Ram Rachi Rakha - 6 - 6 in Hindi Moral Stories by Pratap Narayan Singh books and stories PDF | राम रचि राखा - 6 - 6

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राम रचि राखा - 6 - 6

राम रचि राखा

(6)

अभी शाम होने में लगभग घंटा-डेढ़ घंटा बाकी था। परन्तु दोपहर की बरसात ने मौसम सुहाना कर दिया था। हवा में थोड़ी शीतलता आ गयी थी।

बब्बन पांडे, सिराहू सिंह और राम आधार पांडे के अलावा गाँव के दो-एक और माननीय लोग संकठा सिंह के द्वार पर नीम के पेड़ के नीचे चारपाई पर बैठकर भूँजे का आनंद ले रहे थे। सरपत से बनी छोटी-छोटी दो-तीन टोकरियों में भुना हुआ चना और लाई रखा हुआ था। साथ में लहसुन, मिर्च और नमक की चटनी और गुड़।

संकठा सिंह गाँव के सबसे सम्पन्न लोगों में से एक थे और बहुत ही जिंदादिल आदमी थे। खाना, खिलाना, गपशप करना उनका शौक था। शाम के समय प्रायः गाँव के मित्र लोग दरवाजे पर आ जाते थे। ताजे भुने हुए दाने की सोंधी महक और स्वाद के साथ निंदा रस की भी नदियाँ बहतीं। गाँव की हर घटना पर इन लोगों की राय अपना एक महत्त्व रखती है और हर बात की यहाँ चर्चा होती है।

बात उड़ते-उड़ते यहाँ तक भी आ पहुँची थी।

"लगता है बाबूसाहब, आजकल गाँव के नक्षत्र ठीक नहीं चल रहे हैं…।" बब्बन पांडे अपने स्वर में जितना चिंता और गंभीरता ला सकते थे, लाकर एक लम्बी साँस छोड़ते हुए बोले। सभी की प्रश्नवाचक दृष्टि उन पर गड़ गयी। फिर आगे बोलना शुरू किये, "ललिता पंडित उसके सिद्ध महात्मा होने का प्रचार कर रहे हैं। हम कहते हैं कि अगर वह संत है तो अब से पहले कहाँ था, कहाँ से आया है और इस गाँव में क्यों आया है? सभी को उनके प्रश्न जायज लगे।

"हमें तो लगता है कि वह या तो पुलिस का जासूस होगा या किसी गिरोह से ताल्लुक रखता होगा। गाँव की टोह लेने आया होगा।" आम आधार पांडे न अपना मत व्यक्त किया।

"पुलिस का जासूस इस गाँव में क्या लेने आयेगा?" सिराहू सिंह ने असहमति जताते हुए रूखे स्वर में कहा।

"क्यों…हरवंश के यहाँ डकैती नहीं पड़ी थी?'

'तुम भी गजब बात करते हो, डकैती पड़े हुए छः महीने बीत गए। तीन डकैतों को पुलिस ने गिरफ्तार भी कर लिया है। अब जासूस क्या लेने आएगा?" सिराहू सिंह ने राम आधार पांडे की बात को सिरे से नकार दिया।

"तब किसी गिरोह से ही होगा" दूसरी संभावना उठ खड़ी हुयी।

'गिरोह-उरोह से कुछ नहीं, तुमने देखा है उसे…? अठारह उन्नीस साल का भोला भाला सा लड़का है। कौन सा गिरोह बनाएगा।“ सिराहू सिंह खेत पर जाते समय एक उड़ती निगाह मुन्नर पर डाल आये थे। "मेरे विचार से वह या तो घर से भागा हुआ है या कोई यतीम होगा जो यहाँ-वहाँ भटक रहा है।"

"अब राम जाने कौन है, पर जो भी है गाँव के लिए अनजान है। उससे खबरदार रहना चाहिए।" संकठा सिंह ने बात को ख़त्म सा करते हुए कहा।

तभी उधर से गुजरते हुए ललिता पंडित पर नजर पड़ी। लम्बे-लम्बे डग भरते हुए जल्दी में चले जा रहे थे।

"अरे पंडित जी, इधर तो आओ...यह हम क्या सुन रहे हैं कि कोई महात्मा पधारे हैं …" संकठा सिंह ने ललिता पंडित को आवाज दी।

“अब क्या पता की महात्मा है या बहुरुपिया है कोई।" बब्बन पांडे ने धीमे स्वर में कहा। तब तक ललिता पंडित चारपाई के पास पहुँच चुके थे। बब्बन पांडे ने थोड़ा खिसक कर ललिता पंडित को बैठने के लिए जगह दे दिया।

