कहानी--
गौरव
राजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव,
हालातों से मुझे इस कदर अदृश्य धागों ने जकड़ लिया कि अब किसी भी तरह उफनती हुई नदी को पार करना है; वगैर नाव व बिना संसाधन के। यद्यपि आँखें बन्द हैं फिर भी नदी की लहरें मचलती, उठती-गिरती मरोड़ खाती व भँवर बनाती दिखाई दे रही हैं। जैसे ही आगे कदम बढ़ाया, ऐसा लगा पल भर कि, नदी की चंचल लहरों ने मुझे अपने आगोश में लपेट लिया हो, तुरन्त आँखें खुली और मैंने अपने आपको धड़-धड़ दौड़ती ट्रेन की सीट पर पाया।
खिड़की से झॉंक कर देखा अंधेरा-घुप्प! कड़ाके की ठण्डी हवा का झौंका कंपकंपा गया।
हर रोज की तरह स्टेशन पर ट्रेन रूकते ही प्लेटफार्म पर कूद पड़ा। जैसे घर पहुँचकर पूड़ी पकवान परोसे कोई इन्तजार कर रहा हो। दोनों हाथ विपरीत कॉंख में दबाकर शी-शी करता हुआ स्टेशन के बाहर आ गया।
बाहर ठण्डी हवा ने अपना आक्रमण और तेज कर दिया। चलता रहा-चलता रहा ठण्डी हवा की सांस लेता और गरम हवा छोड़ता हुआ आबादी, झोंपड़ पट्टी में प्रवेश करते ही कुत्तों ने भौंकना शुरू कर दिया, सोये नहीं अभी; इतनी ठण्ड में उन्हें भी नींद कहॉं! शायद मुझे पहचान गये तुरन्त चुप होकर पुन:-सोने के प्रयास में कुनमुनाने लगे।
ठण्ड ने भी कसम खा ली थी कि आज अपना पूरा असर दिखाना है। बर्फीली हवा के लिये सिर्फ मैं एक मात्र शिकार हॅूं। सांय-सांय करके मुझे लिपट जाती है। एक-एक हड्डी चरमरा जाती है। वातावरण में गहरा सन्नाटा है, शीघ्र-अति-शीघ्र घर पहुँचने के जोश में अपने आप ही मुँह से कोई गाने का मुखड़ा फूट पड़ता है.......’’ओ पिंजरे के पंछी रे......तेरा दर्द ना जाने.....कोय.....’’
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घर पहुँचा सब गहरी नींद में सो चुके थे। ना चाहते हुये भी जगाना तो पड़ेगा ही,
चिड़चिड़ायें तो भी! कुण्डी खड़खड़ायी---
‘’कुट्ट....कुट्ट....’’
‘’कौन है!’’ पिताजी चिल्लाये।
‘’मैं हूँ....’’ बस इतना ही बोल पाया।
‘’मैं कौन नाम नहीं है। आधी रात को ठण्ड में जगाता है।‘’ झिड़क दिया।
हालांकि पिताजी मेरी आवाज अच्छी तरह पहचान गये थे, फिर भी अपनी खुन्नस निकाल रहे थे। झल्लाकर दरवाजा खोला और झट से कई कपड़ों गुदड़ी वगैरह में दुबक गये।
ठण्ड में हाथ पॉंव सेंकने हेतु पिताजी गुरसी सिगड़ी जला कर छोड़ देते थे, सम्भवत: मेरे हाथ पैर सेंकने के लिये ही। ऊपर की जमीं राख की परत हटाकर मैंने ऑंच का आनन्द उठाया। तब तक शायद मेरी पत्नी भी जाग गई थी। वह मेरे लिये कुछ बचे-खुचे खाने का इन्तजाम करने लगी। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसे तो मेरा इन्तजार था ही सही।
भूख तो लग रही थी पेट में चूहे धमा-चौकड़ी मचा रहे थे. परन्तु में चाह रहा था कि कपड़े उतार कर धो डालूँ सबेरे तक सूख ही जायेंगे, ताकि सबेरे-सबेरे साफ सुथरे कपड़े पहन कर कॉलेज जा सकूँ....और दूसरे ढंग के कपड़े भी तो नहीं हैं।
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· बगैर विरोध के लोगों को अपनी मर्जी मुताबिक सेवाऍं देकर, हर व्यक्ति के आगे
नतमस्तक होकर, उनके शोषण को शिरोधार्य करके मैं अपने-आप में भटक कर रह गया।
परीक्षा का परिणाम किसी भी विषय में संतोषजनक नहीं आया, तो मैं तिलमिला उठा। आत्मा चीत्कार कर उठी, जिस ध्येय को प्राप्त करने के लिये मैंने इच्छा-अनिच्छा से लोगों की दासतां स्वीकार की वह पूरी तरह से निष्फल हो गई। बल्कि उनको मेरे सिर पर सवार होकर ताण्डव करने का अवसर मिला हरदम मैं ऑंखें बन्द करके कोल्हू के बैल की तरह जुता रहा।
