लंका में राजकुमार अंगद
अंगद की जब सात साल की उम्र थी, तबसे पिता बाली की कई बातें अच्छी तरह से याद हैं। जैसे उनका अपनी राजधानी से बेहद प्यार करना। जैसे उनका एक निश्चिंत आदमी होना। जैसे कि उनका दिन से खानाबदोशों की तरह से सैलानी होना। हर बरस ही साल में दो बार यानी कि एक बार तब जब गरमी का मौसम आता, और दूसरी बार तब जब बरसात का मौसम जाता, वे अपने परिवार के साथ अपनी राजधानी पंपापुर छोड़कर दूर के हरे-भरे पहाड़ों, नदियों-तालाबों की तरफ घूमने चले जाते। कुछ दिन वहीं रहते। अपने पीछे सुरक्षा के लिए पंपापुर राजधानी में अपने भाई सुग्रीव के साथ उनका परिवार और राजदरबार के कुछ खास-खास आदमी छोड़ जाते। साल भर तक रोज-रोज महल में घिरी रहने वाली महारानी तारा ऐसे सैर करने में बहुत खुश होती। बच्चे भी खुशी से फूले न समाते। खास तौर पर अंगद की खुशी का पारावार न रहता। ऐसी बाहरी यात्राओं में बाली से जुड़े दूसरे कुछ खास लोग भी उनके साथ निकलते। बाहर पहुंच कर वे भी बहुत खुश होते।
इस तरह पखवारे भर वे लोग नई जगहों पर टहलते। वहां रूकते। नयी तरह का भोजन चखते। नये तरह के कपड़े देखते। अच्छे लगते तो देश-विदेश में पहने जाने वाले कपड़े पहनते। ज्यादा अच्छे लगते तो घर आते वक्त ऐसे कपड़े खरीद कर ले आते। इस तरह अंगद ने बचपन में कई नई जगह घूम ली थीं और उनकी माँ ने जाने क्या-क्या बोलना, पहनना, पकाना, खाना और खिलाना सीख भी लिया था। अपने आस-पास की महिलाओं में वे बहुत जानकार महिला की तरह मानी जाती थीं। बाली अपने परिवार का खास ध्यान रखते थे।
जामवंत कहते हैं कि बाहर घूमने का शौक बाली को तबसे था जब उनका विवाह नहीं हुआ था। बाद में विवाह हुआ तो वे महारानी तारा के साथ घूमने जाने लगे। लम्बा समय बीता और तारा ने किसी बच्चे को जन्म नहीं दिया तो महाराज बाली को कोई चिन्ता नहीं हुई। ऐसी ही एक यात्रा से वे लौटे तो पंपापुर के लोगों ने देखा कि महारानी तारा की गोदी में एक नन्हा सा शिशु है जिसे वे लोग अंगद कह रहे हैं। जामवंत जी बताते हैं कि हू ब हू बाली तरह गोरा, स्वस्थ्य और सुंदर बालक को देख कर पंपापुर का कोई नागरिक कहता कि देवताओं के वरदान से तारा को यह बेटा प्राप्त हुआ है, तो कोई कहता कि अंगद धरती का बेटा है, कोई कहता कि अंगद दुनिया के सबसे बड़े कारीगर मय दानव की दूसरी बेटी मंदोदरी का बेटा है।
बचपन से तारा अंगद को बताया करती हैं कि महारानी मंदोदरी जो लंका के राजा रावण की पत्नी है, वह अंगद की मौसी है। मौसी यानी मां की बहन। मंदोदरी रिश्तें में हैं मां की बहन, लेकिन वे अंगद से इतना प्रेम करती हैं कि खुद तारा भी नहीं करतीं। इसलिए अंगद को मां हमेशा हिदायत देतीं कि अंगद अकेले कभी भी लंका न जायें, अगर जायें तो मंदोदरी के सामने न जायें, अन्यथा उनका अपनी मां के पास लौटना मुश्किल होगा। वैसे भी पंपापुर के लोग मौसी को मासी भी कहते- यानी माँ सी, माँ जैसी। अंगद थोड़ा बड़े हुए तो बाली ने उन्हे एक