'नहीं पंडित जी, बहुरुपिया तो नहीं हैं..." ललिता पंडित ने एक एक शब्द पर बल देते हुए कहा, “हैं तो कोई सिद्ध महात्मा ही।"

'सुने हैं कि बहुत ही कम उम्र के हैं और रात से ही वहीं धनेसरी माई के मंदिर में पड़े हुए हैं?" राम आधार पांडे ने प्रश्न किया।

“अब साधु महात्मा की उम्र क्या होती है। लगता है बाल ब्रह्मचारी होंगे...कब आये ये तो पता नहीं...सुबह जब नदी से लौट रहा था तो लगा कि कहीं कोई रामायण बाँच रहा है। मैंने सोचा कि यहाँ नदी के किनारे रामायण कौन बाँचेगा। इधर-उधर नज़र दौडाई तो क्या देखता हूँ कि मंदिर पर कोई बैठा है। पास गया तो महराज आँखे बंद किये हुए , पद्मासन लगाए, नंगे बदन बैठे हुए थे।। साक्षात देवता की तरह लग रहे थे।रामायण की चौपाईयाँ मुहजबानी गाये जा रहे हैं…इतनी मिठास आवाज़ में कि जैसे सरस्वती का वास हो।" कहते कहत- ललिता पांडे की आँखे चमकने लगीं और वे भाव विभोर होने लगे। “... देखो, हम उनसे अभी बात ही कर रहे थे और कह ही रहे थे कि महाराज सूखे से हम तंग हो गये हैं कि अचानक बादल घिरा और बरसने लगा।"

वहाँ बैठे लोग ललिता पांडे की बात पर पूर्णतः विश्वास तो नहीं कर पाये पर पूरी तरह विरोध भी नहीं किये। पानी तो बरसा था, जो एक सत्य था और आज ही बरसा था जब मुन्नर गाँव में आये थे।

“तो आपने उनसे बात की, क्या लगा कि यहाँ रुकेंगे या चले जायेंगे…?" संकठा सिंह ने पूछा।

'वे तो सुबह ही जा रहे थे, पर मैंने उनसे चिरौरी की कि महराज कुछ दिन रुक जाइए, गाँव का भला हो जाएगा, लेकिन उन्होंने कुछ आश्वासन नहीं दिया...अच्छा मैं अभी चलता हूँ, गोसाईंपुरा तक जाना है।" वे उठ खड़े हुए, "देखो रुकते हैं कि चले जाते हैं।" कहते हुए ललिता पंडित उठ खड़े हुए।

संकठा सिंह को साधु, महात्मा लोगों में अधिक रूचि न थी और न ही ललिता पंडित की बातों पर विश्वास ही हो रहा था। वे ये भी जानते थे कि ललिता पंडित साधुओं से बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं। उनके जाने के बाद उस विषय में थोड़ी बहुत और बात हुयी। उसके बाद चकबंदी की चर्चा शुरू हो गयी।

अंतिम बात जो उस सम्बन्ध में हुयी, उसका सार यह था कि जो भी हो थोड़ा होशियार रहना चाहिए। किसी पर आँख बंद करके विश्वास नहीं कर लेना चाहिए। वैसे तो अठारह उन्नीस साल का लड़का गाँव का क्या बिगाड़ सकता है।

शाम के समय ललिता पंडित मुन्नर के लिए फिर खाना ले आये। मुन्नर दोपहर में खाना कुछ ज्यादा ही खा लिए थे। पेट भरा भरा सा लग रहा था। मना कर दिया खाने से। बस खाने के साथ जो गाय का एक गिलास दूध था उसे पी लिया। ललिता पंडित ने सोचा कि बाबा एक ही वक़्त खाते हैं।

"रात में विश्राम करने के लिए हमारे दरवाजे पर ही चले चलिए महराज!" ललिता पंडित ने आग्रह किया।

'नहीं मैं यहीं सो रहूँगा, इसी चबूतरे पर।" मुन्नर ने कहा। अचानक जो एक नयी परिस्थिति बन आई थी, उसमें मुन्नर सोच-समझ कर कदम उठाना चाहते थे। लोगों के मन में उनके प्रति सन्यासी होने का जो भ्रम बन रहा था, उसे खत्म नहीं करना चाहते थे। कम से कम सम्मान तो मिल रहा था। इतना बड़ा गाँव है, एक दो वक़्त का खाना तो मिल ही जाएगा।

"लेकिन बाबा, यहाँ तो खतरा है, रात में कोई जीव-जंतु..." उनका संकेत साँप, बिच्छुओं की ओर था।

"जो ईश्वर की इच्छा होगी, वही होगा।" उन्होंने दार्शनिक अंदाज में कहा," होइहि सोइ जो राम रचि राखा..."

