mahakavi bhavbhuti - 12 in Hindi Fiction Stories by रामगोपाल तिवारी books and stories PDF | महाकवि भवभूति - 12

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महाकवि भवभूति - 12

महाकवि भवभूति 12

दर्शकदीर्धा से महावीरचरितम्

पद्मावती नगरी में नाट्यमंच की सजावट देखते ही बनती थी। मृण्मूर्तियें से उसकी सजावट युग-युगों की कहानी कह रही थी। पत्थर पर उकेरी गईं प्रतिमायें अपनी अलग ही कहानी प्रदर्शित कर रही थीं। नाग राजाओं के इष्ट देवों की मृण्मूर्तियों से इसे सजाया गया था। भगवान विष्णु की मृण्मूर्ति अपनी अलग ही कथा कहती प्रतीत हो रही थी। शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय तथा मणिभद्र की मूर्तियाँ इतिहास का अपना अलग ही मंतव्य दे रही थीं।

आगन्तुक अपने-अपने स्थान पर उपस्थित हो गये। नगर के राजा वसुभूति भी मंच पर विराजमान हो गये। इसी समय महाराज यशोवर्मा के उपस्थित होने का संकेत वाद्ययंत्र देने लगे। वाद्ययंत्रों ने महाराज के स्वागत में गीत प्रस्तुत किया। अब वाद्ययंत्र नाटक के मंचन की सूचना देने लगे। सभी रात्रि जागरण के लिये तैयार हो गये। भवभूति ने आचार्य शर्मा तथा महाशिल्पी का परिचय करवाया। आचार्य शर्मा महाराज यशोवर्मा से बोले- ‘महाराज की जय हो। महाराज आप जिस नाटक को देखने जा रहे हैं, उसमें अभिनय करने वाले सभी छोटी-छोटी जातियों, नाई, धोबी, धानुक, तेली, बढ़ई आदि के लोग हैं। अभिनय के लिये कठोर श्रम करके इन्हें पढ़ाया-लिखाया गया है। बाद में इन्हें अभिनय का ज्ञान दिया गया है।’

महाशिल्पी वेदराम बोले-‘श्रीमान् हमें लोगों की चेतना जगाने का प्रयास करना चाहिये। फिर देखिए, सामान्य जनजीवन के द्वारा भी किस तरह बड़े से बड़े कार्य किये जा सकते हैं।’

महाराज यशोवर्मा ने इधर-उधर दृष्टि डालते हुये कहा- ‘यहाँ के जंगल बहुत घने हैं।’

यह बात सुनकर आचार्य शर्मा ने उत्तर दिया- ‘हाँ श्रीमान, अब तो लोग जंगलों को काटने लगे हैं। जिससे पर्यावरण का संतुलन ही बिगड़ता जा रहा है। जंगलों का काटना रोका जाना चाहिये। ’

इन दोनों का महाराज यशोवर्मा से वार्तालाप करना राजा वसुभूति को खल रहा था। उनके कान उनकी बातों को सुनने का प्रयास कर रहे थे। वे सोच रहे थे- ये लोग कहीं मेरे बारे में महाराज से कुछ न कह रहे हों। इसी समय भवभूति भी वहाँ आ गये और बोले- ‘आज यह नाटक कन्नौज नरेश महाराज यशोवर्मा की सेवा में ही नहीं बल्कि रामाभ्युदय नाटक के रचनाकार के सम्मान में प्रस्तुत किया जा रहा है।’ यह कहते हुये भवभूति मंचन के लिये मंच के पिछले भाग में चले गये।

इस समय तेज स्वर में वाद्ययंत्रों का बजना प्रारम्भ हो गया था। सारा समुदाय शान्त चित्त होकर बैठ गया। महावीरचरितम् का प्रदर्शन आरम्भ हो गया।

प्रथम अंक:

सूत्रधार- भगवान कालप्रियनाथ की यात्रा उत्सव में आर्य मित्रों ने आदेश दिया है कि महावीरचरितम् का अभिनय हो। इसलिये मैं सूचित करता हँू कि- दक्षिणापथ में पदमपुर नामक नगर है। वहाँ शुद्ध तैत्तरीय शाखा वाले, कश्यप गोत्रीय, अपनी शाखा में श्रेष्ठ, पंक्तिवान पंचाग्नि के उपासक, नियम पालक सोमयज्ञ करने वाले उदुम्बरोपाधि वाले, ब्रह्मज्ञानी ब्र्राह्मण रहते हैं। उसी वंश में उत्पन्न पुज्यनीय वाजपेयानुष्ठायी, स्वनाम धन्य भट्टगोपाल कवि के पौत्र तथा पवित्र कीर्ति नीलकण्ठ के पुत्र श्रीकण्ठ नामधारी- व्याकरण, मींमासा, न्यायशास्त्र के विद्वान महाकवि के नाम से प्रख्यात जातुकर्णी नामक माता के गर्भ से उत्पन्न कवि हमारे मित्र हैं, यह आप जानें।