ऐसी अनूठी कला सिखाई जो दुनिया में किसी के पास न थी। कला यह थी कि अंगद एक बार जिस चीज पर अपना पाँंव जमा देते वह चीज उनके पाँंव से चिपक कर रह जाती, कोई्र कितनी भी बड़ी ताकत लगा लेता अंगद के पाँंव से वह चीज न छूट पाती । छूटती तब जब अंगद चाहते। अंगद जानते थे कि उनके पाँंव के तलवे में नन्ही सी कटोरियों की तरह छोटे-छोटे कई छेद थे, जिनको वे जमीन पर पाँंव रखते वक्त हवा से खाली कर लेते, फिर उनका पाँंव का छुड़ाना किसी भी ताकतवर के लिए संभव न था। बाद में जब पाँंव छुड़ाना होता, अंगद खुद धीमे-धीमे एक-एक छेद को खास तरकीब से छुटाते।
पिता के साथ अंगद ने पंपापुर से लंका के पास तक का समुद्र घूम डाला था। हिमालय के पर्वत देख डाले थे। खांडव वन यानी घने जंगल का वह हिस्सा घूम लिया था जहां खर,दूशन और त्रिसिरा नाम के तीन भार्इ्र खुदको रावण के राज्य का प्रतिनिधि मान कर आसपास के इलाके में आतंक फैलाया करते थे।
बाली पक्के घुमक्कड़ थे। एक घुमक्कड़ और सैलानी राजा। जिन्हे हर वक्त बिना सेना के अकेले या गिनेचुने लोगों के साथ दुनिया की सैर करना अच्छा लगता।
आज जब अंगद बड़े हो गये हैं, तब उन्होंनेबुजुर्ग मंत्री जामवंत की बातों से जाना कि बाली की कई आदतें राजा की नजर से ठीक न थीं।
एक गृहस्थ आदमी के लिए महीना-पन्द्रह दिन के लिए राज्य से बाहर चले जाना अलग था, लेकिन राजा के लिहाज से अलग।
किसी राजा का इस तरह पन्द्रह दिन और महीने भर के लिए राजधानी छोड़ जाना राजनीति की नजर से गलत था। असुरक्षित राज्य पर सबकी नजर रहती हैं। सचमुच इस तरह की यात्राओं से लौटने पर हर साल कोई न कोई संकट झेलना पड़ता उन्हंे।
जामवंत जी के अनुसार बाली केवल पिता न थे। सिर्फ पति न थे। एक राजा भी थे। वे राजा बाली थे।
राजा बाली ने देह छोड़ दी।
राम ने तारा को समझाया कि बाली एक महान योद्धा थे, उन्हे लड़ाई का बहुत शौक था। उन्हे तो किसी युद्ध में ही वीर गति पाना थी। इसलिए जो हुआ उसका उन्हे खेद है। अब वे पूरे निडर होकर रहें। अंगद आज से उनका बेटा है, उसकी चिन्ता न करें।
फिर राम ने सुग्रीव को पूरे राजकीय सम्मान के साथ बाली का अंतिम संस्कार करने का आदेश दिया और वापस ऋश्यमूक पर्वत चले आये।
लक्ष्मण ने स्वयं जाकर सुग्रीव को किष्किन्धा राज्य का राजा बना कर राजतिलक किया और अंगद को युवराज बनाया। लोग श्रीराम की बुद्धिमानी पर खुश थे कि कहीं ऐसा न हो कि बाली के बेटे और पत्नी को दुश्मन मान कर सुग्रीव उनके साथ गलत बर्ताव करे सो उन्होंनेअंगद को राजा के बराबर का सम्मान और हक दे दिया।
सुबह सबेरे राम के साथ सुग्रीव , जामवंत, द्विविद, हनुमान आदि योद्धा बैठे और विचार करने लगे कि सीता को खोजने के लिए किस दिशा में दल भेजा जाये।
जामवंत ने बताया कि चारों दिशाओं में दल भेजे जाने चाहिए लेकिन सबसे बड़ा दल दक्षिण दिशा को भेजा जाये। क्योंकि उस दिन वह कालाकलूटा सा आदमी दक्षिण दिशा को ही अपना रथ लेकर गया था।
