web-series ki vibhatsata me aanand talashate hum in Hindi Magazine by विवेक वर्मा books and stories PDF | वेबसीरीज़ों की वीभत्सता में आनन्द तलाशते हम।

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वेबसीरीज़ों की वीभत्सता में आनन्द तलाशते हम।

सात से दस एपिसोडों में लांच होती वेब सीरीजें और लगभग हर वेब सीरीज में चाकुओं ,तलवारों और बंदूकों से की जाती खेप-खेप भर हत्यायें स्क्रीन पर पड़ते खून के छीटें फिर बात-बात में मां, बहन की परोसी जा रही गालियां और इन चीजों में आनंद ढूढता नया दर्शक वर्ग।

ये सभी चीजें किसी भी वेब सीरीज की सफलता में बड़ी भूमिका निभाते हैं।एक बार वेबसीरीज़ों की लत लग जाये तो वो किसी नशे से कम नहीं न चाहते हुए भी लोग खिंचे चले जाते हैं।अगर खिंचाव कभी ढीला पड़ने लगे तो वेबसीरीज़ों में सनसनी का नशा भर दिया जाता है भले ही वो नशा अनाचार की घनघोर चासनी में ही क्यों न डुबोया गया हो।भले ही वह सनसनी दुष्प्रभाव बढ़ाने वाली ही क्यों न हो।

कोरोना के कारण बन्द हुए सिनेमाघर नें इन वेबसीरीज़ों को और अधिक स्थापित होने का अवसर दे दिया।लाकडाउन में घरों में बैठे हुए लोगों खासकर युवाओं के लिए ये शुरुआत में समय काटने का अवसर देती थी लेकिन बाद में ये उनकी लत में शामिल हो गयी।लत ऐसी की तीस से चालीस मिनट की आठ से नौ भागों वालों वेबसीरीज़ों को वे एक ही बैठकी में चट कर जाते।

अब विभिन्न प्लेटफॉर्मो पर रिलीज होती वेबसीरीज़ों नें एक नया दर्शकवर्ग तैयार कर लिया है।ये नया दर्शकवर्ग इन रोंगटे खड़े कर देने वाले दृश्यों और असभ्यता में ही आनन्द तलाशता है।हमारे अंदर विद्यमान शर्मीलेपन पर ये वेबसीरीजें आक्रमण करती सी प्रतीत होती हैं।

आज इस भाग दौड़ की जिंदगी में लोगों के पास अपने परिवार के साथ बैठने का समय कम ही होता है।फिर भी फिल्मों ,सीरियलों के बहाने लोग एक साथ बैठा करते थे।लेकिन वेबसीरीजें इस अवसर को भी छीनती सी प्रतीत होती हैं।मां, बहन की परोसी जा रही गालियों,गंदे दृश्य ,सबके साथ बैठकर देखना सम्भव नहीं है।युवा वर्ग इन वेबसीरीज़ों का बड़ा उपभोक्ता है।

यद्यपि कुछ वेबसीरीज़ों के विषय वस्तु शानदार है वे सामाज की कुरीतियों के खिलाफ आवाज भी उठाती हैं लेकिन इनमें भी थोड़ी बहुत सनसनी,गालियां गूंथ दी जाती हैं।लेकिन इससे भी आगे अधिकांश पश्चिम की नकल पर आधारित अश्लीलता और असभ्यता को ही परोसती प्रतीत होती हैं।

कुछ समय पहले जबतक मिथुन चक्रवर्ती नायक के रूप में फिल्मों के माध्यम से लोगों के सामने आया करते थे तब तक वे ही ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के आदर्श नायक हुआ करते थे।2001-02 के आस पास जब टेलीविजन सभी के पास नहीं हुआ करता था तो सार्वजनिक उत्सवों और आयोजनों में जहाँ मिथुन की फिल्में चलती थी ग्रामीण क्षेत्र के युवा कोसों दूर तक मिथुन चक्रवर्ती के नाम पर इन्हें देखने निकल लेते थे।इन युवाओं को मिथुन के क्रियाकलापों की नकल करते हुए संवाद बोलना, ढिशुम,ढिशुम की धुन निकालना आसानी से सुना जा सकता था।ये कल्पनाओं में किसी बहन के भाई बन तो किसी असहाय के लिए सहारा बन रक्षक के रूप में स्वयं को पेश करते थे।

इस दृष्टांत से यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है की लोग फिल्मों की बहुत सारी चीजों का अनुसरण करते हैं।हम अक्सर किसी अपराध के सम्बंध में खबरों की हेडलाइन पढ़ते रहते हैं कि 'फिल्मी तरीक़े से दिया गया घटना को अंजाम।' ऐसे में वेबसीरीज़ों में प्रदर्शित हो रही इन भयावाह दृश्यों से डर पैदा होना स्वाभाविक है की यदि युवा इन चीजों का अनुसरण करने लगे तो ये उनके व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ सामाजिक जीवन के लिए भी बहुत हानिकारक हो सकता है।

ऐसे में क्या हमें ये ध्यान नहीं रखना चाहिए कि व्यवसायिक लाभ के लिए बड़े स्तर की निर्लज्जता क्यों परोसी जाए ?पश्चिम की नकल भी एक सीमा तक ही की जानी चाहिए।साथ ही कम उम्र के दर्शकों पर भी नजर रखते हुए ये प्रयास किये जाने चाहिए कि परिपक्वता के बाद ही वे वेबसीरीजें देखें।कच्ची उम्र में इन चीजों की लत उनके साथ-साथ सबके लिए नुकसानदायक ही होगी।