महर्षियों में अंगिरा की तरह परमहंसों में प्रधान, ज्ञाननिधि जिस कवि के गुरु हैं, उन्होंने वीर तथा अद्भुत रस प्रिय रघुनन्दन का यह चरित लिखा है। विद्वान लोग प्रसन्न हृदय से उसका आनन्द लें।

इसी समय नट ने प्रवेश करके कहा- ‘सभासद स्वीकृति दे रहे हैं किन्तु कथा प्रबंध नया है। अतः कथा प्रवेश पहले जानना चाहते हैं।’

सूत्रधार- विश्वामित्र यज्ञ करेंगे, उन्होंने यज्ञ की रखवाली के लिये राम- लक्ष्मण को लाकर रखा है। कुशध्वज भी निमंत्रण में सीता तथा उर्मिला के साथ यहीं पधारे हैं।

उत्कृष्ट संवाद शैली में कथ्य आगे बढ़ने लगता है। सारी जनता एक चित्त होकर दृश्य देखने में व्यस्त हो जाती है। इतनी विशाल भीड़ के मध्य इतना अनुशासन पद्मावती की धरती को गौरवान्वित कर रहा है। कुशलता पूछने के बाद, कुशध्वज राम-लक्ष्मण का परिचय प्राप्त करके हार्दिक प्रसन्न्ता व्यक्त करते हैं। इसी बीच राम अहिल्या का उद्धार करते हैं। कुशध्वज को राम की महिमा देखकर पछतावा होता है यदि धनुर्भंग की प्रतिज्ञा नहीं की गयी होती तो सीता का विवाह राम के साथ होकर ही रहता।

इसी समय रावण का दूत सीता को मँागने के लिये आता है। उसके प्रस्ताव पर टालमटोल होने लगी। इधर राम ने ताड़का को तलवार की धार से समाप्त कर दिया। रावण को बड़ा खेद हुआ उसने फिर प्रस्ताव भेजा।

राजा जनक तथा विश्वामित्र ने उसे फिर टाल दिया, विश्वामित्र ने राम लक्ष्मण को दिव्यास्त्र दिये। राजा जनक की इच्छा को देखकर विश्वामित्र ने हर चाप मंगवाया और राम से भंग करवा दिया। इस प्रकार चारों भाईयों की शादियाँ जनक तथा कुशध्वज की पुत्रियों से सम्पन्न हो गई। राम ने सुबाहु और मरीच का भी वध कर दिया।

महाराज यशोवर्मा इन दृश्यों को देखकर सोचने लगे- वाल्मीकि रामायण से कई प्रसंग भिन्न ही प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें कवि की अपनी मौलिक कल्पना भी है। इसकी भाषाशैली सहज एवं सरल है। मैं अपने काव्य नाटक रामाभ्युदय से तुलना करके देखता हूँ तो पाता हूँ कि मेरे काव्य में शब्दों की क्लिष्टता है, जिसके कारण जन साधारण की समझ से परे हो गया है। सारा जनसमूह किस तरह एकाग्र चित होकर इसे देख रहा है। क्लिष्टता क्षणिक पाण्डित्य को प्रदर्शित करने में सफल तो हो सकती है लेकिन कालजयी नहीं हो सकती। लोग मुझे चाहे भूल जायें। महाकवि भवभूति को कभी नहीं भुलाया जा सकेगा।

इस सोच को विराम देकर चित्त को उन्होंने फिर से अभिनय, कथ्य, शैली एवं पात्रों की वेशभूषा आदि पर स्थिर कर लिया।

द्वितीय अंक:

मिथिला से लौटकर आये राक्षस ने लंकाधिपति के मंत्री से कहा कि उन्हांेने प्रस्ताव को पुनः अस्वीकार कर दिया है। इससे उसकी चिन्ता बढ़ गयी। यह सोचकर वह शूर्पणखा से राय लेने के लिये गया।