यही सहमति बनी। जामवंत को दल का मुखिया बना कर दक्षिण दिशा में जो दल भेजा गया उसमें हनुमान, अंगद, नल,नील, द्विविद,मयंद, विकटास आदि वीर शामिल थे।
लगभग पूरा दल राम को प्रणाम करके निकल गया तो आखिर में अंगद और हनुमान खड़े रह गये। राम ने अंगदसे कहा ‘‘ अंगद, तुम अभी छोटे हो। इस यात्रा में जाने कितने कश्ट होंगे, जाने कैसे लोगों से पाला पड़ेगा। सो तुम मत जाओ।’’
अंगद ने लाड़ भरे स्वर में कहा ‘‘ आप मेरे पिता के समान में है प्रभु। अगर इस उम्र से मैं संकट और अन्जान परिस्थितियों से निपटना नहीं सीखूंगा तो कब सीखूंगा। आप चिन्ता मत करिये मेरे साथ हनुमानजी और गुरूदेव जामवंत जी भी जा रहे हैं न। उनके साथ मैं बहुत सुरक्षित और निश्चिंत हूं।’’
राम जानते थे कि संसार में तीन हठ प्रसिद्ध है - बाल हठ, राज हठ और त्रिया हठ। अंगद की यह हठ बालहठ है जो संभलना मुश्किल है, फिर युवराज होने के कारण इसमें राज हठ भी सम्मिलित है। वे लक्ष्मण की हठ के कई बार शिकार हो चुके थे। इस कारण उन्होंनेअंगद को ज्यादा नहीं समझाया, हंस करसहमति देदी। हां हनुमान को संकेत करके अपने पास बुलाया।
हनुमान पास आये और चुपचाप खड़े हो गये।
राम ने उनसे कहा ‘‘ हनुमान तुम भी साथ जा रहे हो।अंगद का ख्याल करना, वह अभी बच्चा है। उसे हठ मत करने देना। किसी आपत्ति में न पड़ जाये वह।
हनुमान से लंका की खबरें सुन कर श्रीराम ने सुग्रीव से पूछा ‘‘क्या करें मित्रवर ?’
सुग्रीव बोले ‘‘हमको लंका की सेना की सारी खबरें और वहां की भौगोलिक जानकारी मिल गई है, अब देर का क्या काम ? हमे तुरंत चल देना चाहिए।’’
जामवंत बोले ‘‘ प्रभो, हम अब कुछ गुपतचर लंका में भेज रहे है जिनके द्वारा आगे से हमे लंका की पल पल की जानकारी मिलती रहेगी, इस कारण हम किसी भी तरह से उनसे कमजोर नहीं पड़ेंगे। आप संकोच न करें हमसब चलने के लिए तैयार हैं।’’
फिर क्या था, बात की बात में सब लोग लम्बी यात्रा के लिए सजने लगे।
अगले दिन सुबह श्रीराम और लक्ष्मण ने अपने सारे मित्रों के साथ लंका के लिए अपनी यात्रा शुरू की।
राम ने दुबारा विभीशण से पूछना चाहा तो जामवंत बोले ‘‘ प्रभू हमारी सेना बहुत बड़ी है। इसके द्वारा तैर कर समुद्र पार करना या नावों से पार कराना बहुत कठिन होगा। इसलिए नल और नील नाम के हमारे दो बानर चाहते हैं कि उनकी बात सुन ली जाय।’’
राम ने अनुमति दी तो नल और नील को बुलाया गया। नल ने बताया कि इस पूरे समुद्र तट के किनारे ऐसे पत्थर मिलते है जिनमें वजन नहीं है, इन्हे समुद्र में तैराकर कर आपस में बांध दिया जाये तो नाव की तरह का एक लम्बा पुल बन सकता है।
सबको यह सुझाव अटपटा लगा रहा था कि समुद्र पर तैरता हुआ इतना बड़ा पुल भला कभी बन भी सकता है।
सबको लगा कि यह सुझाव ठीक है लेकिन एक आशंका थी कि इतना बड़ा पुल बनने में बहुत समय लग जायेगा। नल और नील ने कहा कि अपने कुछ साथियों को यह काम सिखा देंगे, फिर पूरी सेना पत्थर ला-लाकर समुद्र में डालती जायगी और इस तरह जल्दी ही पुल बन जायगा।
