Aakha teez ka byaah - 11 in Hindi Moral Stories by Ankita Bhargava books and stories PDF | आखा तीज का ब्याह - 11

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आखा तीज का ब्याह - 11

आखा तीज का ब्याह

(11)

आखिर श्वेता के वापस जाने के दिन पास आ गए थे। उसने काकाजी को कमरे का किराया देने की कोशिश की तो उन्होंने पैसे लेने से साफ़ मना कर दिया| उसने दोबारा कहा तो तिलक की माँ बोल पड़ी, “ना छोरी म्हें थारे सूं किरायो कोनी लेवां|”

“क्यों काकीजी, किराया तो लेना ही चाहिए ना, ये तो आपने ही तय किया था|”

“किरायो तो किरायेदार देवे छोरी, तू तो म्हारे घर गी टाबर है| म्हारो घर भूतां गो डेरो सो हो, तू आगे फेर अठे रोणक कर दी| तू तो म्हारे तिलक ने भी फेर जीणो सिखा दियो| खुस रह छोरी, तू ब्याह गे जके घर जासी बांगा तो भाग खुल जासी|” तिलक की माँ श्वेता पर आशीर्वाद लुटा रही थी| श्वेता उठ कर छत पर चली गयी| “सरमागी छोरी|” माँ बोली|

“लड़कियाँ आजकल शादी के नाम से शर्माती तो नहीं हैं फिर आप यहाँ आ कर क्यों छुप गयी| डॉक्टर रजतजी की याद आ रही क्या?” श्वेता के पीछे छत पर चले आए तिलक ने उसे मुंडेर के पास बिल्कुल चुपचाप सा खड़े देख आश्चर्य से पूछा।

“डॉक्टर रजतजी को याद करने का हक अब उनकी पत्नी को है मुझे नहीं है|”

“हैं! ये कब हुआ?”

“रजत के पापा के एक दोस्त को रजत बहुत पसंद था| उन्होंने अपनी बेटी की शादी का प्रस्ताव उसके पापा के सामने रखा, यह प्रस्ताव रजत के पापा को भी बहुत पसंद आया और उन्होंने उन दोनों की शादी करवा दी|”

“पर रजतजी! ने कुछ नहीं कहा वो तो प्यार करते थे ना आपसे|”

"रजत शुरू से ही अमेरिका में सेटल होना चाहता था| उसके पापा के दोस्त भी अमेरिका में ही रहते हैं| उनकी बेटी से शादी करके उसे वहां आसानी होती इसलिए उसे भी अपने पापा की बात मानना ठीक लगा| वैसे भी कॉलेज की दोस्ती ज्यादा मायने कहाँ रखती है| साथ पढ़ने वाले लडके लड़कियों का रिश्ता अंजाम तक पहुंचे जरुरी तो नहीं|” श्वेता आगे कुछ न कह सकी उसके दिल का दर्द सावन भादो बन कर उसकी आँखों से बरसने लगा|

तिलक के पास कहने के लिए कुछ नहीं था| वह बस चुपचाप श्वेता को देखता रहा| उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि सारा दिन उसके सामने हंसती-खिलखिलाती रहने वाली यह लड़की अपने दिल में इतना दर्द दबाये रहती है| अब उसे रजत के जोधपुर न आने का कारण भी समझ आ गया। श्वेता को रोते देख तिलक का भी मन भारी होने लगा वह धीरे से उसका सर सहला कर नीचे चला आया|

श्वेता वापस अपने घर जाने से पहले वासंती के माता-पिता से भी मिलने गई| तिलक भी उसके साथ ही था| वासंती की माँ ने इस बार उसके साथ कुछ खास अच्छा व्यवहार नहीं किया| वे वासंती और तिलक की शादी टूटने का कारण श्वेता को ही माने बैठी थी| उन्हें लगता था कि श्वेता जैसे दोस्तों की गलत संगत में ही उनकी सीधी-साधी बेटी बिगड़ गयी, और उनकी यही सोच उनके व्यवहार में परिलक्षित हो रही थी| कुछ देर बैठ कर श्वेता और तिलक वापस चले आये| वापसी में श्वेता कुछ उदास थी|

“श्वेता मैं तुम्हारे जख्मों को छीलना नहीं चाहता पर एक बात आई है, मन में अगर तुम्हें बुरा ना लगे तो पूछूं|”

“जी पूछिए|”

“कल तुमने कहा था कॉलेज की दोस्ती मायने नहीं रखती, फिर प्रतीकजी का व्यवहार बसंती के साथ....?”

