जय हिन्द की सेना
महेन्द्र भीष्म
तेरह
ढाका में हम्माद अपने बड़े भाई अमजद के यहाँ तौसीफ के साथ गया जो सिंचाई विभाग में अधिशासी अभियन्ता के पद पर कार्यरत हैं। हम्माद की बड़ी बहन से भी पाँच वर्ष अधिक उम्र के थे उसके अमजद भाईजान।
तौसीफ उनके रोबदार व्यक्तित्व के सामने बहुत कम बोलता था और जबसे उसके विवाह की बात रुख़्ासाना के साथ पक्की हुई है, एक संकोच—शर्म की छाया—सी सदैव बनी रहती थी उसके अंदर।
कुशलक्षेम के अलावा ढाका तक आकर उनसे न मिलने का सवाल ही नहीं उठता था। सिंचाई विभाग की कॉलोनी में अमजद भाईजान का सरकारी आवास था। तौसीफ़ पहली बार हम्माद के साथ उनके यहाँ जा रहा था।
फक्क सफेद रंग की छोटे कद की कुतिया लूसी ने हम्माद को देखते ही पहचान लिया। “कूं—कूं” करते हुए लूसी हम्माद के साथ आये अपरिचित तौसीफ के पैरों के आस पास घूमने लगी।
“भाई जान के एक मित्र इसे सिंगापुर से लाये थे।'' हम्माद ने लूसी का इतिहास संक्षेप में बताते हुए कहा।
‘‘अरे हम्माद है क्या?'' अन्दर ड्राइंगरूम से हम्माद को जानी पहचानी आवाज सुनाई दी। यह आवाज उसके बहनोई की थी जो ढाका में ही सचिवालय में संयुक्त सचिव के पद पर कार्यरत हैं। तौसीफ उनसे भी भली भाँति परिचित था। जितना वह अमजद भाईजान से बातचीत के लिए बचता था, उतना ही वह अपने होने वाले साढ़ू भाई जो उससे उम्र में दस वर्ष बड़े थे, खुलकर बातचीत करता था। जनाब मजहर साहब का स्वभाव ही खुदा ने कुछ ऐसा दिया था कि जो भी उनसे दो बातें कर ले प्रशंसा किए बिना न रहे।
कुछ देर बाद ड्राइंगरूम में हम्माद की भाभी, भाईजान व उनका छः
वर्षीय एकलौता बेटा अच्छन, बड़ी बहन माजदा व बहनोई साहब अपनी दो वर्षीय बच्ची के साथ हम्माद तौसीफ़ सहित सुबह का नाश्ता ले रहे थे।
प्रारम्भिक औपचारिकताएँ पूरी होने के बाद अमजद ने अपने छोटे भाई
व तौसीफ को युद्ध के बाद अचानक आया देख आश्चर्य से पूछते हुए कहा,
‘‘हम्माद...... तुम लोगों का यहाँ कैसे आना हुआ? खुलना में सभी लोग ठीक से तो हैं?''
‘‘हांँ वहाँ सभी ठीक से हैं, आप लोग कैसे हैं?'' हम्माद ने बड़े भाई को संतुष्ट करते हुए पूछा।
‘‘यहाँ तो हर वक्त सिर पर तलवार—सी लटकती रही, पता नहीं कब पश्चिमी पाकिस्तानी फौजी आ धमकें'' मज़हर साहब अपनी स्वाभाविक मुद्रा में बोले।
‘‘और सुनाओ तौसीफ मियाँ।'' मज़हर ने अपने साढ़ू भाई की ओर मुख़्ाातिब होते हुए कहा।
‘‘बहुत ठीक हूँ आपकी कृपा से।'' तौसीफ ने अमजद भाईजान का
ख्याल रखते हुए दबे शब्दों में कहा
क्रमशः हम्माद ने उनकी जिज्ञासा की शांति के लिए पूरा वृतान्त आद्योपांत सुना डाला।
‘‘शाबाश।'' मजहर साहब ने पूरा वृत्तांत एक रोचक कथा की तरह सुनते हुए दोनों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की, ‘‘बहुत ही अच्छा काम तुम दोनों ने किया। इस खुशी में माजदा गर्मागर्म एक—एक कप चाय और हो जाये।
...... क्यों भाभी जी?''