इसी समय परशुराम को पत्र मिला कि दण्डकवासी निशाचर वहाँ के ऋषियों को सताते हैं, उन्हें रोकिये। इस प्रसंग मे ंनिश्चय किया गया कि परशुराम को उकसाया जाय कि वह हर चापभंजक राम का दमन करें।

इधर राम कन्यान्तःपुर में थे। दशरथ आदि राम के अभिभावक मिथिलाधीश के यहाँ आतिथ्य प्राप्त कर रहे थे। इसी समय परशुराम वहाँ आये और अपने गुरु के चापभंजन करने वाले राम को देखने की इच्छा प्रकट की।

महाराज यशोवर्मा सोच में निमग्न थे- ‘वाल्मीकि रामायण में परशुराम को उकसाने वाला प्रसंग ही पृथक है। भवभूति ने परम्परागत कथ्यों को पृथकता देकर एक नया दृश्य ही उपस्थित कर दिया है। प्राचीनकाल की राजनीति कितनी प्रभावी थी। अपनी समस्या के समाधान के लिये दूसरों का किस प्रकार उपयोग किया जाता था। यह बात आज के परिवेश में भी लागू हो रही है। इसी समय अगला दृश्य सामने था।

राम आते हैं। परशुराम को राम के दर्श्रन करने से बड़ी प्रीति होती है। परन्तु वह अपनी प्रतिज्ञा से लाचार है। क्षत्रिय कुल वंश की प्रतिज्ञा दोहराते हुये परशुराम ने राम को भी वध्य कोटि में गिना। इस घोषणा से जनक, शतानन्द आदि को बड़ी पीड़ा हुई। उन्होंने अपने-अपने ढंग से परशुराम को समझाने का प्रयास किया। उनका क्रोध शान्त नहीं हुआ। जनक अस्त्र ग्रहण करने पर तथा शतानन्द शाप देने पर उतारू हो गये। इसके बावजूद परशुराम अपनी बात पर दृढ़ रहते हैं।

आचार्य शर्मा सोच के गहरे सागर में डूबकियाँ लगा रहे थे- राक्षसों को परशुराम की क्षत्रिय कुल संहार की प्रतिज्ञा विदित थी। उन्होंने परशुराम की इस कमजोरी का लाभ उठाया। यह प्रसंग हमारे महाकवि ने बड़ी चतुराई से प्रदर्शित किया है। आज के परिवेश में लोग किसी की कमजोरी का किस तरह लाभ उठाने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार यह तो आज के परिवेश की ही बात कही गयी है।

तृतीय अंक:

परशुराम के क्रोध को शंात करने के लिये वशिष्ठ तथा विश्वामित्र ने उनकी तपस्या आदि की प्रशंसा करके बहुत समझाया। परशुराम ने स्वीकार किया कि आप लोगों के उपदेश मान्य हैं। आप हमारे ज्येष्ठ हैं किन्तु मैं क्षत्रिय कुल वध किये बिना नहीं रुक सकता । राम ने हमारे गुरु का चापभंजन करके अपमान किया है। हाँ राम का वध करने के बाद मैं शांत हो जाऊँगा। परशुराम के कोप को उग्र होते देखकर दशरथ को भी क्रोध आ गया। उन्होंने भी अस्त्र का अवलम्बन करना चाहा। इसी समय राम ने परशुराम के दमन की प्रतिज्ञा सुनायी।

महाशिल्पी सोचने रहे थे- ‘ये ब्राह्मण, अपना वर्चस्व जमाने में लगे हैं। क्षत्रियों को यह सहन नहीं हो रहा है। इसी कारण पद्मावती में गणराज्य की व्यवस्था ध्वस्त हो गयी है। इसी बात को महाकवि भवभूति ने रामायण के माध्यम से जनता के समक्ष रखने का सफल प्रयास किया है। यदि यह बात नहीं है तो विश्वामित्र वाले प्रसंग को इतना विस्तार देने की क्या आवश्यकता है?

