Karm Path Par - 81 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | कर्म पथ पर - 81

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कर्म पथ पर - 81






कर्म पथ पर
Chapter 81


मदन और रश्मी पंद्रह अगस्त पर होने वाले जलसे की तैयारी के बारे में ही बात कर रहे थे। जय को देखकर रश्मी बोली,
"आओ भैया... हम दोनों इस साल पंद्रह अगस्त पर होने वाले जलसे की तैयारी के बारे में ही बात कर रहे थे। कौन कौन से कार्यक्रम होने हैं वह तो पहले से ही तय है। बच्चों का अभ्यास भी पूरा है। हम दोनों सोच रहे थे कि इस बार रामपुर के मुखिया जगदीश लाल को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया जाए। वह अपने गांव में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। अब आप बताओ कि हमारा फैसला सही है कि नहीं।"
जय ने कहा,
"जो तुम लोगों ने सोचा है वह सही ही होगा‌। तुम लोग ही निश्चित करो। आखिर अब सब तुम लोगों को ही तो देखना है।"
मदन और रश्मी दोनों ही जय की बात का आशय नहीं समझ पाए। रश्मी ने कहा,
"क्या मतलब है भैया तुम्हारा ? तुम कहाँ जा रहे हो ?"
जय ने उन्हें अपना फैसला सुना दिया। उसका फैसला सुनकर मदन और रश्मी दोनों ही गंभीर हो गए। रश्मी ने कहा,
"भैया एकदम से यह कैसा फैसला ले लिया। सब कुछ ठीक ठाक तो चल रहा है। यहाँ से रहकर भी तो काम किया जा सकता है। फिर अचानक सब कुछ छोड़कर जाने को क्यों तैयार हो गए।"
जय ने जवाब दिया,
"बात तो कई दिनों से मेरे मन में आ रही थी। आज फैसला ले ही लिया। अब तुम और मदन यहाँ की जिम्मेदारी संभालो। मेरे लिए तो यह एक पड़ाव था। पड़ाव पर बहुत दिन नहीं ठहरते। मैं तो फिर भी तुम लोगों के साथ बहुत दिनों तक ठहर गया। पर अब कर्म पथ पर आगे बढ़ने का समय आ गया है।"
मदन जय की बात सुनकर बहुत आहत हुआ था। वह बोला,
"जिस रास्ते पर हम दोनों साथ चल रहे थे अचानक मुझे अकेला छोड़कर तुम आगे बढ़ना चाहते हो। यह कैसा न्याय है।"
जय जानता था कि उसके फैसले की बात सुनकर मदन इसी तरह दुखी होगा। उसने बहुत दिनों तक उसका साथ निभाया था। अब जब वह उसे छोड़कर जाएगा तो उसे शिकायत तो होगी ही। वह मदन को समझाते हुए बोला,
"मैं तुम्हारा दुख समझ रहा हूँ। पर मैं तुमको अकेला कहाँ छोड़ रहा हूँ। अब रश्मी इस राह पर तुम्हारी साथी है। कर्म पथ की कोई एक ही दिशा तो होती नहीं है। वह तो हर दिशा में फैला होता है। तुम कर्म पथ पर अपनी दिशा में बढ़ो। मैं अपने दिशा में कर्म पथ पर चलता हूँ।‌ मंजिल और उद्देश्य तो दोनों का एक ही है।"
मदन ने कहा,
"अगर ऐसी बात है तो फिर रश्मी ठीक ही तो कह रही है। काम तो यहाँ रह कर भी हो सकता है‌। तुम्हें हमसे अलग दिशा में जाने की क्या जरूरत है ? हमारे साथ रहो। अब तक जैसे मिलकर काम करते रहे हैं वैसे ही आगे भी करेंगे।"
रश्मी ने भी मदन का समर्थन करते हुए कहा,
"भैया तुम हमारा मार्गदर्शन अच्छी तरह से कर सकोगे। अकेले हम पता नहीं सही तरह से काम कर पाया ना कर पाएं। तुम हमारे साथ रहो। हमें सही राह दिखाते रहो। सब ठीक रहेगा।"
जय ने रश्मी को समझाया,
"तुम दोनों इस काबिल हो कि यहाँ जो काम चल रहा है उसे सही तरह से आगे बढ़ा सको। तुम्हें मेरे मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं है। पर मेरा जाना जरूरी है। अब मुझे यह देखना है कि जो सपना स्वतंत्रता सेनानियों ने देखा था उसे पूरा करने के लिए हम सही दिशा में बढ़ रहे हैं या नहीं। मेरे भीतर बैठी वृंदा बार बार मुझसे कहती है कि तुम्हें एक जगह नहीं ठहरना है। यहाँ का काम पूरा हुआ। अब आगे जाओ।
जय के मुंह से वृंदा का ज़िक्र सुनकर मदन समझ गया कि अब जय के लिए रुकना कठिन है। उसने पूँछा,
"कहाँ जाने का इरादा है ?"