“प्रतीक वासंती से बहुत प्यार करते हैं| वासंती उनके साथ बहुत खुश है और यकीन रखिये वो प्रतीक के साथ हमेशा खुश रहेगी|”

“हूँ|” तिलक ने कहा, इसके आगे कुछ कहने सुनने को कुछ नहीं था इसलिए दोनों के बीच मौन पसर गया|

तिलक को श्वेता का वापस जाना अच्छा नहीं लग रहा था| वह चाहता था श्वेता हमेशा उसके पास ही रहे| पर कैसे! कैसे रोक सकता है वह उसे? और किस हक से? वह ना रहना चाहे तो, सही भी है जब यहाँ की मिट्टी में पैदा हुए लोग ही यहाँ नहीं रहना चाहते तो वह क्यों रहना चाहेगी| इतने दिन भी उसकी मजबूरी थी, डाक्टर बनना है इसलिए आना पड़ा वरना तो वह शायद आती भी नहीं|”

“छोरा आज श्वेता आपगे घरां जासी तू बिने रामपुर बस पर चढ़ा आई| टाबर एकली कियां जासी|” माँ ने तिलक से कहा|

"टाबर एकली आ सके तो जा भी सके|” कहने को तो तिलक माँ से कह गया पर बाद में खुद ही श्वेता को रामपुर तक छोड़ने जाने के लिए तैयार भी हो गया|

श्वेता जाने से पहले तिलक की माँ से मिलने आई| उसके हाथ में एक पैकेट था जिसमें सबके लिए तोहफ़े थे| काकाजी के लिए नया चश्मा, काकीजी के लिए साड़ी और तिलक के लिए डिज़ाइनर कुर्ता| उसने सारा सामान काकीजी के हाथ में पकड़ा दिया| “बेटा आ तोह्फां गी के जरूरत है तू तो आप ही म्हारे वास्ते भगवान गो भेजेड़ो तोहफो बण गे आई है| मेरो तो जी करे तन्ने अठे ही राख ल्यूं पर किंया रोकूँ तेरी माँ भी तन्ने अडीकती होगी|” तिलक की माँ ने भी श्वेता को बहुत ख़ूबसूरत राजस्थानी ड्रेस तोहफ़े में दी| विदाई के वक्त श्वेता का मन भर आया और वह तिलक की माँ के गले लग कर रो पड़ी| इतने थोड़े से वक्त में ही उसे इन लोगों से अच्छा खासा लगाव हो गया था|

“अब चलो, तुम्हारे ब्याह की बिदाई नहीं हो रही जो माँ बेटी गले लग कर रोने लगी| तुम्हारा ही घर है जब मन करे मिलने आ जाओ|” तिलक ने माहौल को हल्का करने के इरादे से कहा|

“हाँ! जब मन करे तब आओ पर अभी जाओ| हैं न?” श्वेता ने शिकायती लहज़े कहा|

“ले मैंने कब कहा जाओ, आपको ही जल्दी लगी है जाने की, मेरी तरफ़ से तो सारी उम्र रहो|”

“तो राख ले ना, जाण दे ही क्यों है?” माँ की बात का अर्थ समझ कर श्वेता और तिलक दोनों ही झेंप गए और जल्दी से गाड़ी में आ कर बैठ गए| मां गाहे बगाहे यह बात छेड़ ही दिया करती थीं जिसे तिलक और श्वेता सुन कर भी अनसुना कर देते। तिलक के दिमाग में उस वक्त बहुत कुछ चल रहा था| गाड़ी चलाने में उसका ध्यान चूक गया और गाड़ी एक ठेले से टकराते टकराते बची|

“रोज़ रात को पीते थे, आज तो लगता है दिन में ही शुरू हो गये| मुझे बस स्टैंड तक पहुंचा तो दोगे न?” श्वेता ने कुछ मज़ाकिया लहज़े में पूछा|

“नहीं पहुंचा पाऊँगा| एक काम करो पैदल चली जाओ|” श्वेता को तिलक के इतनी बुरी तरह से भड़कने की उम्मीद नहीं थी|

“मैंने ऐसा क्या कह दिया जो इतना भड़क गए| आप हर वक्त काट खाने के मूड में क्यों रहते हो?”

