Gavaksh - 31 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | गवाक्ष - 31

Featured Books
Categories
Share

गवाक्ष - 31

गवाक्ष

31==

डॉ. श्रेष्ठी एक ज़हीन, सच्चरित्र व संवेदनशील विद्वान थे। वे कोई व्यक्ति नहीं थे, अपने में पूर्ण संस्थान थे 'द कम्प्लीट ऑर्गेनाइज़ेशन !'उनका चरित्र शीतल मस्तिष्क व गर्म संवेदनाओं का मिश्रण था ।

बहुत कठिनाई से उनके साथ कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ था । अक्षरा को जैसे आसमान मिल गया, उसको बहुत श्रम करना था । अपना स्वप्न साकार करने के लिए वह रात-दिन एक कर रही थी । एक वर्ष के छोटे से समय में उसने इतना कार्य कर लिया कि प्रो. आश्चर्यचकित हो गए। वे उसकी लगन से बहुत संतुष्ट थे और आज की शिक्षा से बहुत असंतुष्ट !

यदा-कदा वे कहते --

" आज शिक्षा प्रदान करने के स्थान पर व्यापार किया जा रहा है और छोटे स्कूलों में तो केवल व्यापार ही किया जाता है । बालपन में ही बच्चे सही शिक्षा से वंचित रह जाते हैं । पाठ्यक्रम में ऎसी चीज़ें समाविष्ट की जाती हैं जिनका व्यवहारिक ज्ञान से कोई संबंध नहीं होता । शिक्षा का अर्थ केवल पाठ्यपुस्तकों में लिखे अध्यायों को किसी न किसी प्रकार पूरा करना होता है । इस शिक्षा का अर्थ मेरी तो बुद्धि में आता नहीं। "

प्रोफ़ेसर से ज्ञान प्राप्त करना, उनके खुले विचारों को जानना, उनसे चर्चा करना एक विशिष्ठ उपलब्धि होती ।

प्रोफेसर का गहन ज्ञान उसे सम्मोहित कर देता, लगता दुनिया में यदि ऐसे गुरु हो जाएं तब दुनिया का ढांचा ही परिवर्तित हो जाए। वह प्रोफ़ेसर के कथन में इतना डूब जाती कि पुस्तकालय बंद होने के समय कभी -कभी चपरासी आकर कहता;

" मैडम ! हमें भी अब घर जाना है ---" तब उसे होश आता और काम बंद होता । इस बात की शिकायत उसने प्रो.से भी की थी जिसका उन्होंने अक्षरा से हँसकर ज़िक्र किया था।

एक दिन अक्षरा को पुस्तकालय में नौ बज गए । वह आठ बजे तक घर पहुँच जाती थी । भाई-भाभी चिंतित हो उठे और शीघ्रता से पुस्तकालय पहुंचे। वहाँ के दृश्य ने उन्हें अधमरा कर दिया !अक्षरा बेहोशी की अवस्था में लुटी-पिटी सी फर्श पर पड़ी थी, उसके शरीर पर जगह-जगह खरोंचें लगी हुईं थीं, कपडे तार -तार कर दिए गए थे । शराब की बोतलें लुढ़की हुई थीं, अक्षरा की यह स्थिति देखकर स्वरा का दिल रो पड़ा। सत्यनिष्ठ बहन को देखकर पागल सा हो उठा। वह वहाँ पर चीखने-चिल्लाने लगा लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था। किसी प्रकार दोनों ने स्वयं को संभाला, रोते हुए ह्रदय और लगभग निर्जीव काँपते हुए हाथों में अक्षरा को समेटकर वे गाड़ी में लिटाकर घर ले आए।

इस हादसे ने घर को निर्जीव कर डाला, परिवार में मानो किसी की मृत्यु हो गई थी, शेष सदस्य सहमे हुए से ज़िंदगी में मानो जीवित रहने का कारण तलाश कर रहे थे । अक्षरा बिलकुल गुम हो चुकी थी। उन दिनों उसकी सखी भक्ति तथा प्रोफ़ेसर जर्मनी गए हुए थे। उनके वहाँ से लौटने के तुरंत बाद ही अक्षरा के शोध-निबंध की प्रस्तुति थी। अपने शोध की समाप्ति तथा उसकी प्रस्तुति के बारे में वह बहुत उत्साहित थी तथा उत्सुकता से अपने गुरुदेव की प्रतीक्षा कर रही थी । अक्षरा का श्रम रंग लाने वाला था, वह सोते-जागते अपने शोध-प्रबंध की प्रस्तुति की कल्पना करती रहती ।

इस अनहोनी दुर्घटना ने अक्षरा का मन काँच सा तिडक दिया था। ज़रा सी बात किसी ने पूछी नहीं कि उसके मन की दीवार में से तिड़के हुए कॉंच की किरचे कुछ इस प्रकार भुरने लगतीं कि वह बिलबिला उठती । यह समय अक्षरा के लिए काटने आते हुए सर्प की फुफकार जैसा था, बेचारगी और सिहरन से भरा !