अगर मेरा परीक्षा परिणाम मेरे अनुकूल आ जाता तो मुझे खुशी होती कि चलो कोई बात नहीं सभी कार-गुजारियों के साथ अपनी पढ़ाई-लिखाई तो ठीक चल ही रही है।
मगर अब मुझे अपने जमीर ने ही झकझोर कर रख दिया कि अब मैं; इनकी सेवा में ही लगा रहूँ या अपने निर्धारित टॉरगेट की और अग्रसर होऊँ।
हथकण्डे, पैंतरेबाजी और तिकड़म करके मुझे अपने स्वार्थ में उलझाये रखने में तनिक भी उन्हें आत्मग्लानि मेहसूस नहीं हुई कि उसकी पढ़ाई-लिखाई का हर्जाना होगा, उसे डिस्टर्व ना करें; और बल्कि प्रोत्साहन दें ताकि उच्च शिक्षा प्राप्त करके; अच्छी नौकरी पा जायें। ताकि हमारी मुश्किलें दूर हों। हमें भी वक्त–बेवक्त सहयोग/सहारा देने लायक हो। अगर हम अभी से सारी नर्म पत्तियॉं नोंच डालेंगें तो पौधा वृक्ष कैसे बनेगा। फल-फूल, और शाँतिदायक छाया व आसरा कैसे मिलेगा। मगर निर्दयतापूर्वक गला दबा कर निचोड़-निचोड़ कर एक-एक बूँद खून की चूस रहे हैं। पिशाच कहीं के!!!
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· एक अनअपेक्षित घटना ने मुझे सारे पात्रों/किरदारों के बारे में गहराई से विस्तारपूर्वक हर दृष्टिकोण से एक-एक कर अर्न्तनिहित स्वार्थों को वर्तमान एवं भविष्य के होने वाले प्रभावों के बारे में अभी से निर्धारण करना आवश्यक लगने लगा।
रिश्तों की बा़द्यता के आधार पर परखना, सोचना, विचारना, मंथन करना एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी लगने लगा। सबसे पहले मैंने उन रिश्तों पर गौर किया, जो मेरे बाल्यकाल से चले आ रहे थे और आगे भी मैं उन्हें नकार नहीं सकूँगा जी हॉं, खून के रिश्ते, जो अपने आत्मविश्वास से इतने ओत-प्रोत थे को चाहे कुछ भी हो जाये, अपने ढर्रे से टस से मस नहीं होंगे। और हुआ भी यही एक लम्बे समय तक ये अपने मकसद में कामयाब भी होते गये। मैं सब कुछ जान समझ कर भी कोई हस्तक्षेप नहीं कर पाया। ढील पाकर उनके मनसूबे और पुख्ता होते चले गये। धीरे-धीरे जटिल वट वृक्षों की जड़ों की तरह। उलझ-पुलझ कर जंगल की तरह सामने खड़े हो गये।
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‘’और कितना काम करेगा?’’
यह प्रश्न !!! यह तो मेरे अवचेतन मन में अनेकों बार उठा है। एक तूफान की तरह, लेकिन मैं हमेशा इसे शॉंत करने की वजह टालता रहा। परन्तु आज शब्दार्थों के रूप में शीशी से निकले जिन्न की तरह मेरे सामने खड़ा कर दिया गया। वह भी ऐसे पात्र के द्वारा, जो सम्भवत: मुझे-मुझसे ज्यादा-जानता पहचानता है।
‘’तो बता? कैसे सारे कार्य-कलापों का ताल-मेल बैठा पायेगा? डेढ़ हड्डी का ढॉंचा!’’ राज के स्वर में हास्य व्यंग का पुट था।
........वाक्यी मैं निरूत्तर हो गया था। मेरे सामने कई प्रकार के क्षेत्र थे, जिनमें मुझे समुचित समय, सूझ-बूझ का सफल परिचय देना आवश्यक था।
परिवार की विपन्नता तो किसी से छुपी नहीं थी। पिताजी के सर पर तो दुनियॉं का सबसे बड़ा दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा था। भरी जवानी में उनका कमाऊ पूत असहाय बीमारी का शिकार होकर स्वर्ग सिधार गया। उसके बीवी बच्चे विलाप करते आँखों के सामने विलखने को मजबूर थे। विषम हालातों के वशीभूत होकर पिताजी के साथ परम्परागत धन्धे में संलग्न होना पड़ा। वह भी इतना श्रमसाध्य कि उसे करने के बाद और कुछ करने हेतु ऊर्जा ही नहीं बचती। थककर इतना चूर हो जाता कि अन्य कामों का साहस ही नहीं कर पाता। तो भी खाने के लाले पड़े रहते अच्छा भरा-पूरा परिवार था। हालांकि सब अपने-अपने तरीके से सहयोग करने की कोशिश करते; मगर आर्थिक जर्जर स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हो पाता। निरन्तर आवक होती तो भी ठीक था; मगर कई-कई दिन तक वगैर आमदानी के खर्च तो रूकता नहीं।