काफी सोच विचार के बाद राम ने सहमति दी तो नल और नील ने काम शुरू कर दिया। सेना के सारे सैनिक जुट गये। नल नील ने दधिमुख, केहरि, निसठ और सठ नाम के अपने दोस्तों का भी यह काम सिखा दिया तो काम ने तेजी पकड़ ली और जामवंत ने ऐसी व्यवस्था कर दी कि पूरी सेना को तीन भागों में बांट दिया। हर छै सात घण्टे बाद एक भाग के लोग काम में लुट जाते और इस तरह से रातोे-दिन काम चलने लगा।
हर आदमी के मन में उत्साह था, सबको उत्सुकता थी कि कैसे पुल बनेगा और दउस पर इतनी बड़ी सेना कैसे जा पायेगी। इसलिए जितना हिस्सा बन जाता उस पर सेना की एक टुकड़ी धम्म-धम्म करके चलती और उसकी मजबूती को ढंग से परखती। पुल सचमुच खूब मजबूत बन रहा था। सबको नील और नल की शिल्प कला पर हैरानी होती।
लग रहा था कि महीनों में जाकर यह काम पूरा होगा लेकिन सात दिन में ही सारा काम निपट गया।
फिर जब पूरे पुल की मजबूती देखली गयी तो श्रीराम से पुल पर चलने की प्रार्थना की गई । राम-लक्ष्मण के साथ पहले उनके सचिव और मित्र पुल पर से निकले इसके बाद में सेना ने निकलना शुरू किया ।
सारी सेना सुबह से दोपहर तक समुद्र के पार हो गई।
राम दल में चर्चा चल रही थी कि आगे की रणनीति क्या बनाई जाय?
कोई कहता कि अब देर करना उचित नहीं, सीधे हमला कर देना चाहिये। किसी का कहना था कि एक खबर भेजकर रावण को युद्ध का आमंत्रण दिया जाय। कोई सलाह देता था कि हमारी सेना की मौजूदगी की खबर से बौखला कर रावण खुद हम पर हमला करेगा, इसलिए धीरज से उसके आगे बढ़नेकी उम्मीद की जाय।
जामवंत ने कहा ‘‘ प्रभू, कूटनीति और राजनीति की नजर से मेरा एक विचार है कि क्यों न हम एक बार एक दूत भेज कर अपना संदेश भेजें कि वह चुपचाप सीताजी को हमारे हवाले कर दे और आपकी अधीनता स्वीकार कर ले। युद्ध में बहुतसे लोग मारे जायेंगे, जाने कितने घायल हों्रगे। हमारा दूत जाकर कहे कि रावण लड़ाई का विचार त्याग कर शांति की बात करे।’’
राम को यह विचार अच्छा लगा। वे बोले ‘‘ आप ही बताओ कि किसको दूत बना कर भेजा जाये ?’’
‘‘ मेरा विचार है कि बाली पुत्र अंगद को अपना दूत बना कर भेजा जाय। एक तो ये बाली के लड़क हैं जनसे रावण युद्ध में हार गया था, दूसरे एक राजकुमार का दूत बन कर जाना रावण के लिए भी सम्मान की बात होगी।’’
सको विचार अच्छा लगा तो राम ने अंगद को बुलाया और कहा ‘‘ अंगद, तुम्हारी बुद्धि और बल पर मुझे पूरा विश्वास है। तुम दूत बन कर लंका जाओ। रावण से तुम वही बात करना जिससे हमारा काम हो जाये और उसका भला हो।’’
अंगद ने राम के चरणों में सिर झुका कर आशीर्वाद लिया और अपनी गदा को संभालते हुए लंका के किले की ओर चल पड़े।
दूर से ही अंगद को भी लंका का किला बड़ा सुन्दर और मजबूत दिखा। खूब बड़ा प्रवेशद्वार इस समय खुला हुआ था।
प्रवेशद्वार से अन्दर जाते ही अंगद ठिठक गये, क्योंकि एक कड़कती आवाज ने उन्हे टोक दिया था ‘‘ तू कौन है रे बानर ? बिना अनुमति लंका नगर में कैसा धंसा चला आ रहा है?’’