जय ने माधुरी का लेख दिखाते हुए कहा,
"पहले तो माधुरी से मिलने जाऊँगा। हो सकता है वहाँ पापा के बारे में भी कुछ पता चल जाए। फिर सोचूँगा क्या करना है।"
मदन ने माधुरी का लेख पढ़ा। उसे पढ़कर वह बोला,
"बड़े दृढ़ चरित्र की लड़की है। इतना कुछ सहने के बाद भी हिम्मत नहीं हारी। आज डॉक्टर बनकर अपने पति का सपना पूरा कर रही है।"
रश्मी ने पूँछा,
"पंद्रह अगस्त का जलसा देख कर ही जाएंगे ना।"
"नहीं.... अब और रुकने का कोई फायदा नहीं है। बस तुम दोनों को सूचना देनी थी। अपना सामान साथ लाया हूँ। यहाँ से ही निकल जाऊँगा।"
जय के कंधे पर उसका थैला था। उसमें उसके दो जोड़ी कपड़े और श्रीमद्भागवत गीता की एक प्रति थी। जिसे नित्य पढ़ने का नियम बना रखा था।
मदन ने कहा,
"इतनी जल्दी ?"
"जब जाना ही है तो फिर देर करने का क्या फायदा।"
जय उठकर खड़ा हो गया। मदन ने उसे गले लगा लिया।‌ कुछ देर तक दोनों ऐसे ही खड़े रहे। ‌ दोनों की ही आँखों से आंसू बह रहे थे। रश्मी भी अपने हाथों से अपनी आंँखों को पोंछ रही थी।
जय ने मदन को चुप कराते हुए कहा,
"तुमने मेरा बहुत साथ निभाया है भाई। पर अब मुझे अकेला ही चलना होगा। तुम बस वृंदा की याद में बनाई गई इस पाठशाला को आगे बढ़ाओ।"
मदन ने उसे आश्वासन दिया,
"तुम फिक्र ना करो मेरे भाई। वृंदा पाठशाला का नाम एक दिन देश की प्रमुख पाठशालाओं में होगा।"
जय ने कहा,
"मुझे पूरा यकीन है। फिर अब रश्मी भी तो तुम्हारे साथ है। अब चलने दो। इतने सालों का साथ है। बिछड़ते कष्ट तो होगा। पर यह कष्ट तो सहना ही होगा।"
मदन उसे ठहरने को बोलकर भीतर चला गया। कुछ पैसे लाकर उसके हाथ में देते हुए बोला,
"इन्हें रख लो। काम आएंगे।"
जय ने मना किया,
"हैं मेरे पास। इनकी जरूरत नहीं।"
"तुम्हारे पास पैसे कहाँ टिकते हैं‌‌। सब तो दूसरों की मदद पर खर्च कर देते हो। रख लो रास्ते में काम आएंगे।"
जय ने पैसे अपनी जेब में रख लिए। मदन और रश्मी से विदा लेकर अपने कर्म पथ पर आगे की यात्रा के लिए निकल पड़ा। मदन और रश्मी भींगी आँखों से उसे दूर जाते देखते रहे।

अनवरपुर गांव पहुँच कर जय ने एक आदमी से क्लार्क अस्पताल के बारे में पूँछा‌।‌ वह बोला,
"आइए भैया हम पहुँचा देते हैं। आपको कोई तकलीफ है क्या ? माधुरी दीदी बहुत अच्छी डॉक्टर हैं। एकदम ठीक कर देंगी। यूं समझ लो भैया कि कोई चमत्कारी देवी हैं। हमारे बच्चे को कालरा हो गया था‌। लगता था कि बचेगा नहीं। दीदी के पास ले गया तो एकदम ठीक हो गया।"
