उपन्यास
किस्सा लोकतंत्र: विभूतिनारायण राय
लोकतंत्र का कच्चा चिट्ठा बताती एक उम्दा कहानी
हिन्दी उपन्यास का वर्तमान काल उपन्यास के पुनरोदभव का काल कहा जा सकता हैं, पिछले कुछ बरसों में ही हिन्दी में अनेक संभावनशील लेखकों की रचनाएँ सामने आई हैं,। इन लेखकों ने अपना सर्वश्रेष्ठ सृजन यानि बेस्ट उपन्यास के रूप में पाठकों को सौंपा है, ऐसे लेखकों में गोविन्द मिश्र, उदयप्रकाश, स्वयं प्रकाश, विभूतिनारायण राय, मैत्रेयी पुष्पा, वीरेन्द्र जैन, गिरराज किशोर, भगवान सिंह, पुन्नीसिंह, गीताश्री , जयनंदन , एवं सुरेन्द्रवर्मा के नाम प्रमुखता से लिया जा सकता हैं। इन लेखकों के पिछले दिनों छपे उपन्यासों में मुझे चांद चाहिए, ढाईघर, पाही घर, डूब, अपने-अपने राम, शहर में कर्फ्यू, इदन्नमम, पाथर घाटी का शोर तथा माई के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते है। विभूतिनारायण राय का नाम उनके सूक्ष्म प्रामाणिक विवेचन और जीवंत लेखन के लिए जाना जाता है, उनका पिछला उपन्यास ‘शहर में कर्फ्यू बड़ा प्रभावशाली, रोचक, शानदार और चर्चित उपन्यास था। जिसको लिखने में विभूतिजी ने जहाँ अपने सुदीर्घ अनुभव, दूरदृष्टि, विशाल विजन, बड़े परिश्रम और समझदारी से काम लिया था वहीं उनकी कमाल की कमल उस गाथा को एक शास्त्रीय ग्रंथ में तब्दील करने में समर्थ रही थी । वर्तमान युग की गन्दी राजनैतिक सच्चाइयों को एक बार फिर हिन्दी पाठकों के समक्ष लाने का प्रयास उन्होंने अपने नए उपन्यास ‘किस्सा लोकतंत्र ’ में किया है।
इस उपन्यास की कथा में एक छिछोरे अपराधी के जीवन की साधारण से असाधारण होने की कहानी अर्थात अपराधी से राजनैतिज्ञ बन जाने तक के विकास की कहानी समाहित है, कहानी का चरम बिन्दु नायक का नेता के रूप मे मान्यता पा जाने का क्षण हैं। उपन्यास की कथा की शुरूआत में पी. पी. उर्फ प्रेमपाल यादव की प्रेस कान्फ्रेंस होती है । यह कान्फ्रेंस पीपी ने खुद के राजनीति मे प्रवेश को घोशणा और चुनाव लड़ने का फैसला लिये जाने के वास्ते बुलाई हैं। यह कुछ असाधारण किस्स की ऐसी प्रेस कॉन्फ्रेंस है, जिसमें अजीब से सवाल और अजीब से जवाब दिये जाते हैं, अंत में पी. पी. उर्फ प्रेमपाल यादव का दो पत्रकार से झगड़ा होता है और वे लोग बचबचा कर किसी तरह वहां से खिसक जाते हैं । यहां से उपन्यास आकार पाने लगता हैं,। बचपन में यमुना के खादर में अवैध शराब चुराने - बेचने के ध्ंाधे से जीवन शुरू करने वाले पीपी का यहां से लेकर राजनैतिज्ञों को अपराधिक संरक्षण देने तक का उपन्यास में आया विस्तृत और रोचक इतिहास उसे एक नेता बनने के लिए उम्दा पृष्ठभूमि प्रदान करता है,यानि एक नेता में जो गुण व उसके चरित्र का जो इतिहास चाहिये होता है वह पी पी में मौजूद है। उपन्यास की कथा प्रवाह के चलते बहुत कुछ घटता है और अंत में पाठक पाता है कि तब तक पी. पी. उर्फ प्रेमपाल यादव नेता का बाना धारण कर चुका है। खुद चुनाव लड़ने का निर्णय कर वह एकाधिक पार्टियों से टिकट देने की बात चलाता है