अंगद ने मुड़ कर देखा । उन्ही की उम्र का एक युवक उन्हे टोक रहा था। अंगद ने शांति से जवाब दिया ‘‘ मैं किष्किन्धा का राजकुमार अंगदहूं । आप कौन हैं भाई ?’’
‘‘ अरे तू भी बानर हुआ न । आदिवासी बिरादरी का है न। मै लंकाधिपति महाराज रावण का पुत्र हूं। तू मेरी अनुमति के बिना कहां घुसा चला आ रहा है?’’
‘‘ अरे भाई, मैं महाराज रावण के ही दरबार में जा रहा हूं। मुझे उनके पास जाने का रास्ता बताइये।’’
‘‘ अरे बनरवा, तू बड़ा होशियार बन रहा है, तुझ जैसे बच्चे से तो महाराज लंकेश बात भी नहीं करेंगे । जा वापस लौट जा।’’
अंगद को गुस्सा आ गया बोले ‘‘वापस क्यों लौटूं? मैं राजदरबार तक जरूर जाऊंगा।’’
‘‘ तो तो अपनी जगह से एक अंगुल भी नही हिल पायेगा ।’’
वह युवक अपनी तलवार उठाकर अंगद की ओर झपटा तो अंगद भी सावधान हो गये, उन्होंनेअपनी गदा पर उस युवक का वार झेला और पूरी ताकत लगा कर उसे पीछे धकेलदिया और जब तक वह धक्का खाकर संभले तब तक तांे अंगद ने अपनी गदा का एक जबरदस्त प्रहार उसकी खोपड़ी में कर दिया।
उस राजकुमार में तो दम ही नही ंनिकला। गदा की चोट पड़ी तो उसका सिर तरबूज की तरह फट गया और वह जमीन पर गिर कर तड़पने लगा।
आसपास जमे लोग वहां से इधर-उधर भाग निकले। अंगद गलियारे में आगे बढ़े।
फिर तो लोग उन्हे बिना पूछे ही रावण के दरबार का रास्ता बताते गये और वे दरबार के प्रवेशद्वार तक जा पहुंचे।
बाहर प्रहरी ने रोका तो उन्होंनेप्रहरी के मार्फत अपना परिचय भेज कर मिलने की अनुमति मांगी।
उन्हे तुरंत ही अनुमति मिल गयी। अंगद भीतर पहुंचे।
देखा , एक बहुत ऊंचे सिंहासन पर रावण बैठा है और उसके सारे दरबारी बहुत नीचे अपनी अपनी जगह पर बैठे एक नर्तकी का नृत्य देखरहे हैं।
अंगद को देख कर किसी ने संकेत किया तो नर्तकी ने तुरंत अपना नृत्य बंद किया और अपने साजिन्दों के साथ बाहर चली गई।
अंगद सीधे रावण के सामने जा पहुंचे और उन्हे प्रणाम किया।
रावण ने अभिमान के साथ अंगद के प्रणाम का जवाब दिया और ऐंठ भरे स्वर में पूछा ‘‘हे बानर , तू कौन है?’’
‘‘ हे दसकंधर, मैं रघवीर श्रीराम का दूत हूं।’’अंगद ने उसी स्वर में जवाब दिया।
‘‘ तू मेरे दरबार में क्यों हाजिर हुआ?’’