वह आदमी रास्ते भर और भी बहुत सारी बातें बताता रहा। अस्पताल के सामने पहुँच कर बोला,
"लो आ गए भैया। दीदी को हमारा राम-राम कह देना।"
वह आदमी चला गया। जय अस्पताल के भीतर पहुँचा और खोजता हुआ माधुरी के कमरे के बाहर पहुँच गया। माधुरी किसी मरीज को देख रही थी। जय अंदर जाकर बैठ गया। उस मरीज से छुट्टी पाने के बाद माधुरी जय की तरफ घूम कर बोली,
"कहिए क्या....."
अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि वह पहचान गई कि सामने उसका जय भैया बैठा है। उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ। वह उठी और जय के सीने से लग गई। उसने पूँछा,
"कैसे हो भैया ? कहाँ रहे इतने दिन ? मदन भैया कैसे हैं ?"
जय ने उसके सारे सवालों का जवाब दिया। उसे पूरी बात विस्तार से बताई। मदन के बारे में जानकर माधुरी बड़ी खुशी हुई। उसने कहा,
"मदन भैया ने तो शादी कर ली। अब तुम कब घर बसाओगे।"
जय ने कहा,
"यह सारा देश मेरा घर है। सब लोग मेरा परिवार हैं। वृंदा तो वैसे भी हमेशा मेरे साथ है। फिर किसी और से शादी कैसे कर सकता हूँ।"
उसने माधुरी की पीठ थपथपा कर कहा,
"तो तुमने स्टीफन का सपना पूरा कर दिया। खुद डॉक्टर बन गई। अब उसके नाम पर यह अस्पताल भी खोल दिया। रास्ते में बहुत चर्चे सुने तुम्हारे। गर्व से सीना फूल गया।"
माधुरी ने जवाब दिया,
"यह सब केवल चाचा जी की मदद से ही संभव हो सका है। उन्होंने ना सिर्फ मेरी मेडिकल की पढ़ाई पूरी कराई। बल्कि यह अस्पताल खोलने में भी मदद की।"
अपने पापा का जिक्र सुनकर जय ने पूँछा,
"पापा कहाँ हैं ? उनकी कोई खबर है ?"
जय के चेहरे से स्पष्ट था कि वह अपने पापा के बारे में जानने को उत्सुक है। उसने जय की बात का जवाब देने की बजाय टेबल पर रखी घंटी बजाई। एक चपरासी आया। वह उससे बोली,
"डॉ. मुनीर से कहना कि वह मेरे भी मरीज देख लें। मुझे जरूरी काम से जाना है।"
माधुरी ने जय को अपने साथ आने को कहा। जय समझ नहीं पा रहा था कि उसके पापा के बारे में बताने की जगह माधुरी उसे कहाँ ले जा रही है। पर वह चुपचाप चला जा रहा था। माधुरी उसके मन का भाव समझ रही थी। पर वह कुछ बोल नहीं रही थी।
दोनों अस्पताल के बाहर कुछ दूरी पर बने मकान के सामने पहुँचे। माधुरी ने बताया कि वह उसी मकान में रहती है।
जय समझनॅ का प्रयास कर रहा था कि माधुरी कर क्या रही है।