“मैं भड़क रहा हूँ! हाँ! मैं कैसे भड़क सकता हूँ, मैं तो तुम्हारा ड्राईवर हूँ| नौकर का काम तो मालकिन का हुक्म बजाना होता है उसे कुछ बोलने का हक कहाँ?” तिलक गुस्सा क्यों है श्वेता को समझ नहीं आ रहा था, वह रुआंसी हो गयी| “ये रो के मत दिखाना मुझे, उठा के जीप से बाहर फेंक दूंगा|”

“मैंने कब आपको ड्राईवर बनाया, आप खुद ही मेरे लिए परेशान होते रहे थे मैंने तो मना भी किया था|”

“हाँ तो क्यों किया था मना, रजत को भी करती|” तिलक जीप रोक कर बाहर आ गया|

“आप क्या कहना चाहते हो मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा?”

"मुझे भी नहीं पता मैं क्या कहना चाहता हूँ| मुझे यह भी नहीं पता तुम कभी मेरी बात समझ भी पाओगी या नहीं पर फिर भी आज मैं कहना चाहता हूँ। मैं तुमसे कहना चाहता हूँ कि मुझे तुम्हारा जाना अच्छा नहीं लग रहा| मेरे घर में हर वक्त मातम सा छाया रहता था पर जबसे तुम आई घर का माहौल बदल गया| माँ-बापूजी और मैं, हम सब खुश रहने लगे| इतने थोड़े से वक्त में ही हमें तुम अपने घर की, परिवार की सदस्य लगने लगी| मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं अब कभी अपनी ज़िन्दगी में दोबारा किसी भी लड़की पर विश्वास कर पाऊँगा पर तुम्हारे साथ रहकर धीरे धीरे मेरी सोच बदल रही थी| पर क्या फ़ायदा तुम्हें भी वापस जाना है अपने शहर। गाँव में रहना ही कौन चाहता है जब तक कोई स्वार्थ, कोई मजबूरी ना हो| जब तक अपना स्वार्थ था हम अपने थे अब काम निकल गया तो हम कौन? है ना!” तिलक ने एक जोर की लात जीप को मारी जैसे अपनी सारी खुन्नस उसी पर निकाल रहा हो|

“नहीं ऐसी बात नहीं है ना मुझे गाँव में रहना बुरा लगता है और ना आप लोगों का साथ, पर मैं हमेशा तो आप लोगों के साथ नहीं रह सकती| अपने घर तो मुझे जाना ही होगा ना, मेरे मम्मा-पापा मेरा इंतज़ार कर रहे हैं कितने दिन हुए उन लोगों से दूर हुए |”

“क्यों? इतने दिनों तक रह तो रही थी मेरे घर में आगे क्यों नहीं रह सकती? और तुम्हारे मम्मा-पापा हमेशा तुम्हें अपने साथ ही रखेंगे? शादी नहीं करेंगे तुम्हारी|”

“जब शादी होगी तब की तब देखेंगे, आज ही मेरी शादी थोड़ी होने जा रही है| और शादी के बाद भी मैं अपने ससुराल रहूंगी, आपके घर तो मैं तब भी नहीं रह सकती|”

“ तो फिर एक काम करो, तुम...तुम मुझसे शादी कर लो। फिर कोई समस्या नहीं होगी, तुम हमेशा मेरे साथ रह सकोगी|” तिलक ने जैसे धमाका सा कर दिया।