इसी दौरान मैं अपनी अन्य जिम्मेदारियों में अपना समय लगाता जैसे कोर्स की किताबें पढ़ता। परीक्षा की तैयारी करता। अपनी पत्नी को समय देता। सामाजिक कार्यों में भी कभी-कभी संलग्न होता। तथा दोस्तों में भी समय गुजारता बस; इसी तरह अनेकों विसंगतियों को पार करता हुआ जीवन आगे बढ़ता गया। और मैं अपनी क्षमता से अधिक कार्य करने का आदि होता गया। जीवटता लगातार मजबूत होती चली गई। इसके बावजूद भी मुझे अपेक्षित परिणाम नहीं मिल रहे थे। इसलिये मैं काफी निराश रहने लगा एवं आत्मविश्वास डगमगाने लगा। ऐसे उदासीन दौर में ‘’राज’’ ने अपनी आत्मीय कार्यशैली से मुझे बिलखने से बचाया। घण्टों-घण्टों मुझे अपने आन्तरिक गुणों के बारे में बता-बता कर, अनेकों दिव्यदृश्य भविष्य के दिखा-दिखा कर वह मुझे भँवर में विलुप्त होने से बचाता रहा। और मैं नवशक्ति मेहसूस करके फिर उठ खड़ा होता, एवं चल पड़ता लक्ष्य की और।
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अभी मेरा कोर्स बचा ही था तथा कुछ पिछला कैरेडओव्हर या कि परिवार में एक बवाल खड़ा हो गया। वैसे बवाल तो अनेकों बार उठे हैं, लेकिन यह निर्णायक साबित हुआ।
‘’तू तो पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बन जायेगा, मगर मेरा दूसरा बेटा?’’ शुरूआत पिताजी ने ही की, ‘’वह तो मजदूर के मजदूर ही रह जायेगा’’ बहुत ही अक्रमक रूप में पिताजी को देखा, ‘’जिन्दगी भर तेरा मुँह ताकता रहेगा?’’
सारा वातावरण सुन्न हो गया। किसी को समझ नहीं आया, किसी को नहीं! मगर पिताजी सन्नाटा चीरते हुये बोलते ही गये, ‘’इसका भी कुछ इन्तजाम कर नहीं तो; अपने पुस्तैनी काम को सम्हाल।‘’
मुझे पूरा वातावरण बहुत ही जहरीला, दम घोंटू एवं स्वार्थपूर्ण हथकण्डों से लैस लगा।
मुझे ऐसा लगा जैसे मुझे खींचकर दलदल में फेंका जा रहा है। मेरे पास उनकी थोपी हुई अप्रत्याशित मॉंगों को स्वीकार कर लेने के सिवा; कोई दूसरा रास्ता ना था।
‘’ठीक है!’’ मैंने ना चाहते हुये भी उनके विचारों की तारीफ की, ‘’अच्छा ही रहेगा। भाई एक समान खड़े होकर समाज में आपका नाम रोशन करेंगे।‘’
पिताजी के चेहरे पर गौरव स्पष्ट दिखाई दे रहा था।
♥♥♥ इति ♥♥♥
संक्षिप्त परिचय
नाम:- राजेन्द्र कुमार श्रीवास्तव,
जन्म:- 04 नवम्बर 1957
शिक्षा:- स्नातक ।
साहित्य यात्रा:- पठन, पाठन व लेखन निरन्तर जारी है। अखिल भारातीय पत्र-
पत्रिकाओं में कहानी व कविता यदा-कदा स्थान पाती रही हैं। एवं चर्चित
भी हुयी हैं। भिलाई प्रकाशन, भिलाई से एक कविता संग्रह कोंपल, प्रकाशित हो
चुका है। एवं एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है।
सम्मान:- विगत एक दशक से हिन्दी–भवन भोपाल के दिशा-निर्देश में प्रतिवर्ष जिला स्तरीय कार्यक्रम हिन्दी प्रचार-प्रसार एवं समृद्धि के लिये किये गये आयोजनों से प्रभावित होकर, मध्य-प्रदेश की महामहीम, राज्यपाल द्वारा भोपाल में सम्मानित किया है।
भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर उ.प्र. में संस्थान के महासचिव माननीय डॉ. श्री राष्ट्रबन्धु जी (सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार) द्वारा गरिमामय कार्यक्रम में सम्मानित करके प्रोत्साहित किया। तथा स्थानीय अखिल भारतीय साहित्यविद् समीतियों द्वारा सम्मानित किया गया।
सम्प्रति :- म.प्र.पुलिस से सेवानिवृत होकर स्वतंत्र लेखन।
सम्पर्क:-- 145-शांति विहार कॉलोनी, हाउसिंग बोर्ड के पास, भोपाल रोड, जिला-सीहोर, (म.प्र.) पिन-466001,
व्हाट्सएप्प नम्बर:- 9893164140] मो. नं.— 8839407071.
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