स्वरा ने प्रोफेसर को ‘मेल’ कर दिया था। आवश्यक था उन्हें अक्षरा की अनुपस्थिति की सूचना देना ज़िंदगी की कड़वी सच्चाई के घूँट अक्षरा के कंठ में फँसे हुए थे, उन्हें निगलने -उगलने में उसकी साँसें जैसे बान की खुरदुरी रस्सी से कस जाती थीं जो कसने के साथ -साथ चुभने के लिए भी तैयार रहती हर पल तीखे डंक मारती थी । कंठ में फांस से घुसे नुकीले चुभते पीड़ा के रेशों ने उसकी दृष्टि को पथरा दिया था। अगले दिन चौकीदार को पुस्तकालय के एक कोने के कमरे में रस्सियों से जकड़ा हुआ अचेत पाया गया था। इस समाचार ने त्राहि-त्राहि मचा दी । चौकीदार इतना घबराया हुआ था कि आवाज़ उसके कंठ में फँस कर रह गई थी । होश में आने पर उसने सुबकते हुए बताया था ---

" साब ! चार लोग थे जो पुस्तकालय में घुसे थे । मैंने उन्हें रोकने की कोशिश की तो उन्होंने मेरे मुह पर कपड़ा बाँध दिया और कोने वाले कमरे में ले जाकर रस्सी से कसकर बाँधकर वहाँ पटक दिया । उसके बाद मुझे नहीं पता क्या हुआ ?"

अब सत्यनिष्ठ को लोगों की चिंता ने सताना शुरू कर दिया, लोग क्या कहेंगे?स्वरा इस बार भी उससे उलझ पड़ी ।

" मुझे नहीं पता सत्य तुम किस मिट्टी के बने हो, तुम्हें अक्षरा से अधिक इस बात की चिंता सता रही है कि लोग क्या कहेंगे? अक्षरा के सामने तुम ऐसा कुछ नहीं बोलोगे जिससे वह बिलकुल बिखर जाए। हमें उसकी मानसिक स्थिति संभालनी है और ऐसे लोगों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही भी ज़रूरी है जो समाज के नाम पर कलंक

हैं । "

" मतलब?" सत्यनिष्ठ घबरा गया जाने यह स्त्री क्या करने जा रही है ?

" मतलब यह कि मैंने अक्षरा को तैयार कर लिया है, वह पुलिस में गवाही भी देगी और यदि वे लोग पकड़े गए तो कोर्ट में भी गवाही देगी । "

" तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो गया है क्या ?" वह झल्ला गया ।

"कुछ भी समझ लो ----" और वह शिथिल अक्षरा को लेकर पुलिस -स्टेशन पहुँच गई थी ।

स्वरा ने प्रोफेसर को भी मेल करके दुर्घटना की सूचना दे दी थी । अब अक्षरा को ज़िंदगी की कड़वी सच्चाई के घूँट पीकर जीना था जिसके लिए स्वरा उसे तैयार कर रही थी ।

इस मानसिक स्थिति में स्वरा के साथ केवल अक्षरा ही थी जो हर पल उसके साथ ढाल बनकर खडी हुई थी, अक्षरा का दृढ़ सहारा थी वह जो उसे अन्धकार भरी खाई में से निकालने के लिए कटिबद्ध थी ।

"जो सत्य है उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर समाज को बताओ, ज़िंदगी हौसलों से जी जाती है, तुमने कुछ गलत नहीं किया है जो तुम्हें शर्मिंदा होना पड़े, । ' उसने अक्षरा को अपने अंक में समेट लिया था ।

अक्षरा भाभी के कंधे पर सिर रखकर फूट पड़ी थी । उसके नेत्रों से कभी भी पतनाले बरसने लगते । उसके सपनीले चित्र आँसुओं के साथ बह रहे थे । उसने पति को अच्छी प्रकार समझा दिया था --"

" सत्य ! समाज कुछ समय के लिए अच्छाई में वाह-वाह करता है और किसी के कष्टपूर्ण दिनों में भी तुफ़-तुफ़ करता है लेकिन कुछ समय तक ही, जैसे ही समय परिवर्तित हुआ कि समाज सब भूल गया। समाज की मर्यादा रखनी आवश्यक है किन्तु व्यर्थ में ही समाज के भय से डरकर ऐसे लोगों से पर्दे में बैठने की आवश्यकता नहीं होती जो वास्तव में समाज के सदस्य के नाम पर कलंक हैं । हम इन पिशाचों से डरकर चुप रह जाते हैं इसीलिए इन जैसे बेशर्मों का साहस बढ़ता जाता है। मुझे नहीं लगता कमज़ोरी को अपने ऊपर हावी होने देना चाहिए । "

" लेकिन हमीं क्यों? कोई अपने आपको नग्न नहीं दिखाता ----" सत्यनिष्ठ भयभीत भी था और क्रोधित भी ।

" सभी यही तो सोचते हैं 'हमीं क्यों?'इसीलिए व्यवस्था कभी सुधर ही नहीं पाती । दुष्ट लोग अपनी दुष्टता से पीछे हटते हैं क्या? "स्वरा बहुत व्यथित थी ।

" भाई ! भाभी ठीक कह रही हैं। इस प्रकार दरिंदों को बिना दंड के छोड़ना समाज के लिए अहितकर है। मेरे साथ जो दुर्घटना हुई, वह किसी और के साथ न हो इसके लिए आवाज़ उठानी आवश्यक है । "

क्रमश..