‘‘क्यों नहीं।'' मुस्कराते हुए अच्छन की मम्मी किचन में चाय बनाने चली गयी। माजदा ने अपनी उंगलियाँ सलाइयों में फँसा लीं। उसकी उंगलियाँ इतनी तेजी से चल रही थीं जैसे स्वेटर आज ही पूरा करके देना हो।
‘‘वैसे तुम लोगों को इतना बड़ा जोखिम नहीं उठाना चाहिए था।''
अमजद भाई जान गम्भीर मुद्रा में बोले।
‘‘क्या बात करते हैं आप भी भाईजान? अब ये, कोई बच्चे नहीं रह गये हैं। देश के हित में कुछ करते हैं, तो कौन बुरा है, विदाउट रिस्क नो गेन''
अंग्रेजी के शब्द मज़हर साहब ने अपने मत के समर्थन में जोड़े।
अमजद भाई जान चुपचाप रहे। शायद मजहर साहब की बात में वजन था। ड्राइंगरूम में सभी को चिंतन की मुद्रा में शांत बैठे देख माज़दा की स्त्री सुलभ बेचैनी बढ़ गई। आखिर वह अधिक देर शांत न रह सकी, ‘‘हम्माद
रुख़्ासाना कैसी है? वह पेंटिग सीख रही है या बंद कर दी।'' माज़दा का संकेत तौसीफ़ की ओर था।
‘‘हाँ ठीक है, पेंटिग सीख रही है'' कुछ रुककर उत्साहित होते हुए हम्माद बोला, ‘‘उसने शेख मुजीब की एक बड़ी फोटो बनाई है, एकदम हूबहू।''
शेख मुजीब का जिक्र्र आते ही अमजद भाईजान बोल पड़े, ‘‘आखिर
शेख का सपना पूरा हो गया।''
‘‘कैसा सपना?'' मज़हर साहब पूछ बैठे।
‘‘वही राष्ट्रपति बनने का .... सब सत्ता के लोभी ... क्या पड़ी थी नया बांग्लादेश बनाने की?'' अमजद भाईजान से रहा नहीं गया और मन की बात निकाल ही दी।
‘‘बहुत जरूरी था पूर्वी पाकिस्तान का बांग्लादेश के रूप में स्वतंत्र देश बनना'' मजहर भाई ने दलील देते हुए कहा, ‘‘हम बंगालियों के पैसों पर पश्चिमी पाकिस्तानी अपना गुज़ारा चलाते थे। वहाँ के विकास कायोर्ं में यहाँ की अपेक्षा अधिक खर्च करते थे और फिर इससे बढ़कर अपने आपको शासक और हमें शोषित प्रजा का दर्जा देते थे। वह हमें अपना उपनिवेश समझते थे। हमारी अरबों की निर्यात की कमाई से पश्चिमी पाकिस्तान में स्कूल, सड़कें और अस्पताल बन रहे थे और हमारे लिए विकास के नाम पर कुछ भी नहीं
...... सेना में ही लीजिए जिसमें नब्बे प्रतिशत पश्चिमी पाकिस्तानी थे। सरकारी नौकरियों में अस्सी प्रतिशत पश्चिमी पाकिस्तानी जमे थे। हमारी मातृभाषा बांग्ला के स्थान पर हम पर राष्ट्रभाषा के नाम पर उर्दू को जबरन थोपा जा रहा था।''
‘‘ऐसा कुछ भी नहीं है, न था। सब शेख मुजीब और उसके अनुयाइयों
द्वारा फैलाई गयी भ्रान्तियाँ हैं।'' अमजद भाईजान अपनी ही टोन में बोले।
‘‘लीजिए चाय भी पीते जाइये।'' अच्छन की मम्मी ने वार्तालाप में हस्तक्षेप करते हुए कहा।
सभी ने अपने—अपने कप होंठों से लगा लिए।
“......दोनों एक मुस्लिम राष्ट्र के रूप में शक्तिशाली देश के रूप में विश्व में स्थान रखते, परन्तु भारत ने अपनी कूटनीति से दोनों को अलग कर अपने
शत्रु को कमजोर बना दिया है। अब देखना आगे बांग्लादेश पर भारत का
कब्जा शीघ्र ही न हो जाए तो कहना।'' अमजद बोलते रहे।
हम्माद व तौसीफ अमजद भाईजान को सुने जा रहे थे। उनके पास भाई जान की बात को काटने के लिए तमाम तथ्य थे, परन्तु वह अपने तथ्य उनके सामने प्रस्तुत करने में संकोच करते रहे जिसका एक महत्वपूर्ण कारण अमजद भाईजान का अपनी बात पर अड़े रहना था।
‘‘यहाँ मैं भाईजान! आप से कतई सहमत नहीं हूँ। काश ! महात्मा गाँधी ने खिलाफत आन्दोलन का समर्थन न किया होता, तो भारत विभाजन की नींव ही नहीं पड़ती। देखा जाए तो भारत का विभाजन ही संकीर्ण बुद्धि के लोगों की निजी उपज थी। चाहे वे जिन्ना हों या इकबाल, सभी धर्मान्धता एवं पदलोलुपता की संकीर्ण विचारधारा से बुरी तरह ग्रस्त थे। यदि थोड़ी सी सावधानी रखी जाती, जिन्ना को अखण्ड भारत का प्रधानमंत्री बन जाने दिया होता। महात्मा गाँधी की इच्छा पूरी तरह से नेहरू व पटेल समझ पाते तो