चतुर्थ अंक:

पराजित परशुराम तप करने के लिये चले गये। परशुराम की पराजय से राक्षस राज के मंत्री माल्यवान को बड़ी चिन्ता हुई। उसने उपाय सोचना प्रारम्भ कर दिया, जिससे राम को दबाया जा सके। राम के अभ्युदय से उसे भय लगने लगा था। परामर्श के अनुसार शूर्पणखा को मन्थरा का रूप धारण करके मिथिला भेजा दिया।

जब-जब यह प्रसंग महाशिल्पी के सामने आता है, वे सोचने लगते हैं- रूपधारण का चमत्कार दिखाकर महाकवि ने जनसाधारण को अंधविश्वासों की ओर ही प्रेरित करने का प्रयास किया है। योग और तंत्रों के बारे में उनके विश्वास ने ही ऐसे प्रसंगों को स्थान दिया है।

अपने काव्य प्रसंगों से महाराज यशोवर्मा तुलना कर रहे थे। राम के हृदय की कल्पना में वे सरावोर हो गये। उनका अपना काव्य भी प्रत्यक्ष दिखाई देने लगा। शब्द निकले- ‘वाह! महाकवि भवभूति वाह! आपने तो नई-नई कल्पनाएँ देकर इस पद्मावती की धरती को गौरवान्वित कर दिया है। लोग युग-युगों तक तुम्हें भूल नहीं पायेंगे। निश्चय ही एक समय आयेगा जब किसी भावुक की कलम इन सब बातों का लेखा-जोखा अंकित करेगी।

इस समय तो शूर्पणखा कैकेयी की दासी मंथरा बनकर मिथिला आयी है। वह कैकेयी को राजा के द्वारा दिये गये वरदान की बात चलाने लगी। कैकेयी ने एक वर से भरत के लिये राज्य और दूसरे वर से राम को चौदह वर्षों का वनवास माँग लिया। सीता और लक्ष्मण के साथ राम वन को चले गये। उन्होंने अपने साथ आने वाले गुरुजनों को आग्रहपूर्वक लौटा दिया। भरत के बहुत आग्रह करने पर राम ने अपनी स्वर्णमयी पादुकाएँ उन्हें दे दीं, जिन्हें भरत ने नन्दीग्राम में अभिषिक्त कर राज्यकार्य का संचालन किया। राम दण्डकारण्य की ओर बढ़े, वहाँ उन्होंनंे खर-दूषण आदि का वध कर दिया।

आचार्य शर्मा सोच रहे थे- ‘हमारे महाकवि राजनीति की चौसर के महान खिलाड़ी हैं। रावण के मंत्री के माध्यम से महाकवि ने वर्तमान में घटित राजनैतिक परिवेश का स्पष्ट चित्रण कर दिया है। राजा को कितनी दूर दृष्टि रखना चाहिए, इसमें इसका स्पष्ट संकेत है।

पंचम अंक:

रावण ने सीता का हरण कर लिया। सीता की खोज में राम-लक्ष्मण वन-वन भटकते फिर रहे हैं। उसी प्रसंग में जटायु से उनकी भेंट हुई, जिसे रावण ने मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुये छोड़ा दिया। जटायु से सीता की स्थिति की जानकारी प्राप्त करके राम और लक्ष्मण किष्किन्धा की ओर बढ़े। रास्ते में विराघ का वध किया। सुग्रीव से मैत्री हुई। बालि का वध करके राम ने सीता की खोज में वानरों को भेजा। मरते समय बालि ने राम और सुग्रीव की मैत्री में दृढ़ता का बन्धन डाल दिया।

आचार्य शर्मा ने इसकी समीक्षा करते हुये सोच रहे थे- ‘इसमें नया कुछ भी नहीं है। सारा का सारा दृश्य परम्परागत कथ्यों के आधार पर ही रखा गया है।

षष्ठः अंकः

बालि के मरने पर माल्यवान को बड़ी चिन्ता हुई। उसे अपने पक्ष की दुर्बलता प्रतीत होने लगी। उसने प्रयत्न किया कि इसका रावण कुछ उपाय करे, किन्तु रावण ने अपने पराक्रम को अजय तथा सागर को दुस्तर कहकर चिन्ता को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया। राम ने लंका पर चढ़ाई कर दी। राम-रावण सैन्य में घोर युद्ध हुआ। एक-एक करके उसके वीर मरने लगे।

युद्ध में, मेघनाथ द्वारा प्रयुक्त शक्ति से लक्ष्मण मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़े। राम पक्ष में विषाद की घटा छा गई। हनुमान संजीवन बूटी लेने गये। खास जड़ी पहचानने में कठिनाई आने पर वे पर्वत को ही उठाकर ले आये। उस पर्वत की औषधियों की हवा लगने से उन्हें चैतन्य हो आया। राम पक्ष में खुशियाँ मनाई जाने लगी। इसके बाद जो निर्णायक युद्ध हुआ उसमें मेघनाथ और रावण आदि मारे गये। सीता का उद्धार हुआ।