“हैं!” श्वेता का मुंह खुला का खुला रह गया|

“हाँ! मैं कई दिन से तुमसे यही कहना चाहता था| मेरे सारे गुस्से, सारे झगड़े की वजह यही है कि मुझे वे शब्द ही नहीं मिल रहे थे जिनमें पिरो कर मैं तुम्हें अपनी भावनाओं से अवगत करवा सकूं| पहले मुझे लगता था कहाँ मैं और कहाँ तुम, दोबारा अस्वीकृत होने की हिम्मत नहीं थी मुझमें, पर अगर आज भी नहीं कहता तो भी शायद मैं चैन से नहीं रह पाता इसलिए आज मैंने हिम्मत कर के अपने दिल की बात तुमसे कह ही दी| माँ बापू भी यही चाहते हैं, माँ कई बार इशारों में कह भी चुकी हैं तुमसे, यह तुम भी जानती हो| अब मैं फ़ैसला तुम पर छोड़ता हूँ, तुम जो मन में आये वो करो, चाहे माँ की बात का मान रख कर हमारे घर की रौनक बन जाओ, चाहे उस बस में बैठ कर अपनी शहर की खूबसूरत दुनिया में वापस चली जाओ|” तिलक ने उसी ओर आती बस की ओर इशारा करते हुए कहा|

“ये रामपुर का बस अड्डा है महाशय, जोधपुर का कोई रेस्टोरेंट नहीं जहाँ आप मुझे प्रपोज़ कर रहे हैं| कोई किसी को बस स्टैंड पर प्रपोज़ करता है क्या यार?”

“अब जहाँ खड़ी हो वहीं तो बात करूँगा ना|”

“थोड़ी देर पहले मैं आपके घर पर ही थी|”

“अब ये तो कोई कारण नहीं है मना करने का|”

“मैंने मना कहाँ किया?”

“हाँ भी नहीं कहा|”

“कमाल करते हैं आप! मैं अपनी शादी का फैसला खुद कैसे ले सकती हूँ ये तो मेरे और आपके मम्मा पापा तय करेंगे ना|”

"क्यों रजत से रिश्ता क्या अपने मां बाप से पूछ कर जोड़ा था?" तिलक कह तो गया मगर जल्दी ही उसे अपनी गलती का अहसास हो गया।

"मुझे माफ कर दो श्वेता, मुझे बात करने का शहरी सलीका नहीं है, जो मुंह में आता है वही बोल देता हूं।" तिलक ने ग्लानी भरे स्वर में कहा।

"कोई बात नहीं तिलक, आपके स्वभाव को मैं समझती हूं पर आपको भी समझना होगा, अपनी ज़िंदगी का इतना बड़ा फैसला मैं अकेले नहीं ले सकती। जहां तक रजत की बात है तो दोस्ती और शादी में फर्क होता है, रजत सिर्फ मेरा दोस्त था मगर आपसे शादी करने से पहले मुझे मम्मा-पापा की इजाजत लेनी होगी।"

“ठीक है लेंगे मम्मा-पापा से इजाजत पर पहले यह तो पता चले तुम्हें तो कोई एतराज़ नहीं है?”

“एतराज़ का तो पता नहीं पर मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कोई मुझे ऐसे बीच सड़क पर प्रपोज़ करेगा|”

“अब जैसा आदमी होगा वैसा ही तो काम करेगा| ये जो आ रही है ना वही है तुम्हारी बस, इसमें बैठ कर अभी तुम अपने घर जाओ, कुछ दिनों में मैं तुम्हें वापस अपने पास बुलाने का इंतजाम करता हूँ|” तिलक ने सामने से आ रही बस को रोकते हुए कहा|

श्वेता लपक कर उसमें चढ़ गयी| तिलक ने उसका सामान ठीक से जमा दिया और उसे भी सीट दिला दी| श्वेता ने खिड़की से बाहर मुंह निकाला तो तिलक चिल्लाया “ऐ अंदर चल चोट लग जावेगी|” श्वेता ने मुंह बनाते हुए हाथ हिला कर उसे बाय बोला तो वह हंस दिया| बस चल दी पर तिलक तब तक वहीं खड़ा रहा जब तक कि उसे श्वेता दिखाई देती रही| बस के उसकी आँखों से ओझल होने के बाद वह भी अपने घर की ओर चल पड़ा| श्वेता सारे रास्ते तिलक के बारे में ही सोचती रही| साथ ही सोचती रही कि तिलक के बारे में जान कर उसके पापा की प्रतिक्रिया क्या होगी और...और वासंती! उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? पर नहीं इस वक्त वासंती अपने जीवन की उलझनों में इतनी उलझी थी कि उसके पास श्वेता के बारे में जानने का वक्त ही नहीं था|