शायद भारत का विभाजन ही नहीं हुआ होता और विभाजन की त्रासदी से
लाखों लोगों को बचाया जा सकता था। बुनियादी रूप से यह विभाजन ही गलत था। अंग्रेजों की कूटनीति के हम लोग शिकार हुए हैं। अब देखना एक दिन ऐसा भी आगे आ सकता है जब भारत से अलग हुए दो बड़े टुकड़े कई टुकड़ों में बँट कर सामने आएं और रही भारत की बात, वह तो इन दोनों बड़े टुकड़ों, पश्चिमी पाकिस्तान और बांग्लादेश, को अलग मानता ही नहीं। उस देश के कर्णधारों को विश्वास था कि भारत से विभाजित भाग एक दिन पुनः अखण्ड भारत का रूप बनेंगे। यही सोचते हुए तब उन्होंने परिस्थितियोंवश विभाजन रेखा खिंच जाने दी...'. मजहर साहब बोलते रहे... ‘रही हड़पने की बात तो मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि यदि भारत पूर्वी पाकिस्तान को हड़पना चाहता तो नब्बे हजार से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों के आत्मसमर्पण के साथ ही पूर्वी पाकिस्तान यानि बांग्लादेश में अपनी सत्ता थोप सकता था... आपका विचार निर्मूल है।'' मजहर साहब ने प्याले में बची चाय पीने के बाद सभी लोगों के चेहरे की ओर देखा।
बहस और चलती परन्तु रेडियो पर राष्ट्र के नाम नव निर्वाचित राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान का संदेश प्रसारित होने से सभी का ध्यान प्रसारण की ओर हो गया।
अमजद जैसे लोग उन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपने धर्म को प्राथमिकता देते समय दूसरे धर्म की अच्छाइयों को भूल जाते हैं। भले ही उनके कारण दूसरे को कितनी ही मानसिक यंत्रणा उठानी पड़े, उनकी धार्मिक भावनाएँ आहत हो। उन्हें अपने उजाले के नीचे का अंधेरा नहीं दिखाई देता जबकि दूसरों का अंधेरा पक्ष ही उन्हें दिखाई देता है। ऐसे व्यक्तियों का वैचारिक स्तर एक सीमित दायरे में फैला होता है, जिसके ऊपर वे सोचते ही नहीं और न ही किसी की सुनते ही हैं।
जबकि मजहर साहब एक स्तर से ऊपर उठकर सोचने समझने की बौद्धिक क्षमता रखते हैं। एक सार्वभौमिक विचारों की पृठभूमि ऐसे व्यक्तित्व के स्वामियों के पास सदैव रहती है। वास्तव में सच्चे अर्थों में ऐसे व्यक्ति ही ईश्वर के साक्षात् अंश के रूप में मानव जगत में विचरण करते हुए मानवता का पाठ करते हैं। ऐसे व्यक्ति परहित को प्राथमिकता देते हैं, अपने उपभोग की उतनी ही वस्तु लेते हैं जितनी उन्हें अपने लिए आवश्यक प्रतीत होती है। रेडियो प्रसारण की समाप्ति के बाद एक बार पुनः वर्तमान परिस्थितियों
से सम्बद्ध हो वैचारिक दृष्टिकोणों का आदान—प्रदान परस्पर साले—बहनोई में होने लगा।
अन्ततः सभी की ओर से बोलते हुए मजहर साहब ने अपने ज्येष्ठ साले अमजद पर वैचारिक विजय प्राप्त की। नदी कभी समुद्र नहीं बन सकती, भले ही कितनी ही विशाल क्यों न हो उसे समुद्र की महत्ता को स्वीकारना ही होता है। ऐसा ही मजहर साहब की वैचारिक महत्ता को अमजद को अंततः स्वीकारना ही पड़ा। पूरा दिन हम्माद एवं तौसीफ को वहीं बिताना पड़ा। रात्रि में उन दोनों को जाने नहीं दिया गया। देर रात तक युद्ध, राजनीति, राष्ट्र और समाज को विषय बनाकर परस्पर वार्ता होती रही। रात्रि बैठक में दिनभर शांति का परिचय देती आइर्ं भाभी—ननद सबसे अधिक बोलीं। कई बार मजहर साहब को उनके वक्तव्यों पर प्रसन्नता के साथ दाद देनी पड़ी।
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