सभी दर्शक शान्त मुद्रा में बैठे नाटक का आनन्द लेते रहे। रात्रि जागरण का पता ही नहीं चला। रात्रि का चौथा प्रहर प्रारम्भ हो चुका था। इधर नाटक का अंतिम अंक भी शेष रह गया था। भोर होने से पहले नाटक का मंचन कार्य समाप्त हो जाये, जिससे भगवान कालप्रियनाथ को मंदिर तक पहँुचाकर यात्रा-उत्सव का समापन यथाविधि हो सके। शायद समय को देखते हुये बिना विश्रांति के वाद्य-ध्वनियाँ अंतिम अंक प्रारम्भ करने का संकेत देने लगी।

सप्तम् अंक:

रावण के मारे जाने के बाद राम ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार विभीषण को लंका का राज बना दिया। विभीषण को राज्याधिकार मिलते ही उसने देव बंदियों को मुक्त कर दिया। सीता ने अग्नि शुद्धि की परीक्षा दी। सीता को साथ लेकर राम ने मार्गवर्ती समुद्र और अन्यान्य स्थानों के परिचय दिये। रास्ते में विश्वामित्र का आश्रम मिला। उनका आदेश हुआ कि शीघ्रातिशीघ्र अयोध्या पहँुचे। अब वे मार्ग में रुकें नहीं। अयोध्या आने पर भरतादि बन्धुओं से मिलने के बाद, वशिष्ठ आदि पूज्य ऋषियों ने राम का राज्याभिषेक कर दिया।

नाटक के अंत में राम के कथनानुसार ‘‘राजा लोग आलस्य छोड़कर पृथ्वी की रक्षा करें। मेघ समय पर बरसे। राष्ट्र सत्य साधकरूप में हो। प्रसाद गुणयुक्त कविता की ओर कवियों की रुचि हो। विद्वान दूसरों की कृतियों का मान कर प्रमोद को प्राप्त करें।’’ सम्पूर्ण मानवता एवं राष्ट्र के लिये यह संदेश सभी के मनों को भा रहा था।

इस अवसर पर महाराज यशोवर्मा ने नाटक के कलाकारों को अंग वस्त्र और उचित मुद्रा इत्यादि देकर सम्मानित किया। इसी समय महाकवि भवभूति ने राजकुमार अनन्तभूति और सुनन्दा के विवाह की स्वीकृति भी प्रदान करदी। जिसे जनसमूह ने मुक्त कण्ठ से सराहा।

नाटक के पूर्ण होते ही बिगुल की ध्वनि ने संकेत दिया। प्रातःकाल हो गया, भगवान कालप्रियनाथ की यात्रा तत्काल शुरू न की गई तो मंदिर तक पहँुचने में अधिक समय हो जायेगा। भगवान कालप्रियनाथ को पुनः उसी पालकी में विराजित करने के बाद तुरही बज उठी। तुरही वाला आगे चलने लगा, उसके पीछे-पीछे लोग चलने लगे।

महाराज यशोवर्मा अपनी सैन्य शक्ति के साथ चलने के लिये हाथी पर विराजमान हो गये। आज वे यात्रा से आगे पहुंँचकर मंदिर में भगवान कालप्रियनाथ की अगवानी करेंगे।

जयघोष के स्वर गूँजने लगे। गायक कीर्तन गाने लगे। सबसे पीछे बातचीत करते हुये लोग बढ़ने लगे। लोगों में नाटक के बारे में चर्चाएँ गर्म थीं। कोर्इ्र कहा रहा था- ‘महावीरचरितम् की कथा वाल्मीकि रामायण की प्रसिद्ध कथा पर आधारित है।’

दूसरे ने अपनी बात रखी- ‘इसमें कुछ परिवर्तन भी कर दिये गये हैं।’

तीसरे ने अपनी बौद्धिक क्षमता का प्रदर्शन करते हुये कहा- ‘राम-वनगमन का प्रसंग मिथिला में ही उठा दिया गया है और कुछ काल के बाद इसी प्रसंग को अयोध्या में उठाया गया है।’

चौथे ने अपनी समीक्षा प्रस्तुत की, बोला- ‘रावण ने बालि को राम के वध हेतु भेजा था, यह बात इसमें नयी है।’

इसी बीच बहन सुमंगला की आवाज सुन पड़ी- ‘माल्यवान की पूरी मंत्रणा भवभूति की दृष्टि है। जो इस नाटक की जान कही जा सकती है। महावीरचरितम् का सम्पूर्ण कथानक माल्यवान को केन्द्रित करके ही रचा गया है।’