‘‘ लंकेश, आप मेरे पिता किष्किन्धा नरेश महाराज बाली के मित्र रहे हो इसलिए मैं आपको भले के लिए यहां आया हूं। मैं यह संदेश लाया हूं कि आप चुपचाप ही रघुवीर की पत्नी सीता को उनके पास सोंप दो और उनकी अधीनता स्वीकार कर लो। आपको अब तक हुई गलतियां श्रीराम माफ करदेंगे।’’
अंगद ने अनुभव किया कि महाराज बाली का नाम सुन कर रावण हड़बड़ा गया और बोला ‘‘ अच्छा तुम उस बाली की बात कर रहे हो पहाड़ों में रहता था। हां, मैं उसे जानता था। वह मेरा दोस्त कभी नहीं रहा।’’
‘‘ आप तो संभवतः सहस्रार्जुन को भी नहीं जानते होंगे, जिन्होेने आपको देख कर अपने बच्चों के मनोरंजन के लिए अपने महल में ले जाकर आपको रख लिया था। बाद में आपके दादाजी पुलस्त्य मुनि ने आपको उनकी कैद से छुड़ाया था।’’
‘‘ तुम आयु में तो बहुत छोटे हो, लेकिन बातें बहुत बड़ी-बड़ी करते हो बानर।’’
‘‘ बड़ी बातें करने की तो आपके परिवार की आदत है लंकेश। मुझे हनुमान जी ने बतायाथा।’’
‘‘ अरे तुम उसे बानर की बात कररहे हो जिसने हमारे महल के कुछ कपड़े-लत्ते जला दिये थे।’’
‘‘ हां लंकेश उस अकेले बानर ने तुम्हारी नगरी में त्राहि-त्राहि मचा दी थी। उन्ही ने तुम्हारे सारे अन्न भण्डार खत्म कर दिये थे। इसीलिए तुम्हारे यहां इन दिनों खाने-पीने की भुखमरी फैल गई है।’’
‘‘ फालतू की बात मत करो अंगद। तुम तो अपने मालिक को जाकर बोलना कि हम ताल ठोंक कर उनसे लड़ने के लिए तैयार हैं। वे अब बातें न करें। अगर हिम्मत हैं तो आकर लड़ें नहीं तो हम उन्हें उठा कर अयोध्या के लिए फेंक देंगे।’’
अंगद ने इतना सुना तो वे एकदम गुस्सा हो उठे। उन्हे याद आया कि बचपन से ही उनको पिता ने वह कला सिखाई है जिसमें जमीन पर मजबूती से पांव जमाकर खड़े होने के बाद कोई कितनी भी ताकत लगा दे उनका पांव नहीं उठा सकता।
अंगद बोले ‘‘ मेरे प्रभु को उठा कर फेंक देना तो बहुत बड़ी बात है लंकेश। मैं चुनौती देता हूं कि आपके पूरे दरबार में से कोई योद्धा मेरा पांव उठा कर बतादे । मैं वायदा करता हूं कि हम लोग बिना लड़े ही आपसे यह युद्ध हारा हुआ मान लेंगे।
अंगद ने अपना पांव जमीन पर ठोंक कर जमा दिया । वे इंतजार करने लगे कि कोई उनका पांव उठा कर दिखाये।
एक एक कर कई योद्धा उठे लेकिन ताज्जुब था कि अंगद का पांव नहीं उठ रहा था। अंत में रावण खुद उठने लगा तो अंगद ने फटाक से अपना पांव हटा लिया और बोले ‘‘ आप तो मेरे पिता जैसे हैं आपसे मैं अपना पांव नहीं छुआना चाहता।’’
फिर अंगद को लगा कि रावण ने अपना अंतिम जवाब सुना दिया है, अब यहां कोई काम की बात नहीं हो सकती इसलिये यहां से रामदल में वापस चल देना ठीक होगा।
वे रावण से बोले ‘‘ लंकेश, मैं चलता हूं। अब आपसे लड़ाई के मैदान में ही भेंट होगी।’’
चलते-चलते उन्होंनेअचानक रावण के ऊपर बने झरोखे में देखा तो चौंक गये।वहां उनकी माँ जैसी शक्ल-सूरत की एक बहुत सुन्दर महिला बैठी थी। वे समझ गये कि ये महारानी मंदोदरी हैं। अंगद ने उन्हे प्रणाम किया और बाहर की ओर कदम बढ़ा दिये।
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