फिर अंततः एक पार्टी का टिकट भी पा जाता है। नामांकन फार्म भरने के लिए जा रहा जुलूस उपन्यास का अंतिम हिस्सा है, जिसमें उसे पत्रकार बागी का विरोध सहन करना पड़ता है, यहीं उपन्यास का अंत हो जाता है। कथा के अंत में पत्रकार द्वारा संघर्ष जारी रखने की घोषणा की जाती है , ऐसी घोषणा के द्वारा विभूति जी ने वर्तमान के ऐसे अपराधी राजनीतिज्ञों पर नियंत्रण रख पाने में समर्थ मात्र चौथे खम्भे प्रेस की अप्रत्यक्ष मौजूदगी की भविश्य की संभावना की ओर संकेत किया है और जन सामान्य को पत्रकारिता के अजेय व ताकतवर होने का सशक्त संदेश दिया है।
इस उपन्यास ने एक बार फिर भारतीय प्रजातंत्र और उसकी खामियों तथा जनप्रतिनिधियों के बारे में बुद्विजीवियों को सोचने हेतु बहुत से प्रश्र उछाले हैं। दरअसल यह कहानी वर्तमान भारतीय राजनीति के एक बड़े हिस्से का (बल्कि कुछ प्रांतों की सत्तारूढ़ पार्टियों का) कच्चा चिट्ठा है, यानि कि यह कहानी भारतीय लोकतंत्र के विकृत चेहरे को बेनकाब करती हुई अपने नाम ‘ किस्सा लोकतंत्र’ कांे सार्थकता प्रदान करती है।
उपन्यास के लिए आवश्यक तत्व है- मुख्य कथा की सहायता करने वाली गौड़ कथाएं ! यद्यपि ऐसी कथाऐं इस उपन्यास में न के बराबर हैं, लेकिन इसे उपन्यास के बदलते शिल्प का एक लक्षण या विभूति जी का एक अभिवन प्रयोग भी कहा जा सकता है। वैसे उपन्यास के लिए लेखक ने जो विषय चुना है उस विषय का सूक्ष्म विश्श्लेषण पूरी प्रभावशीलता के साथ किया गया है जो कि लेखक के सृजन कौशल्य को प्रगट करता है। हिन्दी समाचार-जगत बल्कि सही कहा जाए तो भारतीय प्रेस का उपन्यास में उपलब्ध खान-पान प्रिय चेहरा अनेक पाठकों को नई जानकारियों से समृद्व करेगा।
अगर इस उपन्यास को उपन्यास के निकष पर परखा जाए तो निस्संकोच कहना पड़ता है कि बहुत मनभावन भाषा और शैली की अच्छाइयों के बावजूद उपन्यास का सम्पूर्ण प्रभाव एक औसत कहानी का प्रभाव ही कहा जा सकता है, सच कहा जाए तो यह रचना एक कहानी को उपन्यास बना देने का एक महत्वाकांक्षी यत्न है। इस उपन्यास का पहला अध्याय ‘किस्सा लोकतंत्र’ अपने आप में एक सम्पूर्ण कहानी है, बाद के अघ्याय की सामग्री तो मात्र इस पहले अध्याय की कथा का विस्तार भर है। यह सच्चाई शायद विभूतिजी ने भी स्वीकार कर ली है, तभी म.प्र. साहित्य परिषद् की पत्रिका साक्षात्कार में पहला अध्याय बजाय उपन्यास अंश के रूप के एक स्वतंत्र कहानी के रूप में प्रकाशित हुआ है।
यदि विभूति जी के पूर्व उपन्यास ‘शहर में कर्फ्यू’ को दृष्टिगत रखते हुए इस उपन्यास का मूल्यांकन किया जाए तो यह उपन्यास बहुत हल्का प्रतीत होता है, प्रस्तुत उपन्यास शिल्प और कथ्य की दृष्टि से कमजोर है। विभूति जी से अभी अनेक संभावनाएँ शेष हैं, वे हमें और अच्छे उपन्यास दे सकते हैं, पर किस्सा लोकतंत्र से हमारी चाहत पूरी नहीं होती, यह कृति हमारी अपेक्षाओं को पूरा नहीं करती, एक कहानी के रूप में यह कथानक तो परिपूर्ण है, लेकिन एक उपन्यास के रूप में यह पाठक को निराश करती है।