अब आचार्य शर्मा ने अपने मन की बात कही- ‘परशुराम कथा का विस्तृत वर्णन इसमें काव्य चमत्कार उत्पन्न करने के लिये ही किया गया है।’

अब भवभूति भी धीरे-धीरे इसी दल के साथ आगे बढ़ रहे थे। वे भी समीक्षकों की तरह ही बोले- ‘इसके काव्यांशों में कुछ बातें अतिसूक्ष्म हैं कुछ अतिस्थूल तथा नाटकत्व के उद्देश्य से रखी गई हैं।’

इसके बाद नाटक की प्रशंसा के अनेक स्वर सुन पड़े। यों रास्ते भर आनन्द की वर्षा होती रही।

महाराजा यशोवर्मा लौटती हुई यात्रा के समय में भवभूति के काव्य का आनन्द ले रहे थे- मानव हृदय के ज्ञान की नहीं अपितु पशु-पक्षियों के हृदय की बात भी कवियों के लिये महत्वपूर्ण होती है।

महाकवि कालिदास ने - ददौ.......(.परिशिष्ट श्लोक-3)

अर्थात् कमल के पराग की गंध जल में मिश्रित होने से हाथी अपनी सूँड के द्वारा जल को पान करता है किन्तु जब उसको स्वाद में कुछ दोष दिखाई देता है तो वह कुछ जल पान कर उसे त्याग देता है।

भवभूति ने भी इसी ओर ध्यान दिया है, कितना स्वाभाविक वर्णन है-

जग्धार्धैर्नवस .......(.परिशिष्ट श्लोक-4)

अर्थात् जल के अंदर जलपुष्प की और कोमल पत्तों की सुगन्ध समा जाती है। वन में रहने वाला हाथी उसका पान कर स्वाद ग्रहण करता है किन्तु दोष दृष्टि आने पर उसे त्याग देता है।

भवभूति ने मनोभाव की पराकाष्ठा ही प्रकट कर दी है -

दिग्धोैमृतेन ............(.परिशिष्ट श्लोक-5)

एक ही दृष्टि को अमृत तथा विष से दग्ध बताकर भवभूति ने मनोभाव की पराकाष्ठा ही प्रकट कर दी है। नेत्रों की दृष्टि के द्वारा ही प्रेम-वैर, अच्छा-बुरा, पालक- मारक अर्थात अमृत- विषके प्रभाव के समान यह हृदय की बात का द्योतक होता है।

वर्णन पक्ष की माधुरी में लिप्त हृदय पक्ष के उज्ज्वल चित्र भवभूति ने जितने प्रकार से चित्रित किये है। वे अन्यत्र मिलना कठिन हैं। महावीरचरितम् में ही आदि से अन्त तक हृदय की सूक्ष्मगत भावनाएँ बड़ी मार्मिकता से प्रस्तुत की गयी हैं।

इसी प्रसंग में राम की मनोदशा का कितना सुन्दर चित्रण किया है। राम पिता की आज्ञा के अनुसार वन जा रहे हैं। भरत से बिना मिले मन मानता नहीं है। राम वियोग से खिन्न भरत को वह देखना भी नहीं चाह रहे हैं।

......और इस छन्द का चित्रण कितना मार्मिक बन गया है -

अपरिष्वज्य .......(.परिशिष्ट श्लोक-6)

अर्थात् भरत से बिना मिले जाने में उत्साह शेष नहीं रह गया है किन्तु हमारे प्रवास के दुःख से व्यथित भरत को देखने की इच्छा नहीं हो रही है।

इतनी सूक्ष्म विवेचना अन्यत्र दुर्लभ है। हम अपनी भाषा को पहचानते हैं। मैं स्वयं कवि हूँ। भवभूति के काव्य रस में सरावेार हो रहा हूँ। इधर सामने कालप्रियनाथ का मंदिर दिख रहा है। कितना भव्य मंदिर है। यह नाग राजाओं के समय की निधि है। इसे सँभालकर रखने की आवश्यकता है। कहीं ऐसा न हो कि कोई आततायी आये और इस धरोहर को ही समाप्त कर दे।

पारा नदी को पार करके अंतिम दल भी इस किनारे पर आ गया। अब शोभा यात्रा मुख्य मंदिर तक पहँुच चुकी थी। बिगुल का स्वर इसकी पूर्णता को सूचित कर रहा था। अब विधि-विधान से भगवान कालप्रियनाथ को पुनः उसी मंदिर में प्रतिष्ठित करने वेदोक्त मंत्र सुनाई पड़ने लगे।

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