अरमान दुल्हन के भाग-15
सुशीला उसका गला दबा रही थी ।दम घुटने लगा तो हड़बड़ाकर उठ बैठी।
"ओह सुपना था, ओफ् ओ! इनतैं तो बचके रहणा पड़ैगा, कोय भरोसा ना सै इणका!
उसने लंबी लंबी सांस लेकर अपने आपको तरोताजा करने का प्रयास किया। सिर दर्द से फट रहा था। तभी मकान मालिक के बच्चे खेलने आ गए।उनकी कविता के साथ खेलने की रूटीन बन चुकी थी।शाम को चार बजे करैम बोर्ड लेकर पहुंच जाते और सरजू के आते ही भाग जाते।आज कविता का खेलने का मूड नहीं था।
"बच्चों आज मन नहीं है कल आना।"
"क्या हुआ आंटी? आप उदास क्यों हो? अंकल ने डांटा आपको? हम पापा को अंकल की शिकायत करेंगे।" दोनों बच्चे बड़ी मासुमियत से कविता से सवाल पर सवाल करके परेशान हो रहे थे।
कविता की हंसी छूट गई। हंसते हुए पूछा-"क्या कहोगे पापा से?"
" हम कहेंगे कि अंकल ने आंटी को मारा।" दोनों एक ही लय में बोल पड़े।
"अरे नहीं बच्चो,अंकल ने नहीं मारा मुझे। वो....थोड़ी सी तबीयत खराब है।"कविता ने बच्चों को समझाया।
"ओके आंटी , बाय कल मिलते हैं!"बच्चे बाय करते हुए भाग गए।
कविता ने भी हाथ हिलाकर उन्हें विदा किया। वह सोचने लगी -
"मेरी जिंदगी मै इतणी मुसीबत क्यातैं सै (क्यों हैं)! मन्नै( मैंने) तो आज लग (तक)किस्से का(किसी का) दिल ना दुखाया!"
अगले दिन पार्वती आ टपकी। कविता का दिल धक -धक करने लगा। पार्वती कविता से कुछ ना बोली।कविता ने औपचारिकतावश पानी दिया और चाय बनाई।पार्वती ने चाय पीने से मना कर दिया। पार्वती मकान मालकिन के पास जाकर बैठ गई।
मकान मालकिन कपड़े सीलने का काम करती थी।कविता को भी सिखाती थी ।ताकि उसकी आर्थिक स्थिति सुधर जाये।
पार्वती मकान मालकिन से बात करने लगी और कविता के बारे में भला-बूरा कहने लगी। मकान मालकिन ने कविता का पक्ष लिया तो वह उनसे भी लड़ पड़ी।
मकान मालकिन को उसका बर्ताव बड़ा अजीब लगा।
शाम को ड्यूटी से सरजू लौटा तो पार्वती ने कहा-"चाल रे घरां, घणी ऐश मार ली थम्मनै!
सरजू ने सोचा मां यहाँ तमाशा करेंगी इससे अच्छा घर चले जाते हैं। मामा- बूआ को बुलाकर सब ठीक कर लेंगे।
वह सहज ही घर जाने को मान जाता है किंतु कविता तैयार नहीं थी। वह बड़ी मुश्किल से उस नरक से निकली थी। अब दोबारा नहीं जाना चाहती थी।
मकान मालकिन ने भी कविता को डरा दिया था।
"कविता तुम्हारी सास तो बड़ी खतरनाक लग रही है।तुम मत जाओ यार! कहीं तुम्हें इसने मार डाला तो!"
कविता पहले से ही सुशीला की हरकत से काफी डरी हुई थी।
मगर करती भी क्या? सास और पति के साथ चल पड़ी।
बस स्टैंड पहुंच कर, पार्वती और सरजू बस में चढ़ गए।कविता खड़ी- खड़ी कांप रही थी। उसके पांव बस की सीढियों की ओर सरक ही नहीं रहे थे।
बस कंडक्टर ने ज्यों ही सीटी दी बस अपने गंतव्य की ओर धीरे धीरे रेंगने लगी।
पार्वती चिल्लाई - "अर वा कविता नीचै ए रहग्गी!"
सरजू बस रुकवा कर नीचे कूद पड़ा और कंडक्टर को जाने का इशारा दे दिया।
बस फिर से चल पड़ी।पार्वती चिल्लाती रही कंडक्टर को भी गुस्सा आ गया। वह भी गुस्से से फट पड़ा- "ताई के तमाशा लगा राख्या सै? कदे रोकूं कदे चलाऊं!या बस मेरै ताऊ की ना सै! सरकारी सै, अर हाम्मनै टैम पै पहोंचणा (पहुंचना)भी सै।"
उधर सरजू और कविता वापस कमरे पर आ जाते हैं।दोनों अपनी चालाकी पर बहुत खुश होते हैं।
पार्वती कस-मसाकर रह जाती है। दूसरे दिन टाटा 407 लेकर फिर से पहुंच जाती है।
कविता और सरजू डर के मारे कमरा छोड़कर दीवार फांदकर भाग जाते हैं। पार्वती उनको ढ़ूंढने लगती है। मकान मालकिन ने भी उनका साथ देता है और झूठ बोल देता है।वह पार्वती को बताता है कि वो लोग डॉक्टर के चैकअप के लिए गए हैं। मगर पार्वती बहुत ही चालक और तेज तर्राट औरत है ।उसे पता है रविवार को सभी सरकारी अस्पताल बंद होते हैं ।प्राईवेट अस्पताल में जाने की उनकी औकात नहीं है। वह उन्हें ढ़ूंढती है। मगर उन्हें घर पर न पाकर वह उनके कमरे का सामान गाड़ी में भरने लगती है। मकान मालिक विरोध भी करता है मगर वह नहीं मानी। उन्होंने कितनी मुश्किल से एक-एक पैसा जोड़कर सामान जोड़ा था। और पार्वती सब सामान लेकर वहाँ से चली गई।
कविता और सरजू वापस लौटे।कमरा खाली देखर कर कविता की जोर जोर से रूलाई फूट पड़ी।कमरा कविता की सुबकियों से गूंज उठा था।
क्रमशः
एमके कागदाना
फतेहाबाद हरियाणा©