लू लगने से मृत्‍यु हो गई थी, उसके ग़म में वे हल्के रंग की साड़ियां पहनने लगी थीं और पिताजी ने कभी इस बात पर एतराज़ नहीं किया था। उल्टे अम्‍मां को उनके भाई गहरे रंग की प्रिंट साड़ियां देते थे।

वे साड़ियां कामना और गायत्री के हिस्‍से में आती थीं। एक दिन कामना ने अम्‍मां से पूछ ही लिया....’बार बार पीछे मुड़कर क्‍या देखती हो? कुछ प्रॉब्लम है क्‍या?’ इस पर वे झिझकते हुए बोलीं - पतौ नायं, कछु दिनन सें भौत खून निकर रऔ है। हर दस मिनट बाद पेटीकोट खराब है रऔ है। सफेद रंग के पेटीकोट हैं, तौ लाल रंग छिपतऊ तौ नांय है।‘