ललिता पंडित लाजवाब हो गए और घर चले आये।

रास्ते में सोचते रहे- वैसे तो महात्मा हैं, उन्हें साँप-बिच्छू क्या छुएगा, दूसरे, देवी के चबूतरे पर चढ़ने की किसी जीव की हिम्मत न होगी। फिर उन्हें ख्याल आया कि आज तो बरसात के कारण मौसम थोड़ा ठीक हो गया था। लेकिन कल से दिन में बाबा कहाँ रहेंगे। मंदिर के चबूतरे पर तो पूरी धूप आती है। मंदिर के अन्दर तो इतनी जगह नहीं है कि कोई पैर फैला सके। कनेरों के नीचे छाया रहती है पर जमीन पर कैसे लेटेंगे! कोई चारपाई डाल दूँ? नहीं महात्मा लोग चारपाई पर नहीं सोते। तख्त चाहिए। पर उसे बनवाने के लिए लकडी कहाँ है? फिर ख्याल आया कि कनेरों से ज्यादा छाया पारिजात के नीचे रहती है। बहुत पुराना पेड़ है। बरगद की तरह शाखाएँ फैली हुयी हैं। क्यों न पारिजात के पेड़ के तने से सटाकर एक मिट्टी का चबूतरा बना दिया जाए। मन में बात कौंधी और जँची भी।

दूसरे दिन सुबह अपने छोटे बेटे और निराहू राजभर के साथ फावड़ा लेकर आये। एक कोने से मिट्टी खोद खोद कर चबूतरा बनाने लगे। शाम होते-होते चबूतरा बन कर तैयार हो गया। उस पर गोबर से लिपाई कर दी गयी। जजमानी में मिली एक दरी भी डाल दिए उस पर। इसके अलावा एक छोटी सी बाल्टी और लोटा भी रख दिए।

मुन्नर, सब कुछ अपने पुण्य और पापों का फल समझ कर स्वीकार कर रहे थे। दिन में पारिजात के नीचे लेटे-लेटे लू के थपेड़ों से जब चेहरा और शरीर झुलस उठता तो सोचते, "यही प्रायश्चित है मेरा।"

ऐसा नहीं था कि गाँव में केवल ललिता पंडित अकेले ही थे जो मुन्नर में एक सिद्ध महात्मा देखते थे। उनके अलावा कई दूसरे लोग भी थे जो मुन्नर का एक महात्मा की तरह सम्मान करते थे।

उस दिन बेचन महतो जब अपने दस साल के लड़के को, जो महीने भर से बीमार चल रहा था और जटाशंकर वैद्य से लेकर शिवमूरत डाक्टर तक की दवाइयों से बुखार न उतर सका, तहसील के बड़े अस्पताल में दिखाकर लौट रहे थे तो सोचा कि बाबा का भी आशीर्वाद दिला दें बच्चे को। उस दिन शाम को जब बुखार उतरा फिर उसके बाद दोबारा न आया। तीन-चार दिन में ही लड़का घूमने-फिरने लगा। बेचन महतो लोगों से कहते फिरते- “डाक्टर, वैद्य तो दवाईयाँ देते ही हैं, लेकिन फायदा करेगी या नहीं यह तो भगवान की मर्जी होती है। संत, महात्मा के आशीर्वाद में बड़ा दम होता है।"

दिन रात गृहस्थी की चक्की में पिसते हुए, समाज और संस्कारों के बोझ को काँधे पर उठाये, ताकतवर लोगों की वरिष्ठता के दंभ की ताप को सहते हुए, सुबह से शाम तक रोटी की जुगाड़ में जी तोड़ मेहनत करने वालों के लिए अंतिम आसरा तो ईश्वर ही होता है। परन्तु वह सदा ही अदृश्य होता है। ऐसे में यदि कोई जीता जागता, मनुष्य रूप में, सहारा दीखाई दे तो मन का आकृष्ट होना नितांत स्वाभाविक होता है।

शाम के समय दो चार लोग कनेरों के झुरमुट की तरफ आ ही जाते थे। चर्चा के लिए कोई रामायण का प्रसंग उठ जाता या सामान्य आध्यात्मिक बातें। प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक जीवन दर्शन होता है, जिसे वह बड़ी गंभीरता से दूसरे को सुनाना चाहता है। दिन भर की एकाकी के बाद मुन्नर का भी मन बहल जाता। जी में आता तो कुछ चौपाईयाँ गा देते। स्वर अच्छा था उनका। लोगों को उन्हें सुनना भाता था।

क्रमश..